Wednesday 5 October 2016

स्त्रीत्व मरता कब है

-
जंगलो में भटक-भटककर नक्सली लड़कियाँ थकान से पूरी तरह से टूट चुकी थीं | थोड़ा आराम करना चाहती थीं | भारी कदमो से ऐसे स्थान की तलाश में थीं, जहाँ वो थोड़ी देर बिना किसी भय के आराम कर सकें | तभी एक तरफ से संगीत की मधुर आवाज कानों में पड़ते ही सभी ठिठक गयीं | न चाहते हुए भी वे मधुर आवाज की ओर खींचती हुई चली गयीं | जैसे शहद की ओर मक्खी खिंची चली आती है वैसे ही वो आवाज़ की ओर बढ़ते-बढ़ते गाँव के बीचोबीच आ पहुँची थीं | वहां पहुँचकर एक सुरक्षित टीले पर चढ़कर आव़ाज कि दिशा में निगाहें दौड़ा दीं | दूर एक स्कूल में 'कुछ सुकोमल सुसज्जित लड़कियों को देख' ग्लानी से भर उठी |
उधर सुसज्जित लड़कियां संगीत की धुन पर थिरक रही थीं, इधर नक्सली भेष में वो सभी अपनी स्थिति पर अफ़सोस कर रही थीं।
"देश भक्ति के गीत पर थिरकती युवतियाँ कितनी सुन्दर लग रही है |" उसमें से एक बोली |
"हाँ ! बालो में गजरा, सुन्दर साड़ी, चेहरे पर एक अलग ही लालिमा छायी है इनके |" दूसरी ने हुंकारी भरकर उन नाचतीं हुई लड़कियों को फटी आँखों से देखते हुए कहा |
पहली बोली - "हमें देखो, बिना शीशा कंघी के ! कसकर बांधे हुए बाल, लड़को से ये लिबास, कंधे पर भारी भरकम राइफल, दमन कारी अस्त्र शस्त्र लादे, जंगल-जंगल भटक रही हैं |"
सरगना हुलसकर बोली- "हम भी तो इन्हीं की तरह थे, सुकोमल अंगी-खूबसूरत | किन्तु आज देखो कितने कठोर हो गये हैं | समय ने हम सब में बहुत--सा परिवर्तन ला दिया है | एक भी त्रियोचरित्र गुण नहीं रह गया हम सब में |"
दूसरी ने भी हाँ में हाँ मिला कर कहा- "जिसे देखो हमें रौंदकर आगे बढ़ जाता है | सारे सपने चकनाचूर हो गये | कहने को कोई अपना नहीं इन हथियारों के सिवा |"
उस नक्सली ग्रुप की सबसे छोटी सदस्य ने वितृष्णा से भरकर कहा- "ये हथियार भी तो हमारी अस्मिता की रक्षा कहाँ कर पाए, हाँ खूनी जरुर बना दिए हमें |
सरगना मायूस होकर बोली- "हाँ, अब तो बदनाम ही है नक्सलाईट के नाम से | ये गाँव वाले भी हम सब से डरते हैं | यह क्या जाने असल में डरते तो हम सब हैं इनसे | तभी तो बन्दूक लेकर चलते हैं | छुप-छुपकर रहते हैं जंगलों में कि कहीं हम पर इनकी नजर न पड़ जाये और यह हमारी ख़बर पहुँचा दें पुलिस तक |"
पहली उचटती हुई बोली - "हाँ, सरकार तो हम सब के खून की प्यासी है ही | वह यह थोड़ी देखेंगी कि हमें फंसाया गया है | हमारा अपरहण करके हमें इस दलदल में धकेल दिया गया | और जब बुरी तरह फंस गये, तो इन हथियारों को पकड़ाकर हमें झोंक दिया ! अपनों को ही मारने के लिए | हम सबका शौक थोड़ी था खूनखराबा करना | "
सब के मन की पीड़ा सुनकर सरगना ने आपसी सहमती से निर्णय लिया | सभी नक्सली लड़कियाँ एक दूजे की आँखों में देखकर उस निर्णय पर अवलम्ब क़दम बढ़ा दीं | धीरे-धीरे सब ऐसे स्थान पर आ गयीं, जहाँ पर पुलिसवालों की नजर उन पर पड़ सकें |
आज शायद १५ अगस्त था, अतः पूरे लाव-लश्कर के साए के तले गाँव वाले आज़ादी का जश्न मना रहे थे | आखिरकार किसी पुलिस वाले की निगाह उन नक्सली लड़कियों पर पड़ ही गयीं, जो मग्न थी जश्न देखने में | लेकिन यह भी चाहती थीं कि पुलिस वाले, या गाँव के मुखबीर उन्हें देखें |
सभी गाँव वाले, पुलिसवालों के साथ मिलकर नक्सली लड़कियों को चारो तरफ से घेरकर धर दबोचे | अपने को घिरा हुआ देखकर भी उनके चेहरे पर तनिक भी शिकन नहीं थी | यहीं तो चाहती थीं सब की सब | पुलिस अपने कामयाबी पर फूले नहीं समा रही थीं और नक्सली लड़कियां मंद- मंद मुस्करा, त्रियोचरित्र सपने बुन रही थीं | उन चंद क्षणो में हजारों सपने देख डाले होंगे उन्होंने |
स्वतंत्रता के दिन समर्पण या अपने हथियार डाल देने वालें नक्सली, मुख्यधारा में शामिल कर लिए जायेंगे | ससम्मान समाज में उन सबके रहने की व्यवस्था की जाएगी | शहर में चीफ़ मिनिस्टर के सामने पहुँचने पर जैसे ही यह ज्ञात हुआ तो वो सब अपने निर्णय पर गर्वान्वित हों उठीं |
सभी मुख्यधारा में शामिल होने का, मन ही मन जश्न मना रही थीं | आज भटकाव के रास्ते से लौट आने की ख़ुशी भी उन सबके चेहरे पर साफ़ झलक रही थी | बिना किसी साज सृंगार के कालिख पूते चेहरे पर स्त्रियोचित लालिमा इतराने लगी थी | आँखों का भय कहीं कोने में दुबककर बैठ गया था, अब उन्हीं आँखों में हया तैर रही थी | नाचती हुई स्त्रियों के चूड़ियों की खनखन उन्हें अपनी कलाइयों पर महसूस होने लग रही थी |
सब एक दूजे की ओर देखकर मुस्करा पड़ी | आँखों ही आँखों से जैसे कह रही थीं - "स्त्रीत्व मरता कब है ! देखो आज इतने सालों बाद आखिर जाग ही गया | आज भटकाव के रास्ते से लौट आने की ख़ुशी भी उन सबके चेहरे पर साफ़ झलक रही थी | बिना किसी संगीत के और बिना नृत्य की किसी भावभंगिमा के उनका पूरा तन-मन थिरक रहा था | उन सबने अपने अंदर पनपे मर्दानेपन को पल भर में ही थपकी देकर सुला दिया था और उनमें स्त्रीत्व काली घनी रात के बाद आयें भोर की भांति अंगडाई ले चुका था | लाल-नीले-पीले परिधानों में सजी सभी बहुत सुंदर दिख रही थीं .!.....सविता मिश्रा
----०००---
12 July 2014 को नया लेखन - नए दस्तखत में स्त्रीत्व मरता कब है कथा लिखी थी बाद में कहानी बना दिए

No comments: