Tuesday, 10 September 2013

++क्या बात थी++

तुझे समझना चाहा था मगर
समझ पाती तो क्या बात थी|

कहने को तो अपने थे तुम पर
अपना बना पाती तो क्या बात थी|

भटकते हैं सभी अपने जूनून के चलते
मैं खुद को भटकने से बचा पाती तो क्या बात थी|

मुर्दे हैं जो सभी यत्र-तत्र बिखरे हुए
उन्हें जिन्दा कर पाती तो क्या बात थी|

झूठी फरेबी इस दुनिया में सविता
अपनी बात सच्चाई से रख पाती तो क्या बात थी|

सो रहें हैं जो अपने आँख-कान बंद कर
उन्हें अपनी आवाज से उठा पाती तो क्या बात थी|

प्रभु सुनती हूँ तू हैं हर कहीं, हर किसी में
मैं भी तुझे किसी इंसा में देख पाती तो क्या बात थी|

बहुत कुछ कहना सुनना हैं तुझसे
तुझसे एक बार मैं मिल पाती तो क्या बात थी|

मन्दिरों में ढूढ़ने से अच्छा ओ मेरे भोले
खुद में ही तुझको बसा पाती तो क्या बात थी|...सविता मिश्रा
१३/९/२०१२

3 comments:

संगीता स्वरुप ( गीत ) said...

यदि खुद में ही भगवान ढूंढ लें तो क्या बात हो ... बहुत सुंदर गज़ल

सुशील कुमार जोशी said...

बहुत सुंदर !
एक सुझाव है अच्छा लगे तो करियेगा !
थोड़ा सा फोंट साईज बड़ा कर देंगी तो पढ़ना और आसान हो जायेगा और एक ही रंग में रखिये अंतिम पंक्तिया आसानी से पढी़ जा रही हैं ।

सविता मिश्रा 'अक्षजा' said...

संगीता दी नमस्ते आभार दिल से आपका