Friday 29 August 2014

लगाव (लघुकथा )


"बुढऊ देख रहे हो न, हमारे हँसते-खेलते घर की हालत!! कभी यही आशियाना गुलजार हुआ करता था! आज देखो खंडहर में तब्दील हो गया है|" दीवारों पर पड़ी गहरी दरारें दिखाते हुए बुढ़िया बोली|

"हाँ बुढ़िया, चारो लड़को ने तो अपने-अपने आशियाने बगल में ही बना लिए है! वह भला क्यों यहाँ की देखभाल करते|" गहरी साँस भरता हुआ बूढ़ा बोला |
"साथ रहते तो देखभाल करते न ! चारो तो आपस में लड़-झगड़कर  अलग-अलग हो गये | दीवारों की झड़ती हुई प्लास्टर छूती हुई बोली |

"उन्हें क्या पता उनके माता-पिता की रूह अब भी भटक रही है! यही खंडहर में|" कोने में अपना सिर टिकाते हुए आह भरी |
"हाँ, वे अपने लाडलो के साथ बीते समय को भूलकर, भला कैसे यहाँ से विदा होते! दुनिया से विदा हो गये तो क्या?" लम्बी सी आह भरी बुढ़िया की आवाज गूंजी |
"और जानते हो जी, कल इसका कोई खरीदार आया था, पर बात न बनी चला गया! बगल वाले जेठ के घर पर भी उसकी निगाह लगी हुई थी|"
"अच्छा ! बिकने तो न दूंगा, जब तक हूँss !" खंडहर से गड़गड़ाहट की आवाज गूंज उठी वातावरण में |
"शांत रहो बुढऊ, काहे इतना क्रोध करते हो |"
"सुना है, बड़का का बेटा शहर में कोठी बना लिया है! अपने बीवी  बच्चों को ले जाने आया है ...!"
"हाँ, बाप बेटे में बहस हो रही थी ..! अच्छा हुआ हम दोनों समय से चल दिए वरना इस खंडहर की तरह हमारे भी .....|" ++ सविता मिश्रा ++