Monday 2 March 2015

दूसरा कन्धा

"पहले के लोग दस-दस सदस्यों का परिवार कैसे पाल लेते थे| अपनी जिन्दगी तो मालगाड़ी से भी कम स्पीड पर घिसट रही है जैसे|" महंगाई का दंश साफ़ झलक रहा था पति के चेहरे पर| पहले सुरसा मुख धारण किए ये महंगाई कहां थी जीअब तो दो औलाद ही ढंग से पालपोस लें यही बहुत है|" महंगाई पर लानत भेजती हुई पत्नी बोली|
"सही कह रही हो तुम|" "महंगाई की मार से घर के बजट पर रोज एक न एक घाव उभर आता है| कल ही बेटी सौ रूपये उड़ा आई तो बजट चटककर उसके गाल पर बैठ गया|" पत्नी की आवाज में पछतावा साफ़ झलक रहा था| "मारा मत करो| सिखाओ कि 'कैसे चादर जितनी पैर' ही फैलायें|" समझाते हुए पति ने कहा| "क्या करूँ जी! तिनका-तिनका जोड़ती हूँ, पर बचा कुछ नहीं पाती हूँ| तनख्वाह रसोई और बच्चों की स्कूल और ट्यूशन फ़ीस में ही दम तोड़ने लगती है| कोई काम वाली नहीं रखी फिर भी महीने के अंत समय में ठनठन गोपाल रहता है|" कहकर भारी कदमों से चल दी रसोई की ओर| नौकरी छुड़वा देना का अपराध बोध तो था, फिर भी आस भरी निगाहों से पत्नी को निहारते हुए बोला- "सुनती हो, एक अकेला कन्धा गृहस्थी का बोझ नहीं उठा पा रहा| दूसरा कन्धा .. ? शायद आसानी हो फिर|" सुनकर पत्नी का चेहरा सूरजमुखी-सा खिल गया| पत्नी के हामी भरते ही पति के आँखों में घर का बजट मेट्रो-की-सी स्पीड से दौड़ने लगा| सविता मिश्रा 'अक्षजा' 2 March 2015 --००--

3 comments:

विभा रानी श्रीवास्तव said...

महंगाई की मार से सच में एक कंधा बोझ पैसा कमाने का नहीं उठा पा रहा .... पहले जैसा रहन सहन भी तो नहीं रहा .... रोचक कहानी

रमेश कुमार सिंह said...

अच्छी कहानी।

Unknown said...

बहुत सुंदर लिखा है आपने,बहुत बहुत बधाई