Friday 27 March 2015

~~अशक्त नहीं ~~


शीशे में अपने आप को निहारते हुए खुद को ही धित्कार बैठे वह |

" अरे , मैं रोज शेव करके नहा-धो तैयार हो जाता था | ये रिटायर होते ही क्या हो गया मुझे |
बूढ़ा समझ सरकार ने भले रिटायर किया पर अभी तो मैं जवान दिख रहा हूँ | dig बन न सही पर समाज सेवी बन तो समाज की सेवा कर ही सकता हूँ | "--
विचार आते ही वो पहले के जैसे ही फुर्ती से तैयार होने लगे |
सविता मिश्रा

Wednesday 25 March 2015

~औलाद ~

"चार बहुए हैं पर घर में एक भी औलाद नहीं |आज होता तो निधि की विदाई में सारी रस्में वही निभाता | भगवान् को पता नहीं क्या मंजूर था जो घर में बेटियों की भरमार कर दी | बेटा एक भी ना दिया उसने |"
"सही कह रही हों आप बुआ पर कोई बात नहीं मेरा बेटा भी तो निधि का भाई ही हैं |" भतीजी सुमन बोली |
सुमन ने बड़े गर्व से बेटे को आवाज लगाई | पर ये क्या विदाई की रस्म तृषा निभा रही थी |
देखते ही दादी आग बबूला हो गयीं | तुझसे किसने कहा ये रस्म निभाने को ये भाई करता है बहन नहीं | चल हट परे वर्ना दादाजी ने देख लिया तो हंगामा खड़ा हो जायेगा |"
"अम्मा मैंने कहा इससे, आखिर 'औलाद' तो ये भी है न मेरी | लड़का हो या लड़की उतना ही दर्द, उतना ही समय और उतना ही प्यार | फिर ऐसे कैसे बुरा बर्ताव और क्यों ऐसा भेदभाव | 'दूसरा' निभाए इससे अच्छा है न अपना कोई निभाए | " तृषा की माँ बोली
दादी को समझने में देर ना लगी और वह भी गर्व से बोल उठी अरे हां ये छवों बेटियां तो हीरा हैं हीरा | औलाद तो ये भी हैं |"
भतीजी का चेहरा तमतमा गया जैसे करारा तमाचा पड़ गया हो | भुनभुनाती हुई जलती भुनती रहीं तृषा को रस्म निभाते देख | सविता मिश्रा

Monday 2 March 2015

दूसरा कन्धा

"पहले के लोग दस-दस सदस्यों का परिवार कैसे पाल लेते थे| अपनी जिन्दगी तो मालगाड़ी से भी कम स्पीड पर घिसट रही है जैसे|" महंगाई का दंश साफ़ झलक रहा था पति के चेहरे पर| पहले सुरसा मुख धारण किए ये महंगाई कहां थी जीअब तो दो औलाद ही ढंग से पालपोस लें यही बहुत है|" महंगाई पर लानत भेजती हुई पत्नी बोली|
"सही कह रही हो तुम|" "महंगाई की मार से घर के बजट पर रोज एक न एक घाव उभर आता है| कल ही बेटी सौ रूपये उड़ा आई तो बजट चटककर उसके गाल पर बैठ गया|" पत्नी की आवाज में पछतावा साफ़ झलक रहा था| "मारा मत करो| सिखाओ कि 'कैसे चादर जितनी पैर' ही फैलायें|" समझाते हुए पति ने कहा| "क्या करूँ जी! तिनका-तिनका जोड़ती हूँ, पर बचा कुछ नहीं पाती हूँ| तनख्वाह रसोई और बच्चों की स्कूल और ट्यूशन फ़ीस में ही दम तोड़ने लगती है| कोई काम वाली नहीं रखी फिर भी महीने के अंत समय में ठनठन गोपाल रहता है|" कहकर भारी कदमों से चल दी रसोई की ओर| नौकरी छुड़वा देना का अपराध बोध तो था, फिर भी आस भरी निगाहों से पत्नी को निहारते हुए बोला- "सुनती हो, एक अकेला कन्धा गृहस्थी का बोझ नहीं उठा पा रहा| दूसरा कन्धा .. ? शायद आसानी हो फिर|" सुनकर पत्नी का चेहरा सूरजमुखी-सा खिल गया| पत्नी के हामी भरते ही पति के आँखों में घर का बजट मेट्रो-की-सी स्पीड से दौड़ने लगा| सविता मिश्रा 'अक्षजा' 2 March 2015 --००--