Monday 25 May 2015

पगली-

पगली- ऑटो-चालक ने नन्हें-नन्हें बच्चें भेड़-बकरी से ठूँस रखे थे ऑटो में। | पड़ोसी के बच्चे मुदित उसकी नन्ही कली को भी डाल दिया था ऑटो में। तिल रखने की भी जगह न बची थी अब। नन्हा मुदित बैठते ही पसीने-पसीने हो रहा था| परन्तु मधु का ध्यान ही न गया इस ओर कभी भी। सुबह चहकती हुई उसकी कली दोपहर की छुट्टी बाद मुरझाई सी घर पहुँची थी | वह खाना-पीना खिलाकर उसे बैठा लेती पढ़ाने | थकी हारी बच्ची रात में खा-पीकर जल्दी ही सो जाती थी। एक दिन ऐसा आया कि ऑटो में ही कली मुरझा गयी | एक तो भीषण गर्मी, दूजे भेड़ बकरी से छोटे से ऑटो में ठूंसे हुए बच्चें।नन्हा मुदित भी बेहोश सा हो गया था| बड़े-बड़े डाक्टरों के पास रोते बिलखते माता पिता पहुँचे थे| पर सब जगह से निराशा हाथ लगी थी उन्हें| अपनी बच्ची को खोकर उसने सड़क पर अभियान सा छेड़ रखा था ! प्रतिदिन स्कूल के बाहर खड़े होकर उन ऑटो चालको को सख्त हिदायत देते देखी जाती थी, जो बच्चों को ठूँस -ठूँसकर भरे रहते थे| माता-पिता को भी पकड़-पकड़ समझाती थी। समझने वाले समझ जाते थे| पर अधिकतर लोग उसे पगली कह निकल जातें थे । एसपी ट्रैफिक ने जब उसे बीच सड़क पर चलती ऑटो को रोकते हुए देखा, तो पहुँच गये थे उसे डांट लगाने| परन्तु उसका दर्द सुनकर, लग गयेे थे खुद ही इस नेक काम में | आज मधु का सालों पहले छेड़ा अभियान रंग लाया था। 'अधिक बच्चे बैठाने पर ऑटो चालकों को फाइन भरना पड़ेगा ' सुबह- सुबह आज के न्यूज़ पेपर में यह हेडिंग पढ़ मधु जैसे सच में पागल सी होकर हँसने लग पड़ी। कानून के डर ने मधु के काम को बहुत ही आसान कर दिया था | अब नन्हें-नन्हें फूल ऑटो से दोपहर में मुस्करातें लौटेंगे| सोचकर ही मधु मुस्कराकर सिर ऊपर उठा दो बूँद आँसू टपका दी ! जैसे कि अपनी नन्हीं को श्रधांजलि दे रही हो। ======================================
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Friday 15 May 2015

वैटिकन सिटी

"मेरी बच्ची! तू सोच रही होगी कि मैंने इस तीसरे अबॉर्शन के लिए सख्ती से मना क्यों नहीं किया!" ओपीडी के स्ट्रेचर पड़ी बिलखती हुई माँ ने अपने पेट को हथेली से सहलाते हुए कहा।
पेट में बच्ची की हल्की-सी हलचल हुई।
"तू कह रही होगी कि माँ डायन है! अपनी ही बच्ची को खाए जा रही है। नहीं! मेरी प्यारी गुड़िया, मैं उद्धार कर रही हूँ तेरा। इन अहसान-फरामोशों की बस्ती में आने से पहले ही मैं मुक्त कर रही हूँ तुझे।"
पेट के बायी ओर हलचल तेज हुई। लगा जैसे शिशु पैर मार रहा है।
"गुस्सा न हो मेरी लाडली ! क्या करूँ, बेबस हूँ ! और तेरे भविष्य की भी चिंता है न मुझे?
"माँ-माँss.." करुणा भरी आवाज़ आयी।
"क्या हुआ मेरी बच्ची?" माँ बेचैन हो गयी।
"माँआआअ, सुनो न ! देखो तो! तुझे सुलाकर, डॉक्टर अंकल मेरे पैर काटने की कोशिश में लग गए हैं..!"
"ओ मुए डॉक्टर! मेरी बच्ची, मेरी लाडली को दर्द मत दे। कुछ ऐसा कर ताकि उसे दर्द न हो ! भले मुझे कितनी भी तकलीफ़ दें दे तू।"
"माँ मेरा पेट...!"
"ओह मेरी लाडली ! इतना-सा कष्ट सह ले गुड़िया, क्योंकि इस दुनिया में आने के बाद इससे भी भयानक प्रताड़ना झेलनी पड़ेगी तुझे !
मुझे देख रही है न ! मैं कितना कुछ झेलकर आज उम्र के इस पड़ाव पर पहुँची हूँ।
इस जंगल में स्त्रीलिंग होकर जीना आसान नहीं है, नन्हीं गुड़िया।"
"माँ -माँआआआ, इन्होंने मेरा हाथ.!"
"आहss! चिंता न कर बच्ची। बस थोड़ा-सा कष्ट और झेल ले! जिनके कारण तूझे इतना कष्ट झेलना पड़ रहा है, वो एक दिन "वेटिकनसिटी" बने इस शहर में रहने के लिए मजबूर होंगे, तब उन्हें समझ आएगी लड़कियों की अहमियत।" तड़पकर माँ बोली।
"माँsss अब तो मेरी खोपड़ी ! आहss ! माँsssss ! प्रहार पर प्रहार कर रहे हैं अंकल!"
"तेरा दर्द सहा नहीं जा रहा नन्हीं! मेरे दिल के कोई टुकड़े करें और मैं जिन्दा रहूँ! न-न! मैं भी आ रही हूँ तेरे साथ! अब प्रभु अवतार तो होने से रहा। मुझे ही इस पुरुष वर्ग को सजा देने के लिए कुछ तो करना पड़ेगा न!"
"माँSSS!"
"मैं तेरे साथ हूँ गुड़िया...! वैसे भी लाश की तरह ही तो जी रही थी। स्त्रियों को सिर उठाने की आज़ादी कहाँ मिलती है इस देश में। तुझे जिंदा तो रख न सकी किन्तु तेरे साथ मर तो सकती ही हूँ! यही सजा है इस पुरुष प्रधान समाज को मेरे अस्तित्व को नकारने की।"
तभी सुरेश ओपीडी के अंदर बदहवास-सा दाखिल हो गया..!
"सॉरी सर!
  तैयारी पूरी हो गयी है। बाहर रहिये ! आप ये सब देख नहीं पायेंगे।"
"नहीं डॉक्टर! दुनिया में एक और वैटिकन शहर नहीं बनने देना है हमें!
सविता मिश्रा 'अक्षजा'
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Thursday 14 May 2015

पछतावा (लघुकथा )

"बाबा आप अकेले यहाँ क्यों बैठे हैं? चलिए आपको आपके घर छोड़ दूँ|"
बुजुर्ग बोले, "बेटा जुग जुग जियो। तुम्हारे माँ-बाप का समय बड़ा अच्छा जायेगा| और तुम्हारा समय तो बहुत ही सुखमय होगा|"
"आप ज्योतिषी हैं क्या बाबा?"
हँसते हुये बाबा बोले- "समय ज्योतिषी बना देता है। गैरों के लिए जो इतनी चिंता रखे, वह संस्कारी व्यक्ति दुखित कभी नही होता| " आशीष में उनके दोनों हाथ उठ गये फिर से|
"मतलब बाबा ? मैं समझा नहीं| "
"मतलब बेटा मेरा समय आ गया| अपने माँ-बाप के समय में मैं समझा नहीं कि मेरा भी एक-न-एक दिन तो यही समय आएगा| समझा होता तो ये समय नहीं आता|" नजरे धरती पर गड़ा दीं कहकर|
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सविता मिश्रा "अक्षजा'
९४११४१८६२१
 आगरा 
 2012.savita.mishra@gmail.com