Sunday 12 July 2015

~~ऐतवार ~~

"मेरे शरीर का हर अंग मैं दान करती हूँ , बस आँख न लेना डाक्टर |" मरते समय शीला कंपकपाती आवाज में बोली
"आँख !आँख क्यों नहीं , यही अंग हैं जिसकी जरूरत ज्यादा हैं लोगों को |"
"डाक्टर साहब,  ये मेरे पति की आँखे हैं |  मोतियाबिंद के कारण मेरी दोनों आँखें नहीं रही थीं  | हर समय दिलासा दिलाते रहते | हर वक्त मेरी आँख बन मेरे साथ रहतें |शरीर से तो वो मुक्त हो गये मुझसे, पर आँख दे गये |बोले इन आँखों में तुम बसी हो अतः अब ये तुममें ही बस कर तुमकों देखेंगी | इन आँखों को दान कर मैं उनके प्रेम से मुक्त नहीं होना चाहती | तभी मोबाइल बज उठा, ये प्यार का बंधन हैं ....रिंग टोन सुन डाक्टर मुस्करा उठे |
बस इतना ही रहें तो कैसी बनी कथा |
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या ये नीचे लिखा हुआ जोड़ दें तो अच्छा ...कृपया राय भी दे दीजियेगा पढने पर

उठाते ही विदेश में रहने वाले बेटे की आवाज आई- "माँ,मैं आ रहा हूँ ! अच्छे से अच्छे डाक्टर को दिखाऊंगा तुम चिंता न करो | "
"बेटा, आ जा जल्दी , पर अब डाक्टर की जरूरत नहीं |अब ये शरीर इस मोह के बंधन को तोड़ दैविक बंधन में बंधना चाहता हैं |" फोन कटते ही निश्चेत हो गयीं |

3 comments:

सुशील कुमार जोशी said...

दोनो अच्छे हैं ।

सविता मिश्रा 'अक्षजा' said...

आभार सुशील भैया आपका ..सादर नमस्ते

बाल कृष्ण शर्मा said...

भावुक एवं मर्मस्पर्शी......प्रेम और संतुष्टी की पराकाष्ठा
धन्यवाद बहन बहुत ही अच्छी रचना साझा करने के लिए