शहरो की ख़ाक-छान,
जेठ की धुप में, बैठे थे हम , भिखमंगे के रूप में | प्यारा सा गाँव छोड़, रिश्तों से नाता तोड़, शहर की ओर रुख मोड़, सड़कों से नाता जोड़ | सड़कों पर भटक-भटक, सह अषाढ़ की धुप कड़क, गाँव की छोड़ सोधी महक, खो गये शहरों की तड़क-भड़क| पैरों पर पड़ गये छाले, हो गये रोटी के भी लाले, हुआ यूँ कमाल, कि गावँ छोड़े बीते कई साल | इतने सालों बाद, आयी फिर गाँव की याद, सुन लों मेरी फ़रियाद, कोई फिर कभी ना मांगना ऐसी मुराद ||......सविता मिश्रा |
किसी के दिल को छू जाए ऐसा कोई भाव लिखने की चाहत ..कोई कवियत्री नहीं हैं हम | अपने भावों को शब्दों का अमलीजामा पहनाते हैं बस .:)
Saturday, 30 March 2013
====प्यारा सा गाँव ====
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