Monday 11 June 2018

क्षितिज लघुकथा सम्मेलन के लिए इंदौर यात्रा --2

गतांक के आगे...भाग -2

मन में अनजाना-सा डर लेकर अंततः ट्रेन आने का इंतजार शुरू हो गया। ट्रेन देहरादून-इंदौर साढ़े चार बजे आने को थी | देर होते-होते आयी 7:15 पर। पतिदेव एक कांस्टेबल को फोन कर दिए कि डिब्बा देख लें कि किधर लगा है | जैसे कि डिब्बा ढूढ़ने में समय बर्बाद न हो। मथुरा से चलते ही कांस्टेबल ने फोन कर दिया। पतिदेव बिटिया से कहकर सैंडविच बनवा दिए। बिटिया ने बनाकर पैक करके बैग में रख दिया। पतिदेव कैंट स्टेशन पर तैनात अपने मित्र से बात करके पानी-चाय देने के लिए बोल दिए। हम पानी दो बोतल लिए थे, लेकिन उन्हें अंदेशा था कि ट्रेन लेट पहुँचेगी, अतः और पानी को अपने मित्र से बोल हमें हिदायत दी कि ट्रेन से पानी या चाय के लिए उतरना मत। हर हिदायत पर बच्चों-सा हम हामी भरते रहें।
10 मिनट पहले ही कांस्टेबल ने खबर किया तो पतिदेव हमें लेकर घर से चल दिए स्टेशन तक छोड़ने । हमारी सीट पर कांस्टेबल बैठकर अधिग्रहण कर ही चुका था। पतिदेव के साथ स्टेशन पर पहुँचते ही ट्रेन आ गयी। कांस्टेबल बाहर आकर एयर-बैग लेकर अंदर हो लिया । जैसे ही हम अंदर घुसकर  केविन के गेट पर पहुँचे कि शोभना श्याम दीदी दिख गयीं। कई बार मुलाकात हो चुकी थी इसलिए साइड से देखने पर भी पहचान लिए। उन्हें देखते ही अपना डर रफ्फूचक्कर हो गया ।  पतिदेव अपनी सन्तुष्टि के लिए चढ़ लिए थे मेरे साथ, लेकिन ट्रेन चलने को हो गयी तो तुरन्त उतर गए।
हमें कांस्टेबल ने सीट बताकर सामान सीट के नीचे रख दिया। तभी शोभना दीदी उसी केविन में आ गयीं। हमें लगा वाह क्या संजोग है डिब्बे में नहीं बल्कि हम दोनों तो आमने-सामने नीचे वाली ही सीट पर हैं। पतिदेव ने भी पूछा कि जो मिली थी वह वहीं जा रहीं । हमारे हां कहते ही वह चिंतामुक्त होकर बोले तब तो ठीक है न। ध्यान रखना कहकर फोन काट दिया। कैंट पर पानी-चिप्स-और फ्रूटी एक वर्दीधारी दे गए। वर्दी ही काफी थी इसलिए चेहरा देखना जरूरी न लगा। जब ट्रेन चली तो पतिदेव को भी बता दिए कि ट्रेन कैंट से चल दी है और कोई दे गए हैं चीजें। 
ट्रेन चलती रही और चलती रही हम दोनों और एक और महिला की बातें। एक नटखट बच्चा भी ध्यानाकर्षण कर रहा था। टिफिन निकालकर सैंडविच खाया हमने एक दीदी को बढ़ाया एक उस बच्चे को। उधर मिडिल सीट वाली महिला नमकीन ऑफर करीं। लगा कितना भी आदमी डरे लेकिन विश्वास पर फिर भी चलता है। विश्वास पर ही तो चंद घण्टों की मुलाक़ात के कारण ही तो हम चार परिवार एक दूजे की दी हुई चीज खा रहे हैं। 
ट्रेन की केविन काफी गंदी थी लेकिन उसमें बैठे सभी लोगों का स्वभाव अच्छा था। बातों बातों में यह भी अजब संजोग था कि कइयों के नाम उस केविन में s से थे। केविन से ज्यादा गंदा था हमेशा की तरह बाथरूम। लग ही नहीं रहा था कि यह एसी थ्री टियर है। पहले बाथरूम में दो बार जाकर देख चुके थे गंदगी तो दूसरे वाले में चले गए। और कर बैठे गलती। चटकनी बड़ी टाइट थी जिसे हमने लगा तो दिया था लेकिन खुलने में मशक्कत करनी पड़ी। हमारे घबरा जाने के कारण भी शायद नहीं खुल रही थी। ऐसे तैसे न जाने कैसे तो खुली लेकिन अँगूठे को चोटिल कर गयी। उस समय तो हल्का-सा मीठा-मीठा दर्द था। लेकिन घर आने पर पता चला कि नाखून फट गया था |जिसे नेलकटर से काटकर हटाये।
उधर बाथरूम से निकलकर चुपचाप फिर सीट पर बैठ लिए इधर खाना-पीना सबका चला फिर थोड़ी देर बाद में उस बच्चे का परिवार किसी और केविन में बैठ गया। एक लड़की थी जिसे शिवपुरी उतरना था। उस कारण हम मीडियम वाली सीट को खोलकर लेट नहीं सकते थे। वह ऊपर से आकर नीचे बैठी थी। शोभना दीदी के सीट खोल लेने पर वह हमारे ही बगल बैठ गयी थी। जिस ट्रेन को लेट होने के बावजूद दस बजे उस लड़की के स्टेशन पर पहुँच जाना चाहिए था लेकिन नहीं पहुँची। अब-अब करते-करते बारह बज गए। पीट अकड़ने लगी थी क्योंकि घर में ये भी करना वो भी काम करना के चक्कर में आराम न कर पाए थे। शोभना दी तो पसर चुकी थी लेकिन वार्ता में शामिल रही।
तभी बगल वाली महिला ने कहा कि आने वाला है। उसका लगेज काफी था तो हमने कहा गेट के पास रख लो क्योंकि ट्रेन रुकेगी दो मिनट को ही।
बड़ी-सी अटैची, दो तीन छोटे-मोटे बैग। पूछने पर उसने कहा कि कमरा छोड़ दिया इसलिए सारा सामान उठा लाये जो बेचने के बाद बचा। 
उसको अकेली देख हमने उसके साथ उसका सामान गेट तक पहुँचवाया । फिर अकेली लड़की रात में अकेले गेट पर खड़ी रहे, यह बात इस जमाने के अनुसार हजम न हुई इसलिए हमें लगा साथ ही खड़े रहें हम भी। एक से भले दो सही है। 
लेकिन ट्रेन को तो खच्चर बनना था तो बनी। दस मिनट के बजाय आधे घण्टे उसके साथ वही खड़े रहें।  स्टेशन नहीं आना था तो नहीं आया।  गेट खोलने पर हर बार गुप्प अंधेरा दिखता। रुकती भी तो जंगल में। उसने बताया कि उसके पापा और बहन स्टेशन पर खड़े हैं। बच्ची को भी चिंता हो रही थी कि रात में बहन एक घण्टे से स्टेशन पर खड़ी है। हमने उससे कहा बेटा छोटा बैग लेकर और यही छोड़ सीट पर बैठते हैं। 
अततः 1:15 या 1:20 पर ट्रेन पहुँची। वह उतर गई तो मीडिल वाली सीट खुली, हमने नीचे वाली पर अपना विस्तर लगाया और लेटकर सो गए।
सुबह नींद खुली तो चाय की इच्छा हुई। दीदी चाय ले आयी तो हमने भी सोचा पी लें। उनसे पूछा तो उन्होंने कहा दस की दे रहा लेकिन चाय ठीक-ठाक है। हम गेट पर गए तो सामने ही स्टाल थी, उतरकर ले लिए। शोभना दीदी द्वारा दिया बीस का नोट उसे पकड़ाया तो उसने हमें तेरह रुपये लौटाए। दीदी को पूरे पैसे दिए तो वह आश्चर्य चकित हुई। हमें दस में दिया, बगल वाली से पूछा तो उन्हें भी दस में दिया। तुन्हें कैसे सात रुपये में दे दिया। खूब हंसे हम तीनों इसपर। अब यह तो राम ही जाने की उसने किसी को दस और किसी को सात में क्यों दिया। 
बातचीत का दौर फिर शुरू हो गया। गाड़ी खच्चर फिर हो चुकी थी। अंततः हम लोग दस बजे इंदौर के स्टेशन पर पहुँच गए। हमें कुछ करने की जरूरत ही न पड़ी दीदी ने फोन पर सूचित कर दिया था कि 10 बजे तक पहुँच जाएगी गाड़ी।
स्टेशन पर उतरकर जिधर दीदी चली उधर चल दिए। स्टेशन से बाहर निकलते ही सतीश राठी भैया द्वारा भेजी गई कार थी। हम दोनों को न पहचानने की वजह से ड्राइवर बगल में ही खड़ा होने पर भी समझ न पाया । लेकिन दीदी के फोन करने पर वह बोला लाता हूँ गाड़ी। गाड़ी वहीं आयी और हम दोनों को बैठाकर कार्यक्रम स्थल तक पहुंचा दी।
इस तरह अभेद्य किले का अंतिम दरवाज़ा बेधते हुए क्षितिज के मैदान पर सविता ने कदम रख दिया था। यानी की कहाँ जा सकता है जब ठान लो कोई चीज तो सारी कायनात जुट जाती है आपकी इच्छापूर्ति हेतु। हमारे साथ भी यही हुआ। पहले क्षितिज लघुकथा सम्मेलन का समय बढ़ना फिर ट्रेन की सीट येन वक्त पर कन्फ़र्म होकर मिलना, फिर ट्रेन में शोभना दीदी का मिलना । जहां चाह वहाँ राह बनाते हुए हम सम्मेलन स्थल के गेट से अंदर कदम बढ़ा दिए।
 जहां जितेंद्र गुप्ता भैया द्वारा हमें थोड़ा भटकाया गया। लिफ्ट से ऊपर नीचे फिर बाहर हॉल में खड़े हुए तो थकान के कारण पारा हाई होना ही था लेकिन ऐसे बड़े कार्यक्रम में छोटी-छोटी बातें हो जाती हैं सोचकर हम शांत रहें लेकिन शोभना दीदी भड़क गई थीं। खैर 111 कमरा नम्बर जो कि संध्या तिवारी दीदी के साथ शेयर था उसकी चाबी के लिए हॉल से बाहर उन्हें बुलवाकर चाबी उनके द्वारा हमें मिली। कमरे में जाते हम इससे पहले ही राठी भैया की बहू ने नाश्ते की प्लेट पकड़ा दी क्योंकि नाश्ते का समय खत्म हो चुका था। सारा सामान लगभग समेटा जा चुका था। पोहा-साबूदाने के नमकीन लड्डू और जलेबी का नाश्ता करके चाय पी, फिर कमरे में चले गए स्नानादि करके लघुकथा सम्मेलन समारोह में शामिल होने के लिए। जिसके लिए 15 घण्टे का सफर करके आये थे। क्रमशः

3 comments:

kavita verma said...

वाह यात्रा जारी रहे

अशोक शर्मा भारती said...

वाह !
बहुत ही बढ़िया साहित्यिक यात्रा ।
प्रभावित करती है ।
किला तो आपने फ़तह कर ही लिया है ।
हार्दिक बधाई ।
- अशोक शर्मा " भारती "

Niraj Sharma said...

शुक्र है खरामा खरामा पहुँच ही गयीं