Sunday 31 January 2016

दाए हाथ का शोर (रंग-ढंग)

चेतन का फेसबुक अकाउंट पुरानी यादों को ताज़ा कर रहा था। आज अचानक उसको वें तस्वीरें दिखी, जो उसने पांच साल पहले पोस्ट की थी। दूसरों की मदद करते हुए ऐसी तस्वीरों की अब उसे जरूरत ही कहाँ थी। उसने उन्हें स्क्रॉल कर दिया।
कभी समाजसेवा का बुखार चढ़ा था उस पर। 'दाहिना हाथ दें, तो बाएं को भी पता नहीं चले! सेवा मदद ऐसी होती है बेटा।' माँ की दी हुई इसी सीख पर ईमानदारी से चलना चाहता था वह।
लोग एनजीओ से नाम, शोहरत और पैसा, सब कुछ कमा रहे थे। और वह, वह तो अपना पुश्तैनी घर तक बेचकर किराये के मकान में रहने लगा था
पत्नी परेशान थी उसकी मातृभक्ति से। कभी-कभी वह खीझकर बोल ही देती थी कि 'यदि मैं शिक्षिका न बनती तो खाने के भी लाले पड़ जातेचेतन झुंझलाकर रह जाता था। उसी बीच उसने गरीब बच्चों को खाना खिलाते, उन्हें पढ़ाते हुए तस्वीरें फेसबुक पर पोस्ट कर दी थी।
यादों से बाहर आ उसने पलटकर फेसबुक पर वही अल्बम फिर से खोल लिया। तस्वीरों को देखकर बुदबुदाया- "सोशल साइट्स न होती, तो क्या होता मेरा। यही तस्वीरें तो थी, जिन्हें देखकर दानदाता आगे आये थे और पत्रकार बंधुओ ने मेरी वाहवाही करते हुए अपने समाचार-पत्र में स्थान दिया था। फिर तो मैं दूसरों को मदद करते हुए  सेल्फ़ी लेता और डाल देता था फ़ेसबुक पर। ये कारनामा फेसबुक पर शेयर होता रहा और मैं प्रसिद्धी प्राप्त करता रहा। उसके बाद पीछे मुड़कर नहीं देखा मैंने।"
"अरे! कहाँ खोये हो जी! कई लोग आएँ हैं।" पत्नी की आवाज ने उसे आत्मग्लानि से उबारा।
"कहीं नहीं! बुलाओ उन्हें।"
"जी चेतन बाबू, यह चार लाख रूपये हैं। हमें दान की रसीदें दे दीजिए, जिससे हम सब टैक्स बचा सकें।" कुर्सी पर टिकते ही बिना किसी भूमिका के सब ने एक स्वर में बोला।
हाँ, हाँ ! क्यों नहीं, अभी देता हूँ।" रसीद उन सबके हाथ में थमा वह रुपयों की गड्डियाँ हाथ में लेकर मुस्कुराया
अचानक माँ की तस्वीर की ओर देखा! आँखे झुकी, फिर लपकर उसने तस्वीर को पलट दिया।
सविता मिश्रा ‘अक्षजा’
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