Sunday 8 February 2015

~~गर्म खून~~

"मालूम है तुम जवान हो, खून उबाल मरता है | हर गलत बात का स्वविवेक से प्रतिकार करना चाहते हो | यह सब कर देखो, मार ली न अपने पैरो पर ही 'कुल्हाड़ी' | होती हुई 'प्रोन्नति' रुक गयी|"
"पर पापा, वो नियम विरुद्ध ....|"
"बेटा अनिमितताएं कहाँ नहीं हैं ? कौन चल रहा हैं नियमपूर्वक ? दिल-दिमाक भले ही क्रोध से उबल रहा हो, पर जबान को ठण्डी रखो| ठीक हैं ना ..सुन रहे हो या ..."
"सुन रहा हूँ पापा ..|"
"ऐसा कर सकें तो खुशनसीबी, वर्ना बदनसीबी तो दस्तक देने दरवाज़े पर ही खड़ी रहती है |"
"मतलब पापा, आप चाहते है वीरबहादुर का बेटा चमचा बन जाये |"
"बिल्कुल नहीं बेटा,पर कभी-कभी इस जुबान को दाँतों के अन्दर भींचना होता है| वर्ना मेरी हालत तो देख ही रहे हो| जो तुम्हें सिखा रहा हूँ यदि खुद कर पाता तो आज कहाँ से कहाँ होता| पर अपनी सच्चाई की अकड़ में चापलूसी को पकड़ नहीं पाया |..सांस खींचते हुए से अफ़सोस जाहिर किये फिर बोले -- "तभी तुम्हारी मम्मी ताने मारती रहती है कि 'क्या किये आप ? आपके साथ के कहाँ के कहाँ पहुँच गये|' अब वही साथ वाले साथ उठाना बैठना क्या ! देखना भी नहीं चाहते सामने मुझे |"
बेटे के कंधे पर हाथ रखते हुए बोले - "ये सीख 'विरासत' है बेटा, एक नाकामयाब बाप की ! जो बेटे की कामयाबी की आशा रखते हुए अपने बेटे को सौंप रहा है | पर बेटा यह भी ख्याल रखना कि चापलूसी इतनी भी मत करना कि अपनी ही नजरों में गिर जाओ|"
"जी पापा, आपकी सीख हमेशा याद रखूँगा | थोड़ी जरूरत पर चापलूसी, वर्ना मौन रहूँगा | जब तक 'गर्म खून' का उबाल कम ना हो जाये|"
"कामयाबी कदम चूमेगी बेटा और हर दिल अजीज़ रहोगे फिर|" आश्वस्त हो पिता बोले | सविता मिश्रा

2 comments:

Ankur Jain said...

सुंदर प्रस्तुति।

सविता मिश्रा 'अक्षजा' said...

शुक्रिया