'तुम जैसे गँवार से शादी करके फंस गयी मैं |' पत्नी द्वारा कहें कुत्सिक वचन बेचैन मन में मंथन कर रहे थे | वहीं खड़ा हुआ सोचने लगा 'ट्रेन आते ही कूद पडूँगा उसके सामने !'
"तृप्ति तो मेरे रंग में रत्ती भर भी न रंगी और मैं, मैं हूँ कि घर-बार, माँ-बाप, सब कुछ छोड़ दिया उसके लिए | हर समय उसके साथ खड़ा रहा पर वह ....|"
मन को स्वयं के ही शब्दों के तीर चुभो रहा था कि इसी बीच दनदनाती हुई एक ट्रेन बगल की पटरियों से गुजर गई |
जीवन से तंगहाल और आत्मग्लानी में भय बहुत दूर हो गया था उससे |धड़धड़ाती हुई ट्रेन बिलकुल नजदीक से उसके कपड़े और बालों को उड़ाती हुई चली गयी |
मन-मंथन अब भी चल ही रहा था 'हाँ' या 'न' | क्या सुन्दरता, शहरीपन और पद गृहस्थी के दोनों पहियों के तालमेल में सच में बाधक हैं ! क्या मेरी अनपढ़ माँ सच कहती थी | शायद सही ही कहती थी माँ | आखिर साईकिल का पहिया कार के पहिए के साथ कैसे चल सकता है |
दूसरी ट्रेन का इंतज़ार करता हुआ वह वही पटरी पर बैठ गया ! तभी उसने ध्यान से देखा वो जिस दो पटरियों के मिलने वाले पाट पर बैठा था, वहीं से दो पटरी निकल, अलग-अलग हो, ट्रेनों के चलने का माध्यम बन रही थीं | फिर अपनी दूरी बनाते हुए दूर कहीं मिलती हुई-सी दिख रही थीं |
अब उसका दिमाग पूरी तरह जाग चुका था | तृप्ति से तालमेल बैठाने का एक नया फार्मूला उसे प्राप्त हो चुका था | वह झटके से उठा और दुकान से फूलों का गुलदस्ता लेकर सधे कदमों से घर की ओर चल पड़ा |