Tuesday 12 December 2017

किताब पढ़ते हुए--"ज़िन्दा है मन्टो" नामक संग्रह



"ज़िन्दा है मन्टो" नामक संग्रह को पढ़ते हुए सबसे कष्टप्रद बात हमारे लिए हुई, वह है पेज की बर्बादी। दो -तीन लाईन की कथाएँ और पूरा खाली पेज मुँह चिढ़ाता रहा। ऐसे प्रकाशकों से खास गुज़ारिश है हमारी कि मेहरबानी करके पन्ने को खाली नहीं छोड़िये।
धरती-आकाश दोनों ही अपना कोई कोना सादा रंगहीन नहीं छोड़ते। यह सादापन हद से ज्यादा खलता है। रेगिस्तान को भी ध्यान से देखे तो वलय द्वारा उसमें मनोरम दृश्य दिखेगा।
यदि यह विनती प्रकाशक स्वीकार कर लेंगे तो कृतज्ञ होंगे हम।
अब आते हैं मन्टो पर। गुढ़ लघुकथाओं को समझना हमारे लिए बड़ा ही कठिन काम होता है। मसीहा भैया ने जब हमें 'एक लम्हा जिंदगी' के विमोचन के स्टेज पर इस संग्रह को भेंट किया तो बहुत खुशी हुई थी। लेकिन घर आकर जब पन्ने पलटे तो एकबारगी हमारी नानी ही मर गयी।

इस संग्रह की कथाओं को पढ़कर समझ लेना हमारे लिए चींटी का पहाड़ चढ़ने जैसा था। बहुत छोटी, छोटी थीं अतः 20-30 पढ़ डाली, पढ़ना और समझना यानी जमीन और आसमान का अंतर था। यह अंतर पढ़कर तय करना बड़ा कठिन लगा । अतः न चाहते हुए भी मेज से उछलकर संग्रह अलमारी में बंद हो गया।
लेकिन किताब पढ़कर कुछ कहना और उस कहन को लेखक द्वारा सुनना, यही तो एक गांठ है जो किताब भेंट में देने और लेने की कड़ी को मजबूत करता है।

इस आपसी लेखन और समझन की सम्बन्ध से बनी गांठ फूल की भी होती है और कांटे की भी। किताब लेकर उसे इधर-उधर फेंक देना या रद्दी में दे देना, कांटो का बीज रोपित करता है। गलती से भी लेखक कहीं अपने मन में कांटों की रोपाई न कर लें, इस कारण दो शब्द तो कहना बनता है।

प्रसन्नता से दी गई भेंट हमें खुशी देती है। पढ़कर दो शब्द ही सही बोलना था लेकिन बात कल पर टालने की भयंकर बीमारी के चलते चाहकर भी नहीं लिख पाए थे ।
गर्म तवा पर रोटी सेंकने के ही हम अनुयायी। ठंडा होने पर लगता है भूखे ही सो जाएं | अब फिर तवा को गर्म क्यों किया जाय।
लेकिन उपहार देते समय हमें ऐसा याद आता रहा कि भैया ने कहा था इसको पढ़कर बताना।
तो लीजिए हमने महीनों बाद तवा गरम किया यानी फिर से पढ़ा "ज़िन्दा है मन्टो"। हाँ इस बीच मन्टो की चार- छः कथाएँ पढ़ चुके थे, उसपर आये कमेंटों से समझ चुके थे गूढ़ता। जिसमें से "खोल दो" को पढ़कर सीधे आज की तस्वीर अपने सामने चस्पा हो गयी। जो शायद कल की भी हकीकत रही होगी। मतलब कि यह कहा जा सकता है कि जमाना औरतों के लिए न कल बदला था न आज बदला है। महिलाएं कल भी घटियापना और शोषण की शिकार थी आज भी है।
खैर बात करनी है हमें "ज़िन्दा है मन्टो" लघुकथा संग्रह की और हम हैं कि यहाँ वहाँ भटक रहे हैं। असल में मसीहा भैया की कथाओं को पढ़कर अपनी छोटी सी बुद्धि चाहकर भी बड़ी नहीं हो पा रही। इसलिए मुद्दे की बात पर आने में कोताही कर रहे हैं।
अच्छा छोड़िये, सच में आते हैं हम, मुद्दे पर ही। अतः पूरी हिम्मत बटोरी फिर पढ़ी हमने यह संग्रह। और लिखेंगे भी ..क्रमश : ---सविता मिश्रा 'अक्षजा'

2 comments:

शब्द मसीहा said...

बहुत-बहुत आभार बहिन इस किताब को समय देने के लिए . बहुत सुन्दर विचार आपने रखे हैं . सादर आभार .

सविता मिश्रा 'अक्षजा' said...

बहुत बहुत शुक्रिया भैया😊🙏