सारांश--
गुरुर था खुद पर
फागुन लगते ही
पेड़ की शाखाओं पर
नवपल्ल्व रूप में
लहलहा उठते थे
फागुन लगते ही
पेड़ की शाखाओं पर
नवपल्ल्व रूप में
लहलहा उठते थे
देख हमारी सुन्दरता
जब मोहित होते लोग
तो हम खूब इतराते थे
जब मोहित होते लोग
तो हम खूब इतराते थे
हलके हरे रंग में
खूबसूरत लगते थे
पर ताम्रपत्र कहकर
लोग जब मुग्ध होकर
हमें निहारते थे तो
गर्व से सातवें आसमान पर
खुद को हम पाते थे
खूबसूरत लगते थे
पर ताम्रपत्र कहकर
लोग जब मुग्ध होकर
हमें निहारते थे तो
गर्व से सातवें आसमान पर
खुद को हम पाते थे
और तब सब
ये अपने ही संगी-साथी
हमको बड़े क्षुद्र नजर आते थे
बड़ा घमंड था हमें
अपने रंग-रूप पर
पानी की बूंदों को भी
नहीं ठहरने देते थे
तनिक भी देर तलक
कि कहीं उनके भार से
अपनी कोमलता पर
आंच ना आ जाए
ये अपने ही संगी-साथी
हमको बड़े क्षुद्र नजर आते थे
बड़ा घमंड था हमें
अपने रंग-रूप पर
पानी की बूंदों को भी
नहीं ठहरने देते थे
तनिक भी देर तलक
कि कहीं उनके भार से
अपनी कोमलता पर
आंच ना आ जाए
तेज हवाओं को महसूसकर
छुप जाते थे गहरे पत्तों के बीच
हवाएं बंद होतें ही
उन्हें हम आँख दिखाते थे
छुप जाते थे गहरे पत्तों के बीच
हवाएं बंद होतें ही
उन्हें हम आँख दिखाते थे
पर एक दिन वह भी आया
इतराना अपना कम हुआ
हम भी हल्के हरे होकर
फिर गाढे हरे रंग में
बदलने लग गए थे
कुछ दिन पहले
जो गाढे रंग के पत्ते गिरे थे
उनकी दशा देखकर
खुद पर अब क्षोभ हो रहा था
इतराना अपना कम हुआ
हम भी हल्के हरे होकर
फिर गाढे हरे रंग में
बदलने लग गए थे
कुछ दिन पहले
जो गाढे रंग के पत्ते गिरे थे
उनकी दशा देखकर
खुद पर अब क्षोभ हो रहा था
खुद पर खूब इतराए थे
भाव ना दिए थे किसी को
आज खुद को भी
उसी हाल में सोचकर
हम भयभीत हो काँप रहे हैं
भाव ना दिए थे किसी को
आज खुद को भी
उसी हाल में सोचकर
हम भयभीत हो काँप रहे हैं
जो अब इतराकर
देख हमें मुँह बिचका रहे थे
हम अब उन्हीं को
शिक्षाप्रद किस्से सुना रहे थे
देख हमें मुँह बिचका रहे थे
हम अब उन्हीं को
शिक्षाप्रद किस्से सुना रहे थे
एक दिन वह भी आ गया
हम भी शाखा से बिलग हुए
जमीन की गर्द में मिलते-मिलते
खुश हैं कि किसी को सीख दिए
हम भी शाखा से बिलग हुए
जमीन की गर्द में मिलते-मिलते
खुश हैं कि किसी को सीख दिए
घमंड में जो चूर अक्सर रहता है
उसके चूर-चूर होने में
देर ही कितनी लगती है !
क्षणभंगुर जीवन यह
मिटटी में मिलते
देर ही कितनी लगती है |
--००---
सविता मिश्रा 'अक्षजा'
उसके चूर-चूर होने में
देर ही कितनी लगती है !
क्षणभंगुर जीवन यह
मिटटी में मिलते
देर ही कितनी लगती है |
--००---
सविता मिश्रा 'अक्षजा'
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