Friday 31 October 2014

सच्चा दीपोत्सव

बगल खड़े तीन टावरों में खड़े अट्टालिकाओं पर बल्बों की लड़ियाँ देखकर झुग्गीवासी नन्हें-मुन्हें बच्चे जिद किये बैठे थे | 
“अम्मा ! महँगी लड़ियाँ न सही, दीपावली के दिन दीपक से तो घर सजा सकते हैं न !”
“बेटा ! किसी तरह दीपक-बाती खरीद भी लें, किन्तु महँगा तेल कैसे खरीद पाएंगे हम | कहाँ है हमारे पास में इतना पैसा |”
“अम्मा ! कपड़ा-लत्ता कुछ नहीं मागूँगा ! उन घरों की तरह न सही, मैं तो बस थोड़े से दीपक जलाऊंगा | और साहब के बेटे की तरह पटाखे भी चलाऊंगा |” कामवाली का बेटा शेखर यह कहता हुआ अपनी जिद पर अड़ा था उस दिन | त्यौहार पर बेबस माँ बस आंसू ही बहाये जा रही थी, जुबान पर तो ताला लगा लिया था उसने |
घंटों से रोते देख उसे समझाने में लगी थी कि पिता की आवाज़ आयी - "बेटा ! तू भी पढ़-लिख लेगा, बड़ा अफसर बन जायेगा | तो हम सब भी लड़ियाँ भी सजायेंगे और दीपक भी जलायेंगे | और ढेरों पटाखे भी छुड़ायेंगे | लेकिन इन सबके लिए पहले तुझे पढ़ना पड़ेगा |"
अब तो जैसे शेखर को जुनून सवार हो गया | किताब पकड़ ऐसे बैठा कि आईएएस टॉप करके ही छोड़ा | बस्ती वाले उस दिन झूमकर नाचें थे, जैसे उनका ही बच्चा अफ़सर बना हो |
आज फिर दीपावली का दिन है | और झुग्गी से वह बड़े से सरकारी बंगले में आ गया है | पूरे घर-बाहर नौकर-चाकर दीपक जलाने में लगे हुए हैं | शेखर के मन का अँधेरा दूर नहीं हो रहा है | वह बेचैन हो रह रहकर पुरानी यादों के गलियारें में पहुँच जा रहा था |
माँ के तस्वीर के आगे एक दीपक जला रखता हुआ वह रो पड़ा | फिर कार उठाई और ढेर सारे दीपक-बाती, मिठाई-गुझियाँ, पटाखे लेकर, अपने नौकर के साथ चल पड़ा झुग्गीवासियों के बीच | शाम होते होते सभी झुग्गी जगमगा उठी थी, अट्टालिकाओं की तरह अपनी बस्ती को देखकर सभी खुश थे | बच्चे पटाखे चलाने में मशगूल हो गये | वह एक कोने में खड़ा सबको पटाखे चलाते हुए देख मुस्करा रहा था | तभी एक बच्चा दौड़ता हुआ उसके पास आकर बोला – “भैया ! मैं भी आपकी तरह बड़ा अफ़सर बनूँगा |” 
“बिलकुल ..!” कहकर उसने, उसके सिर पर हाथ फेर दिया |
“साहब ! सच्चा दीपोत्सव तो अब जाके हुआ |”
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31 October 2014
Savita Mishra

Saturday 25 October 2014

~ सुखद क्षण ~(अस्त्र)

अस्त्र
अपनी कामवाली के बच्चे को सड़क पर लोटते देख शीला ठहर गई | बगल ही खड़ी माँ से कारण पूछा ! पता चला कि बच्चा दीपावली पर पटाखे लेने को मचल रहा था |
उसके पास इतने पैसे नहीं थे कि वह पूजा के लिए लक्ष्मी-गणेश, बताशे लेने के बाद उसे पटाखे भी दिला सकती | जिद्द में आकर बच्चा रोता हुआ लोट रहा था |
शीला ने अपने बेटे के लिए खरीदें पटाखों में से कुछ पटाखे उसे दे दिए | पटाखा हाथ में आते ही वह खुश हो गया |
"मम्मी ! मेरे पटाखे आपने इसे दे दिया अब इसका डबल करके मुझे दिलवाइए |
शीला उसे समझाते हुए पटाखों की खामियाँ गिनाती रही | लेकिन वह कहाँ मानने वाला था |
अचानक कामवाली का बच्चा आँखों का पानी पोंछते हुए बोल उठा- "तुम भी लोट जाओ यहाँ, फिर तुम्हारी मम्मी तुम्हें, झट से और पटाखे दिला देगी |"
--०--
25 October 2014 को लिखी 

Saturday 18 October 2014

(जोड़ -घटाना) "परिवर्तन"

"मम्मी! ऑन लाइन आर्डर कर दूँगाया चलिए मॉल से दिला दूँगावह भी बहुत खूबसूरत- बढ़िया दीये। चलिए यहां से। इन गँवारों की भाषा समझ नहीं आतीऊपर से रिरियाते हुए पीछे ही पड़ जाते हैं। बात करने की तमीज भी नहीं है इन लोगों में।"
मम्मी उस दुकान से आगे फुटपाथ पर बैठी एक बुढ़िया की ओर बढ़ी। उसके दीये खरीदने कोजमीन में बैठकर ही चुनने लगीं।
देखते ही झुंझलाकर संदीप बोला- "क्या मम्मीआपने तो मेरी बेइज्ज़ती करा दी। मैं 'हाईकोर्ट का जजऔर मेरी माँ जमींन पर बैठी दीये खरीद रही है। जानती हो कैसे-कैसे बोल बोलेंगे लोग .. जज साहब ..."
बीच में ही माँ आहत होकर बोलीं - "इसी ज़मीन में बैठ ही दस साल तक सब्ज़ी बेची हैकई तेरी जैसों की मम्मियों ने ही ख़रीदी है मुझसे सब्जीतब जाके आज तू बोल पा रहा है।"
संदीप विस्फारित आंखों से माँ को बस देखता रह गया।
मम्मी उसे घूरती हुई आगे बोली-
"वह दिन तू भले भूल गया बेटापर मैं कैसे भुलूँ भला। तेरे मॉल से या ऑनलाइन दीये तो मिल जायेंगे बेटापर दिल कैसे मिलेंगे भला?" 
--००
18 October 2014 को लिखी सविता मिश्रा 'अक्षजा'

Saturday 4 October 2014

दोगलापन (लघु कथा)

"कुछ पुण्यकर्म भी कर लिया करो भाग्यवान! सोसायटी की सारी औरतें कन्या जिमाती हैऔर तू है कि तुझमें कोई धर्म-कर्म है ही नहीं|"
"देखिये जी ! लोग क्या कहते हैंकरते हैंइससे मुझसे कोई मतलब ..."
बात को बीच में काटते हुए रमेश बोला- "हाँ-भई-हाँ! तू तो दूसरे ही लोक से आई हैमेरे कहने पर ही सहीथोड़ा अनुष्ठान कर लिया कर|"
अष्टमी के दिन सोसाइटी में बच्चों का शोर-शराबा सुनकर पति ने कहा तो
 बात मन में मंथन करती रही| न चाहते हुए भी उसने किलो-भर चना भिगो दिया|
नवमी पर दरवाजे की घंटी बजी| सामने छोटे-छोटे बच्चों में लडकियाँ कम लड़के अधिक दिखे| किसी को मना न कर सबको अंदर बुलाया| आसन पर बैठाकर प्यार से भोजन परोसने लगी तो चेहरे पर नजर गयी| किसी की नाक बह रही थीतो किसी के कपड़ो से गन्दी-सी बदबू आ रही थी| मन खट्टा-सा हो गया उसकाकिसी तरह शिखा ने दक्षिणा देकर उन सबको विदा किया|
"देखो जी कहें देती हूँ ! इस बार तो आपका मन रख लियापर अगली बार भूले से मत कहना..इतने गंदे बच्चे ! जानते होएक तो नाक में ऊँगली डालने के बाद उसी हाथ से खाना खायी| छी ! मुझसे ना होगा यह..! ऐसा लग रहा था कन्या नहीं खिला रही बल्कि...! भाव कुछ और हो जाय तो क्या फायदा ऐसी कन्या-भोज काअतः मुझसे उम्मीद मत ही रखना|" तड़-तड़कर शब्दों का पुलिंदा पति पर फेंकती गयी और बेबस पति धैर्य पूर्वक  सुनने के पश्चात बोला-
"अच्छा बाबाजो मर्जी आये करोबस सोचा नास्तिक से तुझे थोड़ा आस्तिक बना दूँ|"
"मैं नास्तिक नहीं हूँ जी। बस यह ढोंग मुझसे नहीं होता हैसमझे आप|"
"अच्छा-अच्छादूरग्रही प्राणी...!" हाथ जोड़कर रमेश ने जब यह कहा तो घर में खिलखिलाहट गूँज पड़ी|
सुधा ने बाहर मिलते ही सवाल दागा- "यार तेरी मुराद पूरी हो गयी क्या ? बाहर तक हँसी सुनाई दे रही थी|"
मिसेज श्रीवास्तव ने मुँह बनाकर कहा- "हम इन नीची बस्ती के गंदे बच्चो को कितने सालों से झेल रहे हैंपर नवरात्रे में ऐसे ठहाके नहीं गूँजे...! बता तोहँसी की सुनामी क्यों आयी थी?"
शिखा मुस्कराकर बोली- "क्योंकि मैं मन-कर्म और वचन से एक हूँ|"
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सविता मिश्रा
 "अक्षजा'
 आगरा  
 
2012.savita.mishra@gmail.com        

Savita Mishra
6 अक्तूबर 2014 · 
बदलकर दुसरे शीर्षक से यह वर्ड  फ़ाइल में है ...९/९/२०१९ को बदला ..करेक्शन नहीं किया यहाँ 

Friday 3 October 2014

~जलती हुई मोमबत्ती~(रौशनी)



रौशनी


"शरीर जल (ख़त्म हो) रहा है, लेकिन आत्मा तो अमर है | मोमबत्ती की तरह मैं भले काल कवलित हो गया हूँ, पर इस लौ की भांति तुम सब की आत्माओं में बसा हूँ |" जब सरकारी स्कूल में गाँधी जयंती पर हिंदी के प्राध्यापक महोदय ने मोमबत्ती की ओर इशारा करके कहा तो रूचि भयभीत हो गयी |
दादी से आत्माओं की कहानी खूब सुन रखी थी उसने | दादी ने कहा था अच्छी आत्मायें, बुरी आत्माओं को खूब सताती है | उसे लगा सत्य, अहिंसा के पुजारी बापू आज उसकी खूब खबर लेंगे | कक्षा क्या, पूरे स्कूल की दादा जो थी वह | सुबह प्रार्थना से पहले ही उसने अपनी दोनों सहपाठियों की पिटाई भी कर दी थी, छोटी-बड़ी मोमबत्ती के लेने को लेकर | बच्चों से मारपीट-गाली गलौज के बाद, शिक्षक से मार खाना तो रोज की आदत-सी थी उसकी |
सहसा उसने बापू के चित्र की ओर देखा - बापू के चित्र पर लौ चमक रही थी, बापू की आँखे भी बंद थी | उसे लगा बापू बच्चों में बसी अच्छी आत्माओं से सम्पर्क कर, उन सब को अपनी तरह बनने की सीख दे रहे हैं |
अगले ही पल वह अपने सहपाठियों से क्षमा मांग, उनके गले लग गयी | उसकी इस अप्रत्यासित हरकत से उनकी आँखों में आँसू आ गये जिनसे रोज ही लड़ती थी वह | और कुछ छात्रा हतप्रभ-सी थी - 'कौवे को हंस रूप में देख' |
प्रधानाचार्य महोदय भी ख़ुश होकर बोले - "भले ही आज लोग सफाई कर ख्याति अर्जित कर रहे हैं, पर असली सफाई तो तुमने की है | आज हमारे स्कूल द्वारा दिया जाने वाला 'गांधी सम्मान' मैं सर्वसम्मति से तुम्हें सौंपता हूँ |"
सविता मिश्रा 'अक्षजा'
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3 October 2014 को लिखी