Tuesday 24 February 2015

साहित्य का नशा

"मोबाइल खोलकर यहां बैठी हो, मैं कब से आवाज़ लगा रहा हूँपर तुम्हारे कान पर जूं ही नहीं रेंग रहीहद है यह तो|"
"क्या हुआ..? सारा काम अच्छे से निपटाकर ही तो बैठी थी!" 
"पहले मेरी हर एक आवाज़ पर खड़ी रहती थी, मुहल्ले की चार औरतों के साथ दिन में चार बार तुम्हारी बैठक जमती थी|”
“अब वक्त की कीमत समझने लगी मैं, यह तो अच्छी बात है न!”
 “कीमत! या नशा? तुमने अब ये कैसा नशा पाल लिया है
 रितु?"
"नशा! ये लिखने का नशा है! मेरी बात मानो, नशे में नहीं होतो करो ये 'नशाजरा|" गुनगुनाकर खिलखिला पड़ी रितु|
तुम पगला गयी हो रितु| मेरे पास और भी नशे है करने को, तुम्हारे इस नशे के सिवा|"
"जी हाँपागल हो गयी हूँ मैंघर में रहते हुए भी तुम, घर में रखी हुई चीजों से अंजान रहते हो| फिर ये कहाँ है, वो कहाँ है! चिल्लाते फिरते हो?
"नेट पर रहो रितु ! पर एक नार्मल यूज़र की तरहएडिक्ट की तरह नहीं|"
"तुम्हारी एक आवाज़ नहीं सुनी तो मैं एडिक्ट हो गयी, और जो तुम अपने काम के चक्कर में मेरी एक भी नहीं सुनते हो वह क्या है! नशाजब दर्द की दवा बन जाये तो फिर उस नशे को अपनाने में बुराई ही क्या है जी? 
"तुम्हारा यह नशा खाने को दो कौड़ी भी नहीं देगा|"
"वह भी दे रहा है| देखो आज अखबार में मेरी कविता छपी हैऔर कुछ दिनों में पाँच सौ का चेक भी भेजेंगे उधर से|"
"तो कौन-सा तीर मार लीइतनी पढ़ाई पहले करती तो आज आईएएस-पीसीएस होती!"
"जब जागो, तब सवेरा! कलम आईएएस-पीसीएस भी पकड़ते हैं और मैंने भी पकड़ी है!"
"हू ! खाना लगा दोगी या वह भी मुझे खुद ही लेना पड़ेगा?"
पति के हाथों में तौलिया देकर, लैपटॉप बंद करके वह बढ़ चली रसोई की ओर..! पति उसके चेहरे को बड़े गौर से पढ़ रहा था
“क्या घूर रहे हो..?”
“नशेड़ियों के चेहरे पर तो एक अजीब-सी बेचैनी होती है, पर तुम्हारा चेहरा तो महीनों से दमकने लगा है|”
“ये साहित्य का नशा है| अब तो बढ़ेगा ही|
सविता मिश्रा अक्षजा
इसमें लिखे थे ..Savita Mishra
24 
फ़रवरी 2015
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