Friday 3 October 2014

~जलती हुई मोमबत्ती~(रौशनी)



रौशनी


"शरीर जल (ख़त्म हो) रहा है, लेकिन आत्मा तो अमर है | मोमबत्ती की तरह मैं भले काल कवलित हो गया हूँ, पर इस लौ की भांति तुम सब की आत्माओं में बसा हूँ |" जब सरकारी स्कूल में गाँधी जयंती पर हिंदी के प्राध्यापक महोदय ने मोमबत्ती की ओर इशारा करके कहा तो रूचि भयभीत हो गयी |
दादी से आत्माओं की कहानी खूब सुन रखी थी उसने | दादी ने कहा था अच्छी आत्मायें, बुरी आत्माओं को खूब सताती है | उसे लगा सत्य, अहिंसा के पुजारी बापू आज उसकी खूब खबर लेंगे | कक्षा क्या, पूरे स्कूल की दादा जो थी वह | सुबह प्रार्थना से पहले ही उसने अपनी दोनों सहपाठियों की पिटाई भी कर दी थी, छोटी-बड़ी मोमबत्ती के लेने को लेकर | बच्चों से मारपीट-गाली गलौज के बाद, शिक्षक से मार खाना तो रोज की आदत-सी थी उसकी |
सहसा उसने बापू के चित्र की ओर देखा - बापू के चित्र पर लौ चमक रही थी, बापू की आँखे भी बंद थी | उसे लगा बापू बच्चों में बसी अच्छी आत्माओं से सम्पर्क कर, उन सब को अपनी तरह बनने की सीख दे रहे हैं |
अगले ही पल वह अपने सहपाठियों से क्षमा मांग, उनके गले लग गयी | उसकी इस अप्रत्यासित हरकत से उनकी आँखों में आँसू आ गये जिनसे रोज ही लड़ती थी वह | और कुछ छात्रा हतप्रभ-सी थी - 'कौवे को हंस रूप में देख' |
प्रधानाचार्य महोदय भी ख़ुश होकर बोले - "भले ही आज लोग सफाई कर ख्याति अर्जित कर रहे हैं, पर असली सफाई तो तुमने की है | आज हमारे स्कूल द्वारा दिया जाने वाला 'गांधी सम्मान' मैं सर्वसम्मति से तुम्हें सौंपता हूँ |"
सविता मिश्रा 'अक्षजा'
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3 October 2014 को लिखी

2 comments:

विभा रानी श्रीवास्तव said...

सकारात्मक सोच के साथ कहानी का अंत मुझे हमेशा अच्छी लगती है
स्नेहाशिष बच्ची

सुशील कुमार जोशी said...

सुंदर ।