Saturday 11 July 2015

ज़िद नहीं (चोट)

"पापा, आइसक्रीम चाहिए |"
"सुबह-सुबह आइसक्रीम नुकसान करेगी |" समझाने पर भी विमल को आखिरकार दिलानी ही पड़ी।
कुछ देर में, "पापा, गुब्बारा चाहिए, गुब्बारा चाहिए ।"
"बेटा, घर चल के दिला दूँगा, यहॉ लेगी तो घर चलते-चलते फ़ुस्स हो जायेगा।" पर पंखुड़ी तो ज़िद पर अड़ी रही।
विमल के दिमाग में कुछ और ही कौंध गया उसकी ज़िद देख। उसे तो समझा रहा हूँ और खुद ज़िद पर अड़ा हूँ कि मुझे भीखू की भी जमीन चाहिए। वो नहीं देना चाहता फिर भी | आखिर तीन सौ एकड़ ज़मीन क्या कम है। इतना लालच आखिर किस लिए? अन्ततः रह सब यहीं जाना है |गुब्बारे की तरह ज़िन्दगी एक दिन फ़ुस्स हो जायेगी।'
"पापा, पापा बांसुरी चाहिए |"
"बांसुरी! हाँ, बांसुरी ठीक है | गुब्बारा घर जाते-जाते फूट जायेगा | बांसुरी तो रहेगी न, और इसकी आवाज़ की मिठास भी |"
विमल सोचने लगा | उसके कानों में पंखुरी की आवाज़ नहीं आ रही थी- "पापा, आप सिखाओगे न मुझे बजाना |"
--००--नया लेखन - नए दस्तखत
10 July 2015 ·

4 comments:

Demo Blog said...

बहुत सुन्दर ।

सुशील कुमार जोशी said...

सुंदर ।

कविता रावत said...

बच्चों की बातें मन को गुदगुदाती हैं ...
बहुत बढ़िया

शिव राज शर्मा said...

बहुत सुन्दर लघुकथा ।