Monday 16 July 2018

'मात' से 'शह' -

अपने लॉन में झूले पर झूलते हुए चाय पी रही थी कि उसकी नजर उस चोटिल पक्षी पर गयी | जो अपने पंखो को फैलाकर, बारम्बार उड़ने की कोशिश करता हुआ गगन को चुनौती देने को बेताब था | उस पक्षी की प्रतिबद्धता देखकर नीता मुस्करा पड़ी | मुस्कराहट अभी चेहरे पर फ़ैल भी नहीं पाई थी कि अतीत ने दबिश डाल दी |

"बेटा, अभी देख रहे हैं ! शादी थोड़ी कर रहे हैं तेरी! शादी तय होने में भी समय लगता है | तेरे साँवले नयन-नक्श के कारण दो-तीन ने सीधे मना कर दिया | पच्चीस-पचास लाख दहेज देने की तो हैसियत है नहीं अपनी |" माँ की चिंता, विवशता और दलीलें ।

"माँ, शादी बिना भी जिन्दगी चलती है | मुझे आगे पढ़ना है |"   नीता कहती।
"तेरे दिल की बात जानती हूँ ! मैं भी चाहती हूँ कि तू पढ़कर कोई दमदार नौकरी हासिल कर ले, फिर देखना यही नकारने वाले खुद आएंगे तेरा हाथ माँगने |" माँ के समर्थन और आश्वस्त करते ममता भरे शब्द नीता को राहत देते!
फिर कुछ सालों बाद घर-मोहल्ले तथा उसकी कार्यशाला के सहकर्मियों द्वारा तिल-तिल करके घुलने को मज़बूर करते ताने!

"न शक्ल, न ही सूरत! कौन शादी करेगा?" आत्मा तक को भेदने वाले, भाभी के मुख से निकले हृदयभेदी तीर!
"शादी नहीं करोगी, तो फिर क्या करोगी?" बाइक के फटे साइलेंसर की तरह निकला बड़े भाई का चुभता हुआ सवाल!
"उसी वक्त तो मैंने छोड़ दिया था, भैया का वह संसार |" चाय का घूँट लेती हुई वह बुदबुदाई ।

उन दिनों जब कभी अतीत का तूफान वर्तमान में आकर उसके पग पखारता था तो वह पर कटे पक्षी की तरह तड़प उठती और मायूस हो चाय लेकर बालकनी में आकर आराम-कुर्सी पर पसर जाती थी | अपने एक कमरे के फ्लैट में कैद हो एकटक प्रकृति-सौन्दर्य को निहारती रहती थी | झुण्ड से अलग किसी पक्षी को दूर गगन में उड़ान भरते देखती तो हिम्मत-सी बंध जाती थी उसकी |

कई साल उसके द्वारा की गई कड़ी मेहनत, पत्थर पर घिसी मेहँदी-सी महक उठी थी | एक एनजीओ ज्वाइन करने के बाद देश क्या विदेश से भी अब उसे नारी-जाति को मार्गदर्शन देने के लिए बुलाया जाता था | जिस शक्लोसूरत को  देखकर लोग कभी मुँह फेरते थे, आज उसके साथ तस्वीर लेना अपना अहोभाग्य मान रहे थे | मुस्कराती हुई तस्वीर खिंचाती थी लेकिन बैकग्राउंड में बीती जिन्दगी का समुद्री लहरों-सा शोर उफान मारता रहता था |

आहट से तन्द्रा भंग हुई तो देखा कि सामने बालों में सफेदी लेकिन चेहरे पर लालिमा लिए पैंतालीस-पचास साल का युवा खड़ा था |

"जी, क्या चाहिए आपको ! मैं औरतों की खैरख्वाहो में गिनी जाती हूँ | आपकी क्या मदद कर सकती हूँ ?"
"मैं अपनी गलती सुधारने आया हूँ |"
"गलती..! कैसी गलती ?"
"दो दशक पहले आपसे शादी न करने की |"
झूलता हुआ झूला अचानक ठहर गया |
"आपकी गलती सुधारने के लिए मैं कोई गलती क्यों करूँ।" तनकर खड़ी हो, आँखे तरेरती हुई बोली।
उस व्यक्ति के जाते ही नीता ने देखा कि गगन में वह किंचित घायल पक्षी भी गर्वान्वित हो इठलाने लगा था। उसे देखकर मंद-मंद मुस्करा पड़ी नीता ।
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मौलिक तथा अप्रकाशित
 सविता मिश्रा 'अक्षजा'
आगरा २८२००२
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2 comments:

सविता मिश्रा 'अक्षजा' said...

https://www.facebook.com/events/309218576285707/?ti=cl

सविता मिश्रा 'अक्षजा' said...

परिंदे ग्रुप के तत्वावधान में आयोजित पाठशाला के आयोजन में सम्मलित साथियों द्वारा सार्थक 90 लघुकथाओं में से हमारी कथा दूसरे स्थान पर आना बड़ी बात है...नीचे रही परिंदे ग्रुप की एडमिन कांता दीदी की हमारी कथा पर की गई समीक्षा...😊

'मात' से 'शह', लघुकथा ने भाषा और शिल्प दोनों दृष्टिकोण से सविता मिश्रा 'अक्षजा' की लघुकथा पर उनकी पकड़ को साबित किया है| ‘मात्र शादी होना जीवन का पर्याय नहीं है|’ इस कथ्य को पुष्ट करती व्यक्तित्व विकास को प्रमुखता देते हुए सार्थक जीवन जीने की कला सीखाती है ये लघुकथा|

आप सब इन पंक्तियों को पढ़ कर देखिये –



----देखा कि सामने बालों में सफेदी लेकिन चेहरे पर लालिमा लिए पैंतालीस-पचास साल का युवा खड़ा था |

"जी, क्या चाहिए आपको ! मैं औरतों की खैरख्वाहो में गिनी जाती हूँ | आपकी क्या मदद कर सकती हूँ ?"

"मैं अपनी गलती सुधारने आया हूँ |"

"गलती..! कैसी गलती ?"

"दो दशक पहले आपसे शादी न करने की |"

झूलता हुआ झूला अचानक ठहर गया |

"आपकी गलती सुधारने के लिए मैं कोई गलती क्यों करूँ।" तनकर खड़ी हो, आँखे तरेरती हुई बोली।----



आत्मबल से भरपूर स्त्री जब पूछती है कि मैं आपकी क्या मदद कर सकती हूँ तो निज स्वार्थ की पूर्ती हेतु उसे ‘स्वीकारने’ आया पुरुष चरित्र एकाएक किस तरह से लुंज-पुंज हो उठता है| पुरुष द्वारा उससे अपनी शादी न करने गलती को इंगित करना और अचानक झूलते हुए झूले का ठहर जाना, यहाँ लेखन में रचना कुशलता के साथ उसका कला पक्ष भी उभरकर आया है| झूले का झुलना पात्र के अवचेतन मन की निश्चिन्तता को एवं उसका जीवन में संतुष्ट भाव को अभिव्यक्त करता है| लेकिन ऐसे में अतीत का सामने आकर खड़ा हो जाना हठात उसके मन को विचलित कर जाता है जिसे झूले के अचानक ठहर जाने से बिंबित किया गया है|

शैली पर बात रखते हुए डॉ. शकुंतला किरण अपनी शोध-पुस्तक ‘हिंदी लघुकथा’ में लिखती हैं कि, “शैली रचना का एक आवश्यक तत्व है, उपादान है और आधार भी| शैली विचारों की अभिव्यक्ति का माध्यम है, ढंग है| व्यक्ति अपने संस्कारों एवं अनुभवों से जो कुछ प्राप्त करता है वह सब शैली है जो उसके प्रत्येक कार्य में प्रतिबिंबित होती है| शैली भाषा की वह विशेषता है जो लेखक के विशिष्ट भाव या चिंतन को ठीक रूप में प्रेषित करती है|”

इस लघुकथा में सांकेतिकता है| सफलतापूर्वक बिम्बों का प्रयोग हुआ है| लहजा में लेखिका द्वारा किसी के जैसा ना होकर अपनी शैली, अपनी मौलिकता के साथ मजबूती से खड़ी होना, पाठकों का ध्यान अपनी ओर आकर्षित करने में सफल होता है| सामाजिक विसंगतियो में जो मुद्दा हमेशा से प्रमुख रहा है ‘स्त्री को वस्तु समझना’, इस मानसिकता को चिन्हित करते हुए सामाजिक परिप्रेक्ष्य में परंपरागत सोच कि --‘पुरुष द्वारा स्त्री को स्वीकार करने में ही उसका जीवन सार्थक होता है’ -इसी को स्त्री पात्र द्वारा अस्वीकार कर अपनी अस्मिता की रक्षा करना सिखाती है ये लघुकथा|

किसी भी लघुकथा को जो बातें सार्थक बनती है वो है उसका सामाजिक होना| सामाजिकता होने से ही लघुकथा की महत्ता है| लघुकथा का जन्म विसंगतियों के आधार पर होती है अतः कथ्य में रोष व्यक्त हो यह आवश्यक है लेकिन साथ-साथ ये जिम्मेदारी भी लेखक पर है कि लघुकथा में निहित कथ्य समाज को जोड़ने वाला हो| हमारी साथी लेखिका सविता मिश्रा जी को इस लघुकथा के लिए बधाई प्रेषित करती हूँ|