Sunday 29 September 2013

वक्त की सीख -

आज वक्त है शहनाई का
शहनाई बजा लीजिये |

आज वक्त है विदाई का
आँसू बहा लीजिये |

आज वक्त है जीने का
आशीर्वाद दीजिए |

आज वक्त है खुशी का
आप भी शामिल हो लीजिये |

आज वक्त है लड़ाई का
कफ़न बांध लीजिये |

 आज वक्त है अंतिम सफर का
थोड़ा कंधा तो दीजिए |

आज वक्त है दुःख का
थोड़ा सा बाँट लीजिये |

आज वक्त है तुम्हारा
तो हमें ना भूलिए |

आज वक्त है बदल रहा
भरोसा ना कीजिये |

 वक्त की धूप-छाँव में
हमें ना तौलिए |

वक्त ही है बलवान
स्वयं पर गुमान ना कीजिये |

आज है तुम्हारा तो
कल होगा हमारा |

यही है वक्त की तकरार
मान लीजिये ||
--००--
||सविता मिश्रा 'अक्षजा'||
२०/११/८९

Saturday 14 September 2013

हिंदी की दुर्दशा -"होता गर चुल्लू भर पानी तो डूब मरते"





हिंदी बोलने में हमें शर्म आती है
अंग्रेजी की गिटपिट खूब भाती है|
अंग्रेजों ने तो हमें स्वतंत्र किया
अंग्रेजी ने हमें गुलाम बना लिया|

माना यह शारीरिक गुलामी नहीं
हमारी मानसिक गुलामी ही सही|
परन्तु, अन्ततः गुलाम तो है ही हम
अंग्रेजी के कोड़े और सह रहे गम|

हमें उस समय स्वयं पर शर्म आती है
जब किसी विदेशी को हिंदी आती है|
अंग्रेजी बोलकर स्वयं पर जो गर्व करते
होता अगर चुल्लू भर पानी तो डूब मरते|
झोपड़ी हो या महल हर जगह अंग्रेजी समायी
अपनी मातृभाषा बोलने में सब को शर्म आयी|

अंग्रेजी हमारे तन-मन में समायी
अंग्रेजी बोल हमने इज्जत कमायी|
हमने स्वयं ही अपने पैरों पर कुल्हाड़ी चलायी
अपनी राष्ट्रभाषा को छोड़कर गुलामी अपनायी|

हिंदी बोलने में हमारी बेइज्जती होती है
जुबान हमारी गुलामी ढोती रहती है|
अंग्रेजी हटाने वास्ते फिर क्रांति को करना होगा
फिर शायद देश भक्तों को बलिदान करना होगा|

हिंदी बोलने पर जो हमें फूहड़ कहें
जाके कहीं चुल्लू भर पानी वो डूब मरें।
उस दिन हम स्वयं को पूर्ण स्वतन्त्र समझेगें
जिस दिन अंग्रेजी छोड़कर हम हिंदी बोलेगें|

एक दिन तो ऐसा अवश्य ही आयेगा
जब हिंदी ही सभी की जिह्वा पर होगा|
आशा ही नहीं घना विश्वास है यह मेरा
हिंदी, हिंदुस्तान एक दिन सम्मान करेगा तेरा।
२२/११/१९८९
+++ सविता मिश्रा +++ #अक्षजा

Thursday 12 September 2013

दिल की बात -



उफ़ अपने दिल की बात बतायें कैसे
दिल पर हुए आघात अब जतायें कैसे !

दिल का घाव नासूर बना
अब मरहम लगायें कैसे
कोई अपना बना बेगाना
दिल को अब यह समझायें कैसे !

कुछ गलतफहमी ऐसी बढ़ी
बढ़ते-बढ़ते बढती ही गयी
रिश्तें पर रज-
सी जमने लगी
दिल पर पड़ी रज को हटायें कैसे !

उनसे बात हुई तो सही पर
बात में खटास दिखती रही

लगा वह हमें ही गलत ठहरा रहें
मानो बातों में हमें नीचा दिखा रहें
उनकी बातें लगी बुरी हमें पर
दिल पर पत्थर रख पायें कैसे !

पत्थर रख भी बात बढ़ायें हम
अपनापन जातयें पर टीस-सी रही
एक मन में लकीर-सी पड़ती गयी
अब उस लकीर को हटायें कैसे
दर्दे दिल समझाता रहा खुद को
पर इस दर्द को मिटायें कैसे !

अपनों ने ही ना समझा हमें
गैरों की क्या शिकवा करें
घमंडी साबित किया हमें
दुःख हुआ दिल को बहुत ही
बताओ हम इस दिल को समझायें कैसे
फिर टूटे हुए दिल को अब बहलायें कैसे !!

सविता मिश्रा 'अक्षजा'

Tuesday 10 September 2013

++क्या बात थी++

तुझे समझना चाहा था मगर
समझ पाती तो क्या बात थी|

कहने को तो अपने थे तुम पर
अपना बना पाती तो क्या बात थी|

भटकते हैं सभी अपने जूनून के चलते
मैं खुद को भटकने से बचा पाती तो क्या बात थी|

मुर्दे हैं जो सभी यत्र-तत्र बिखरे हुए
उन्हें जिन्दा कर पाती तो क्या बात थी|

झूठी फरेबी इस दुनिया में सविता
अपनी बात सच्चाई से रख पाती तो क्या बात थी|

सो रहें हैं जो अपने आँख-कान बंद कर
उन्हें अपनी आवाज से उठा पाती तो क्या बात थी|

प्रभु सुनती हूँ तू हैं हर कहीं, हर किसी में
मैं भी तुझे किसी इंसा में देख पाती तो क्या बात थी|

बहुत कुछ कहना सुनना हैं तुझसे
तुझसे एक बार मैं मिल पाती तो क्या बात थी|

मन्दिरों में ढूढ़ने से अच्छा ओ मेरे भोले
खुद में ही तुझको बसा पाती तो क्या बात थी|...सविता मिश्रा
१३/९/२०१२

Monday 2 September 2013

नन्हीं सी गौरेया की चाह--

बालकविता ...:)

नन्हीं सी गौरेया का

प्रकृति की सुन्दरता देख
मन मचल उठा
फुदकूँ यहाँ-वहाँ
उधम मचाऊँ खूब
माँ के आने तक
पर नन्हीं सी कोमल पत्ती को
अकेला देखकर
मन उसका सिहर उठा

पत्ती भी अकेली
मैं भी अकेली
पड़े ना शिकारी की नजर
इस डर से वह
बहुत ही उदास हुई

ओ नन्हीं पत्ती
तू जल्दी से बड़ी हो जा
और पूरी डंठल में फ़ैल जा
तेरी ओट में फिर मैं छुप सकूंगी
शिकारी से तब शायद बच सकूंगी

माँ जब तक दाना चुगकर
नहीं आती
तू ही तो माँ बनकर
हमें सहलाती और बचाती
ओ पत्ती तू जल्दी से
डंठल के चारों ओर फ़ैल जा
और तनिक बड़ी भी हो जा

तेरी झुरमुट में मैं भी
तेरे साथ लुका छिपी खेलूं
माँ साँझ ढलते ही आयेगी
जब तक माँ आये
तब तक हम दोनों ही
एक दूजे के संग
मस्ती करे और खिलखिलाये |

और धीरे धीरे एक दिन
पत्ती बडी़ भी हो गई
चिडि़या की छोटी सी बच्ची
चैन से शाम होने तक
उसके ओट में सोने लग गई !..सविता मिश्रा

Sunday 1 September 2013

स्वार्थ पूर्ति -


बेटा शादी के चार साल बाद
अपने ही घर आया था
उसे देख माँ फूले नहीं समाई
ढेर सारे पकवान बना लाई |

देख रहा था बेटा उसे बड़े गौर से
फिर प्यार जता बोला उससे ठौर के
माँ ! थक जायेगी इतना क्यों कर रही है ?
आराम किया कर तू अब बूढी हो गयी है
माँ का एक प्यारी सी थपकी देकर कहना
बुड्ढा होगा तेरा बाप !
अभी तो मुझ में हिम्मत है
इन बूढी हड्डियों में अभी बड़ा दम है
तेरे जैसे जवानों पर मैं भारी हूँ
मेहनत से मैं कभी नहीं हारी हूँ |

बस फिर क्या था
बेटे के चेहरे पर आई
एक रहस्यमयी मुस्कराहट
बेटे ने करते-करते भोजन
कहा पिता से छुपाकर घबराहट
आप दोनों रहते हैं यहाँ अकेले
जमाना खराब है ये चिंता क्यों झेले
सदैव हमारा मन रहता है अटका
सशंकित और लगा रहता है खटका
आप दोनों चलिए न हमारे साथ
बेच दीजिये ये सारी जमीन-जायदाद
वहाँ बड़ा-सा तीन कमरों का घर है
आपकी बहू और पोते-पोती भर हैं
अच्छे से आप दोनों वहाँ रहेगें
और हम भी चिंता में नहीं घुलेगें |

बेटा माँ-बाप को घर अपने लाया
उन्हें देख पत्नी का चेहरा उतर आया
नाराजगी जताते हुए वह बोली
उठा लाये क्यों इस महंगाई में
कौन दो को और झेलेगा
बुड्ढे-बुड्ढी की तानाकसी और
टोका-टाकी दिन-रात ही सहेगा |

बेटे ने बड़े प्यार से समझाया
पत्नी को थोड़ा तब समझ आया
आज खुशहाल परिवार है
न कामवाली की चिकचिक
न भोजन-वाली की झिकझिक
आया जो की महत्वपूर्ण है उसे क्यों भूलें
अब तो दादी के गोद में उनके बच्चें झूले |

दोनों नौकरी पर निकल जाते हैं
थके हारे घर आ आराम पाते हैं
प्यार से भोजन करके सो जाते हैं
दो बोल बोलने से भी जी चुराते हैं |

माँ-बाप भी खुश हैं कि
चलो कोई बात नहीं
पोता-पोती के सुख के आगे
इस छोटे से दुःख की औकात नहीं
अपने ही तो कलेजे के टुकड़े हैं
जब तक हिम्मत है किये जाते हैं
एक दूजे की स्वार्थ पूर्ति की ख़ुशी
एक दूजे में ही बाँटकर जिए जाते हैं |

आखिर हमें भी तो नन्हें बच्चों को देख
दुनिया भर की ख़ुशी मिल जाती है
इस ख़ुशी के लिए ही तो
दादी-दादा तरस जाते हैं
थोड़ी से समझदारी से ही
उजड़े घर सँवर जाते हैं ||.

.सविता मिश्रा 'अक्षजा'