जिस घर में जन्म लिया उसी घर में बेटियों का कोई महत्व नहीं होता है| माना आधुनिक युग में पढ़ाते-लिखाते हैं |
उसे भी अपने पैरों पर खड़ा होने लायक बनाते हैं | परन्तु कुलदीपक की बात आती है तो बेटे ही आगे होते हैं |
बेटियों का तो अपने ही घर में कोई भी वजूद नहीं होता है|
जन्म से लेकर जवान होते-होते न जाने कितनी बार उसे उसके भाइयों से कमतर समझा जाता है | उसे भी इसका अहसास अक्सर ही दिलाया जाता है | पढ़ाई-लिखाई, पहनावा, खानपान सब चीजों में भाइयों की बराबरी का दर्जा कहाँ प्राप्त होता है उसे!!
बेटी की शादी के लिए जब वर ढूढने निकलते हैं, दो चार घर में न सुनने पर ही बेटी बोझ लगने लगती है|
अक्सर लड़की की शादी खोजने में परेशानी होने पर माता-पिता यह कह बैठते है कि 'पता नहीं किस जन्म में
क्या पाप किया कि जो बेटी का जन्म हुआ' क्यों! हैं न |
कितने धक्के खाने पड़ रहे हैं | भले ही बाद में बहू आकर कितने भी धक्के मारे| दाना-पानी भी देने में मुहँ फेरे |
यहाँ तक कि धक्कियाँ के घर से बाहर का रास्ता भी दिखा दे | लेकिन बहू, बहू है और बेटी बोझ |
बेटी सदियों से बोझ ही तो मानी जाती रही है | और आज भी यही निति -रीति चली आ रही है| उसका अपना घर
न कल था न आज है| भले आज की लड़की कमा धमाकर अपने मजबूत पैरों पर खड़ी है|
यदि ईट-पत्थरों से घर हुआ करता तो एक क्या वह चार घर बना लेती अपनी कमाई से लेकिन अपनों से घर, घर
होता है और उसके अपने उसका अपना घर रहने नहीं देते हैं | भले ही वह किसी घर को अपना समझ के
सजाएँ-संवारे|
शादी होने के बाद भी बेटी बनी बहू जब तक पुरुषों की सह-सुन सहयोग करती रहे तब तक ठीक | उसकी
सेवा-सहयोग से पति यदि कस-बस में हो गया तब तो सुभानल्लाह| परन्तु पति के सिर पर से प्यार का भूत उतर
गया | फिर तो लेने के देने पड़ जाते | तन-मन-धन गवाँ के भी फिर वह कहीं की भी न रहती | उसकी हालत तब
नौकरानी से भी गयी गुजरी हो जाती है |
नौकरानी तो कम से कम पगार लेकर काम करती है| ऊपर से ऐंठ भी दिखाती है | पर पत्नी वह भी नहीं कर
सकती है | नारियों को सम्मान देने को कहने वाला यही समाज बस मौन खड़ा रहकर देखता रहता है तमाशा |
सिर्फ तमाशा ही देखता तो भी ठीक था किन्तु जले पर नमक भी छिड़कता रहता | और चटखारे ले-लेकर निंदा-
रसपान भी करता है |
पति से कंधा से कंधा मिलाकर घर गृहस्थी में अपना हर क्षण होम कर देने वाली महिला को मशीन बन जाना
पड़ता है | जिस दिन भी कह दे- 'बाहर से थक-हार कर आती हूँ तुम भी हाथ बाटाया करो !!' देखो फिर क्या
बवाल होता है | पुरुष के अहम को कितना ठेस पहुँचता है इस बात से | वह अपनी हर हद तब पार कर जाता है |
मानसिक प्रताड़ना उसी दिन से फिर औरत को झेलनी होती है | भले प्यार से कहने में वही पुरुष तलवे चाटे
औरत की | लेकिन रोज -रोज घर का काम वह कभी भी नहीं कर सकता है | क्योंकि ऐसी मानसिकता ही नहीं है पीढ़ियों से | घरेलू काम तो बस महिलाओं के ही जिम्मे होते हैं |
कुल मिलाकर कहने का तात्पर्य यह है कि औरत हमेशा ही शासित होती रही है| यदि विद्रोह करे तो दस ऊँगलियाँ उसी की ओर यह समाज उठाता है |
प्यार में हो तो पुरुष नारी के इशारें पर नाचे! प्यार खत्म होते ही दासी का भी दर्जा नहीं देता| यही कड़वी सच्चाई है इस पुरुषशासित समाज की | औरत एक छत होने की आस में इस कड़वे विष का पान करती रहती है |
और शायद आगे भी करती ही रहेगी | क्योंकि समाज भले बदल जाये, लोग बदल जाये लेकिन मानसिकता कभी
नहीं बदल सकती | न औरत की और न ही मर्दों की ही |
कन्या के रूप में जन्म लेकर बड़े होते ही माँ के यह शब्द कि "तुम लड़की हो सह-सुन चला करो' मरते दम तक
एक नारी के साथ होते है| और यही शब्द वह अपनी अगली पीढ़ी को देती जाती है |
जिस दिन भी औरत इन शब्दों से उलट चली, उसी दिन तत्काल प्रभाव से उसकी खुशियाँ खत्म हो जाती है|
समाज-परिवार उसे ठुकराना शुरू कर देता है | उसे घृणित नजरों से देखने लगता है | तब वह सब कुछ होते हुए भी न घर की होती और न ही घाट की | सारे रास्तें फिर बबूल के काँटों से भरे हुए ही मिलते है| गिने-चुने फूल भी जो रहें होते हैं राह में, वह मुरझा जाते हैं |...सविता मिश्रा #अक्षजा
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