Saturday 18 April 2015

यक्ष प्रश्न (निरादर का बदला)


"दिख रही है न ! चाँद सितारों की खूबसूरत दुनिया ?" अदिति को टेलेस्कोप से आसमान दिखाते हुये शिक्षक ने पूछा |
"जी सर ! कई चमकीले तारें दिख रहे हैं |"
"देखो! जो सात ग्रह पास-पास हैं, वो 'सप्त ऋषि' हैं ! और जो सबसे अधिक चमकदार तारा उत्तर में है, वह है 'ध्रुव-तारा' | जिसने तप करके अपने निरादर का बदला, सर्वोच्च स्थान को पाकर लिया | "
"सर! हम अपने निरादर का बदला कब लें पाएंगे ! हर क्षेत्र में दबदबा कायम कर चुके हैं, फिर भी ध्रुव क्यों नहीं बने अब तक ?" अदिति अपना झुका हुआ सिर उठाते हुये बोली |
शिक्षक का गर्व से उठा सिर सवाल सुनकर अचानक झुक-सा गया ।

सविता मिश्रा 'अक्षजा'
17/4/2015 https://m.facebook.com/groups/778063565555641?view=permalink&id=1025560104139318

Wednesday 15 April 2015

~~बड़ा न्यायाधीश~~

" ये 'भगवान' आप सभी के साथ बहुत अन्याय कर रहें हैं | इसकी भरपाई तो नहीं कर सकतें हम , पर आप सभी को मुवावजा अवश्य दिलवाऊंगा |" नेता जी के उद्घोष पर तालियाँ 'गड़गड़ा' उठी |
एक बूढ़ा किसान दम साधे बैठा था |
"बाबा आप नहीं खुश हैं "
बेटा जब सबसे बड़ा न्यायाधीश ही अन्याय कर रहा हैं, इनके न्याय-अन्याय पर क्या ख़ुशी और क्या दुःख |
सांस जैसे यही बोलने के लिय अटकी थी |
तभी बादल फिर  'गड़गड़ा' उठा | दो चार किसान जो 'तिनका' पा खुश थे सहसा मिट्टी हो गये |...सविता मिश्रा

~~न्याय या अन्याय ~~

"ये बहुत अन्याय हो रहा है मेहनत से लिखो , सब वाह वाह कर सरक लेंते हैं |"
"अरे तो इसमें अन्याय कहाँ हैं आपकी रचना के साथ न्याय ही तो हैं | मन ही मन तो खुश होती हैं | फिर ये दिखावटी नाराजगी क्यों ? " सखी विमला चुटकी लेंते हुय बोलीं
" ये नाराजगी  दिखाती ही हूँ न्याय पाने के लिय .." .......सविता मिश्रा

Tuesday 14 April 2015

कागज का टुकड़ा

"तुम्हारी जेब से यह कागज मिला! आजकल यह भी शुरू है?" प्रभा बोली।
"तुम समझती नहीं प्रभा! एक दोस्त का ख़त है। उसने कहा कि पोस्ट कर देना तो मैंने कह दिया, कर दूँगा।"
"वह नहीं कर सकता था?" शक भरी निगाह डालती हुई वह बोली।
"अब दिमाग न खराब करो! कहा न कि दोस्त का है।" बिना कोई सफाई दिए वह गुस्से से बाथरूम में घुस गया।
भुन-भुनाती हुई प्रभा अतीत की गहराइयों में खो गयी। जब ऐसे ही एक कागज के टुकड़े को लेकर उसे न जाने कितनी सफ़ाई देनी पड़ी थी।
'मैं तुम्हारे बच्चे की माँ बनने वाली थी, पर तुम बेवफ़ा निकले। भाग निकले जिम्मेदारी के डर से। आज स्टेशन पर गाड़ी का इंतजार करते मेरी नजर तुम पर पड़ गयी। मैं भी अपने पति और बच्चों के साथ जा रही थी मसूरी घूमने। जब तक खड़ी रही तब तक मन बेचैन रहा। दिल मिलने को बेताब हो उठा था। सोचा कई बार कि बेवफाई के कारण घुमड़ते हुए रुके काले बादल, जाके तुम पर ही बरसा दूँ। तुम बह जाओ उस बहाव में। पर पति और बच्चों के कारण तुमसे कुछ कहना उचित न समझा।'
कई महीने बाद पति के हाथों में अपना खुद का लिखा हुआ पन्ना देख प्रभा बहुत खुश हुई थी।
पति के हाथ से छीनती हुई बोली थी, "कहाँ मिला ये कागज का टुकड़ा…? मुझे पूरा करना था इसे।"
जवाब में लंकाकाण्ड हो गया था घर में। उस एक कागज के टुकडे ने दोनों के बीच पले विश्वास के टुकड़े-टुकड़े कर दिए थे। कितनी सफाई दी थी प्रभा ने, साहित्य से दूर रहने वाले अपने पति को। लेकिन वह तभी माना जब एक साहित्यकार सहेली ने फोन करके बोला था- "जीजा जी, यह कथा तो इसने फेसबुक पर डाली थी। हम सब हँसते-हँसते लोटपोट हो गए थे।"
आज यह पुराना वाकया हू-ब-हू उसकी आँखों में नाच गया।
पलंग पर धम्म से बैठ गयी वह। किसी सुधा का पति के नाम लिखा हुआ लव लेटर उसके हाथ में लहरा रहा था। पति से सफाई की उम्मीद में सच और झूठ के पलड़े में अब भी झूल रही थी वह।
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सविता मिश्रा'सपने बुनते हुए' साँझा संग्रह में प्रकाशित २०१७

Monday 13 April 2015

सुरक्षा घेरा~

चार साल की थी तब से बाहर की दुनिया उसने देखी ही न थी। दस कदम का एरिया ही उसकी पूरी दुनिया थी। नजरें झुकाये लोग उसकी दहलीज पर आते थे और जेब ढीली कर चलते बनते थे। तेरह-चौदह साल की उम्र से यह जो सिलसिला शुरू हुआ फिर रुका ही कहाँपैंतीस साल उम्र होने के बाद भी। लोग कहते कि वह पूरे इलाके में सबसे खूबसूरत बला थी लेकिन फिर भी आसपास के मर्द उसे छेड़ने की गुस्ताखी नहीं करते थे।
कल ही मोटा सेठ दो गड्डिया दे गया था उसके 'नूरपर मरकर। उसी सेठ से पता चला कि मॉल में बहुत कुछ मिलता है।
"बगल में ही है तुम्हारे एरिया से बस कुछ ही दूरी पर।कह एक गड्डी और पकड़ाकर बोला- "कुछ नये फैशन के कपड़े ले आना।"
पर्स में गड्डी रखसज-धजकर अपने ही रौ-धुन में चल दी सुनहरी।
अपना एरिया क्या छोड़ा ..सारी निगाहें उसे ही घूरती नज़र आई। दो कदम पर ही तो मॉल हैबस घुस जाऊँ! ये लफंगे-भेड़िए फिर क्या बिगाड़ लेंगे मेरा। सोच कदमचाल तेज़ हो गयी उसकी।
लेकिन उसका ख्याल गलत साबित हुआ। हतप्रभ-सी रह गयी वह! जब एक दो नहींअपने अनेक ग्राहकों को उसने देखाजो अपनी पत्नी से नजरें बचाकर उसे घूरकर आह भरते फिर निगाहें चुराकर उसके बगल से अपनी-अपनी पत्नी के साथ निकल जा रहे थे। कई युवक उसपर फब्तियां कसते हुए गन्दे गन्दे इशारे करने लगे थे।
वह बदहवास-सी उस असुरक्षित दुनिया से उल्टे पाँव अपने सुरक्षा घेरे में लौट आई।
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13 April 2015 नया लेखन - नए दस्तखत

Sunday 12 April 2015

वर्दी

"मम्मी ! दादा जी, पापा को अपनी तरह फौजी बनाना चाहते थे ?"
"हाँ ! क्यों ?"
"क्योंकि पापा मुझ पर फौजी बनने का प्रेशर डाल रहे हैं। मैं पापा की तरह पुलिस अफसर बनना चाहता हूँ।" खाकी में अपने पिता की फोटो को देखते हुए बेटे ने कहा।
माँ कुछ कहती उससे पहले पापा माँ-बेटे की वार्तालाप को सुनकर कमरे में आए और अपनी तस्वीर के ऊपर टँगी दादाजी की तस्वीर को देखते हुए बोले -
"बेटा ! मैं 16 से 18 घंटे ड्यूटी करता हूँ । कभी-कभी दो- तीन दिन बस झपकी लेकर गुजार देता हूँ। घर परिवार सब से दूर रहना मज़बूरी है मेरी। छुट्टी साल में चार भी मिल जाये तो गनीमत समझो। क्या करेगा तू मुझ-सा बनकर ? क्या मिलेगा तुझे ! तिज़ारत के सिवा ?"
"पर पापा, फौजी बनकर भी क्या मिलेगा? खाकी वर्दी फौज की पहनूँ या पुलिस की ! फर्क क्या है ?"
"फौजी बनकर इज्जत मिलेगी ! हर चीज की सहूलियत मिलेगी । उस खाकी में नीला रंग भी होता है सुकून और ताज़गी लिए। पुलिस की खाकी मटमैली होती है। जिसके कारण किसी को हमारा काम नहीं दिखता, बस दिखती है तो धूलधूसरित मटमैली-सी हमारी छवि। तेरे दादा जी की बात को नहीं मानकर बहुत पछता रहा हूँ मैं। फौज की वर्दी पहनकर इतनी मेहनत करता तो कुछ और ही मुक़ाम होता मेरा।"
"ठीक है पापा ! सोचने का वक्त दीजिए थोड़ा।"
"अब तू मेरी बात मान या न मान ! पर इतना जरूर समझ ले, क्रोध में निर्णय लेना और अतिशीघ्र निर्णय नहीं लेना, मतलब दोनों ही प्रकार की वर्दी की साख में बट्टा लगाना है !" पापा अपनी वर्दी पर दो स्टार लगाते हुए बोले ।
" 'सर कट जाने की बड़ाई नहीं है, सर गर्व से ऊँचा रखने में भी मान ही है।' यही वाक्य कहकर मैंने अपने पिता यानी तेरे दादाजी से विरोध किया था। थाने में दोस्त के पिता का जलवा देखकर भ्रमित हो गया था मैं। चमकते चिराग के नीचे का अँधेरा कहाँ देख पाया था। अपनी जिद में वो रास्ता छोड़ आया था जिस पर तेरे दादा ने मेरे लिए फूल बिछा रक्खे थे !"
"पापा ! मुझे भी काँटों भरा रास्ता स्वयं से ही तय करने दीजिए न।"
पिता ने दीवार पर टंगी तस्वीर की ओर देखा फिर बेटे को देखकर मुस्कराते हुए ड्यूटी पर निकल गए।

सविता मिश्रा 'अक्षजा'
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11 April 2015

पापा को लगा बेटा स्याना हो गया हैं । और छोड़ दिया खुले आकाश में ..। ..यह लाइन काट दी हमने 

Wednesday 8 April 2015

सिंदूर की लाज


पति की बाहों में परायी औरत को झूलते देख स्तब्ध रह गयी । आँखों से समुन्दर बह निकला ।
दूसरे दिन सिंदूर मांग में भरते समय अतीत में दस्तक देने पहुँच गयी।
"माँ, ये सिंदूर मांग और माथे पर लगाने के बाद गले पर क्यों लगाती हो । "
माँ रोज रोज के मासूम सवाल से खीझ कह बैठी थी-" सौत के लिये ।"
आज आंसू ढुलकाते हुये वह भी गले पर सिंदूर का टिका लगा लीं ।।
बगल बैठी उसकी दस साल की मासूम बेटी ने वही सवाल किया जो कभी उसने अपनी माँ से किया था ।
माँ मुस्कराते हुये बोली- "माँ दुर्गा से शक्ति मांग रही हूँ , जैसे सिंदूर की लाज रख सकूँ । " सविता 

Saturday 4 April 2015

~सपनों की दुनिया~ (laghuktha)

बापू को बादलों की ताकते बचपन से देखता आ रहा था | बापू अपनी खड़ी, पकी फसल को बर्बाद होते कैसे देखतें | अतः जब भी काले बादल दीखते वह प्रार्थना करने लगतें थें |
एमबीए कर रोहित सूट-बूट पहनते ही अलग ढंग से सोचने लगा था|
वह बापू को समझाते हुए बोला "बापू ये सीढी देख रहें हैं न , इसके जरिये आप आसमान को छू लेंगे | बादलों के काले -सफ़ेद से फिर आप पर कोई असर ना पड़ेगा|
" पर बेटुआ एई खेतिहर जमीन |"
" बापू जब कोई नहीं सोच रहा फिर आप क्यों ? समझाता सा बोला
"आप बस हाँ करें,खेतों पर सपनों की दुनिया बसा दूँगा|"
'मरता क्या न करता' बापू ने हामी भर ही दीं |
कुछ सालों में ही रोहित सर्वश्रेष्ठ बिल्डर बन बैठा | अपने दिमाग का इस्तेमाल कर आस पास कई किसानों की अकूत जमीन अब उसके कब्जे में थी |
लेकिन बापू की आँखे अब भी बादलों को ही निहारती रहती| ...सविता मिश्रा

Wednesday 1 April 2015

संकेत

हादसों का शहर ....यहाँ हर मोड़ पर होता है हादसा ...इस गाने से चिढ सी हो गयी थी । पर ये गाना था कि पीछा ही न छोड़ रहा था उसका ।
 पढ़ाई-लिखाई में मशगुल  वह, हर रोज होते हादसों से अंजान थी | अतः उसे दुनिया बहुत खूबसूरत दिखती थी । दुनिया वाले उससे भी अधिक नेक दिल ।
आज अस्पताल में पड़ी कृषकाय हो गयी थी । लोग उसके लिये भगवान् से प्रार्थना कर रहें थें कि उसे जल्दी ही प्रभु मृत्यु दें  । एक हादसे ने सब कुछ बदल के रख दिया था ।
उसको जो गाना कई सालों पहले नहीं पसन्द था वही गाना वह. जब किसी लड़की को देखती बुदबुदा उठती ।

साविता