Friday 11 February 2022

समीक्षा- रोशनी के अंकुर (लघुकथा संग्रह)

 पुस्तक समीक्षा-                                                                       

समीक्षक- डॉ.दिनेश पाठक‘शशि’  28, सारंग विहार, मथुरा-281006 मोब.-9870631805 ईमेल-drdinesh57@gmail.com

समीक्ष्य पुस्तक-रोशनी के अंकुर (लघुकथा संग्रह) लघुकथाकार- श्रीमती सविता मिश्रा‘अक्षजा’ ISBN: 978.93.89376.45.6

पृष्ठ-152 मूल्य- १५0 रुपये, प्रकाशन वर्ष-2019                                     
प्रकाशक- निखिल पब्लिशर्स एण्ड डिस्ट्रीब्यूटर्स, 37, शिवराम कृपा, विष्णु कॉलोनी, शाहगंज आगरा  

यथार्थ के धरातल पर उपजी, वातावरण को सुगन्धित करने का प्रयास करती लघुकथाओं का संग्रह: रोशनी के अंकुर

हिन्दी, राजनीति शास्त्र और इतिहास में स्नातक, विदुषी साहित्यकार श्रीमती सविता मिश्रा ‘अक्षजा’ ने हिन्दी साहित्य की कहानी, व्यंग्य, कविता, आलेख और लघुकथा आदि विविध विधाओं में अपनी लेखनी चलाई है। 

उनके  लघुकथाओं के संग्रह-‘रोशनी के अंकुर’ में उनकी 101 चुनिंदा लघुकथाओं को समाहित किया गया है। वरिष्ठ लघुकथाकार डॉ.अशोक भाटिया जी ने इस लघुकथा-संग्रह की भूमिका में कहा है कि- ‘इस संग्रह की अधिकतर लघुकथाएँ पारिवारिक धरातल के विभिन्न आयामों को रेखांकित करती हैं साथ ही समाज और राजनीति में व्याप्त विद्रूप पर भी सविता मिश्रा की दृष्टि गई है।

मैंने संग्रह की पूरी 101 लघुकथाओं को पूरे मनोयोग से पढ़ा है और मैं कह सकता हूँ कि संग्रह की लघुकथाओं का फलक बहुत विस्तृत है। इसमें पुरानी पीढ़ी और नई पीढ़ी के तुलनात्मक अन्तर को भी देखा जा सकता है तो शिक्षा के महत्व को भी दर्शाने का पूर्ण प्रयास परिलक्षित होता है। दहेज के कोढ़ की ओर भी एक-दो लघुकथा इशारा करती नजर आती है तो नारी जागृति की बात करते कई लघुकथाएँ नजर आती हैं। दाम्पत्य जीवन के खट्टे-मीठे अनेक अनुभवों पर संग्रह में कई लघुकथाएँ हैं तो धर्म और पूजा-पाठ के नाम पर रचते ढोंग को नकारती लघुकथाएँ सविता मिश्रा जी की लेखनी से निसृत हुई हैं।

नारी सशक्तिकरण, नारी उत्पीड़न, नारी का महत्व और नारी उद्धार सम्बन्धी लघुकथाएँ भी अपने प्रभावशाली प्रस्तुतीकरण के कारण उत्कृष्ट लघुकथाएँ बन पड़ी हैं।

वर्तमान युग की देन-‘कैरियर के चक्कर में अविवाहित रहे जा रहे बच्चों की पीड़ा भी लघुकथा के माध्यम से प्रकट की गई है। निष्कर्षतः कहना अतिशयोक्तिपूर्ण नहीं होगा कि श्रीमती सविता मिश्रा जी ने इन लघुकथाओं के माध्यम से जीवन के कोने-कोने को झाँकने का प्रयास तो किया ही है अपनी लघुकथाओं में सकारात्मकता का पुट देकर घर-परिवार और समाज को सुगन्धित करने का प्रयास भी किया है।

गाँव में रह रहे अपने वृद्ध सास-ससुर को सर्वधाम लघुकथा के माध्यम से चारों धाम की संज्ञा देकर सविता जी ने बुजुर्गों के प्रति जो सम्मान प्रकट किया है वह भटके हुए परिवारों के दम्पत्तियों को राह दिखाती नजर आती है। फोन पर बातचीत के दौरान सुमन ने अपनी जिठानी को जब बताया कि  परिवार चारों धाम की यात्रा करके लौटा है तो सुमन से उसकी जेठानी सख्त नाराज हो जाती है और शिकवा करते हुए फोन काट देती है कि सुमन ने उसे चारों धाम की यात्रा पर चलने के लिए क्यों नहीं कहा। वह भी सपरिवार चलती।किन्तु जब जेठानी को चारों धाम के बारे में पता चलता है तो वह चुप लगा जाती है।
थोड़ी देर में सुमन फिर फोन मिलाकर बोली--‘दीदी गुस्सा ठंडा हुआ हो तो सुनिए, आपसे पूछा था मैंने।’
‘‘कब पूछा तुमने? गुस्से में जेठानी बोली।’’
‘महीनेभर पहले ही जब बात हुई थी तभी मैंने आपसे पूछा था कि आप अम्मा-बाबूजी के पास इस गर्मी की छुट्टी में गाँव चलोगी।’’
अब दूसरी तरफ शान्ति फैल गई थी।(सर्वधाम , पृष्ठ-81)

कई मायनों में नई जनरेशन अधिक होशियार है, इस बात को सिद्ध करती संग्रह की लघुकथा-‘माँ अनपढ़’ है तो शिक्षा के महत्व को दर्शाती लघुकथा-‘मात से शह’ तथा ‘कांटों भरी राह’ है। रिश्तों में पैदा होती खटास-‘मीठा जहर’ में तो नारी के नये जाग्रत  रूप को  लघुकथाओं-‘बदलाव, यक्ष प्रश्न, सबक, नशा, हिम्मत, सीमा, मात से शह और कसक में देखा जा सकता है-

जब तक दोनों बिलकुल पास आतीं, गार्ड तब तक बीड़ी से एक लम्बा कस ले चुका था। बीड़ी का धूंआं अन्दर जाते ही , अन्दर का शैतान चेहरे पर विराजमान हो गया। उन दोनों को बगल से जाते देखकर, गार्ड ने बीड़ी के धूंए को उन पर छोड़ दिया।

चेहरा फिर बैक यार्ड की ओर घुमाते समय, उसके मुखड़े पर शैतानी मुस्कान टहल गई।

उधर निढाल नीता, जब बीड़ी के धूंए से प्रभावहीन हुई तो वह फुर्ती से पलटी और गार्ड के बदरंग चेहरे पर खींचकर एक तमाचा जड़ दिया।

जब तक कोई कुछ समझ पाता, वह गुर्राई-‘‘आँखें गार्डी करने में सजग रखो, लड़कियों के बदन नहीं, समझे? यह थप्पड़ सिर्फ आगाह करने के लिए है। आगे से तुम्हारी नजर उठी तो हड्डियाँ तोड़ दूंगी।’’ ( हिम्मत, पृष्ठ-141,142)

आज कल शहरी जीवन यंत्रवत हो गया है। अधिकांश लोग अपनी आपाधापी में अथवा अपने ईगो के कारण एक-दूसरे से कोई सम्बन्ध नहीं रखते। गाँव या विपन्न जन समुदाय जैसा मेल-मिलाप, एक-दूसरे से बातचीत की ललक इन तथाकथित सम्पन्न जनों में दिखाई नहीं पड़ती। इसी बात को सविता जी ने अपनी लघुकथा-‘‘सम्पन्न दुनिया’’ के माध्यम से सहज ही में दर्शा दिया है-

‘नहीं बेटा, टाइमिंग तो एक ही है परन्तु इनमें इंसानियत नहीं है, सब रोबोटिक्स हैं। तू लेकर चल मुझे वहीं, जहाँ एक-दूसरे का दुख-दर्द पूछने वाले ढेरों इंसान रहते हैं।’’ (सम्पन्न दुनिया, पृष्ठ-18)

दाम्पत्य जीवन के उतार-चढ़ाव, दाम्पत्य की समस्याएँ, संदेह, और सुख-दुख अनेक बातों का विष्लेषण, करती, अर्थ प्रदान करती, समस्याओं का हल प्रदान करती और उलझनों को सुलझाती इस संग्रह की लघुकथाओं में आहट, प्यार की महक, कागज का टुकड़ा, तुरपाई, समय का फेर, खुलती गिरहें, हस्ताक्षर और भाग्य का लिखा आदि का उल्लेख किया जा सकता है।

तुरपाई के बहाने माँ के द्वारा बेटी के दाम्पत्य को बिखंडित होने से कैसे सहज रूप से बचा दिया है सविता जी ने प्रशंसनीय है।-

‘‘माँ देखो तो यह धागा कितना उलझ गया है कब से सुलझा रही हूँ सुलझने का नाम ही नहीं ले रहा।’’

दोनों चीजों को लेकर माँ वहीं बैठ गई। धागा सुलझाती हुई वह बेटी पर तिरछी नजर डालते हुए बोली-‘थोड़ा समय देकर अपने और उदय के रिश्ते को सुलझाती तो कब का सुलझ जाता। शादी के दो महीने में ही एक छोटे से झगड़े के कारण अपने रिश्ते को तुमने क्रोधाग्नि के हवाले कर दिया।’
माँ के समझाइश भरे शब्द बेटी के गाल पर तमाचे से पड़ रहे थे। वह तमतमाकर उठी और अपनी अटैची लगाने लगी।
"अब कहाँ जाने की तैयारी है?"
‘‘ससुराल जा रही हूँ। तुम चाहती हो न कि इस धागे की तरह उलझी जिन्दगी जिऊं, फटे कुरते पहनूं, तो यही सही, अब मैं वहीं रहूंगी। भले मुझे कुड बुरा लगे या भला।’’
माँ मुस्कराकर बोली-‘ले, तेरी सूई का धागा तो सुलझ गया। और कुरता भी ठीक कर दिया मैंने।’
बेटी ने कुरते को ध्यान से देखा,छेद पर रफू इतनी बारीकी से हुआ था कि पता ही नहीं चल रहा था।
‘‘मम्मी तुम न आतीं तब तो मैं परेशान होकर इसे काट चुकी होती। कैसे किया तुमने?’’
‘बेटा प्यार और थोड़ी सहनशीलता से बड़ी-बड़ी उलझन सुलझ जाती हैं, क्रोध में तो वही होता है जो तुम करने वाली थीं।’
कुरता पहन बेटी ने माँ के गलबहियां डाल दीं।
माँ बिटिया को पुचकारते हुए बोली-‘ठहर, मैं दामाद जी को फोन करती हूँ, वो खुद आकर तुम्हें ले जायेंगे।’
मंद-मंद मुस्कुराती हुई बेटी ने माँ के गर्दन पर अपनी बांहों का दबाव बढ़ा दियाथा। (तुरपाई पृष्ठ-28)

 इसी तरह की अन्य उत्कृष्ट लघुकथाओं में समय का फेर,खुलती गिरहें,माँ की सीख,चारों धाम और बेटी, आदि कई लघुकथाएँ हैं जो अपनी सकारात्मक सोच के कारण अति उत्कृष्ट लघुकथा बन पड़ी हैं। और जो सिद्ध करती हैं कि श्रीमती सविता मिश्रा जी लघुकथा लेखन में पारंगत रचनाकार हैं।

घर-परिवार, और आसपास के समाज से लिए गये कथानक पर बुनी गई इस संग्रह-‘रोशनी के अंकुर’ की सभी लघुकथाएँ यह आभास नहीं होने देतीं कि यह लघुकथा संग्रह उनका प्रथम लघुकथा संग्रह है। बल्कि विदुषी साहित्यकार श्रीमती सविता मिश्रा ‘अक्षजा’ के घनीभूत अनुभव एवं अनुभूतियों की परिपक्वता, ग्रहणशीलता और पैनी दृष्टि की प्रशंसा को उद्यत करती हैं। भाषा-शैली सहज एवं सरल  आम बोलचाल की भाषा का प्रयोग सविता जी ने किया है।

हिन्दी साहित्य जगत में लघुकथा संग्रह- रोशनी के अंकुर’’ का भरपूर स्वागत होगा, ऐसा विश्वास है।


समीक्षक- डॉ.दिनेश पाठक‘शशि’ drdinesh57@gmail.com

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