"दृश्टि" नामक राजनैतिक लघुकथा अंक में प्रकाशित कथा...सम्पादक -अशोक जैन भैया का आभार

गणपति विसर्जन और जुमे की नमाज़
दोनों ही एक साथ पड़ गए थे| सड़क पर दोनों सम्प्रदायों को आमने-सामने टीवी पर
दिखाया जा रहा था| इस अव्यवस्था को लेकर पुलिस की किरकिरी
होती देख, फोन घुमा दिया एसएसपी साहब ने|
"जय हिन्द 'सर'|"
"'जय हिन्द' वो इलाका
इतना सेंसटिव है| फिर भी सड़क के एक छोर पर नमाज़ पढ़ने करने की
इजाज़त क्यों दे दी गयी ?" एसएसपी साहब गुस्से में
इंस्पेक्टर से बोले|
" सर जी! भीड़ ज्यादा हो गयी थी| मस्जिद में जगह बची ही नहीं थी| अतः डीएम साहबsss
!" इंस्पेक्टर साहब की आवाज़ हलक से निकल नहीं पा रही थी,
अधिकारी के गुस्से के सामने|
"जुलूस को ही थोड़ी देर रोक लेते, नमाज अदा होने तक कम से कम|" राय जाहिर करते
हुए बोले|
"जुलूस में भी भारी तादाद में लोग थे सर|
रोकने से बवाल कर सकते थे|" अपनी समस्या
बता दी इंस्पेक्टर ने|
हल्की-सी भी चिंगारी उठी तो आग की
तरह फैल जायेगी| सख्ती फिर भी तुम सबने नहीं दिखाई | कुछ हुआ तो डीएम साहब तो जायेंगे ही, साथ में हम सब
को भी डूबा के जायेंगे|" चिंता जताते हुए वे गुर्राए|
"चिंता की बात नहीं हैं सर|" वह
आत्मविश्वास से बोला|
"क्यों ? इतना यकीं कैसे
है तुन्हें ? जबकि मालूम है कि हर छोटी बात पर उस क्षेत्र
में दंगा हो जाता है?"
“सर, क्योंकि क्षेत्राधिकारी
मंजू खान सर नमाजियों के साथ और एसपी कबीर वर्मा साहब जुलूस के साथ निरंतर लगे हुए
हैं| और और दूसरे खुशी की बात यह है कि दोनों के ही तरफ,
कोई नेता नहीं दिखाई पड़ा अभी तक|” इंस्पेक्टर
साहब ने स्पष्टीकरण दिया|
"ओह, अच्छा! तब तो चिंता
की कोई बात नहीं है| किसी नेता का वहाँ न होना ही तुम्हारे
यकीं को पुख्ता करता है| फिर भी अलर्ट रहना !" एसएसपी साहब निश्चिन्त होकर
बोले|
"जी सर" उनके माथे का पसीना अब सूखने लगा
था|
सविता मिश्रा 'अक्षजा'
November 1३, 2015 नया लेखन
ग्रुप के चित्र पर लिखी कथा