Monday, 2 September 2013

नन्हीं सी गौरेया की चाह--

बालकविता ...:)

नन्हीं सी गौरेया का

प्रकृति की सुन्दरता देख
मन मचल उठा
फुदकूँ यहाँ-वहाँ
उधम मचाऊँ खूब
माँ के आने तक
पर नन्हीं सी कोमल पत्ती को
अकेला देखकर
मन उसका सिहर उठा

पत्ती भी अकेली
मैं भी अकेली
पड़े ना शिकारी की नजर
इस डर से वह
बहुत ही उदास हुई

ओ नन्हीं पत्ती
तू जल्दी से बड़ी हो जा
और पूरी डंठल में फ़ैल जा
तेरी ओट में फिर मैं छुप सकूंगी
शिकारी से तब शायद बच सकूंगी

माँ जब तक दाना चुगकर
नहीं आती
तू ही तो माँ बनकर
हमें सहलाती और बचाती
ओ पत्ती तू जल्दी से
डंठल के चारों ओर फ़ैल जा
और तनिक बड़ी भी हो जा

तेरी झुरमुट में मैं भी
तेरे साथ लुका छिपी खेलूं
माँ साँझ ढलते ही आयेगी
जब तक माँ आये
तब तक हम दोनों ही
एक दूजे के संग
मस्ती करे और खिलखिलाये |

और धीरे धीरे एक दिन
पत्ती बडी़ भी हो गई
चिडि़या की छोटी सी बच्ची
चैन से शाम होने तक
उसके ओट में सोने लग गई !..सविता मिश्रा

2 comments:

सुशील कुमार जोशी said...

और पत्ती बडी़ भी हो गयी
चिडि़या की छोटी सी बच्ची
चैन से शाम होने तक सो गई !

सुंदर रचना !

सविता मिश्रा 'अक्षजा' said...

आभार सुशिल भैया .....नमस्ते