Saturday 17 February 2018

लेखन का दुःख (व्यंग्यमुखी)

हाँ तो सब तैयार हैं न? फेसबुक पर हमारे यह कहते ही आश्चर्यचकित हो सब मुँह खोलकर सुनने में लग गये कान लगाकर | कुछ छिपकली की तरह कुछ बन्दर की तरह | कुछ ही थे जिन्होंने हमारे इस वाक्य को सीरियसली लिया | माने हमऊ नेता माफ़िक होई गये चंद मिनट खातिर | शुक्र है आदतन भाइयों-बहनों नहीं बोले थे हम, वरना तो लोग जय-जयकार करने लगतें भई | ऊ क्या है कि हमको ई जयकारा छटांग भर भी नहीं भाता है | इस लिए जुबान को कंटोल करना पड़ा, बटन तो खटखट चल पड़ी थी, चलने के बाद उसे भी डिलीट मारना पड़ा | 
अच्छा हाँ, अपनी भाषा सही रखें हम, नहीं तो सब इसी पर जंग जीत लेंगे | हाँ तो तैयार हैं न बिल्कुल मीडिया के जैसे, कैमरा और माइक लेकर। और हाँ ख़ुफ़िया कैमरा लेकर भी, क्योंकि बहुत से लोग इसी खास कैमरे से देख सकेंगे। अपने विरोधियों की गतिविधियों को देखना इसी कैमरे से तो आसान होता है ! हाँ तो अच्छी तरह से सभी ने अपने-अपने कैमरे, अरे भई सामान्य कैमरे की कौन बेवकूफ बात कर रहा है, ख़ुफ़िये (कुछ और समझते हैं, तो उस आपकी समझ में हमारी लेखनी का कोई दोष नहीं है :P ) कैमरे यथास्थान फीट कर लिए हैं न !
यह अपना भारत भी बड़ा अजीब देश है और भारतवासी उससे भी ज्यादा अजीबो-गरीब |

यहां कोई बस बकरा बन भर जाए, सब उसे हलाल होते देखना चाहते हैं | क्या राजा क्या रंक! क्या अमीर, क्या गरीब! क्या कलम के हस्ताक्षर और क्या अँगूठा छाप। यहाँ तक की, कि बहुत से बकरे भी बकरा को हलाल होता देख मजा लेना चाहते हैं।

तो रहिये तैयार और पढ़िए यह --!
हाँ तो हम बकरा बनने को तैयार क्या हुए, सब हिंगलिश- संस्कृत- हिंदी -अंग्रेजी में दुई के पाँच पढ़ने लगें और हमें "शुभष्य शीघ्रं" की शिक्षा देने लगें | अब क्रोध में हमने शब्दों की तलवार उठायी तो थी, पर सोचे राय ले ली जाय कि सबका दिन ख़राब करें या रात में परी के सपने में आने के तार तोड़ दें |

राय मांगना भर था कि सब बोल उठे कि हंगामा हो तो अभी ही हो | हंगामे के समर्थन में नारे लगाने लगें | माने मजा सबको तुरंत ही चाहिए | कोई हलाल हो इससे किसी को कोई ख़ास मतलब नहीं होता है | हु-हा की लाठी लेकर चल पड़े, माने शांत बैठे गाँधी भक्त भी चूके नहीं ! हिंसा चाहने वाले तो इन मामलों में हमेशा ही सजग रहते हैं भई !

ऐसा विरोधाभाषी आचरण वाला आश्चर्य तो भारत में ही सम्भव है | कहने का अभिप्राय है कि मन में राम और बगल में छूरी रखने वाले भी हैं कई और कई तो ख़ास रूप से तभी दिखे जब फेसबुक पर यह गलती से अनाउंस हो गया हमारे मुख से | कई गहरे पानी में धक्का देने को आतुर दिखें, बिना यह जाने कि हमें तैरना आता भी या हम ऐसे ही डींग हांक दिए |

शाम को आतंकवादी आक्रमण करते हैं यह आठवाँ अजूबा आज ही पता चला हमें | हमने आव देखा न ताव हाँक दिया कि "चिंता न करा, हम उनहू से भिड़ी जाब, मरब या मारब" लेकिन सच पूछिये तो डर तो लगा | क्योंकि यहाँ तो सब मौके की ताक में ही रहते हैं कि कब कोई किसी को कोई कुछ कहें तो वो भी अपनी रोटी सेंक लें फुर्ती से | रोटी सेंकने वाले इतने उतावले रहते हैं कि सर फुटव्वल भी कर लेते हैं आपस में ही |
फिर चिंतक आगाह किए कि भिड़ना ठीक नहीं ! हम बाज क्यों आते, बोल दिए - ब्रह्मास्त्र है अपने पास | शुक्र है जुकरबर्ग भैया जानते थे कि यह फेसबुक भारत में कत्लेआम मचा देगा | गालियों-धमकियों का एक नया ग्रन्थ लिखवा देगा इसलिए उन्होंने ब्रह्मास्त्र की व्यवस्था आपातकालीन स्थिति के लिए रख छोड़ी थी | बस उसी ब्रह्मास्त्र के बलबूते पर हम जैसे लोग सर्वाइब कर रहे हैं बंधुओं | हमें भी इस ब्रह्मास्त्र बड़ा गुमान है और जुकरबर्ग से प्रार्थना है कि अपडेट के नाम से भविष्य में हमसे यह हथियार नहीं छीना जाए |

हाँ तो खुफियागिरी वाले ज्यादा ध्यान दें | और यह खबर वाइरल कर दें कि आदमी से जितना सम्भले उतना ही भार उठाए | तैरना न जाने तो  हमारी तरह पानी में जबरजस्ती ही नहीं कूद पड़े, बिना सोचे-समझे | वरना लेने के देने पड़ सकते हैं |

लड़की से शादी वक्त अक्सर सवाल पूछा जाता है बिटिया खाना बना लेती हो ? हाँ कहने पर फिर सवाल उछलता है -बीस-पचास का बना लोगी ? हाँ कहने पर सास ठहर जाती है और पसंद कर लेती है | लेकिन लड़की की माँ तैस में आकार यह कह दें कि हमारी लाड़ो तो पूरी बारात खिला लेगी ! और तो और शादी की पूरी व्यवस्था सम्भाल लेगी | तो भैये यह सही है क्या ? नहीं न |
आदमी हर काम और दस हाथ के सम्भलने वाला काम अकेले नहीं कर सकता | इसलिए उसे उतना ही काम अपने सिर पर लेना चाहिए, जितना वह सुचारू रूप से कर सकें | माने हम खामखाँ ही सीख देने पर उतारू हो गये हैं |
अब मुद्दे की बात पर आते हैं ! जिसके फलस्वरूप ये पांच सौ शब्दों का तानाबाना बुन उठा |
हमारी कथा "बदलाव" छपी है उस "बदलाव' में लिंग ही बदल दिया | उस कथा की ऐसी खटिया खड़ी करी गयी है कि हम पढ़कर क्रोधित हो उठे | घंटो आँख फोड़कर लिखने और गलतियों पर बारीकी से निरिक्षण करने का इतना कष्ट हुआ कि पूछिये ही मत |

उस किताब से सम्बन्धित आठ सम्पादक लोग हैं | किसे सुनाए समझ ही नहीं आ रहा है | इमेल का भी अता-पता नहीं मिल रहा है, घंटो मशक्कत कर लिए  | हम फोन भी करें कि जाने आखिर हमारा असली मुलजिम है कौन ! पर फोन उठा नहीं |  तो क्रोध की सीमा रेखा पार हो गयी, जो फेसबुक पर पोस्ट रूप में चिपकी |

लेकिन फिर देखा कि एक लाइन नहीं पूरा पैराग्राफ ही तहसनहस हुआ है | तो फिर क्या ! उठा लिए कलम और आ गये जनता दरबार में | मेहनत पानी में नहीं जाये इसका ख्याल तो सम्पादकों को अवश्य ही रखना होगा | अपनी टांग अड़ाने से अच्छा है जैसा लेखक दें हुबहू वही छाप दिया जाय | सम्पादन के नाम से कथा रूपी शरीर के पेट का आपरेशन करने के बजाय दिमाग का आपरेशन न कर दिया जाय ! फान्ट बदलने की गलती तो आदमी बर्दास्त कर सकता पर इस तरह की गलती असहनीय है !  असहनीय !! है न !!


देखिये आप सब भी इस कथा को...इतनी गलतियाँ ..पिछली बार के सम्पादक ने पता ही बदल दिया था, इस बार स्त्रीलिंग का पुलिंग में वार्ता कर दिया गया--


सही कथाएँ इस लिंक पर ..

http://kavitabhawana.blogspot.in/2018/02/blog-post_17.html

2 comments:

Jyoti khare said...

वाह बहुत सुंदर सृजन

कमल नयन दुबे said...

बहुत सुंदर 👌👌