Monday 9 December 2019

मन की बात ततः किम के साथ (समीक्षा)


बबूल के कांटे-सी चुभती हुई लघुकथाएं

"ततःकिम" (
फिर क्या) संध्या तिवारी की पहली पुस्तक है | जो आजकल की प्रचलित और बहुधा पसंद की जाने वाली विधा लघुकथा को लेकर साहित्य क्षेत्र  में २०१८ अवतरित  हुई है | प्रथम दृष्टया पुस्तक का नाम लुभाता है और लेखिका की भाषा कैसी होगी इसका भी आभास करा देता है | वो कहते है न कि फस्ट इम्प्रेशन बढ़िया पड़ना चाहिए, जिसकी लेखिका ने भरपूर कोशिश की है और लेखक/लेखिका को करनी भी चाहिए। कई मूर्धन्य वरिष्ठ लेखकों से अपनी लघुकथाओं के बारे में लिखवाकर लघुकथा क्षेत्र में अंगद पांव रखने का लेखिका के द्वारा सफल प्रयास हुआ है| उनके बारे में दो लाइन, जब किताब हाथ में पढ़ने को ली तो ऐसे ही दिमाग मे आ गई--

संस्कृत की हैं पंडित बड़ी, तो भाषा का क्यों न हो ज्ञान
कथ्य को करती निरुपित ऐसे, जैसे हों शब्दों की विद्वान|

लघुकथाएँ विसंगतियों को लेकर छोटे रूप में लिखी जानी चाहिए | और अंत में कुछ ऐसी मारक बन पड़ी हों कि इंसान तिलमिला उठे, २०१४/१५ में प्रचलित इस नियम का इस लघुकथा संग्रह में ख़ास ख्याल रखा गया है| अति भावुक व्यक्ति इस संग्रह की दस- पन्द्रह लघुकथाएँ एक बार में नहीं पढ़ सकता है| हमने तो पढ़कर रख दी थी लेकिन फिर लगा कि किसी भी सँग्रह को पढ़कर उसके बारे में दो 
शब्द न कहना अच्छी बात नहीं है| प्यार से भेंट की गयी पुस्तक पर कुछ तो कहना ही चाहिए| जाहिर है दो शब्द कहने के लिए हमें फिर से पढ़नी पड़ी | १५/१६ कथाओं का तो पहले ही सार लिख चुके थे लेकिन फिर बहुतों की अभी हाल ही में लिखे|
इस संग्रह की सभी लघुकथाएँ पाठक को तिलमिलाता हुआ छोड़ देती हैं | सारी लघुकथाएं नकारत्मक/मारक बन पड़ी हैं जिसे पढ़ते हुए सहसा श्री सतीशराज पुष्करणा अंकल जी की बात याद हो आती है कि लघुकथाएँ सकारात्मकता लिए हुए होनी चाहिए | लेखक को सोचना चाहिए कि आखिर वह समाज को दे क्या रहा है| फिलहाल इस संग्रह की हर एक लघुकथा पाठक केे मन मेे बबूूल के कांटे-सी चुभती हैं | एक भी लघुकथा ऐसी नहीं मिली जो दिल को सुकून दे जाए | पढ़ने के बाद पता चलता है कितना जरुरी है विसंगतियो को लेकर कुछ सकारात्मक और कुछ हल्का/फुल्का लिखना भी।

 खैर अब इस संग्रह की लघुकथाओं की बात करते हैं ---
    
‘सांकल’ में छुआछूत का जिक्र करते हुए बेटी माँ को उसकी दोगली नीति से परिचित कराती है| जो की बाल्मीकि स्तोत्र पढ़ती तो है वह लेकिन बाल्मीकि समाज से दूरी बनाए रखना चाहती  है|
‘कठिना’ में मान सम्मान के चलते एक मासूम की जान लेने की कथा है| कथा में साफ-साफ दिखलाया गया है कि रिश्ते के भाई का न तो लड़की से प्रेम था, ना ही तत्क्षण की गलती थी| वह प्यार भितरघात हेतु प्लांट किया गया था| रिश्ते सच में बड़े जर्जर हो चुके हैं आजकल|

‘सीलन’ बेटी की मां और विधवा का सामंजस्य! आह निकल आती है इस मिलान पर |यह सीलन न जाने कब सुखेगी| वैसे बीच में जरा-सा बिखरी सी भी लगी हमें|
‘अंतर’ में अपने और गैर में अंतर साफ दिख जाता है| एक कहावत याद आ जाती है आदमी अपने जाए(बच्चों से) से ही हारता है|

‘आदमी’ में आदमी तो रहा ही नहीं, रोबोट से थे सब|

‘योगमाया’ आदमी जहां से चलना शुरु होता है अंततः पहुंचता भी वहीं है| आंखें खुल जाए तो यह बड़ी अच्छी बात है|

 ‘राजा नंगा है’  राजा भले नंगा हो पर प्रजा नंगी नहीं होनी चाहिए| इस समाज का राजा पुरुष, स्त्री का हाथ क्या! सिर काटने पर आमादा है|

‘क्या नाम दूं’ काला अक्षर भैंस बराबर, और क्या नाम दूं|

 ‘दिल से दिल में’ रहने की काश कोई कला सीख ले तो सारी कायनात मिल ही जाए|

 ‘भंवर’ करप्शन का ऐसा भंवर है जो कागज पर कुछ और, और असलियत में कुछ और ही होता है|

‘क्षेपक’ आदमी कितना भी पढ़-लिखकर बड़ी पोस्ट पर पहुँच जाए लेकिन जातिवाद के जाल से निकल न पाने की सोच पर चोट करती रचना | बेटी की पसंद वाले लड़के पर मुसहर की मोहर लगते ही चमार होते हुए भी पिता अगिया बेताल बन गया | लेखिका के कटाक्ष के तीर सीधे चुभते हैं|

 ‘फाँस’ में सालों की गुलामी की फाँस भीखारी के साथ अंग्रेज के मिस-बिहेवियर से उभर आना अच्छा लगा | पुराना जख्म इतना उभरा कि भीख न देने के हिमायती होते हुए भी सौ रूपये की भीख देकर वहां से उसे हटा देते हैं | कुछ कम  शब्दों  में समेटी जा सकती थी यह|

 ‘किसी भी कीमत पर’
 बाँझ न होने की कीमत यदि मांस का लोथड़ा भी हो तो एक औरत ‘बांझ’ होने का सामाजिक कलंक मिटाने को तैयार हो जाती है| बहुत बड़ी विसंगति है यह समाज की | ऐसे  समाज को चुल्लू भर पानी में डूब मरना चाहिए |

‘ठेंगा’ इस लघुकथा में जमीर को ठेंगा दिखा  दिया गया है| आदमी पेट के लिए कितना गिर जाता है| पता नहीं मजबूर हो जाता है पेट की आग से या फिर....
 भगवान कथा को जोड़ना जरा नागवार गुजरा हमें | लेकिन सबकी अपनी-अपनी मर्जी और लेखन की कला |

‘बेचारे’ वृद्ध घर से निकाले गये या खुद निकलते नहीं है बल्कि उनकी गंदी आदतें भी वृद्ध आश्रम की मंजिल देख लेती हैं|

‘मोह’ में वृद्धा को खाना-कपड़ा-रहना फ्री का लालच मिलता है फिर भी जाने को तैयार नहीं होती है | परिवार के साथ न चलने पर कहती है कि अपना खून अगर मार भी डाले तो छाया में ही डालेगा | पराये तो पराये ही हैं | कहावत के जरिए अपनों से मोह दिखाया गया है| कुछ कहने को और है ही नहीं | मार-डाट आदमी सहता ही अपनों के बीच रहने के लिए है|

‘तोरई बनाम काजू’ दर्द में भी पति अपना मतलब निकालना चाहा | सब्जी के बहाने से स्त्री के दर्द को बयाँ करती कथा|
‘जय हो भारत’ धार्मिक भावनाओं को लाभ उठाना तो भारतीय परंपरा रही है| जय हो भारत|

‘न जाने कितनी मैरीकॉम’ जंजीरों में जकड़ दी जाती हैं| भाई-भतीजावाद और गरीबी दोनों सोने पे सुहागा का काम करती हैं |

‘सदाबहार’ पौधे के नाम से बढ़िया कटाक्ष हुआ है बेटियों को पालने में होती कोताही पर| लड़कियों के लिए आखिर आदमी इतनी जद्दोजहद कहां करता है फिर भी सदाबहार की तरह पल जाती हैं बेटियां|

‘कबाड़’ में लेखिका ने मुसलमानों के द्वारा लव-जिहाद करके लड़कियों को फांसकर उनका चरित्र हनन की घटना पर प्रकाश डाला  है|

‘हूक’ हमें समझ कम आई | लग रहा है जैसे कुछ ज्यादा ही अनकहा/अनसुलझा रह गया है|
(लेखिका से बात करके पता चला कि माँ के अपराध बोध की कथा निहित है इसमें) बीच में
स्वर्गारोही पात्र द्वारा  वार्ता के कारण थोड़ी उलझ गयी थी |

‘छिन्नमस्ता’ देवी को अपने द्वारा कन्या भ्रूण हत्या करके खुद अपने को उन्हीं की जगह देखना, बहुत कुछ कहती है यह लघुकथा|

‘उफ्फ’ में मरने के बाद क्रियाकर्म के नाम पर खूब भोज्य पदार्थ बर्बाद किया जाता है | जीते जी जिसे प्यासा मार दिया| उसी के मरने के बाद इतनी ज्यादा व्यवस्था करने पर चोट करती कथा|

‘चप्पल के बहाने’ भगवान के नाम पर ब्राह्य आडम्बरों पर चोट करती कथा | ‘ईसुर कहाँ नहीं हैं’ सच्चाई तो इसी एक पंक्ति में ही है |
‘खाई’ के बहाने गर्ल्स हॉस्टल की सच्चाई उजागर की गयी है| हास्टल संस्कृति से दूरस्थ अनजान बच्चे जब इसमें रंगते हैं तो अपने मां-बाप को गंवार समझने लगते हैं| दो पीढ़ी के बीच की खाई 
को दर्शाती हुई लघुकथा|

‘बया और बंदर’ में औरत और मर्द का फर्क बताया गया है| औरत बयां की तरह तिनका तिनका इक्कठा करके घर बनाती रहती है और बंदर घर को उजाड़ता रहता है| प्रतिक के माध्यम से बढ़िया लघुकथा |
‘बिना सिर वाली लड़की’ हर कष्ट सहती रहती है | पंच लाइन मारक बन पड़ी है| कष्ट उसे होता है जिनके सिर उग आते हैं | बिना दिमाग की लड़की आदमी को खुश रखने के लिए वह सब करती है जिसमें दिमाग वाली लड़की नहीं करना चाहेगी |
‘अवधि कितनी होगी’ पुरातन और इतिहास की भटकती आत्माओं के द्वारा आज के मानवों के द्वारा किये पाप को गिनाया गया है | प्रेत का कहना कि हम दोनों का प्रायश्चित इतना तो इन मानव का कितना समय बीतेगा प्रायश्चित में | गहरा सन्नाटा छा जाना घोतक है कि इंसानों की मुक्ति की कोई अवधि तय नहीं है | दिनोदिन उनके द्वारा बढ़ते पाप पर चिंता जताई गयी है |

‘वह’ के जरिए उन लोगों का जिक्र किया गया है जो कष्ट सहते रहते हैं इर्ष्या के वशीभूत होकर, लेकिन इर्ष्या का कारण समाप्त होते ही वह संतुष्टि को प्राप्त होते हैं|
 'कुंठा’ में सब कुछ सहते-सहते प्रतिकार रूप में खुद पर देवता आने के ढोंग करके रुख ही पलट गया है| अब सब उसका सम्मान करने लगे थे, उसका अपमान कर रहे थे जो अब तक | सटीक ऊँगली धरी गयी है इस कुंठा पर|
 ‘कब तक’ में यमराज के द्वारा चित्रगुप्त से प्रश्न किया गया कि कब तक भारतीय सावित्रीओं से हारता रहूंगा| पूरी रचना का सार इसी एक ही लाइन में समेट लिया गया है |
‘आरक्षण’ में कमजोर बूढ़ा बाप बेटे के बहानों से त्रस्त होकर आत्महत्या करके भगवान के घर में आरक्षण करा लेता है|
‘उर्वशी’ में पैसों के आगे बिछती उर्वशी के सामने भिखारी ने रुपए बढ़ाकर 
घंटा मांगा तो उसको अपने सारे श्रृंगार फिजूल लगने लगे | रुपए में ही तो बिक रही थी अब तक| लेकिन अब उसे अपने से घृणा होने लगी थी| थोड़े में बहुत कुछ कहती कथा|
 ‘शेखचिल्ली’ के किस्से तो खूब सुने थे पर उसका उपयोग ऐसे करना बढ़िया लगा | बहु बुजुर्ग ससुर के मरने की चाहत करती है लेकिन वह तो डंडा फटकरते हुए अपशकुनी बिल्ली को मारने दौड़ पड़ा है|
 ‘!!!??’ लघुकथा सच में उतनी ही सवाल और शंका उठाती है जितना की शीर्षक में निशान लगा है|
‘पगली’ कुछ खास नहीं लगी| कथानक सच के साथ नहीं खड़ा है सायास कहने भर का प्रयास है | ऐसा लग रहा है जैसे जज निर्णय सुनाने के लिए झूठ की सीढी पर चढ़ा दिया गया है |
‘बाबू’ में बेटा बेटी का फर्क बखूबी दर्शाया गया है| या यह भी कह सकते हैं कि दूसरा बच्चा होने पर पहले की अनदेखी हो ही जाती है| यदि पहली सन्तान लड़की ह टी और ज्यादा ही|
‘आदमकद आइना’ ऐसा कहाँ कोई मिलता है जो रंग-रूप-गुण में जैसा हो वैसा ही उसे अपना सके आईने की तरह |
‘लाक्षागृह’ में एक स्त्री पुरुष की दोस्ती पर हमेशा से प्रश्न चिन्ह रहा है और रहेगा भी | साहित्य का क्षेत्र भी इस मामले से बाहर नहीं है | इसमें एक स्त्री दूसरी स्त्री के चरित्र पर सवाल उठाती है जो आरोप एक स्त्री को लाक्षागृह जैसी यातना देता है |
‘बेताल प्रश्न’ वैश्विक संस्कृति पर सवाल तो उठाती है पर अपनी संस्कृति का भी सम्मान नहीं कर पाती है यह रचना|
‘खरपतवार’ , बिटिया सच में खरपतवार ही तो होती हैं | बिन सहेजे-संवारे बढ़ती जाती हैं|
‘हरी बत्ती’ में शिक्षा विभाग में फैले भ्रष्टाचार को दिखलाया है|
‘जड़’ में पोते की चाहत लिए नयी बहु में न जाने कितने खोट निकाल देती है सास | जिससे की आगे का रास्ता साफ़ हो |
‘रु..’ में भगवान से ज्यादा लाभ वाली और कौन सी दुकान होगी भला | गहरा तंज कसा गया है इसी बहाने से |
 ‘नीलकंठी’ जातिपाति के इतर जाकर जब कभी लड़का-लड़की के बीच प्यार हुआ है तो परिवार वालों ने जहर ही बोया है | इसका शीर्षक बहुत मारक और नविन-सा लगा |
‘छलावा’ ‘कहीं पर निगाहें कहीं पर निशाना’ कहावत को चरितार्थ करती हुई छलावा लघुकथा| व्यंग्यात्मक शैली में प्रतीकों के माध्यम से लक्ष्य पर निशाना साधती हुई | अब ऐसी कोयलों पर निशाना लगे न लगे यह बाद की बात है|
‘अड्ड’ अड्ड नामक लघुकथा भी व्यंग्यात्मक शैली में इशारों इशारों में बहुत कुछ कहती है |

एक साथ ‘अड्ड’ और ‘छलावा’ पढ़कर मशहूर गाना याद आ गया इशारों इशारों में दिल लेने वाले तू ये बता ये हुनर सीखा कहाँ से ! हा हा हा |

‘फिरताऊ’ का कटाक्ष जो गायों के किस्से के बहाने दर्शाया गया है, बढ़िया है|
‘घुनी हुई औरतें’ शीर्षक ही बहुत तीखा है| लेकिन कथा उतनी मारक हमें नहीं लगी| लग रहा है जैसे लेखिका खुद जो कहना चाह रही है शायद वही अपने पात्रों से कहलवा रही हैं | लेखिका के प्रयास पर ही बढ़ती है यह कथा |
‘मवाली’ में डर शायद इतना हावी था कि उसकी नजरें सामने की पथराही नजरों को भाप ना पाईं |
‘थूंक’ कुछ खास प्रभाव नहीं डाल रही| लेकिन पैसा गुरु और चेला तो बता ही गई | आदमी मदद पैसे वाले की ही करता है, भले खून का रिश्ता हो|
‘आज का तथागत’ कुछ लोग इस दुनिया में रम नहीं पाते हैं |स्मैकिए छोटे बेटे की मौत पर मां के शब्दों के बीच कबीर का भजन का बजना सब कुछ समझा देता है| जैसे था वैसे ही बिन ब्याहे चला गया, माँ के इस रुदन से शीर्षक को बल मिल रहा |
‘रानी बिटिया’ पहले संवाद और दूसरा संवाद किसके हैं कुछ ज्यादा ही संकेतात्मक लघुकथा है| शायद हमारी समझ ही कमजोर हो |
‘कौवा हड़वनी’ में प्रचलित कथा के माध्यम से दूसरे की सेवा पर कैसे दूसरे भांजी मारकर बैठ जाते, इस पर कटाक्ष करती लघुकथा|
‘तंज’ में दिखाया गया है कि जब सरकारी सहायता मिलती है तो स्थिति इतनी खराब क्यों है! मुख्य पात्र द्वारा इतनी शब्द पर जोर देना जाहिर करता है कि अधिक ही मिलता है | इसी एक पंक्ति से लघुकथा अपने मंतव्य तक पहुंच पा रही है, हमें ऐसा लगता है|
‘आधी आबादी’ कथानक अपने कथ्य तक पहुंचने से पहले बड़ी बिखरी-बिखरी-सी लगी |
‘दुकान’ के बहाने बीमार मानसिकता पर कुठाराघात किया गया है | बाजारवाद में सब जायज है जैसे आजकल तो|
‘जय हो’ कथनी खांड- सी ही होती है ज्यादातरों की|
 ‘नियति’ इन्सान का अंत तो होना ही है| फूल से लदे पौधे का प्रतिक लेकर बढ़िया लघुकथा बुनी गयी है |
‘थाप’ के बहाने घर में स्त्री की क्या स्थिति है बयां करती है कथा| छोटे से कलेवर में बहुत कुछ कह देती है|
‘झूला’ आह निकल जाती है यह लघुकथा पढ़ते हुए| क्या-क्या न कर्म किए लोग लड़कियों को मारने के लिए| दुर्घटना नहीं ही होती है लड़कियों के साथ | छोटे से कथन में बहुत बड़ा दर्द छुपा है| बेटी को लेकर लोगों की विकृत मानसिकता का प्रदर्शन करती है कथा| वहीं पुत्र को ऐसे सहेजना कि फूलों से भी चोट न लग जाए कहीं| हाय रे समाज में फैले बीमार लोग |
‘दिठौना’ लघुकथा बेहद जानदार बन पड़ी है| सहजता से बहती हुई अंत में चोट करती है कुत्सिक मानसिकता पर|
‘इस अमेरिका की तो...’ दूसरों पर उंगली उठाना आसान है| लेकिन हम अपने आदर्शों की फजीहत करते फिरते हैं | करारा तमाचा है डबल स्टैंडर्ड वाले मानसिकता रखने वाले लोगों पे |
‘हरी बिल्ली’ शीर्षक गजब का है| हरी बिल्ली यानी हरी करारी पांच सौ की नोट मेधावी छात्र का रास्ता काट जाती है जिससे वो नोट देने वालों से पीछे रह जाते हैं | शिक्षा जगत में फैले भ्रष्टाचार पर कुठाराघात करती लघुकथा|
‘जहन्नुम’ पारिवारिक कलह की बढ़िया तस्वीर उतारती है यह लघुकथा | जहां रोज-रोज लड़ाई झगड़ा मारपीट हो वह घर जहन्नुम ही तो है|
‘द अल्टीमेट फाइटर’ अंग्रेजी शीर्षक लेकिन लघुकथा में वही हमारी घिसी-पिटी बीमार मानसिकता पर कुठाराघात करती है |
‘कविता’ कविता में कविता लिखती हुई पात्र के जरिए घर में सब स्त्री का तो है पर घर के दरवाजे की नेम प्लेट नहीं| वह तो सब कुछ होकर भी महत्वहीन है स्त्री |
‘सपने का दरवाजा’ घाटी के घरों के खुले दरवाजे और उस दरवाजे से दूर हो गए कश्मीरी पंडितों पर अच्छी रचना| अपनी जान बचाने के लिए कसम खाने वाला पंडित भी जान जाने के डर से पीछे हट गया| एक लंबा इंतजार करते हुए, यह सोचकर कि जान है तो जहान है| पत्रकार आज भी वह तस्वीर छापकर पंडितों क उनकी कसम की याद दिलाते रहते ..शायद कोई सपने का दरवाजा खुल ही जाए |
‘मैं तो नाचूंगी गूलर तले’ असहिष्णुता पर अच्छी लघुकथा|
‘ढकोसला’ में अपनी स्वार्थ सिद्धि में सारे पारंपरिक रीति-रिवाज रूढ़िवादी लगने लगते हैं | दोगले लोगों पर बढ़िया तंज कसती हुई लघुकथा|
‘अलजेबरा’ खूबसूरत रूप ही जी का जंजाल बनने की कहानी बताती है| तो इस लघुकथा से क्या समझा जाए कि जो रूपवान नहीं होतीं वो बची रहती हैं?

यह ततः किम पूरे 
72 लघुकथाओं का संग्रह है जो दिल में बहत्तर छेद करने में सक्षम है | कई बार में पढ़ी हमने| एक बार में एक साथ ही सभी लघुकथाएँ पढ़ पाना हम जैसे भावुक लोगों के लिए संभव नहीं है| शुक्र है कि हमारी याददाश्त दुरुस्त नहीं है वरना ऐसी कथाएं पढ़कर याद रह जातीं तो रह-रहकर टीस उठती रहती|  किन्तु फिर भी कुछेक लघु कथाएं बड़ी गहरी तक चुभ गईं हैं |
सांकेतिक शैली में लिखी कथाओं को पढ़ने में हम जैसे सामान्य पाठक को थोड़ी मशक्कत करनी पड़ सकती है | कुल मिलाकर लघुकथाओं की भाषा-शैली सब बढ़िया है| कहीं-कहीं कई लघुकथाओं में प्रवाह बाधित हुआ है | लेखिका से हमें कहना है कि एक ही तरीके से लघुकथा लिखने से बचना चाहिए| साड़ियाँ कितनी भी पसंद आये पर एक डिजाइन, इक ही रंग की साड़ियाँ तो अपनी अलमारी में नहीं रखेंगी न | बहुत सी लघुकथाएं आपने दो घटनाओं को लेकर लिखा है | कहीं पौराणिक तो कहीं लोककथा को लेकर | शायद आप समझ जायेगीं हमारा मंतव्य |
फ़िलहाल हमारे समय की लेकिन हम से कहीं आगे मूर्धन्य, मेधावी, वरिष्ठ लघुकथाकार को हृदय के तल से बधाई | दूसरा, तीसरा फिर अनगिनत एकल संग्रह आता रहे और हम उन्हें पढ़कर उनकी विद्वता पर इठलाते रहें |
इक बात और कहनी  - पुस्तक का नाम भले संस्कृत में है लेकिन अंदर हिंदी के शब्द भी सही नहीं लिखे हैं। व्याकरण के नियमो की तबीयत से धज्जियाँ उड़ाई है प्रकाशक  ने। प्रकाशक की इन गलतियों की आंच स्वाभिक है लेखिका पर भी पड़ेगी ही। अपनी लघुकथाओं का मान रखने के लेखिका को फिर से दूसरी किताब छपवानी चाहिए, इन्हीं कथाओं के साथ। ऐसा लग रहा जैसे प्रकाशक आमादा हो कि पैकिंग भले  शानदार कर लो अंदर का सामान तो क्षत विक्षत  ही मिलेगा। लेखिका द्वारा ही लिखी कहानी बया और बन्दर याद आ रही इस समय | पहली किताब होने के नाते इस किताब ने खुशी भले ही दी हो लेकिन सुकून बिल्कुल भी नहीं दिया होगाक्योंकि गलतियों का पुलिंदा है किताब। अच्छी लघुकथाएँ गलत प्रकाशक यानी गलत हाथो में पड़कर क्या से क्या  हो जाती हैं, इस संग्रह को पढ़कर बखूबी समझा जा सकता है। शुक्र है प्रकाशक ने लेखिका के शब्दों औऱ प्रस्तुति को नहीं छेड़ा है। बस यहीं पर लेखिका पर घोर मेहरबानी की है। इसका अहसानमन्द हुआ जा सकता है कि उसने कम से कम लेखिका के ही कलम से निकले शब्द को पढ़वाया। वहां अपना पाण्डित्य बिखरने से प्रकाशक चूक गया शायद। कुल मिलाकर लघुकथाएँ पाठक के हृदय को चीरती हैं तो प्रकाशक की गलतियां पाठक के मन को भेदती हैं, औऱ मुख से अनायास ही निकल पड़ता है कि ये मूर्धन्य लेखिकाआपने किस ओखली में सिर दे दिया! 

मन की बात
समीक्षक- सविता मिश्रा ‘अक्षजा’

Sunday 6 October 2019

सम्पन्न दुनिया

माँ अपनी अटैची में कपड़े ठूँसते हुए बोली -“चल बेटा, अपने पुराने मोहल्ले में। मुझे अब यहां नहीं रहना।”
“क्यों माँ! तुम्हें तो यहां की हरियाली, फलदार पेड़ और उस पर चहकते पक्षी, सुगन्ध बिखराते फूल तो बड़े ही भाये थे।  छोटे से पाण्ड में बत्तखों को देखकर कैसे तुम बच्चों-सी मचल गयी थी।”
“हाँ, लेकिन..”
“जानती हो माँ तुम्हें इस तरह से खुश देखकर पहली बार लगा था कि मैं पापा की जगह खड़ा हूँ, अपनी नौकरी की रकम से इस सोसायटी में  तुम्हारे लिए छोटा-सा फ्लैट लेकर मैंने कोई गलती नहीं की है।”
“नहीं मेरे लाडले, तूने कोई गलती नहीं की। लेकिन...”
“माँ याद है! पवनचक्की को देखकर तुमने कहा था कि चल अच्छा है यहां ये भी है, गर्मी में बिन पंखे के भी नहीं रहना पड़ेगा। फिर आज ऐसा क्या हुआ..?”
“बेटा ! सब कुछ हैं किंतु यहां इंसान नहीं हैं..!”
“हा! हा! हा! क्या माँ! यहां हजारों लोग रहते हैं, बस तुम्हें दिखते नहीं होंगे। पार्क में बैठने की तेरी और उनकी टाइमिंग एक नहीं होगी न!"
“नहीं बेटा! टाइमिंग तो एक ही है परन्तु उनमें इंसानियत नहीं है, सब रोबोटिक्स हैं!
तू लेकर चल मुझे वहीं, जहां एक दूसरे का दुख-दर्द पूछने वाले ढेरों इंसान रहते हैं।”

सविता मिश्रा 'अक्षजा'
आगरा

पेट दर्द

डॉक्टर - “अरे शर्मा जी, आप! आप तो मुहल्ले के स्वस्थ व्यक्तियों में हैं। टहलना/योगा खानपान सब समयानुसार! बताइए, फिर क्या दिक्कत हो गयी आपको?”
शर्मा जी- “डॉक्टर साहब! महीने से पेट में लगातार बेन्तहा दर्द रहने लगा है।”
डॉक्टर - “लीजिए, पाँच दिन की दवा लिख दी है। खाकर फिर आइयेगा दिखाने। इससे नहीं ठीक हुआ तो कुछ टेस्ट करवाना पड़ेगा आपको।”
शर्मा जी- “अरे डॉक्टर साहब, परसो तो पुस्तक मेले में जाना है। आठ-दस दिन उधर ही दिल्ली में मुझे रहना पड़ेगा।”
डॉक्टर - “चार-पांच साल से पुस्तक मेले में दूसरों की खुशियों में शरीक हो रहे हैं। आपकी कोई किताब नहीं आ रही है?”
शर्मा जी - “अरे कहाँ, मेरे साथ के और मेरे बाद के लिखने वाले सभी इस बार भी अपनी-अपनी किताबें लेकर आ रहे हैं । और एक मैं हूँ कि एक भी पाण्डुलिपि अभी तक पूरी नहीं हो सकी।”
डॉक्टर ने अपना लिखा पर्चा उनके हाथ से लेकर फाड़ दिया।
शर्मा जी ने हड़बड़ाकर कहा - “अरे डॉक्टर साहब, दवा! मेरा पेट दर्द !”
डॉक्टर - “आप सिर्फ गर्म दूध के साथ रात में यह लीजिए।”
शर्मा जी पर्ची पढ़ते हुए आश्चर्य से बोले - “हॉर्लिक्स! बादाम!”
मुस्कराते हुए डॉक्टर ने कहा - “हाँ, इसे पीते ही स्फूर्ति के साथ आपका दिमाग ज्यादा तेज काम करने लगेगा और आप अपनी पाण्डुलिपि की सामग्री जल्दी से जल्दी पूरी कर लेंगे। जैसे ही आपकी किताब आने की सम्भावना बनेगी, यकीनन उसी वक्त से आपको पेट दर्द में आराम मिलने लगेगा ।”
शर्मा जी फटी आंखों से डॉक्टर की ओर बस देखते रहे।
--००---
सविता मिश्रा 'अक्षजा'
आगरा , (प्रयागराज) 
2012.savita.mishra@gmail.com
जनवरी २०१९ को लिखी 

Sunday 29 September 2019

वादा

“तुम्हें गिरते देख मैंने पकड़ लिया है, हाथ मत छोड़ना! कसकर पकड़ के रखो वरना तुम गिरे तो मैं भी नष्ट हो जाऊँगी। तुम्हारे सहारे ही तो मैं जमा हूँ, नदियों में, तालाबों में, नलों से होते हुए तुम्हारे घरों में।”
फिसलती चट्टानों से सम्भलकर वह उठ ही रहा था कि उसके कान फुसफुसाहट सुनकर खड़े हो गए।
“अरे! अरे! देखना छोड़ना नहीं, किसी भी हाल में नहीं। पीने-नहाने के लिए मैं चाहिए तुम्हें कि नहीं ! यदि चाहिए तो फिर कसकर पकड़े ही रहना, वरना उँगली भर रह जाऊँगी मैं।”
झरने के नीचे खड़े होकर पानी से खेलते हुए कानों में कोई आवाज़ दुबारा से गूँजी तो वह चारो तरफ चकरबकर देखने लगा। अपने कल-कल को पीछे छोड़ती हुई वही आवाज़ फिर आयी तो वह पानी की ओर हाथ बढ़ाए हुए स्टेच्यु की स्थिति में आ गया।
“भरा-पूरा शरीर था कभी मेरा लेकिन तुम्हारे दादा-परदादा ने कीमत नहीं समझी मेरी। तुम भी उन्हीं के नक़्शे-क़दम पर चलने लगे हो। अब हाथ भर रह गई हूँ, हो सके तो मेरी कीमत समझो और कसकर थामे रहो मुझे। जैसे तुम्हारे बाद भी तुम्हारे बच्चे मेरी उंगलियों को छू सकें, क्यों थामे रहोगे न!”
मूर्तिवत उसने हाँ में अपनी मुंडी हिला दी।
“यदि तुमने भी छोड़ दिया न तो तुम अपने आँसुओं में ही पाओगें मुझे।”
झरने के नीचे खड़ा वह झरने से आते छटाँग भर पानी को देख सोच में डूब गया।
“सुनो, तुम मुझे जीवन दो बदले में मैं तुम्हें जीवित रखूँगी, वादा है ये मेरा।”
सविता मिश्रा 'अक्षजा'
आगरा
29/9/2019 को

Wednesday 25 September 2019

माँ अनपढ़

“क्या कह रही बिटिया ! हमने तो तुम्हें खूब पढ़ाया। हमारे खानदान की कोहू बिटिया ने इतना न पढ़ा है।”
“हाँ अम्मा, तुमने पढ़ाया, लेकिन..!
“हम तो पाँचवी तक बस पढ़े रहे, पर तुम्हें पढ़ाया, जैसे कोई ई न कहें कि जैसे माई वैसेही बिटिया। के कहेस तोहके अनपढ़, बतावअ त, बताई ओहके ...!”
“अम्मा, हम पांचवी में आते ही जैसे तुमका कहते थे न कि अम्मा तुम तो न ही पढ़ाओ हमें! तुमको कुछ न आता, वैसे ही अब..!”
हा हा हा...
“अम्मा, बस करो हँसना, हम पर तो गुस्सा जाती थी । अब वही चीज तुम्हारी नातिन हमसे कह रही है तो उस पर तुम्हें लाड़ आ रहा..!”
“बिटिया, अम्मा लोग कितना भी पढ़ी-लिखी जाए अपने बिटियन के आगे अनपढ़े ही रहिए, हर जुग मा।”
 दोनों माँ ही अपनी अगली पीढ़ी से सिखती-सिखाती उसके पीछे-पीछे चलने लगीं।
--००--

सविता मिश्रा अक्षजा
आगरा
2012.savita.mishra@gmail.com

२३/९/२०१९ को लिखी 

Tuesday 6 August 2019

सुनो पूर्वाग्रही

 370 हटाए जाने के प्रस्ताव एक सदन से पास होने की खुशी में जो हल्के फुल्के हास्य चल रहे हैं शोशल मीडिया पर वह किसी की भवनाओं के साथ खिलवाड़ नहीं है बल्कि अपने अपने ढंग है हंसने बोलने के तरीके हैं उस पर इतनी ज्यादा उथल पुथल उन्हीं के अंदर मच रही जो कि पूर्वग्रह से पीड़ित हैं। 'अक्षजा'
अब इस 370 को लेकर फैलने वाले हास्य को कबड्डी का मैच बताने वाले लेखक को मेरा जवाब---
पूर्वाग्रह से ग्रसित होकर लिखा गया है यह लेख। भाषायी संयम सिखाने वाले लेखक महोदय दूसरे की आहत भावनाओं से खेलकर अपना उल्लू सीधा कर रहे हैं।
ये भाषा संय
मी तब क्यों नहीं बने रहने की सलाह दी जाती जब हिन्दू देवी देवता पर और त्योहारों के दिन फूहड़ हास्य लिखे जाते हैं और असहाय होकर ह्वाट्सएप ग्रुपों में और फेसबुक पर घूमते रहते हैं। उन फूहड़ हास्य के विरोध में  मसीहा बनकर क्यों नहीं उभरते! तब क्यों नहीं दी जाती जब नारी पर खासकर पत्नियों पर हजारों फूहड़ हास्य चलते हैं । और तब क्यों नहीं दी जाती जब सरदारों को निहायत ही मूर्ख बताने वाले हास्य शोशल मीडिया पर धड़ल्ले से चलते हैं...।
तब तो सभी इन सबका समर्थन करने वाले मर्यादित लोग हास्य है यार ! हास्य में लो, गंभीरता से नहीं, कहकर खींस निपोर देते हैं।
यदि महज हास्य बस कुछ लाइनें इन दो दिनों से चल रहीं तो सभी अपना दिल बड़ा करिए सरदारों की तरह और इन हल्के फुल्के हास्य को चलने देकर महज मुस्कुरा लीजिए । इस तरह से लोगों की भवनाओं को भड़काकर जहर मत बोइए...😊सविता मिश्रा 'अक्षजा'

Friday 19 April 2019

'यक्ष प्रश्न' लघुकथा की रचना प्रक्रिया

 
यक्ष प्रश्न 
सविता मिश्रा 'अक्षजा'

"दिख रही है न! चाँद-सितारों की खूबसूरत दुनिया?" अदिति को टेलिस्कोप से आसमान दिखाते हुए शिक्षक ने पूछा।
"जी सर! ढेर सारे तारे टिमटिमाते हुए दिख रहे हैं।"
"ध्यान से देखो! जो सात ग्रह पास-पास हैं, वो 'सप्त ऋषि' हैं! और जो सबसे अधिक चमकदार तारा उत्तर में है, वह है 'ध्रुव-तारा'।”
“जिनकी कहानी माँ सुनाया करती हैं!”
“हाँ वे ही, राजा उत्तानपाद के पुत्र ध्रुव! जिन्होंने अपने अपमान का बदला कठोर तप करके सर्वोच्च स्थान को पाकर लिया |"
"सर! हम अपने निरादर का बदला कब ले पाएंगे? हर क्षेत्र में दबदबा कायम कर चुके हैं, फिर भी ध्रुव क्यों नहीं बन पाए अब तक?" अदिति अपना झुका हुआ सिर उठाते हुए पूछा।
शिक्षक का गर्व से उठा सिर अप्रत्याशित सवाल सुन करके झुक-सा गया।
17/4/2015
सविता मिश्रा 'अक्षजा'
 आगरा (प्रयागराज)  
 2012.savita.mishra@gmail.com  
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रचना प्रक्रिया 

एक फेसबुक ग्रुप में 'चित्र प्रतियोगिता' आयोजित की  गयी थी |  वहां दिए गए चित्र में  एक आदमी एक बच्ची को  से टेलिस्कोप कुछ दिखाने का प्रयास कर रहा  था | उसी  चित्र  को  देखकर चेतन  मन लघुकथा हेतु कथानक चुनने लगा |  अचानक  से  17 April 2015 को उस चित्र को देखकर हमारे दिमाग में ध्रुव तारा आया | जिसके साथ उस विषय में दादी-नानी द्वारा बताई गयी पौराणिक कहानी भी याद आई |  दिमाग में क्लिक हुआ कि लड़कियों के महती कार्य को कहकर हम उनकी होती उपेक्षा और निरादर दिखा सकते हैं | बस फिर क्या था कम्प्यूटर के किबोर्ड पर उँगलियाँ थिरकने लगीं | और अवचेतन मन में छुपा लडकियों के प्रति होता निरादर  'निरादर का बदला' नामक लघुकथा रूप में स्क्रीन पर उतरता गया |
कथोपकथन शैली को अपनाकर अपनी बात को कहना ज्यादा सरल था | जिसके कारण हमने इसी शैली को अपनाते हुए ही अपने अन्तर्द्वन्द को शब्दों में गढ़ा |
पहले ही ड्राफ्ट के साथ यह लघुकथा दो-तीन जगह छपी, जिसमें साहित्य शिल्पी वेबसाइट महत्वपूर्ण है | बाद में २०१८ में मेल में भेजते समय दिमाग ने कहा कि 'निरादर का बदला' से ज्यादा ‘यक्ष प्रश्न’ नामक शीर्षक मेरे विचारों को गति दे रहा है | इस बात के दिमाग में कौंधते ही हमने इसके शीर्षक में बदलाव कर दिया | क्योंकि लगा कि लड़कियों को उनका सम्मान कब मिलना, पूछना एक ‘यक्ष प्रश्न’ ही है, जिसका जवाब न अब तक मिला है और न ही शायद आगे भी कभी मिलेगा | साथ ही हमने इसके  वाक्य-विन्यास और अशुद्धियों को सही  किया | यानी की दूसरे ड्राफ्ट में ही यह  कथा वर्तमान स्वरूप  को प्राप्त  हुई |
 इसको सही करने या शीर्षक बदलने में  हमने  किसी की भी सलाह का सहारा नहीं लिया  |
आज २९/१०/२०२० को वाक्यविन्यास में थोड़ा परिवर्तन किया |
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Monday 4 February 2019

पारखी नज़र

"आज मेरा चाँद मुरझाया है, थक गयी हो क्या ?" ऑफिस से आते ही पत्नी को देख प्यार जताते हुए रमेश बोला |
"....."
"कहो तो माँ के लिए एक नर्स रख दूँ |"
"नहीं, नहीं ! माँ की सेवा करने में तो मुझे आनन्द आता है |"
"अच्छा जी, फिर क्या बात है ?"
"वह छोटी घर में लड़-झगड़कर अलग फ़्लैट में रहने लगी है ! आज दोपहर में फोन पर सारी बात बता रही थी | मन दुखी-सा हो गया सुनकर |"
"ओह, सूरत और सीरत में कितना फर्क होता है !"
"हु..!"
"लक्ष्मी ! आज तुम्हारे व्यवहार और सेवा भाव से मेरा बिखरा परिवार एक हो गया | लेकिन यह बताओ ! तुम और तुम्हारी बहन में जमीं-आसमां का फर्क कैसे है? वह भरे-पूरे परिवार में गयी थी, पर आज एक ही शहर में सब अलग-अलग रह रहे हैं | और वहीं तुम मेरे साथ रिश्तें में बंधी थी, परन्तु सब पर अपना जादू चलाकर पूरा बिखरा कुनबा जोड़ दिया तुमने | जो बड़ी भाभी पिछले पाँच सालों से जब से लड़कर गयी थीं, पलट कर नहीं आयी थीं | उन्हें भी तुमने इस परिवार में दूध-पानी-सा कर दिया | मेरी सब बहनें भी मिलने-जुलने आने लग गयीं | क्या कोई जादूगरनी हो क्या ?"
बोलता जा रहा था वह अपनी ही रौ में | पत्नी के मुख से एक भी शब्द न सुनकर उसके कंधे पर हाथ रखकर बोला - "सुन रही हो मेरी जान..या..!" 
 एक आडियो गूँजा -
" ‘अपनी शक्ल देखी है आईने में!
‘क्यों ? मेरी शक्ल को क्या हुआ ! अच्छी भली तो हूँ |
'मेरी किस्मत खराब थी जो तू मुझे मिली, उस लंगूर को तेरी बहन | जो कितनी खूबसूरत है, काश वह मुझे मिल जाती, तो मेरी जिन्दगी संवर जाती '|"
"भूल जाओ न मेरी रानी, वह पुरानी बात |"
"क्या करूँ ! तुम प्रेम में बहुत बीमार हो जाते हो तो यह कड़वी डोज देनी पड़ती है मुझे |" कहकर खिलखिला पड़ी लक्ष्मी |
"वह मेरी नादानी थी | मैं उसके शारीरिक सुन्दरता पर मुग्ध हो उठा था | तुम्हारी आँतरिक सुन्दरता तो माँ ने देखा, तभी तो तुम्हें इस घर की बहू बनाकर वह ले आयीं |"
"हाँ, तुमने तो मुझे ठुकरा ही दिया था | माँ के कारण ही तो आज मैं तुम्हारे दिल पर राज कर रही हूँ !" बोलकर मुस्काते हुए वह चल दी माँ के कमरे की ओर |
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सविता मिश्रा 'अक्षजा'
3 January 2017