Sunday 12 April 2015

वर्दी

"मम्मी ! दादा जी, पापा को अपनी तरह फौजी बनाना चाहते थे ?"
"हाँ ! क्यों ?"
"क्योंकि पापा मुझ पर फौजी बनने का प्रेशर डाल रहे हैं। मैं पापा की तरह पुलिस अफसर बनना चाहता हूँ।" खाकी में अपने पिता की फोटो को देखते हुए बेटे ने कहा।
माँ कुछ कहती उससे पहले पापा माँ-बेटे की वार्तालाप को सुनकर कमरे में आए और अपनी तस्वीर के ऊपर टँगी दादाजी की तस्वीर को देखते हुए बोले -
"बेटा ! मैं 16 से 18 घंटे ड्यूटी करता हूँ । कभी-कभी दो- तीन दिन बस झपकी लेकर गुजार देता हूँ। घर परिवार सब से दूर रहना मज़बूरी है मेरी। छुट्टी साल में चार भी मिल जाये तो गनीमत समझो। क्या करेगा तू मुझ-सा बनकर ? क्या मिलेगा तुझे ! तिज़ारत के सिवा ?"
"पर पापा, फौजी बनकर भी क्या मिलेगा? खाकी वर्दी फौज की पहनूँ या पुलिस की ! फर्क क्या है ?"
"फौजी बनकर इज्जत मिलेगी ! हर चीज की सहूलियत मिलेगी । उस खाकी में नीला रंग भी होता है सुकून और ताज़गी लिए। पुलिस की खाकी मटमैली होती है। जिसके कारण किसी को हमारा काम नहीं दिखता, बस दिखती है तो धूलधूसरित मटमैली-सी हमारी छवि। तेरे दादा जी की बात को नहीं मानकर बहुत पछता रहा हूँ मैं। फौज की वर्दी पहनकर इतनी मेहनत करता तो कुछ और ही मुक़ाम होता मेरा।"
"ठीक है पापा ! सोचने का वक्त दीजिए थोड़ा।"
"अब तू मेरी बात मान या न मान ! पर इतना जरूर समझ ले, क्रोध में निर्णय लेना और अतिशीघ्र निर्णय नहीं लेना, मतलब दोनों ही प्रकार की वर्दी की साख में बट्टा लगाना है !" पापा अपनी वर्दी पर दो स्टार लगाते हुए बोले ।
" 'सर कट जाने की बड़ाई नहीं है, सर गर्व से ऊँचा रखने में भी मान ही है।' यही वाक्य कहकर मैंने अपने पिता यानी तेरे दादाजी से विरोध किया था। थाने में दोस्त के पिता का जलवा देखकर भ्रमित हो गया था मैं। चमकते चिराग के नीचे का अँधेरा कहाँ देख पाया था। अपनी जिद में वो रास्ता छोड़ आया था जिस पर तेरे दादा ने मेरे लिए फूल बिछा रक्खे थे !"
"पापा ! मुझे भी काँटों भरा रास्ता स्वयं से ही तय करने दीजिए न।"
पिता ने दीवार पर टंगी तस्वीर की ओर देखा फिर बेटे को देखकर मुस्कराते हुए ड्यूटी पर निकल गए।

सविता मिश्रा 'अक्षजा'
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11 April 2015

पापा को लगा बेटा स्याना हो गया हैं । और छोड़ दिया खुले आकाश में ..। ..यह लाइन काट दी हमने 

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