"किसका इंतजार हो रहा ..?
नैहर वालों का या फिर ससुरालियों का!" बरामदे में पत्नी को
चहलकदमी करते देख पति ने उसे आवाज़ लगाकर चुटकी ली।
"कुछ साल पहले, यही सूना घर कितना गुलज़ार रहता था न! कभी बच्चों के दोस्त, कभी आपके महकमे दोस्त, कभी मेरी अपनी पहचान के लोग या फिर पड़ोसी ही अपने आस-पास जुटे ही रहते थे।" पति के पास बैठकर मायूसी भरे स्वर में पत्नी बोली।
"हाँ, और यह मोबाइल भी जब मन होता था घनघना उठता था।"
"कुछ साल पहले, यही सूना घर कितना गुलज़ार रहता था न! कभी बच्चों के दोस्त, कभी आपके महकमे दोस्त, कभी मेरी अपनी पहचान के लोग या फिर पड़ोसी ही अपने आस-पास जुटे ही रहते थे।" पति के पास बैठकर मायूसी भरे स्वर में पत्नी बोली।
"हाँ, और यह मोबाइल भी जब मन होता था घनघना उठता था।"
मोबाइल हाथ में लेकर नम्बरों को
अलटते-पलटते हुए कुछ यादकर मुस्करा पड़ा पति।
"मोबाइल तो न दिन देखता था, न ही रात। नये-नये बने रिश्तेदारों के फोन तो हर दूसरे दिन आ ही जाते थे।" पत्नी ने समर्थन में आगे कहा।
"पहले तो तुम भी अपना मोबाइल रोज ही, फिर हफ्ते भर में तो उठा के देख ही लेती थी! अब महीनों से छुआ ही नहीं तुमने उसे!" कोने में दुबके हुए मोबाइल को देख पति ने शिकायती लहजे में पत्नी से कहा।
"हाँ, सब नम्बर निहारती रहती थी। किसका नम्बर मिलाऊँ..S..! ज़ेहन में ऐसा कोई अपना याद आता ही नहीं था, जिसने मुझे फोन करके हालचाल लिया हो।" मोबाइल पर अछूत-सी दृष्टि डालकर पत्नी बोली।
"पदच्युत इन्सान को कौन पूछता है! पर अपने बच्चे!"
"बच्चे भविष्य की राह गये तो पलटकर तो आना था नहीं। लेकिन उनके फोन.!" ठंडी लम्बी साँस छोड़ते हुए पत्नी बोली।
"मेरा फोन भी जल्दी ही काट देती थी तुम! यह कहकर कि बच्चों के फोन आने का समय हो रहा।" पति ने पत्नी की ठुड्डी पकड़कर बोझिल माहौल को धकेलते हुए प्यार से कहा।
"मोबाइल तो न दिन देखता था, न ही रात। नये-नये बने रिश्तेदारों के फोन तो हर दूसरे दिन आ ही जाते थे।" पत्नी ने समर्थन में आगे कहा।
"पहले तो तुम भी अपना मोबाइल रोज ही, फिर हफ्ते भर में तो उठा के देख ही लेती थी! अब महीनों से छुआ ही नहीं तुमने उसे!" कोने में दुबके हुए मोबाइल को देख पति ने शिकायती लहजे में पत्नी से कहा।
"हाँ, सब नम्बर निहारती रहती थी। किसका नम्बर मिलाऊँ..S..! ज़ेहन में ऐसा कोई अपना याद आता ही नहीं था, जिसने मुझे फोन करके हालचाल लिया हो।" मोबाइल पर अछूत-सी दृष्टि डालकर पत्नी बोली।
"पदच्युत इन्सान को कौन पूछता है! पर अपने बच्चे!"
"बच्चे भविष्य की राह गये तो पलटकर तो आना था नहीं। लेकिन उनके फोन.!" ठंडी लम्बी साँस छोड़ते हुए पत्नी बोली।
"मेरा फोन भी जल्दी ही काट देती थी तुम! यह कहकर कि बच्चों के फोन आने का समय हो रहा।" पति ने पत्नी की ठुड्डी पकड़कर बोझिल माहौल को धकेलते हुए प्यार से कहा।
"हाँ, शुरू
में बेटे-बहुओं का फोन सुबहो-शाम कानों में सुरीली बाँसुरी जो बजाता रहता था।
लेकिन...!" बच्चों को यादकर आर्द्र कंठ से वह बोली।
"लेकिन, बाद में उनके भी फोन आने कम हो गये, फिर तो धीरे-धीरे लगभग बन्द ही हो गए।" स्वर की निराशा दुःख के गहरे समुद्र में गोते लगाने फिर से जा पहुँची।
"हाँ, कभी मैं फोन करती थी तो हमारा हाल पूछे बिना ही "बिजी हूँ माँ" कहकर काट देंते थे। अब तो कई महीनों से यह मुआ डब्बा (मोबाइल) गुनगुनाया ही नही।"
बात करते-करते उसने मोबाइल उठाया और सारे के सारे नम्बर उसमें से डिलीट कर दिया। अब मोबाइल में सिर्फ एक दुसरे का नम्बर चमक रहा था।
लेकिन...!" बच्चों को यादकर आर्द्र कंठ से वह बोली।
"लेकिन, बाद में उनके भी फोन आने कम हो गये, फिर तो धीरे-धीरे लगभग बन्द ही हो गए।" स्वर की निराशा दुःख के गहरे समुद्र में गोते लगाने फिर से जा पहुँची।
"हाँ, कभी मैं फोन करती थी तो हमारा हाल पूछे बिना ही "बिजी हूँ माँ" कहकर काट देंते थे। अब तो कई महीनों से यह मुआ डब्बा (मोबाइल) गुनगुनाया ही नही।"
बात करते-करते उसने मोबाइल उठाया और सारे के सारे नम्बर उसमें से डिलीट कर दिया। अब मोबाइल में सिर्फ एक दुसरे का नम्बर चमक रहा था।
सविता मिश्रा ‘अक्षजा’
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