Friday 27 April 2018

तीसरा (लघुकथा)

कथानक चोरी को लेकर शोर-शराबा पहले भी होता रहा था, अब भी हो रहा है। यह सब देखकर मेरा मन बहुत व्यथित होता रहा। अक्सर सोचती हूँ कि आखिर ऐसा क्यों करते हैं लोग।
पहले लेखक का इल्ज़ाम था कि मेरी कथा की आत्मा चुराई गयी है। दूसरा कथाकार चोरी करने की बात से मुकरता हुआ उसे अपना मूल कथानक बता रहा था।  
कथा चोरी की उस विवादित पोस्ट पर टिप्पणियाँ पीले पत्ते की तरह टपक रही थीं। लेकिन उसमें पीड़ित को न्याय दिलाने का कोई उपक्रम नहीं था। सब अपनी-अपनी कथा की चोरी का बही-खाता लिए हुए ही पेश हुए थे। तवा गरम था। रोटियां सिंकती जा रही थीं । रोटियाँ सेंकने वाले हुनरमंद हाथ मंद-मंद मुस्करा रहे थे। कई लोग मूक दर्शक बन हँस रहे थे। कई अपने-अपने खेमे के लिए सिपाही तड़ रहे थे। वहाँ ख़ेमेबाजी भी किसी से छुपी नहीं थी।

वहाँ दिखने वाले कई हाथों में नमक ही था, मरहम लगाने वाले हाथ वहाँ से गायब थे।

इसी गहमागहमी के बीच अचानक एक जादुई टिप्पणी हुई - "नवांकुरों! तुम सब जिन कथाओं को लेकर आपस में लड़ रहे हो! दरअसल वो कथाएं तो कथाएं हैं ही नहीं।"
अब चारो तरफ असीम शान्ति छा गयी। उन सब लिख्कड़ों को लगा कि कोई उनके हाथों से उनकी कलम को छीन लिया हो।  अब उसी से अपनी लेखनी को चमकवाने की चाह में सब बदहवास से उस जादूगर के पीछे हो लिए। जादूगर मुस्कराता हुआ मौन धारणकर अपनी नई कथा के जन्म की तैयारी में लग गया।

बाहर प्रांगण में ''मेरी कथा बनी! मेरी कथा हुई क्या?'' का  स्वर कोलाहल कर रहा था। लेकिन शब्दों के जादूगर ने दो शब्द हवा में उछालने के बाद से अपना मौनव्रत नहीं तोड़ा तो नहीं ही तोड़ा। 
रह-रहकर उठते शोर-शराबे और चुप्पी के मध्य कोई मेरे कान में फुसफुसाया - "फेसबुक की पोस्ट पर दो बिल्लियों की लड़ाई चल रही। और बंदर फायदा उठा रहा है।"

मैंने उसे घूरकर देखा और कहा - "उस लड़ाई में एक नहीं बल्कि  मुझे तो बंदरों का झुण्ड फायदा उठाता हुआ दिखाई पड़ रहा है।" 

 #सविता मिश्रा '#अक्षजा'
आगरा (इलाहाबाद)
Savita Mishra
24 April २०१८

1 comment:

कमल नयन दुबे said...

बहुत सुंदर