Tuesday 13 February 2018

"पानी" (संस्मरण) १८/७/२०१७ को सांझा रूप "यादों के दरीचे" नामक संग्रह में संग्रहित


 सम्मान पत्र जो पटना में मिलना था | अफ़सोस हम नहीं जा पाए | घर बैठे ह्वाट्सएप कि मेहरबानी से सम्मानपत्र की तस्वीर साझा कर रहें हैं .:)

 लीजिए बंधुओं हमारी इस छोटी सी खुशी में शामिल हों लीजिए।
आता जाता कुछ नहीं पर टांग हर जगह अड़ा देतें हैं हम। अपना पहला एक संस्मरण भी अब सांझा रूप "यादों के दरीचे" नामक संग्रह में आ गया है। सम्पादक द्वय का आभार ..:)

"पानी" (संस्मरण)
बात उन दिनों की है जब मैं क्लास 9th में थी। हर स्कूल की तरह मेरे स्कूल में भी पानी-बाथरूम की समस्या थी ही। बाथरूम की बदबू तो नाक बंद करके बर्दास्त्त की जा सकती थी | अतः बिना किसी शोर शराबे के छात्रायें आँख बंद करके किसी तरह सहन कर लेती थीं। सहन करना मजबूरी भी थी। किन्तु पानी की कमी असहनीय हो जाती थी |
मेरे स्कूल में पानी की व्यवस्था तो एक अनार सौ बीमार जैसी कहावत को भी मात देती रही थी | ऐसी डामाडोल व्यवस्था तो किसी सरकारी आयोजन में भी नहीं हुआ करती है।
लगभग 7×4 फुट लम्बाई की एक ही टँकी थी। और छात्राएं 12 सौ के करीब। पानी जब तब खत्म हो जाता था। 'एक तो तीत लौकी ऊपर से नीम चढ़ी' उसमें गिनती के चार नल बने होने के कारण भी गाहे बगाहे बहुत परेशानी होती थी।
तब के जमाने में आज की तरह घर से बोतल लेकर स्कूल जाना आम बात नहीं थी । मजबूरी में ही एक दो छात्रा ही कभी-कभी बोतल लेकर आती थीं। वो भी तब जब परेशानी ज्यादा होने लगती थी।
एक दिन खाने की छुट्टी हुई और छुट्टी के होते ही टँकी के पास छात्राओं की भीड़ टूट पड़ी। उस भीड़ में मैं पानी पीने नहीं गयी। भीड़ से मुझे शुरू से ही एलर्जी सी थी, जब तक भीड़ कम होती, टँकी का पानी खत्म हो चुका था।
अब सब परेशान! क्योंकि कई छात्रायें अभी भी पानी नहीं पी थीं।
हो-हल्ला सुनकर अलग से पानी की व्यवस्था कर दी जाती थी। जब भी ऐसा होता तो चर्चा होती कि इस समस्या की शिकायत प्रिंसिपल से की जाये। पर बिल्ली के गले में घण्टी बांधे कौन। कोई टीचर्स से भी बोलने को तैयार नहीं होता था। प्रिंसिपल से बोलना तो बड़ी दूर की बात थी।
उस दिन भी यही समस्या आयी। पानी खत्म, और टँकी से मतलब भीड़ से दूरी बनाये खड़ी रही मैं। लेकिन क्रोध बड़े नजदीक आ गया था बल्कि कहिये मेरे नस-नस में समाने लगा था।
हमारी प्यास जैसे-जैसे बढ़ रही थी क्रोध सातवें आसमान पर चढ़ रहा था। फिर क्या था धड़धढाते पहुँच गए मुँह उठा कर टीचर्स रूम में।
टीचर्स रूम में जाकर क्या-क्या बोले कुछ ज्यादा याद नहीं, बस इतना याद है या कहिये यादास्त पर जोर डालने पर याद आ रहा कि बोले थे कि आप लोग तो अपने पानी की व्यवस्था अलग रखती हैं, बच्चों की कोई फ़िक्र ही नहीं है आप लोगों को।
सब दिदिया (टीचर्स ) देखती रही थी मेरा मुँह। उन्हें शायद विश्ववास नहीं था कि कोई छात्रा ऐसे आकर बोल भी सकती है। बोल-बाल कर तीर से भी तेजी से उस रूम से बाहर निकलकर तेज़ कदमों से आगे कक्षा की ओर बढ़ गए।
पीछे से मेरी होमसाइंस की दीदी ने पुकारा। पीछे मुड़कर मैंने देखा तो वो जग में पानी लिए खड़ी थीं। फिर मैं पास गई और पानी पीकर भी उसी गुस्से से बिना धन्यवाद दिए वहां से चल दी । फिर क्या था पानी पीने वालो की लाइन लग गयी थी।
---०---

सविता मिश्रा 'अक्षजा'

No comments: