Sunday 22 November 2015

जीत - लघुकथा

कपड़े पहनने के ढंग को लेकर फिर से पत्नी से मनोज की कहासुनी हुई | कभी कपड़े, कभी खाना और कभी पार्टी में जाने को लेकर लड़ाई हो ही जाती थी | रोज की चिकचिक से तंग आ गया था | झगड़ते हुए दिमाग का संतुलन बिगड़ा तो आज मनोज निकल पड़ा घर से | जब दिमाग़ जागा तो रेल की पटरियों के पास खुद को पाया |
'तुम जैसे गँवार से शादी करके फंस गयी मैं |' पत्नी द्वारा कहें कुत्सिक वचन बेचैन मन में मंथन कर रहे थे | वहीं खड़ा हुआ सोचने लगा 'ट्रेन आते ही कूद पडूँगा उसके सामने !'
कितना मना किया था माँ ने कि पूरब और पश्चिम का मिलन ठीक नहीं हैं | पर वह प्रेम में अँधा था | उसने सोचा था कि थोड़ा वह गाँव से जुड़ेंगी और थोड़ा मैं उसकी तरह मार्डन हो जाऊँगा | परन्तु दो साल में दोनों में कोई तालमेल नहीं बैठ पाया था |
"तृप्ति तो मेरे रंग में रत्ती भर भी न रंगी और मैं, मैं हूँ कि घर-बार, माँ-बाप, सब कुछ छोड़ दिया उसके लिए | हर समय उसके साथ खड़ा रहा पर वह ....|"
मन को स्वयं के ही शब्दों के तीर चुभो रहा था कि इसी बीच दनदनाती हुई एक ट्रेन बगल की पटरियों से गुजर गई |
जीवन से तंगहाल और आत्मग्लानी में भय बहुत दूर हो गया था उससे |धड़धड़ाती हुई ट्रेन बिलकुल नजदीक से उसके कपड़े और बालों को उड़ाती हुई चली गयी |
मन-मंथन अब भी चल ही रहा था 'हाँ' या 'न' | क्या सुन्दरता, शहरीपन और पद गृहस्थी के दोनों पहियों के तालमेल में सच में बाधक हैं ! क्या मेरी अनपढ़ माँ सच कहती थी | शायद सही ही कहती थी माँ | आखिर साईकिल का पहिया कार के पहिए के साथ कैसे चल सकता है |
दूसरी ट्रेन का इंतज़ार करता हुआ वह वही पटरी पर बैठ गया ! तभी उसने ध्यान से देखा वो जिस दो पटरियों के मिलने वाले पाट पर बैठा था, वहीं से दो पटरी निकल, अलग-अलग हो, ट्रेनों के चलने का माध्यम बन रही थीं | फिर अपनी दूरी बनाते हुए दूर कहीं मिलती हुई-सी दिख रही थीं |
अब उसका दिमाग पूरी तरह जाग चुका था | तृप्ति से तालमेल बैठाने का एक नया फार्मूला उसे प्राप्त हो चुका था | वह झटके से उठा और दुकान से फूलों का गुलदस्ता लेकर सधे कदमों से घर की ओर चल पड़ा |
21 November 2015

Saturday 7 November 2015

परछाई -

सड़क किनारे एक कोने में, छोटे से बच्चे को दीपक बेचते देख रमेश ठिठका |
उसके रुकते ही पॉलीथिन के नीचे किताब दबाते हुए बच्चा बोला - "अंकल कित्ते दे दूँ?"
"दीपक तो बड़े सुन्दर हैं | बिल्कुल तुम्हारी तरह | सारे ले लूँ तो ?"
"सारे ! लोग तो एक दर्जन भी नहीं ले रहें | महंगा कहकर, सामने वाली दूकान से चायनीज लड़ियाँ और लाइटें खरीदने चले जाते हैं | झिलमिल करती वो लड़ियाँ, दीपक की जगह ले सकती हैं क्या भला !"
उसकी बातें सुन, उसमें अपना अतीत पाकर, रमेश मुस्करा पड़ा |
"बेटा ! सारे दीपक गाड़ी में रख दोंगे?"
"क्यों नहीं अंकल !" मन में लड्डू फूट पड़ा | पांच सौ की दो नोट पाकर सोचने लगा, 'आज दादी खुश हो जाएगी | उसकी दवा के साथ-साथ मैं एक छड़ी भी खरीदूँगा | चलने में दादी को कितनी परेशानी होती है बिना छड़ी के |'
"क्या सोच रहा है, कम हैं ?"
"नहीं अंकल ! इतने में तो मैं सारे सपने पूरे कर लूँगा।
कहकर वह अपना सामान समेटने लगा। अचानक गाड़ी की तरफ पलटा फिर थोड़ा अचरज से पूछा - "अंकल, लोग मुझपर दया दिखाते तो हैं, पर दीपक नहीं लेते हैं | आप सारे ही ले लिए !" कहते हुए प्रश्नवाचक दृष्टि टिका दी ड्राइविंग सीट पे बैठे रमेश पर।
रमेश मुस्करा कर बोला-
"हाँ बेटा, क्योंकि तुम्हारी ही जगह, कभी मैं था |"
-----००---
सविता मिश्रा 'अक्षजा'
Savita Mishra

Tuesday 3 November 2015

~~मरहम या नमक~~

साहित्यकारों के सम्मान लौटाने की होड़ मची हुई थी | थोड़ा हो हल्ला हुआ | एक दूजे को गलत साबित करने के कई कारण गिनाये गये पर जनता मूक बनी रही | उनकी सम्मान वापिसी को मीडिया वाले भी फुटेज देना बंद कर दिए थे | सारे साहित्यकार छींटाकसी और उपेक्षा से तिलमिला उठे |
बस एक कौने में छोटी सी खबर 'फलां ने लौटाया साहित्य सम्मान' होती | खबर पढ़ कुकरेजा साहब ने कहा था "बात बनती दिख ना रही हैं मुकेश बाबु" |
फिर क्या था कई सम्मानित साहित्यकार ने नामी-गिरामी हस्तियों से मिल एक नया पैतरा खेला | अखबार टीवी की सुर्खियों में खबर आ रही थी, "साहित्यकारों के साथ अब फ़िल्मी कलाकार भी सम्मान लौटाने की दौड़ में शामिल "| सम्मान लौटाने को लेकर एक नयी रणनीति का आगाज हो गया था |
मुकेश बाबू बोले, "अब बात बनी न कुकरेजा साहब |"
"हा मुकेश बाबु, हफ्तों की मेहनत रंग दिखा रही अब|"
हर गली मुहल्ले में अपने चहेते कलाकार के पक्ष में भीड़, भिड़ने को तैयार थी |
चाय,परचून,शराब यहाँ तक की 'अस्पताल' की दुकानों में खबर गर्म थी | बच्चे-बच्चे को मालूम था की सम्मान लौटाया जा रहा | वो भी फ़िल्मी हस्तियों के कारण बड़ो के सुर में सुर मिलाने लगे थे | कुकरेजा और मुकेश बाबू गर्मागर्म बहस का मजा लेते हुय फुसफुसा उठे "क्यों ? पासे सही फेंके गये न अब" |
रज्जू काका के चाय की ठेल पर एक नवजवान इस कदम को सही ठहरा दलील पर दलील दें रहा था | दलील सुन नरसंहार में अपने दो जवान बेटे को खोने का जख्म हरा हो रहा था|
एकाएक रज्जू काका का नासूर फूट पड़ा, वो रुंधे गले से बोल उठे, " वो सब तो जानवर थे जो २०१५ से पहले ही कई बार बर्बाद हुय | काश आज के समय में बर्बाद हुए होते तो कम से कम इंसानों में तो गिने जाते |" सविता मिश्रा

Saturday 31 October 2015

करवाचौथ का विहान मुबारक ..:)

कल सब अपने-अपने ही चाँद को देख खुश थे | हम भी खुश और मनन कर रहें थे कि दुनिया ऐसे ही खुबसुरत हो तो कितनी अच्छी लगे|और तो और पवित्रता अपने देश में वाश करने लगे फिर से चहुँओर | मुस्करा ही रहें थे तभी एक महोदय पास आ बोले , क्यों मुस्करा रहीं हैं अकेले-अकेले ? हमारा उत्तर सुन ठठा पड़े | बोले अरे तरह तरह के चांदो की नुमाइश तो रोज करता हूँ | कम से कम एक दिन तो अपने चाँद को देखूं न और परखू भी कि कहीं दूजा चकोर उस पर ग्रहण तो न डाल रहा |

करवाचौथ का विहान मुबारक ..:)

Friday 30 October 2015

शुभ कामनायें

सभी बहनों को हार्दिक शुभकामनायें ...आप सभी का सुहाग बना रहें!!!!जीवन सुखमय रहें।
पति लोग जो ये कहते कि औरते चुप रहें तो उम्र बढ़ेगी उनकी वो शायद भ्रम में हैं । उनकी उम्र तो हमेशा बढ़ती ही हैं बल्कि उनके चिकचिक से औरतो की उम्र घटती, तभी तो शादी के वक्त औरतो की उम्र आदमी से दस से तीन साल तक छोटी होती। कारण साफ़ औरते आदमियो से जल्दी बूढी होती फिर भी ये सब कहते औरते व्रत से अच्छा चुप रहें....विज्ञानं कहता चुप रहने से उम्र बढ़ती तब तो औरतो की बढ़नी चाहिए!! यदि आदमी कहते की उनकी उम्र घट रही यानि साबित होता हैं कि आदमी लोग ज्यादा बोलते।😂😂😂😂😂
यानि अब से आप सब कम बोलने की आदत डाले और अपना जीवन खुशहाल करें!!!पत्नियो को जेवर कपडे देकर उन्हें भी खुश रखे और मांगती ही क्या हैं आपसे बस थोडा सा प्यार ही न...जो आप दुसरो पर लुटाने के इच्छुक रहते!!! अपनों पर लुटाए !! सुखी रहें और खुश रहने दें!!!!!पड़ोसन को देख ईष्या न पाले!!!!!!!!बोलो करवा माता की जय☺☺☺☺

Thursday 29 October 2015

~सुसंस्कार~


ससुर-सास गाँव से आते ही न चाय पिया न पानी । बहू से पूछताछ करने लगें ।
"बहू , सुना हैं तू तलवार बाजी सीखा रहीं हैं बिटिया को |"
"किसने कहाँ बाबूजी , वो मुए लफंगे अफवाह उड़ाते रहते | तलवारबाजी सिखाकर शादी व्याह में रोड़े थोड़े डालना हैं मुझे | वो तो झाँसी की रानी का मंचन चल रहा | आपकी पोती रानी लक्ष्मीबाई का किरदार निभा रही | इस लिय थोड़ा सा सीख रही हैं बस|"
"तभी कहूँ कि मोहन तो ऐसा न करेगा कि लड़की को तलवार सिखाये और लड़के को रोटी बनाना | कहाँ हैं मोहन, उससे कहना कि दोनों को एक दूजे का सम्मान करना सिखाये | "
"अरे जी, तुम क्या समझोंगे ! क्या लड़के ,क्या लड़की सबको आजकल की हवा लग गयी हैं | अब लड़कियां घर में कहाँ रहती और लड़के भी रसोई में दो-चार पकवान बना ही लेवे।" पत्नी बोल उठी
"हा तू तो खूब समझती हैं तभी लड़की को घर में कैद रख सोची वह सुरक्षित रहेंगी | उसे भी जमाने की हवा लगने दी होती तो आज ...|"
माहौल गमगीन हो गया | सहसा गाँव के ही लड़के द्वारा सोनी का चीर हरन आँखों के सामने गुजरने लगा | घर में बंद रहने के कारण वह लड़को से नजर भी मिलाने से डरती थी विरोध क्या करती | सोनी की माँ के आँखों से दर्द बहने लगा ।
"गलती तेरी भी न सोनी की अम्मा मैं भी तो समभागी हूँ | काश शिक्षक का फर्ज भी निभाते हुय अपने गाँव के बच्चों में सुसंस्कार बांटे होते तो बेटी का दर्द नासूर बन ना रिसता रहता |" सविता मिश्रा

~~आंख पर पड़ा परदा~~पथप्रदर्शक-

पथप्रदर्शक-

"सब्जी ले लो,तोरी, गाजर,मटर, आलू ले लोओओsss!!"
"भैया रूको , मैं आती!!"
"बेटा रिशु ,चल साथ में ,ज्यादा सब्जी लेनी हैं न, तू उठा ले आना।"
"जी मम्मा ,आप चलिए मैं आता हूँ, बस थापर सर की कामयाबी के टिप्स लिख लूँ!!"
"जल्दी आना !!"
"हां मम्मा, आप के खरीद चुकने से पहले आपके पास होऊंगा ।"
"टमाटर और प्याज कैसे दिए भैया|"
"40 रूपये में दीदी जी|"
"इतने महंगे !!!न न 30 में दो तो बोलो , हमें तीन चार केजी लेना। कल मेरे बेटे के राष्ट्रिय कबड्डी टीम में सेलेक्शन होने की पार्टी हैं न।"
"वाह दीदी जी, आप मेरी तरफ से फिर फ्री लीजिये।" सब्जी वाला खुश होकर बोला।
'सर'- 'सर' कहते सुन अचानक ठेल से नजर उठाते ही नीलम रिशु को सब्जी वाले के कदमो में झुका हुआ देख हतप्रभ रह गयी।
"रिशु ये क्या हैं??"
"मम्मा तुम नहीं जानती इन्हें? यही तो हैं मेरे अदृश्य गुरु!!! गोल्ड मेडिलिस्ट!!! जिनकी मैं दिन रात पूजा करता हूँ। आज ये मुझे मिल गए, मैं साक्षात् इनसे ही अब सीखूंगा।"
"बोलिये न थापर सर, आप सिखायेंगे ना मुझे कबड्डी के गुर???"

नीलम की ख़ुशी अब काफूर सी हो गयी थी। बेटे के उत्साह और देश के महान कबड्डी खिलाड़ी को सब्ज़ी बेचते देखकर अचानक वो कठोर निर्णय लेते हुए सब्जी वाले से बोली- "भैया टमाटर बस आधा केजी ही देना।"
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Sunday 27 September 2015

~पुरानी खाई -पीई हड्डी~

~चित्र आधारित लघुकथा ~

अस्त्र-शस्त्रों से लैस पुलिस की भारी भीड़ के बीच एक बिना जान-जहान के बूढ़े बाबा और दो औरतों को कचहरी गेट के अन्दर घुसते देख सुरक्षाकर्मी सकते में आ गए |

"अरे! ये गाँधी टोपीधारी कौन हैं ?"

"कोई क्रिमिनल तो न लागे, होता तो हथकड़ी होती |"
"पर, फिर इतने हथियारबंद पुलिसकर्मी कैसे-क्यों साथ हैं इसके ?" गेट पर खड़े सुरक्षाकर्मी आपस में फुसफूसा रहे थे |
एक ने आगे बढ़ एक पुलिसकर्मी से पूछ ही लिया, "क्या किया है इसने? इतना मरियल सा कोई बड़ा अपराध तो कर न सके है |"
"अरे इसके शरीर नहीं अक्ल और हिम्मत पर जाओ !! बड़ा पहुँचा हुआ है| पूरे गाँव को बरगलाकर आत्महत्या को उकसा रहा था |" सिपाही बोला
"अच्छा! लेकिन क्यों ?" सुरक्षाकर्मी ने पूछा
"खेती बर्बाद होने का मुआवज़ा दस-दस हजार लेने की जिद में दस दिन से धरने पर बैठा था | आज मुआवज़ा न मिलने पर इसने और इसकी बेटी,बीबी ने तो मिट्टी का तेल उड़ेल लिया था | मौके पर पुलिस बल पहले से मौजूद था अतः उठा लाए |"
"बूढ़े में इसके लिए जान कैसे आई ?" सुरक्षाकर्मी उसके मरियल से शरीर पर नज़र दौड़ाते हुए बोला|
"अरे जब भूखों मरने की नौबत आती है न तो मुर्दे से में भी जान आ जाती है, ये तो फिर भी पुरानी खाई -पीई हड्डी है |" व्यंग्य से कहते हुए दोनों फ़ोर्स के साथ आगे बढ़ गया |

"गाँधी टोपी में इतना दम, तो गाँधी में ..." सुरक्षाकर्मी बुदबुदाकर रह गया |

 सविता मिश्रा

Saturday 26 September 2015

मन में लड्डू फूटा (लघुकथा)

"भैया डीजल देना"
"कितना दे दूँ भाईसाब ?"
"अरे भैया गैलेन भर दो, देख ही रहे हो आजकल लाईट कितनी जा रही है| रोज-रोज दूकान के चक्कर कौन लगाये|"
"हा भाईसाब इस सरकार ने तो हद कर दी है|" जैसे उसके दुःख में खुद शामिल है दूकानदार|
उसके जाते ही वही दूकानदार आरती करते वक्त- "हे प्रभु अपनी कृपा यूँ ही बनाये रखना| यदि साल भर भी ऐसे ही सरकार को बुद्धि देते रहे तो बच्चे की पढ़ाई पूरी हो ही जायेगी प्रभु |"

Tuesday 15 September 2015

बदहाल हिंदी

सब जगह बस तू ही तू ....मेरा अस्तित्व तो बस किताबो में रह गया ...वहां भी तेरा ही घुसपैठ ..मेरी कराह कोई सुन कहाँ रहा...जो सुन रहा वो तेरी ही भाषा में बोल रहा....वेट ऐंड वाच या फिर टेक केयर कह निकल जा रहा..मेरे को बचाने कोई मसीहा आएगा क्या कभी!!!!
उम्मीद पर दुनिया कायम हैं और मैं भी...जल्दी आना वो मेरे मसीहैं ☺☺☺तेरी बदहाल हिंदी
सविता मिश्रा

Monday 24 August 2015

~~दर्द~~

"कितनी कोशिश की पर नहीं लिख पा रही। ये कथा भी झन्नाटेदार लघु कथा नहीं बन पा रही। "कथा सुनाती हुई अपनी सखी से रूबी बोली
"अरे क्यों !! तुम कितना अच्छा तो लिखी हो रूबी। हमें तुम्हारी लेखनी में तो जादू सा अहसास होता हैं। बहुत दमदार लिखती हो।"
तभी बगल में बैठे बुजुर्ग ने कहा , "अच्छा विषय चुना कोशिश करती रहो ।"
"ऐसा क्या करूँ कि अपने अच्छे विषय को परफेक्ट बना सकूँ अंकल जी।"
"कुछ नहीं बेटा बस एक चुनौती की तरह लो फिर देखो कमाल। झन्नाटेदार कथा लिखने की कोशिश के बजाय , अपने दिल पर झन्नाटेदार थप्पड़ महसूस करो। " सविता

Saturday 22 August 2015

खुशबू चंदन की


“अरे ! यह किताब ! यह तो मेरी कहानी संग्रह है | यह आपके हाथ ! आज मुझको  कैसे पढ़ने की इच्छा हुई !!”
“तुम्हें तो कब से पढ़ रहा हूँ, पर जान ही नहीं पाया कि तुम  छुपी रुस्तम भी हो |
क्या लिखती हो ! आज पता चला। एक कहानी पढ़कर तो  हँसी ही नहीं  रुक रही है।”
“कौन सी कहानी पढ़कर हँसी का फव्वारा फूट पड़ा है जनाब ?”
“अरे ये  वाली ‘जाहिल पिया ! कहीं इस कहानी के जरिये मुझ पर तो गुबार नहीं निकाली हो |” कहानी वाला पेज खोलकर निगाहें तिरक्षी करते हुए कहा |
“ह्ह्ह्हह तुम भी न ! सब मर्द एक जैसे ही होते हो, शंकालु। सब इमेजिनेशन है | सच्चाई तो  हींग माफ़िक होगी, समझे बुढऊ।” दोनों ही उन्मुक्त हँसी हँसने लगें |
“एक बात पुछु ?”
“हाँ भई हाँ, पूछो! तुमको कब से इजाजत लेने की जरूरत पड़ने लगी।! ”
“मेरी हर आवाज पर तुम सामने होती थी। बच्चों को भी कभी भी अकेले एक पल के लिए नहीं रहने दिया। फिर ये कहानियों  के लिए समय कब निकाल लेती थी तुम ?”
“काम तो हाथ करते थे न, दिमाग़  तो कहानी बुनता था फिर रात बिरात कलम उन्हें संग्रह कर लेता था | ”
“तुम्हारी कहानी की तरह ही तुम्हारे जवाब भी लाजव़ाब हैं।”
"हुँह!!” चलो अब खाना खा लो बहुत तारीफ़ हो गयी। ”
“हाँ चलो, अब खा ही लूँ ! नहीं तो ‘भूखा पति‘ कहानी लिख दोगी।” फिर से ठहाका गूँज उठा कमरे में। ..सविता मिश्रा

Tuesday 14 July 2015

अन्तर्मन (kahani)

पेड़ के बगल ही खड़ी हो पेड़ से प्रगट हुई स्त्री ने पूछा , “अब बताओ इस रूप में ज्यादा काम की चीज और खूबसूरत हूँ या पेड़ रूप में |
पेड़ बोला , “खूबसूरत तो मैं तुम्हारे रूप में ही हूँ , पर मेरी खूबसूरती भी कम नहीं | काम का तो मैं तुमसे ज्यादा ही हूँ |”
” न ‘मैं’ हूँ |”
पेड़ ने कहा, ” न न ‘मैं’ ”
पेड़ ने धोंस देते हुए कहा , “मुझे देखते ही लोग सुस्ताने आ जाते हैं |जब कभी गर्मी से बेकल होते हैं |”
“मुझे भी तो |” रहस्यमयी हंसी हंसकर बोली स्त्री
“मुझसे तो छाया और सुख मिलता हैं आदमी को |”
“अरे मूर्ख मैं भी छाया और सुख प्रदान करती हूँ| आंचल से ज्यादा छाया और सुख कोई नही दे सकता |” अहंकार से भर इठला गयी स्त्री
“मुझ पर लगे फल लोग खा के तृप्त होते हैं |”
“हा हा हा हा” ठहाका जोर का मारकर बोली , “मुझसे भी तृप्त ही होते हैं |” कह शरमा सी गयी
“मेरी पतली पतली शाखायें लोग काट आग के काम में लाते हैं |”
“मैं स्वयं एक आग हूँ, बड़े बुजुर्ग यही कहते हैं |” रहस्यमयी मुस्कान बढ़ गयी थी
“मैं आक्सीजन प्रदान करता हूँ |”
“मैं खुद आक्सीजन हूँ ! जिन्दगी देती हूँ ! मेरे से प्यार करने वाला मेरे बगैर मर जाता हैं | तुमसे भी प्यार करने वाले करते तो हैं पर तुम्हारे न होने पर मरते नहीं हैं |” गर्वान्वित हो बोली स्त्री
“मैं उपवन को हरा-भरा रखता हूँ |”
“अरे महामूर्ख , मैं खुद उपवन ही हूँ ! मेरे बगैर इस धरती का सारा वैभव तुच्छ हैं |”
“मुझे लोग काट निर्जीव कर अपने घरों में सजाने के उपयोग में लें आते हैं |” थोड़ा दुखी हो वृक्ष बोला ” इससे अच्छा हैं मैं तुम्हारे इस स्त्री रूप में ही रहूँ | सच में तुम ज्यादा खूबसूरत और काम की हो | मैंने हार मान ली तुमसे |”
अहंकार खो सा गया यह सुनते ही | स्त्री बोली, “नहीं , नहीं वृक्ष मैं इस रूप में नहीं रह सकती | तुम्हारा निर्जीव रूप में ही सही शान से उपयोग तो लोग कर रहें पर मुझे तो ना जीने देते हैं न मरने | तुम्हे निर्जीव कर तुम्हारे ऊपर आरी चलाते हैं पर मुझ पर तो जीते जी |” दुखित हो स्त्री बोली
"ठहरों , मैं तुम में समा जाती हूँ फिर से | जादूगर ने कहा था न सूरज डूबने से पहले नहीं समाई तो मैं स्त्री ही बन रह जाऊँगी | हे वृक्षराज , मैं स्त्री नहीं वृक्ष रूप में ही ज्यादा सुरक्षित हूँ | और हर रूप में मानव को सुख देने में सक्षम रहूंगी इस वृक्ष रूप में | मानव स्त्री को तो नरक का द्वार कहकर घृणा भी करता हैं | तुम्हें यानि पीपल को पिता का रूप मान आदर देता हैं | मैं तुम्हारे रूप में ही रहकर सुकून पाऊँगी | मुझे अपने में समेट लो वृक्षराज |” विनती करती हुई सी बोली स्त्री |
दोनों ने जादूगर द्वारा दिए मन्त्र बोले और एक रूप हो गये | अँधेरा अपने यौवन रूप में प्रवेश कर चुका था |
— 

Sunday 12 July 2015

~~ऐतवार ~~

"मेरे शरीर का हर अंग मैं दान करती हूँ , बस आँख न लेना डाक्टर |" मरते समय शीला कंपकपाती आवाज में बोली
"आँख !आँख क्यों नहीं , यही अंग हैं जिसकी जरूरत ज्यादा हैं लोगों को |"
"डाक्टर साहब,  ये मेरे पति की आँखे हैं |  मोतियाबिंद के कारण मेरी दोनों आँखें नहीं रही थीं  | हर समय दिलासा दिलाते रहते | हर वक्त मेरी आँख बन मेरे साथ रहतें |शरीर से तो वो मुक्त हो गये मुझसे, पर आँख दे गये |बोले इन आँखों में तुम बसी हो अतः अब ये तुममें ही बस कर तुमकों देखेंगी | इन आँखों को दान कर मैं उनके प्रेम से मुक्त नहीं होना चाहती | तभी मोबाइल बज उठा, ये प्यार का बंधन हैं ....रिंग टोन सुन डाक्टर मुस्करा उठे |
बस इतना ही रहें तो कैसी बनी कथा |
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या ये नीचे लिखा हुआ जोड़ दें तो अच्छा ...कृपया राय भी दे दीजियेगा पढने पर

उठाते ही विदेश में रहने वाले बेटे की आवाज आई- "माँ,मैं आ रहा हूँ ! अच्छे से अच्छे डाक्टर को दिखाऊंगा तुम चिंता न करो | "
"बेटा, आ जा जल्दी , पर अब डाक्टर की जरूरत नहीं |अब ये शरीर इस मोह के बंधन को तोड़ दैविक बंधन में बंधना चाहता हैं |" फोन कटते ही निश्चेत हो गयीं |

Saturday 11 July 2015

ज़िद नहीं (चोट)

"पापा, आइसक्रीम चाहिए |"
"सुबह-सुबह आइसक्रीम नुकसान करेगी |" समझाने पर भी विमल को आखिरकार दिलानी ही पड़ी।
कुछ देर में, "पापा, गुब्बारा चाहिए, गुब्बारा चाहिए ।"
"बेटा, घर चल के दिला दूँगा, यहॉ लेगी तो घर चलते-चलते फ़ुस्स हो जायेगा।" पर पंखुड़ी तो ज़िद पर अड़ी रही।
विमल के दिमाग में कुछ और ही कौंध गया उसकी ज़िद देख। उसे तो समझा रहा हूँ और खुद ज़िद पर अड़ा हूँ कि मुझे भीखू की भी जमीन चाहिए। वो नहीं देना चाहता फिर भी | आखिर तीन सौ एकड़ ज़मीन क्या कम है। इतना लालच आखिर किस लिए? अन्ततः रह सब यहीं जाना है |गुब्बारे की तरह ज़िन्दगी एक दिन फ़ुस्स हो जायेगी।'
"पापा, पापा बांसुरी चाहिए |"
"बांसुरी! हाँ, बांसुरी ठीक है | गुब्बारा घर जाते-जाते फूट जायेगा | बांसुरी तो रहेगी न, और इसकी आवाज़ की मिठास भी |"
विमल सोचने लगा | उसके कानों में पंखुरी की आवाज़ नहीं आ रही थी- "पापा, आप सिखाओगे न मुझे बजाना |"
--००--नया लेखन - नए दस्तखत
10 July 2015 ·

Wednesday 1 July 2015

दर्द

शिखा अपने पड़ोसन अमिता और बच्चो के साथ पार्क में घूमने गयी चारों बच्चे दौड़-भाग करने में मशगूल हो गये, शिखा भी अमिता के साथ गपशप करने लगी, गपशप करते हुए समय का पता ही नहीं चला पता तब चला, जब घर पर पहुँच शिखा के पति उमेश का फोन आया
शिखा अपने बच्चों को आवाज़ दी, "श्रेया, मुदित जल्दी आओ घर चलना है
"
दोनों दौड़े-दौड़े माँ के पास पहुँचे ही थे कि शिखा उनके दोनों हाथो में पार्क के सुंदर-सुंदर फूल देख, ठगी सी इधर-उधर देखने लगी
कोई पार्क का पहरेदार देखकर गुस्सा ना करने लगे तभी अचानक श्रेया से अमिता का बेटा दौड़ते हुए भिड़ गया श्रेया ज़मीन पर गिर गयी, जिसके कारण उसके घुटने छिल गये वह ज़ोर-ज़ोर से रोने लगी
शिखा और अमिता दोनों उसे चुप कराने लगे और चोट पर फूंक मारने लगे

अमिता उसे चुप कराते हुए बोली, "बेटा देखो तुम्हें चोट लगी तो हम सब को दुःख हुआ, इसी तरह तुम्हारे फूल तोड़ लेने से पौधों को भी दुःख हुआ होगा न
फूल और पौधा दोनों ही रोये होंगे"
श्रेया भिनक गयी, "हमें चोट लगी और आप दोनों को पौधों-फूलों की पड़ी है
आप दोनों ही गंदे हो, पापा से बोलूँगी मैं"
शिखा मुस्कराते हुए बोली, "अच्छा बाबा! चलो, घर बता देना पापा की लाडली...
" शिखा बच्चों के साथ घर आ गयी, घर में श्रेया पापा से रो-रो बताने लगी
पापा ने मरहम पट्टी की और उसे संतुष्ट करने के लिए माँ को भी डांट लगाई
फिर बात करते-करते श्रेया को घर के बाहर ले गये
बाहर खड़े कैक्टस में से एक पत्ती तोड़ बोले, "देखो! बेटा इसको भी चोट पहुँची न
पत्ती और पेड़ दोनों आँसू बहा रहे हैं न!"
--००--

22 June 2014
*एक उलझन और एक सुलझा हुआ जवाब *
Event for बाल उपवन [ साहित्यिक मधुशाला ]
(संकल्प) (पिता लाडली) पिछले शीर्षक 

Monday 8 June 2015

~~नाकाम साज़िश ~~

"तुम अब तक स्कूल तक में कुछ भी नहीं की हो; अब कैसे स्कूल से बाहर डिबेट कम्पटीशन में जाने की बात कर रही हो | नाम डुबो के आओगी स्कूल का । " नाम फाइनल करते समय टीचर ने हिमा पर क्रोध करते हुए कहा ।
"सर, मौका मिला ही नहीं ,और न पूछा गया कभी क्लास में । अभी तक वही जा रहें थे, जो जाते रहें थे। "
खूब लड़-झगड़ आखिरकार अपनी जगह डिबेट में पक्की कर ली हिमा ने ।
"जाओ मना नहीं करूँगा ,पर कुछ कर नहीं पाओगी । " टीचर अपनी चहेती के ना जा पाने पर झुंझलाकर बोलें।
सुनते ही आग बबूला हो उठी हिमा, पर चुप्पी साध ली । माँ की बातें याद आ गयी ! बड़ो की बात बुरी लगे यदि कभी ,तो मुहँ से नहीं अपने काम से जबाब देना ।
"कहाँ खोयी हो हिमा?? तुम्हारा नाम एनाउंस हो रहा !" आज बीस दिनों बाद डिबेट में प्रथम आने का अवार्ड ऑडोटोरियम में मिलना। पूरा ऑडोटोरियम ताली की गड़गड़ाहट से गूँज रहा था।
प्रिंसिपल से अवार्ड लेते समय उस टीचर को नजरों से ही ज़बाब दे रही थी हिमा।
टीचर यह कहते हुए मुहँ पीटकर लाल कर रहें थें कि "तुम तो बड़ी प्रतिभाशाली हो, अब तक कहाँ छुपी हुई थी तुम्हारी 'प्रतिभा की उड़ान'। सुनकर हिमा व्यंग से मुस्करा उठी ।
"अगली उड़ान के लिय फिर तैयार रहना |" शाबाशी देते हुए टीचर बोलें|

Tuesday 2 June 2015

~~अविश्वास ~~

शादी समारोह में चाचा-ताऊ की सभी भाई-बहन इक्कठे हुए थे | तभी रुक्मी चिल्लाती सी बोली "ये पगली बहिन तोहके बाबू बोलावत हयेन |"
"बिट्टी, ई नाम न लिहा करा |  सब कहिही की पागल बाटय का | " विनती सी करती हुई धीरे से बोलीं |
"अरे बहिन, अब क्या करे ? जुबान पर यही नाम रटा है | बाबा क्यों रखे ऐसा नाम ?"
"का जानि बिट्टी, पर अब छोड़ी दा बोलब इ नाम सिधय बहिन बोलावा , ना नाम याद रहेय ता |" गुस्से में प्यार जताती चचेरी बहन बोली|

''दस बहिन हों  ,. कैसे पता किसे बुला रहे | नाम भी सबका एक जैसा ही 'पगली' 'सगली' |  जिसका नाम लो वही नाराज |" तुनक कर छोटी बोली|

''क्या
करी बिट्टी ?नाराजगी की बात हैं न| ससुराल वाले सुन लेंगे तो 'पहचान' जो बनी हैं मिटटी हो जाएँगी | सावित्री बहिन बोला करो न लाडो | मेरी प्यारी छुटकी |" फिर लरजकती हुई आवाज में विनती (चिरौरी) करती हई बोली|
''तीस-पैंतीस साल हो गये ससुराल में , जीजा तो पागल न समझेंगे न |"
''क्या पता बिट्टी !!" कथन में अविश्वास आसमान छू रहा था |

आंचलिक भाषा में ..:) पहले इसी में लिखे थे पर किसी को समझ न आने पर खड़ी हिंदी में लिखना पड़ा|

अविश्वास-

शादी समारोह में चाचा-ताऊ की सभी भाई-बहन इक्कठे हुए | तभी रुक्मी चिल्लाती सी बोली "ये पगली बहिन तोहके बाबू बोलावत हयेन |"
" ये बिट्टी, ई नाम न लिहा कर | सब कहिही की पागल बाटय का | "
"अरे बहिन, अब का करी , तोर इही नाम बचपन से जुबनवा पर बा |बबा काहे रखेंन तोर इ नाम |"
"का जानि बिट्टी, पर अब छोड़ी दा बोलब इ नाम सिधय बहिन बोलावा , ना नाम याद रहेय ता |" गुस्से में प्यार जताती हुई बड़ी बहन फिर बोलीं|
"दस बहिन हऊ , कैसे पता चले कौने बहिनी के बोलावत हई हम | नामव सब का पगली सगली | तोहरेन की नाही सब गुस्सा करथिन |"
" का करी बिट्टी ससुराल वाले सुनही ता बनी बनायी हमार पहचान हेराय जाये | 'सावित्री बहिन' बोला करा मोर बिट्टी|" चिरौरी करती हई बोली|
"तीस पैंतीस साल से रहत हए संगे, जीजा ता ना समझिही न पागल |"
"का पता बिट्टी !!" कथन में अविश्वास आसमान छू रहा था| सविता मिश्रा


Monday 25 May 2015

पगली-

पगली- ऑटो-चालक ने नन्हें-नन्हें बच्चें भेड़-बकरी से ठूँस रखे थे ऑटो में। | पड़ोसी के बच्चे मुदित उसकी नन्ही कली को भी डाल दिया था ऑटो में। तिल रखने की भी जगह न बची थी अब। नन्हा मुदित बैठते ही पसीने-पसीने हो रहा था| परन्तु मधु का ध्यान ही न गया इस ओर कभी भी। सुबह चहकती हुई उसकी कली दोपहर की छुट्टी बाद मुरझाई सी घर पहुँची थी | वह खाना-पीना खिलाकर उसे बैठा लेती पढ़ाने | थकी हारी बच्ची रात में खा-पीकर जल्दी ही सो जाती थी। एक दिन ऐसा आया कि ऑटो में ही कली मुरझा गयी | एक तो भीषण गर्मी, दूजे भेड़ बकरी से छोटे से ऑटो में ठूंसे हुए बच्चें।नन्हा मुदित भी बेहोश सा हो गया था| बड़े-बड़े डाक्टरों के पास रोते बिलखते माता पिता पहुँचे थे| पर सब जगह से निराशा हाथ लगी थी उन्हें| अपनी बच्ची को खोकर उसने सड़क पर अभियान सा छेड़ रखा था ! प्रतिदिन स्कूल के बाहर खड़े होकर उन ऑटो चालको को सख्त हिदायत देते देखी जाती थी, जो बच्चों को ठूँस -ठूँसकर भरे रहते थे| माता-पिता को भी पकड़-पकड़ समझाती थी। समझने वाले समझ जाते थे| पर अधिकतर लोग उसे पगली कह निकल जातें थे । एसपी ट्रैफिक ने जब उसे बीच सड़क पर चलती ऑटो को रोकते हुए देखा, तो पहुँच गये थे उसे डांट लगाने| परन्तु उसका दर्द सुनकर, लग गयेे थे खुद ही इस नेक काम में | आज मधु का सालों पहले छेड़ा अभियान रंग लाया था। 'अधिक बच्चे बैठाने पर ऑटो चालकों को फाइन भरना पड़ेगा ' सुबह- सुबह आज के न्यूज़ पेपर में यह हेडिंग पढ़ मधु जैसे सच में पागल सी होकर हँसने लग पड़ी। कानून के डर ने मधु के काम को बहुत ही आसान कर दिया था | अब नन्हें-नन्हें फूल ऑटो से दोपहर में मुस्करातें लौटेंगे| सोचकर ही मधु मुस्कराकर सिर ऊपर उठा दो बूँद आँसू टपका दी ! जैसे कि अपनी नन्हीं को श्रधांजलि दे रही हो। ======================================
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Friday 15 May 2015

वैटिकन सिटी

"मेरी बच्ची! तू सोच रही होगी कि मैंने इस तीसरे अबॉर्शन के लिए सख्ती से मना क्यों नहीं किया!" ओपीडी के स्ट्रेचर पड़ी बिलखती हुई माँ ने अपने पेट को हथेली से सहलाते हुए कहा।
पेट में बच्ची की हल्की-सी हलचल हुई।
"तू कह रही होगी कि माँ डायन है! अपनी ही बच्ची को खाए जा रही है। नहीं! मेरी प्यारी गुड़िया, मैं उद्धार कर रही हूँ तेरा। इन अहसान-फरामोशों की बस्ती में आने से पहले ही मैं मुक्त कर रही हूँ तुझे।"
पेट के बायी ओर हलचल तेज हुई। लगा जैसे शिशु पैर मार रहा है।
"गुस्सा न हो मेरी लाडली ! क्या करूँ, बेबस हूँ ! और तेरे भविष्य की भी चिंता है न मुझे?
"माँ-माँss.." करुणा भरी आवाज़ आयी।
"क्या हुआ मेरी बच्ची?" माँ बेचैन हो गयी।
"माँआआअ, सुनो न ! देखो तो! तुझे सुलाकर, डॉक्टर अंकल मेरे पैर काटने की कोशिश में लग गए हैं..!"
"ओ मुए डॉक्टर! मेरी बच्ची, मेरी लाडली को दर्द मत दे। कुछ ऐसा कर ताकि उसे दर्द न हो ! भले मुझे कितनी भी तकलीफ़ दें दे तू।"
"माँ मेरा पेट...!"
"ओह मेरी लाडली ! इतना-सा कष्ट सह ले गुड़िया, क्योंकि इस दुनिया में आने के बाद इससे भी भयानक प्रताड़ना झेलनी पड़ेगी तुझे !
मुझे देख रही है न ! मैं कितना कुछ झेलकर आज उम्र के इस पड़ाव पर पहुँची हूँ।
इस जंगल में स्त्रीलिंग होकर जीना आसान नहीं है, नन्हीं गुड़िया।"
"माँ -माँआआआ, इन्होंने मेरा हाथ.!"
"आहss! चिंता न कर बच्ची। बस थोड़ा-सा कष्ट और झेल ले! जिनके कारण तूझे इतना कष्ट झेलना पड़ रहा है, वो एक दिन "वेटिकनसिटी" बने इस शहर में रहने के लिए मजबूर होंगे, तब उन्हें समझ आएगी लड़कियों की अहमियत।" तड़पकर माँ बोली।
"माँsss अब तो मेरी खोपड़ी ! आहss ! माँsssss ! प्रहार पर प्रहार कर रहे हैं अंकल!"
"तेरा दर्द सहा नहीं जा रहा नन्हीं! मेरे दिल के कोई टुकड़े करें और मैं जिन्दा रहूँ! न-न! मैं भी आ रही हूँ तेरे साथ! अब प्रभु अवतार तो होने से रहा। मुझे ही इस पुरुष वर्ग को सजा देने के लिए कुछ तो करना पड़ेगा न!"
"माँSSS!"
"मैं तेरे साथ हूँ गुड़िया...! वैसे भी लाश की तरह ही तो जी रही थी। स्त्रियों को सिर उठाने की आज़ादी कहाँ मिलती है इस देश में। तुझे जिंदा तो रख न सकी किन्तु तेरे साथ मर तो सकती ही हूँ! यही सजा है इस पुरुष प्रधान समाज को मेरे अस्तित्व को नकारने की।"
तभी सुरेश ओपीडी के अंदर बदहवास-सा दाखिल हो गया..!
"सॉरी सर!
  तैयारी पूरी हो गयी है। बाहर रहिये ! आप ये सब देख नहीं पायेंगे।"
"नहीं डॉक्टर! दुनिया में एक और वैटिकन शहर नहीं बनने देना है हमें!
सविता मिश्रा 'अक्षजा'
--००--

Thursday 14 May 2015

पछतावा (लघुकथा )

"बाबा आप अकेले यहाँ क्यों बैठे हैं? चलिए आपको आपके घर छोड़ दूँ|"
बुजुर्ग बोले, "बेटा जुग जुग जियो। तुम्हारे माँ-बाप का समय बड़ा अच्छा जायेगा| और तुम्हारा समय तो बहुत ही सुखमय होगा|"
"आप ज्योतिषी हैं क्या बाबा?"
हँसते हुये बाबा बोले- "समय ज्योतिषी बना देता है। गैरों के लिए जो इतनी चिंता रखे, वह संस्कारी व्यक्ति दुखित कभी नही होता| " आशीष में उनके दोनों हाथ उठ गये फिर से|
"मतलब बाबा ? मैं समझा नहीं| "
"मतलब बेटा मेरा समय आ गया| अपने माँ-बाप के समय में मैं समझा नहीं कि मेरा भी एक-न-एक दिन तो यही समय आएगा| समझा होता तो ये समय नहीं आता|" नजरे धरती पर गड़ा दीं कहकर|
---००---
सविता मिश्रा "अक्षजा'
९४११४१८६२१
 आगरा 
 2012.savita.mishra@gmail.com

Saturday 18 April 2015

यक्ष प्रश्न (निरादर का बदला)


"दिख रही है न ! चाँद सितारों की खूबसूरत दुनिया ?" अदिति को टेलेस्कोप से आसमान दिखाते हुये शिक्षक ने पूछा |
"जी सर ! कई चमकीले तारें दिख रहे हैं |"
"देखो! जो सात ग्रह पास-पास हैं, वो 'सप्त ऋषि' हैं ! और जो सबसे अधिक चमकदार तारा उत्तर में है, वह है 'ध्रुव-तारा' | जिसने तप करके अपने निरादर का बदला, सर्वोच्च स्थान को पाकर लिया | "
"सर! हम अपने निरादर का बदला कब लें पाएंगे ! हर क्षेत्र में दबदबा कायम कर चुके हैं, फिर भी ध्रुव क्यों नहीं बने अब तक ?" अदिति अपना झुका हुआ सिर उठाते हुये बोली |
शिक्षक का गर्व से उठा सिर सवाल सुनकर अचानक झुक-सा गया ।

सविता मिश्रा 'अक्षजा'
17/4/2015 https://m.facebook.com/groups/778063565555641?view=permalink&id=1025560104139318

Wednesday 15 April 2015

~~बड़ा न्यायाधीश~~

" ये 'भगवान' आप सभी के साथ बहुत अन्याय कर रहें हैं | इसकी भरपाई तो नहीं कर सकतें हम , पर आप सभी को मुवावजा अवश्य दिलवाऊंगा |" नेता जी के उद्घोष पर तालियाँ 'गड़गड़ा' उठी |
एक बूढ़ा किसान दम साधे बैठा था |
"बाबा आप नहीं खुश हैं "
बेटा जब सबसे बड़ा न्यायाधीश ही अन्याय कर रहा हैं, इनके न्याय-अन्याय पर क्या ख़ुशी और क्या दुःख |
सांस जैसे यही बोलने के लिय अटकी थी |
तभी बादल फिर  'गड़गड़ा' उठा | दो चार किसान जो 'तिनका' पा खुश थे सहसा मिट्टी हो गये |...सविता मिश्रा

~~न्याय या अन्याय ~~

"ये बहुत अन्याय हो रहा है मेहनत से लिखो , सब वाह वाह कर सरक लेंते हैं |"
"अरे तो इसमें अन्याय कहाँ हैं आपकी रचना के साथ न्याय ही तो हैं | मन ही मन तो खुश होती हैं | फिर ये दिखावटी नाराजगी क्यों ? " सखी विमला चुटकी लेंते हुय बोलीं
" ये नाराजगी  दिखाती ही हूँ न्याय पाने के लिय .." .......सविता मिश्रा

Tuesday 14 April 2015

कागज का टुकड़ा

"तुम्हारी जेब से यह कागज मिला! आजकल यह भी शुरू है?" प्रभा बोली।
"तुम समझती नहीं प्रभा! एक दोस्त का ख़त है। उसने कहा कि पोस्ट कर देना तो मैंने कह दिया, कर दूँगा।"
"वह नहीं कर सकता था?" शक भरी निगाह डालती हुई वह बोली।
"अब दिमाग न खराब करो! कहा न कि दोस्त का है।" बिना कोई सफाई दिए वह गुस्से से बाथरूम में घुस गया।
भुन-भुनाती हुई प्रभा अतीत की गहराइयों में खो गयी। जब ऐसे ही एक कागज के टुकड़े को लेकर उसे न जाने कितनी सफ़ाई देनी पड़ी थी।
'मैं तुम्हारे बच्चे की माँ बनने वाली थी, पर तुम बेवफ़ा निकले। भाग निकले जिम्मेदारी के डर से। आज स्टेशन पर गाड़ी का इंतजार करते मेरी नजर तुम पर पड़ गयी। मैं भी अपने पति और बच्चों के साथ जा रही थी मसूरी घूमने। जब तक खड़ी रही तब तक मन बेचैन रहा। दिल मिलने को बेताब हो उठा था। सोचा कई बार कि बेवफाई के कारण घुमड़ते हुए रुके काले बादल, जाके तुम पर ही बरसा दूँ। तुम बह जाओ उस बहाव में। पर पति और बच्चों के कारण तुमसे कुछ कहना उचित न समझा।'
कई महीने बाद पति के हाथों में अपना खुद का लिखा हुआ पन्ना देख प्रभा बहुत खुश हुई थी।
पति के हाथ से छीनती हुई बोली थी, "कहाँ मिला ये कागज का टुकड़ा…? मुझे पूरा करना था इसे।"
जवाब में लंकाकाण्ड हो गया था घर में। उस एक कागज के टुकडे ने दोनों के बीच पले विश्वास के टुकड़े-टुकड़े कर दिए थे। कितनी सफाई दी थी प्रभा ने, साहित्य से दूर रहने वाले अपने पति को। लेकिन वह तभी माना जब एक साहित्यकार सहेली ने फोन करके बोला था- "जीजा जी, यह कथा तो इसने फेसबुक पर डाली थी। हम सब हँसते-हँसते लोटपोट हो गए थे।"
आज यह पुराना वाकया हू-ब-हू उसकी आँखों में नाच गया।
पलंग पर धम्म से बैठ गयी वह। किसी सुधा का पति के नाम लिखा हुआ लव लेटर उसके हाथ में लहरा रहा था। पति से सफाई की उम्मीद में सच और झूठ के पलड़े में अब भी झूल रही थी वह।
---0---
सविता मिश्रा'सपने बुनते हुए' साँझा संग्रह में प्रकाशित २०१७

Monday 13 April 2015

सुरक्षा घेरा~

चार साल की थी तब से बाहर की दुनिया उसने देखी ही न थी। दस कदम का एरिया ही उसकी पूरी दुनिया थी। नजरें झुकाये लोग उसकी दहलीज पर आते थे और जेब ढीली कर चलते बनते थे। तेरह-चौदह साल की उम्र से यह जो सिलसिला शुरू हुआ फिर रुका ही कहाँपैंतीस साल उम्र होने के बाद भी। लोग कहते कि वह पूरे इलाके में सबसे खूबसूरत बला थी लेकिन फिर भी आसपास के मर्द उसे छेड़ने की गुस्ताखी नहीं करते थे।
कल ही मोटा सेठ दो गड्डिया दे गया था उसके 'नूरपर मरकर। उसी सेठ से पता चला कि मॉल में बहुत कुछ मिलता है।
"बगल में ही है तुम्हारे एरिया से बस कुछ ही दूरी पर।कह एक गड्डी और पकड़ाकर बोला- "कुछ नये फैशन के कपड़े ले आना।"
पर्स में गड्डी रखसज-धजकर अपने ही रौ-धुन में चल दी सुनहरी।
अपना एरिया क्या छोड़ा ..सारी निगाहें उसे ही घूरती नज़र आई। दो कदम पर ही तो मॉल हैबस घुस जाऊँ! ये लफंगे-भेड़िए फिर क्या बिगाड़ लेंगे मेरा। सोच कदमचाल तेज़ हो गयी उसकी।
लेकिन उसका ख्याल गलत साबित हुआ। हतप्रभ-सी रह गयी वह! जब एक दो नहींअपने अनेक ग्राहकों को उसने देखाजो अपनी पत्नी से नजरें बचाकर उसे घूरकर आह भरते फिर निगाहें चुराकर उसके बगल से अपनी-अपनी पत्नी के साथ निकल जा रहे थे। कई युवक उसपर फब्तियां कसते हुए गन्दे गन्दे इशारे करने लगे थे।
वह बदहवास-सी उस असुरक्षित दुनिया से उल्टे पाँव अपने सुरक्षा घेरे में लौट आई।
---००---
13 April 2015 नया लेखन - नए दस्तखत

Sunday 12 April 2015

वर्दी

"मम्मी ! दादा जी, पापा को अपनी तरह फौजी बनाना चाहते थे ?"
"हाँ ! क्यों ?"
"क्योंकि पापा मुझ पर फौजी बनने का प्रेशर डाल रहे हैं। मैं पापा की तरह पुलिस अफसर बनना चाहता हूँ।" खाकी में अपने पिता की फोटो को देखते हुए बेटे ने कहा।
माँ कुछ कहती उससे पहले पापा माँ-बेटे की वार्तालाप को सुनकर कमरे में आए और अपनी तस्वीर के ऊपर टँगी दादाजी की तस्वीर को देखते हुए बोले -
"बेटा ! मैं 16 से 18 घंटे ड्यूटी करता हूँ । कभी-कभी दो- तीन दिन बस झपकी लेकर गुजार देता हूँ। घर परिवार सब से दूर रहना मज़बूरी है मेरी। छुट्टी साल में चार भी मिल जाये तो गनीमत समझो। क्या करेगा तू मुझ-सा बनकर ? क्या मिलेगा तुझे ! तिज़ारत के सिवा ?"
"पर पापा, फौजी बनकर भी क्या मिलेगा? खाकी वर्दी फौज की पहनूँ या पुलिस की ! फर्क क्या है ?"
"फौजी बनकर इज्जत मिलेगी ! हर चीज की सहूलियत मिलेगी । उस खाकी में नीला रंग भी होता है सुकून और ताज़गी लिए। पुलिस की खाकी मटमैली होती है। जिसके कारण किसी को हमारा काम नहीं दिखता, बस दिखती है तो धूलधूसरित मटमैली-सी हमारी छवि। तेरे दादा जी की बात को नहीं मानकर बहुत पछता रहा हूँ मैं। फौज की वर्दी पहनकर इतनी मेहनत करता तो कुछ और ही मुक़ाम होता मेरा।"
"ठीक है पापा ! सोचने का वक्त दीजिए थोड़ा।"
"अब तू मेरी बात मान या न मान ! पर इतना जरूर समझ ले, क्रोध में निर्णय लेना और अतिशीघ्र निर्णय नहीं लेना, मतलब दोनों ही प्रकार की वर्दी की साख में बट्टा लगाना है !" पापा अपनी वर्दी पर दो स्टार लगाते हुए बोले ।
" 'सर कट जाने की बड़ाई नहीं है, सर गर्व से ऊँचा रखने में भी मान ही है।' यही वाक्य कहकर मैंने अपने पिता यानी तेरे दादाजी से विरोध किया था। थाने में दोस्त के पिता का जलवा देखकर भ्रमित हो गया था मैं। चमकते चिराग के नीचे का अँधेरा कहाँ देख पाया था। अपनी जिद में वो रास्ता छोड़ आया था जिस पर तेरे दादा ने मेरे लिए फूल बिछा रक्खे थे !"
"पापा ! मुझे भी काँटों भरा रास्ता स्वयं से ही तय करने दीजिए न।"
पिता ने दीवार पर टंगी तस्वीर की ओर देखा फिर बेटे को देखकर मुस्कराते हुए ड्यूटी पर निकल गए।

सविता मिश्रा 'अक्षजा'
--००---
11 April 2015

पापा को लगा बेटा स्याना हो गया हैं । और छोड़ दिया खुले आकाश में ..। ..यह लाइन काट दी हमने 

Wednesday 8 April 2015

सिंदूर की लाज


पति की बाहों में परायी औरत को झूलते देख स्तब्ध रह गयी । आँखों से समुन्दर बह निकला ।
दूसरे दिन सिंदूर मांग में भरते समय अतीत में दस्तक देने पहुँच गयी।
"माँ, ये सिंदूर मांग और माथे पर लगाने के बाद गले पर क्यों लगाती हो । "
माँ रोज रोज के मासूम सवाल से खीझ कह बैठी थी-" सौत के लिये ।"
आज आंसू ढुलकाते हुये वह भी गले पर सिंदूर का टिका लगा लीं ।।
बगल बैठी उसकी दस साल की मासूम बेटी ने वही सवाल किया जो कभी उसने अपनी माँ से किया था ।
माँ मुस्कराते हुये बोली- "माँ दुर्गा से शक्ति मांग रही हूँ , जैसे सिंदूर की लाज रख सकूँ । " सविता 

Saturday 4 April 2015

~सपनों की दुनिया~ (laghuktha)

बापू को बादलों की ताकते बचपन से देखता आ रहा था | बापू अपनी खड़ी, पकी फसल को बर्बाद होते कैसे देखतें | अतः जब भी काले बादल दीखते वह प्रार्थना करने लगतें थें |
एमबीए कर रोहित सूट-बूट पहनते ही अलग ढंग से सोचने लगा था|
वह बापू को समझाते हुए बोला "बापू ये सीढी देख रहें हैं न , इसके जरिये आप आसमान को छू लेंगे | बादलों के काले -सफ़ेद से फिर आप पर कोई असर ना पड़ेगा|
" पर बेटुआ एई खेतिहर जमीन |"
" बापू जब कोई नहीं सोच रहा फिर आप क्यों ? समझाता सा बोला
"आप बस हाँ करें,खेतों पर सपनों की दुनिया बसा दूँगा|"
'मरता क्या न करता' बापू ने हामी भर ही दीं |
कुछ सालों में ही रोहित सर्वश्रेष्ठ बिल्डर बन बैठा | अपने दिमाग का इस्तेमाल कर आस पास कई किसानों की अकूत जमीन अब उसके कब्जे में थी |
लेकिन बापू की आँखे अब भी बादलों को ही निहारती रहती| ...सविता मिश्रा

Wednesday 1 April 2015

संकेत

हादसों का शहर ....यहाँ हर मोड़ पर होता है हादसा ...इस गाने से चिढ सी हो गयी थी । पर ये गाना था कि पीछा ही न छोड़ रहा था उसका ।
 पढ़ाई-लिखाई में मशगुल  वह, हर रोज होते हादसों से अंजान थी | अतः उसे दुनिया बहुत खूबसूरत दिखती थी । दुनिया वाले उससे भी अधिक नेक दिल ।
आज अस्पताल में पड़ी कृषकाय हो गयी थी । लोग उसके लिये भगवान् से प्रार्थना कर रहें थें कि उसे जल्दी ही प्रभु मृत्यु दें  । एक हादसे ने सब कुछ बदल के रख दिया था ।
उसको जो गाना कई सालों पहले नहीं पसन्द था वही गाना वह. जब किसी लड़की को देखती बुदबुदा उठती ।

साविता

Friday 27 March 2015

~~अशक्त नहीं ~~


शीशे में अपने आप को निहारते हुए खुद को ही धित्कार बैठे वह |

" अरे , मैं रोज शेव करके नहा-धो तैयार हो जाता था | ये रिटायर होते ही क्या हो गया मुझे |
बूढ़ा समझ सरकार ने भले रिटायर किया पर अभी तो मैं जवान दिख रहा हूँ | dig बन न सही पर समाज सेवी बन तो समाज की सेवा कर ही सकता हूँ | "--
विचार आते ही वो पहले के जैसे ही फुर्ती से तैयार होने लगे |
सविता मिश्रा

Wednesday 25 March 2015

~औलाद ~

"चार बहुए हैं पर घर में एक भी औलाद नहीं |आज होता तो निधि की विदाई में सारी रस्में वही निभाता | भगवान् को पता नहीं क्या मंजूर था जो घर में बेटियों की भरमार कर दी | बेटा एक भी ना दिया उसने |"
"सही कह रही हों आप बुआ पर कोई बात नहीं मेरा बेटा भी तो निधि का भाई ही हैं |" भतीजी सुमन बोली |
सुमन ने बड़े गर्व से बेटे को आवाज लगाई | पर ये क्या विदाई की रस्म तृषा निभा रही थी |
देखते ही दादी आग बबूला हो गयीं | तुझसे किसने कहा ये रस्म निभाने को ये भाई करता है बहन नहीं | चल हट परे वर्ना दादाजी ने देख लिया तो हंगामा खड़ा हो जायेगा |"
"अम्मा मैंने कहा इससे, आखिर 'औलाद' तो ये भी है न मेरी | लड़का हो या लड़की उतना ही दर्द, उतना ही समय और उतना ही प्यार | फिर ऐसे कैसे बुरा बर्ताव और क्यों ऐसा भेदभाव | 'दूसरा' निभाए इससे अच्छा है न अपना कोई निभाए | " तृषा की माँ बोली
दादी को समझने में देर ना लगी और वह भी गर्व से बोल उठी अरे हां ये छवों बेटियां तो हीरा हैं हीरा | औलाद तो ये भी हैं |"
भतीजी का चेहरा तमतमा गया जैसे करारा तमाचा पड़ गया हो | भुनभुनाती हुई जलती भुनती रहीं तृषा को रस्म निभाते देख | सविता मिश्रा

Monday 2 March 2015

दूसरा कन्धा

"पहले के लोग दस-दस सदस्यों का परिवार कैसे पाल लेते थे| अपनी जिन्दगी तो मालगाड़ी से भी कम स्पीड पर घिसट रही है जैसे|" महंगाई का दंश साफ़ झलक रहा था पति के चेहरे पर| पहले सुरसा मुख धारण किए ये महंगाई कहां थी जीअब तो दो औलाद ही ढंग से पालपोस लें यही बहुत है|" महंगाई पर लानत भेजती हुई पत्नी बोली|
"सही कह रही हो तुम|" "महंगाई की मार से घर के बजट पर रोज एक न एक घाव उभर आता है| कल ही बेटी सौ रूपये उड़ा आई तो बजट चटककर उसके गाल पर बैठ गया|" पत्नी की आवाज में पछतावा साफ़ झलक रहा था| "मारा मत करो| सिखाओ कि 'कैसे चादर जितनी पैर' ही फैलायें|" समझाते हुए पति ने कहा| "क्या करूँ जी! तिनका-तिनका जोड़ती हूँ, पर बचा कुछ नहीं पाती हूँ| तनख्वाह रसोई और बच्चों की स्कूल और ट्यूशन फ़ीस में ही दम तोड़ने लगती है| कोई काम वाली नहीं रखी फिर भी महीने के अंत समय में ठनठन गोपाल रहता है|" कहकर भारी कदमों से चल दी रसोई की ओर| नौकरी छुड़वा देना का अपराध बोध तो था, फिर भी आस भरी निगाहों से पत्नी को निहारते हुए बोला- "सुनती हो, एक अकेला कन्धा गृहस्थी का बोझ नहीं उठा पा रहा| दूसरा कन्धा .. ? शायद आसानी हो फिर|" सुनकर पत्नी का चेहरा सूरजमुखी-सा खिल गया| पत्नी के हामी भरते ही पति के आँखों में घर का बजट मेट्रो-की-सी स्पीड से दौड़ने लगा| सविता मिश्रा 'अक्षजा' 2 March 2015 --००--

Saturday 28 February 2015

~~खिलाफत की सजा ~~

रूमी सजी धजी ही अदालत में पहुँच गयी | अभी उसके हाथों की मेहँदी भी न उतरी थी | आँखों से आंसू भी रुक नहीं रहे थे | चपरासी ने रोका , पर वेदना भरी चीख कमरे में बैठे जज के दिल को चीर रही थी |
जैसे ही अन्दर केबिन में जज के सामने आई | हाथ
जोड़े फफकते हुए बोली- "जज साहब अभी दस दिन हुए शादी को | आज आने को कहें थे पर रास्ते में किसी ने...| एक बार उनकी शक्ल दिख जाये बस | कृपा करिए जज साहब मुझ अभागन पर |"
यहाँ कहाँ है ? कौन है तेरा पति ? यहाँ क्यों आई ?"
साहब आपके निर्णय के खिलाफ दो दिन पहले बोला था उन्होंने और आज ...|"

"गुलाब की कली "

"अम्मा जी आपने तो पालपोस बड़ा किया है |ऐसा अनर्थ मत करिये |" रूढ़ियो की बलि चढ़ने जा रही मन्नो हाथ जोड़े गिड़गिड़ा रही थी अपनी मृत दीदी की सास के सामने |
"जीजा जी आप कुछ कहिये | मेरे माँ- बाप तो है नहीं | जो है आप सब ही है मेरे लिय | ऐसा ना कीजिये मेरे साथ |"
" तुम्हारी दीदी के मौत के बाद उसकी जगह तुम्हें बच्चों की माँ बनना ही होगा |यहीं सदियों से परम्परा रही है हमारे समाज की |" माँ हाथ पकड़ बैठा ली भगवान की कथा में |
अब असहाय सी निमग्न हो भगवान् के सामने आँखे बंद किये दया की भीख मांगती रही मन्नो |
" दादी, लीजिये "गुलाब के फूल" भगवान को चढ़ाने के लिय |"
"अरे मूरख कलियाँ क्यों तोड़ लाया | बाजार से ले आता दौड़ के |"
" दादी , एक कली को बाबा भी ..| मैंने तो एक तोड़ी दूजी आ जायेगी कल तक, पर यह कली तो ...| "
"बहुत बोलने लगा है |" दादी गुस्सा होते हुए बोली
"माँ लाड लड़ाते हुए मौसी को "गुलाब की कली " ही तो कहती थी |"
बेटे की बात सुन पिता को झटका सा लगा | धीरे-धीरे अपनी शादी की पगड़ी उन्होंने सर से उतार दी |
"अरे ये क्या कर रही हैं 'मन्नो मौसी' |"
" 'देवता' को प्रणाम कर रही हूँ |"
"अरे मैं .."
"मेरे लिए तो देवता ही हो | एक कली को भले पौध से अलग कर दिया पर दूसरी कली को मुरझाने से तुमने बचा लिया |" सविता मिश्रा


~~भ्रम ~~


दादी के घर माँ-बेटी सालो बाद पहुंचे तो दादी खुश तो खूब हुई । पर थोड़ी ही दिनों में उनकी ख़ुशी काफूर हो गयी, जब नन्ही बच्ची पुरानी तस्वीरों से एक तस्वीर पर अटक गयी |
"एक तीज व्रत रखने को कहा, तो देखो तुम्हारी मम्मी कैसे आंसू बहाती हुई पूजा में बैठी है | "
"पर दादी , मम्मी तो अब ना जाने कौन-कौन से व्रत रखती है | एक व्रत में इतना क्यों रोयेगी भला |"
"क्यों नहीं रखेगी अब , पहले रखा होता तो शायद अब इतने व्रत न रखने पड़ते |" दादी , माँ की तरफ घृणा भरी तिरछी  निगाहों से देखती हुई बोली | .सविता मिश्रा

Friday 27 February 2015

~~मौकापरस्त ~~

जनता से ठसाठस भरे पांडाल में कद्दावर नेता गला फाड़ भाषण देने में मशगुल थें |
तभी एक चमचा कान में फुसफुसाया- "अरे जनाब क्या कह रहें हैं | 'धर्मान्तरण' कहाँ  हुआ | न्यूज पेपर वाले तो शगूफ़ा छोड़े थे बस |"
" चुप करो ! राजनीति नहीं समझते क्या ?
आग न्यूज वालों  ने लगायी | फूंक मार उसे प्रज्ज्वलित करते रहेगें हम |"
"जी " चमचा आँख नीची कर बोला
"जनता को कब बरगला है, कब फुसलाना | यही गुर सीख जाओ बस |
चिंगारी को हवा दोंगे तभी तो आग भड़केंगी | और जब आग भड़केंगी तभी लोहा गरम होगा |" समझाया कद्दावर नेता ने धीरे से

"और गर्म लोहे पर
हथौड़े के प्रयोग में आप माहिर ही है| " चमचा कान में फुसफुसा मुस्करा दिया |
"अब सही समझे | लगे रहो | राजनीती के धुरंधर एक दिन बन ही जाओंगे, यही स्पीड रही तो |"

अब तो चमचा मूंछो पर ताव दे सपनों में ही गुलाटी मारने लगा|
कद्दावर नेता उसे देख समझ गये कि गर्म लोहे पर हथौड़ा यहाँ भी पड़ गया है|..सविता मिश्रा

Tuesday 24 February 2015

~~ प्यार दो ,मुझे प्यार दो ~~


शिखा को जीवो से बहुत लगाव था |परन्तु अब यही लगाव मुसीबत बनने लगा था |
वैसे तो कुत्ता ,बिल्ली , मछली , तोता और खरगोश कई जानवर पाल रखे थे |
पर मुसीबत का कारण उनमें से दो ही थी |
कुत्ते को पुचकारती , तो बिल्ली म्याऊ-म्याऊ कर गोद में घुसने लगती | कुत्ते को यह देख जलन होती, वह  भौऊ-भौऊ कर पूरा घर सर पर उठा लेता | दोनों को शिखा जब पास बैठा लेती , तो तोता टेरता रहता -- " प्यार दो ,मुझे प्यार दो | "
जाहिर है ऐसा गाना सुन शिखा खिलखिला पड़ती | मिटठू  मेरा
मिटठू कह वह तोते को प्यार जताने लगती | तो तोता नाच जाता अपने पिंजड़े में |
शिखा का किसी को भी प्यार देते देख, कुत्ते की भौऊ-भौऊ और तोते की टेर तो देखते ही बनती थी |
मछली और खरगोश की भी उछल-कूद देख , शिखा समझने की कोशिश करने लगी थी अब कि कही त्रिकोणीय प्रेम की जगह षट्कोणीय प्रेम का एंगल तो नहीं बन रहा |....सविता मिश्रा

~~बहू बनाम कामवाली ~~


"उम्र हो गयी बेटा , शादी कर ले |"
"अच्छी लड़की तो मिले! तब तो करूँ ना मम्मी !!"
"बेटा ४० की बढती उम्र में अब तुझे अच्छी लड़की कहा मिलेगी | थोड़ा अडजस्ट कर |"
"तो क्या माँ ! आप चाहती है ये टेढ़े मुहं वाली से या ये ऐसा लग रहा है जैसे सदियों से बीमार है , और इस तस्वीर को देखिये -हाथ ऐसे लग रहे जैसे घरों में बर्तन मांजने वाली के | इनमें से किसी एक से शादी कर लूँ ?"
"बुढ़ापे में मुझसे अब होता नहीं| काम वाली भी मिलना मुश्किल है | जो मिलती है वह महीने भर भी नहीं टिकती | कैसे करेगा , क्या खायेगा तेरे भविष्य की चिंता में घुली जा रही हूँ मैं | कब बुलावा आ जाये मेरा, पता नहीं | तेरी देखरेख करेगी , यही समझ कर कर ले !!! "
"तो क्या मम्मी आप बहू नहीं ..|"...सविता मिश्रा

साहित्य का नशा

"मोबाइल खोलकर यहां बैठी हो, मैं कब से आवाज़ लगा रहा हूँपर तुम्हारे कान पर जूं ही नहीं रेंग रहीहद है यह तो|"
"क्या हुआ..? सारा काम अच्छे से निपटाकर ही तो बैठी थी!" 
"पहले मेरी हर एक आवाज़ पर खड़ी रहती थी, मुहल्ले की चार औरतों के साथ दिन में चार बार तुम्हारी बैठक जमती थी|”
“अब वक्त की कीमत समझने लगी मैं, यह तो अच्छी बात है न!”
 “कीमत! या नशा? तुमने अब ये कैसा नशा पाल लिया है
 रितु?"
"नशा! ये लिखने का नशा है! मेरी बात मानो, नशे में नहीं होतो करो ये 'नशाजरा|" गुनगुनाकर खिलखिला पड़ी रितु|
तुम पगला गयी हो रितु| मेरे पास और भी नशे है करने को, तुम्हारे इस नशे के सिवा|"
"जी हाँपागल हो गयी हूँ मैंघर में रहते हुए भी तुम, घर में रखी हुई चीजों से अंजान रहते हो| फिर ये कहाँ है, वो कहाँ है! चिल्लाते फिरते हो?
"नेट पर रहो रितु ! पर एक नार्मल यूज़र की तरहएडिक्ट की तरह नहीं|"
"तुम्हारी एक आवाज़ नहीं सुनी तो मैं एडिक्ट हो गयी, और जो तुम अपने काम के चक्कर में मेरी एक भी नहीं सुनते हो वह क्या है! नशाजब दर्द की दवा बन जाये तो फिर उस नशे को अपनाने में बुराई ही क्या है जी? 
"तुम्हारा यह नशा खाने को दो कौड़ी भी नहीं देगा|"
"वह भी दे रहा है| देखो आज अखबार में मेरी कविता छपी हैऔर कुछ दिनों में पाँच सौ का चेक भी भेजेंगे उधर से|"
"तो कौन-सा तीर मार लीइतनी पढ़ाई पहले करती तो आज आईएएस-पीसीएस होती!"
"जब जागो, तब सवेरा! कलम आईएएस-पीसीएस भी पकड़ते हैं और मैंने भी पकड़ी है!"
"हू ! खाना लगा दोगी या वह भी मुझे खुद ही लेना पड़ेगा?"
पति के हाथों में तौलिया देकर, लैपटॉप बंद करके वह बढ़ चली रसोई की ओर..! पति उसके चेहरे को बड़े गौर से पढ़ रहा था
“क्या घूर रहे हो..?”
“नशेड़ियों के चेहरे पर तो एक अजीब-सी बेचैनी होती है, पर तुम्हारा चेहरा तो महीनों से दमकने लगा है|”
“ये साहित्य का नशा है| अब तो बढ़ेगा ही|
सविता मिश्रा अक्षजा
इसमें लिखे थे ..Savita Mishra
24 
फ़रवरी 2015
https://www.facebook.com/groups/364271910409489/permalink/431683277001685/

Sunday 22 February 2015

~~धूर्तता ~~~

दोनों ही आम रास्ते से होकर ख़ास की कुर्सी पर आमने-सामने बैठे थे |अपने अपने तरीके से खूब उल्लू बनाये भीड़ को |
एक कहता तो दूजा हा में हा मिला हंस पड़ता |
पहला नेता - "भीड़ के न आँख होते है न कान और न अपना दिमाग | जो समझाओ समझती है ,जो सुनाओ सुनती है और जो दिखाओ वही देखती है |"
दूसरा नेता - "सही कह रहें हैं आप | भीड़ होती ही है मुर्ख |आपने हिंदुत्व का नारा सुनाया सबके विकास का रास्ता दिखाया ,दिमाग में ब्लैक मनी को लौटा लाने के साथ सबमें बाँट देने को कह उल्लू बनाया | तो मैंने भी- फ्री वाई-फाई , बिजली का सब्जबाग दिखाया और दिमाग में भीड़ के ऐसा घुसाया की देखिये एक बार मैंदान छोड़ भाग जाने के बावजूद आपके सामने बैठा हूँ |" दोनों ही अपनी अपनी नीतिया बता , ठहाका मारते नजर आये |
गेट पर खड़ा दरबान सब सुन ठगा महसूस कर रहा था पर वह ना अपनी बेबसी पर मुस्करा सकता था और ना नेताओं की धूर्तता पर क्रोध जता सकता था |
मुलाकात ख़त्म हो चुकी थी पर दरबान की आँखों में लालिमा जम गयी थी | ...सविता मिश्रा

Friday 20 February 2015

~~बदलाव ~~

"पिछले जन्म में कोई न कोई पाप किया होगा जो किन्नर रूप में जन्म हुआ | " अपनी पड़ोसी की बेटी निशी को जब तब कोसती रहती शीला | निशी की परछाई भी अपने बेटे पर ना पड़ने देती |

यही सुन -देख बड़ा हुआ था बंसी | आज चारपाई पे पड़ा गाने पर मटक रहा था तभी माँ बाहर से आते ही उस पर चिल्लाने लगी |

" जिसकी किस्मत में नाचना गाना लिखा था वह देश सँभालने की बात रही है ,और तू जिसके लिय क्या-क्या सपने सजाये थे निठल्ला बैठा गानों पर मटक रहा है |
जरुर पिछले जन्म में कोई पुन्य किये होगें उसके माँ-बाप ने | जो किन्नर ही सही निशी जैसी बेटी जन्मी | हिंजड़ा है तो क्या हुआ , है तो इंसान ही | नाम रोशन कर रही है| कुछ सीख उससे |" गुस्से में  बोलती जा रही थी शीला

"आज फिर भाषण सुन के आई हो ना अम्मा मेयर निशी महारानी का " कह व्यस्त हो गया गाने सुनने में | ..सविता मिश्रा

~~बदलाव ~~


आज सही से खड़ा भी नहीं हुआ जा रहा था फिर भी पति को काम पर जाता देख अपने निठल्ले जवान बेटे पर बरस ही पड़ी |
" मुए तू बैठा रोटी तोड़ रहा और तेरे अशक्त बाबा काम पर चले, तू क्यों नहीं जाता | तुझसे तो वह हिंजड़ा लक्ष्मी भली जो हर काम में आगे है | नाम रोशन कर रही है उस माँ-बाप का जो पैदा होते ही उसे त्याग दिए थे| और तूझे पाल पोश बड़ा किया इसके लिय क्या की हाड़ें-गाढ़े भी हमारी लाठी ना बने | सारा दिन पड़ा रहे ये मुआ बक्शा (लैपटाप)लेकर | आज अफ़सोस हो रहा है कि मैं हिंजड़े की माँ क्यों ना हुई | माथा पिटती हुई सरला बोलती ही रही थी
कल तक खुश होती थी पड़ोसी निर्मला की किस्मत पर | परन्तु आज लक्ष्मी को देख उनसे इर्ष्या हो रही है | ये लक्ष्मी मेरी कोख से क्यों न जनी | तेरी साथ की ही जन्मी है उप्पर से ऐसी, फिर भी देख तू गाँव में आवारागर्दी करता है और वह गाँव की प्रधान है|
"आज भाषण सुन आई हो ना अम्मा लक्ष्मी का " कह व्यस्त हो गया अपने लैपटाप में |....सविता मिश्रा

Sunday 15 February 2015

~~इंसान ऐसा क्यों नहीं ~~

"बिट्टू बैंडेज लेता आ बेटा जल्दी से | सब्जी काटते वक्त चाक़ू से ऊँगली कट गयी |" जोर की आवाज लगायी मीरा ने
तभी एक कातर ध्वनी मीरा को विचलित कर गयी |
"ये कैसी आवाज है" कह जैसे ही मीरा ने भड़ से दरवाज़ा खोला
बिस्तर पर पड़ा मीरा का पति आवाज़े सुन सुन झल्ला गया |
" बंद कर दो खिड़की |सुबह-सुबह घर-बाहर चिल्लपो शुरू हो जाती है| " गुस्से से बोला
"बहुत मार्मिक ध्वनी है , अभी देखती हूँ किसकी है |"
"अरे छोड़ो न , तुम भी हर आव़ाज क्यों है, किसकी है, यही जानना चाहती हो |
ये पक्षी की आव़ाज है, इन्सान की नहीं | उसका साथी बिछड़ गया होगा या फिर मर गया होगा | हर जगह तो नंगे बिजली के तार लटक रहें है | बंद कर दो खिड़की-दरवाज़ा, आव़ाज नहीं आएगी | और कर भी क्या लोगी...सुन के.." झुंझलाहट में बोला
"कर तो कुछ नहीं पाऊँगी जी, पर उन्हें देख यह जरुर महसूस करना चाहती हूँ कि इंसान ऐसा क्यों नहीं ? " ...सविता मिश्रा

~~मजबूरन~~


"पोस्टमार्टम होगा , आप हस्ताक्षर कर दे ।"
"कीजिये साहब ! रिश्तों का पोस्टमार्टम तो कर ही चुकी है ।"
"दूसरी लाश का वारिश कौन है?"
"मैं ही हूँ साहब !"
"आप ! इसका पिता कहाँ है ?"
"मैं ही हूँ !"
"ओह ! मतलब ये दोनों प्रेमी भाई.बहन ...!"
"हा साहब ! बेटे को बचपन में ही मैंने अपने साले को गोद दे दिया था ।"
"बहुत समझाया पर...., जवानी के जोश में रिश्तों का होश नहीं रख पाये दोनों | मजबूरन ..." (मजबूरन शब्द) बोल कर भी नहीं बोला पुलिस के डर से

Friday 13 February 2015

~~शिक्षा~~

"आज रिटायर हो गया सुगन्धा | "
"अरे कैसे-क्यों ? तबियत तो ठीक है न ! अभी आपकी नौकरी के तो चार साल बाकी है |" "नहीं रे 'पगली' 'प्यार' से रिटायर हुआ | आज बहू बराम्दे से मेरी गोद से चिक्कू को लगभग छीन के ले गयी| बड़बड़ा रही थी कि प्यार तो देते नहीं , बस गुजरे जमाने की शिक्षा देते है | 'अंग्रेजी स्कूल ' में पढ़ रहा है | आपकी तरह कोई खैरात वाले में नहीं| "
सविता मिश्रा

कांटो भरी राह

युवकों को आशीर्वाद देने के बाद कौशल अपने काँपते हुए हाथ जोड़कर सिर आकाश की ओर उठाकर बोला -"ये सब आपकी शिक्षा का ही प्रताप है पिता जी, जो मैं कांटो भरी राह में फूल उगा पाया |" उसकी आँखों में झिलमिलाते पर्दे ने अतीत को उघार दिया था |
जहाँ तक नजर जा रही थी टिहरी के कोठियाड़ा गाँव में खंडहर ही खंडहर दिख रहा था | बादल फटा और देखते ही देखते खुशहाल गाँव में बदहाली फ़ैल गयी | कौशल का मनोबल फिर भी नहीं टूटा था|
रह-रहकर पिता की बात उसके दिमाग में गूंजती थी कि ‘विद्यादान सबसे बड़ा दान है! इस दान को प्राप्त करके ही सब आगे बढ़ सकेंगे
| दान देने वाले को भी अभूतपूर्व संतोष का धन प्राप्त होता हैइस दान में वह सुख है जो कभीकहीं भी नहीं मिल सकता है |
‘माने हर्रे लगे न फिटकरी, और रंग चोखा का चोखा
 | अपने पिता की बात को समझा लल्ला | अपने पिता की तरह तुम भी अपना ज्ञान बाँटना | माँ दुलारती हुई पिता की बात पर मोहर लगा देती थी |
जलजले से आए अचानक गरीबी के कारण शिक्षा से वंचित बच्चों को देखकर पिता का दिया मूल-मन्त्र उसे याद आने लगा था | बस फिर क्या था उसने शहर की नौकरी से इस्तीफा दे दिया था उसी दिन
और अपने गाँव के सारे बच्चों को इकठ्ठा करके एक टूटे-फूटे खंडहर में ही लग गया था विद्या का दान देने |
खंडहर भले ही खंडहर रह गया था | परन्तु बच्चों के मस्तिष्क खण्डहर होने से मुक्त हो रहे थे | कौशल अपनी मेहनत को अँकुरितपल्लवितपुष्पित देखकर फूला नहीं समाता था | धीरे-धीरे बच्चें बड़े होकर ऊँचे-ऊँचे ओहदो को सुशोभित करते जा रहे थे |
इतने वर्षो बाद आज वहीं महकते-चहकते बच्चे गाँव में इकट्ठा हुए थे
 | उन सबने कौशल की बूढी आँखों पर पट्टी बांधकर एक ज्ञान के मन्दिर के सामने लाकर उसे खड़ा कर दिया था |
पट्टी खुलते ही खँडहर को अपनी माँ के नाम से ज्ञान के मंदिर रूप में स्थापित देखकर कौशल के आँखों से अश्रुधारा बहने लगी | और उसके हाथ रौबीले गबरू जवान हो चुके उन चहुँ-दिशा में सुगंध बिखेरते फूलों को आशीर्वाद देने के लिए उठ गए थे |
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सविता मिश्रा ‘अक्षजा'
 आगरा 
 
2012.savita.mishra@gmail.com
 5 September 2016 at 08:41
  Savita Mishra