Friday 23 December 2016

बेटी (लघुकथा-मूल्य )

छुट्टी की बड़ी समस्या है दीदी, पापा अस्पताल में नर्सो के सहारे हैं! भाई से फोनवार्ता होते ही सुमी तुरन्त अटैची तैयार कर बनारस से दिल्ली चल दी
अस्पताल पहुँचते ही देखा कि पापा बेहोशी के हालत में बड़बड़ा रहें थेउसने झट से उनका हाथ अपने हाथों में लेकर, अहसास दिला दिया कि कोई है, उनका अपना
हाथ का स्पर्श पाकर जैसे उनके मृतप्राय शरीर में जान-सी आ गयी हो
वार्तालाप घर-परिवार से शुरू हो न जाने कब जीवन बिताने के मुद्दे पर आकर अटक गयी
एक अनुभवी स्वर प्रश्न बन उभरा, तो दूसरा अनुभवी स्वर उत्तर बन बोल उठा- "पापा पहला पड़ाव आपके अनुभवी हाथ को पकड़ के बीत गया दूसरा पति के ताकतवर हाथों को पकड़ बीता और तीसरा बेटों के मजबूत हाथों में आकर बीत गया"
"चौथा ..., वह कैसे बीतेगा, कुछ सोचा? वही तो बीतना कठिन होता बिटिया"
"चौथा आपकी तरह!"
"मेरी तरह! ऐसे बीमार, नि:सहाय!"
"नहीं पापा, आपकी तरह अपनी बिटिया के शक्तिशाली हाथों को पकड़, मैं भी चौथा पड़ाव पार कर लूँगी"
"मेरा शक्तिशाली हाथ तो मेरे पास है, पर तेरा किधर है?" मुस्कराकर बोले
"नानाजी" तभी अंशु का सुरीला स्वर उनके कानों में बजकर पूरे कमरे को संगीतमय कर गया
--००--
सविता मिश्रा
"अक्षजा'
 आगरा 
 2012.savita.mishra@gmail.com इस ब्लॉग पर पहली बार लिखा इसे ...
http://openbooks.ning.com/.../blogs/5170231:BlogPost:809199
--००--

पहले का अंत..."नानाजी" तभी अंशु का ऊँचा स्वर कानों में घंटी सा बज, पूरे कमरे में गूँज उठा समवत दो और स्वर गूँजे! आवाज़ पहचानकर, भावातिरेक में सुमी उठी तो लड़खड़ा गयी दोनों बेटे आगे बढ़कर दोनों हाथ पकड़, उसे सम्भाल लिए
यह देखकर सुमी के पिता गर्व से बोले-"संस्कारित जमीन में चंदन ही महकेगा, कँटीला बबूल थोड़ी।"

Friday 18 November 2016

श्वास- (लघुकथा)


"अरे मुंगेरी, खाना खाने भी चलेगा, या मगन रहेगा यहीं |" मुंगेरी को दीवार से बात करता हुआ देख चाचा ने कहा |
बहुमंजिला इमारत में प्लास्टर होने के साथ बिजली का भी काम चल रहा था | दोपहर में भोजन करने सब नीचे जाने लगे थे | मुंगेरी भी चाचा के साथ नीचे आकर जल्दी-जल्दी खाना ख़त्म करने लगा | तभी अचानक इमारत धू-धूकर जलने लगी | जैसे ही आग मुंगेरी के बनाये मंजिल पर पहुँची, मुंगेरी फफक कर रो पड़ा | सारे मजदूर महज हो-हल्ला मचा रहे थे | लेकिन मुंगेरी ऐसे रो रहा था जैसे उसकी अपनी कमाई जलकर ख़ाक हो रही हो |
"तू इतना काहे रो रहा रे !" एक बुजुर्ग बोला|
"मेरी मेहनतss"
"मेहनत तो सबने की थी न, तेरी तरह तो कोई नहीं रो रहा है | और कौन सी अपनी मेहनत की कमाई लगी इसमें | हम तो राजगीर है, इधर मजदूरी मिली, उधर दीवार से रिश्ता ख़त्म |"
"मेरा तो सपना जल रहा है | अपना तन जलाकर कितने मन से बनाया था मैंने |"
"तन तो सबने ही जलाया, उसी की तो मजदूरी मिलती थी| अच्छा हुआ जल गया | अब साल भर की मजदूरी का यहीं फिर से जुगाड़ बन गया |"
"लेकिन उस मंजिल में जो रहता वह मुझे ही याद करता |" मुंगेरी आंसू पोंछते हुए बोला |
"अरी ! ताजमहल थोड़े ही बनाया था |" कहकर एक मजदूर युवक ठहाका मार के हँसा |
"मेहनत से मैंने मंदिर बनाया था | जिसमें प्रेम भाव से सुकून बसाया था | दीवारें भी बोलती हुई सी थीं उसकी | रहने वाला मकान में नहीं बल्कि घर में रहना महसूस करता |"
"ऐसा क्या किया था रे तूने !!"
"आह के श्वास से नहीं बल्कि मेहनत और उल्लास से भर खड़ी करी थीं दीवारें मैंने |"
सुनते ही सब बगले झाँकने लग पड़े | सविता मिश्रा

Sunday 13 November 2016

कीमत-(लघुकथा)


"माँ कैसे लाऊँ तेरे लिए पैरासिटामॉल! पांच सौ, हजार की नोट बंद हो गयीं, वही पर्स में है |"
"रहने दे बेटा परेशान न हो, मैं ठीक हो जाऊंगी।"
"आज सुबह ही शनिवार  के कारण  मंदिर के भिखारियों में रेज़गारी सारी बाँट आया मैं।  क्या पता था शाम आठ बजते ही यह नोटबन्दी की दुदुम्भी बज जायेगी।
"सुनिए जी .."
"अब तू क्या आर्डर करेगी| देख नहीँ रही है परेशान हूँ !"
चिल्लाते ही झेंपता हुआ बुदबुदाया -- " छोटी नोट तो घर में रहने ही न दिए मैंने। चिल्लाता था कि भिखारियों की तरह क्या चिल्लर जमा करके रखती हो। अब मैं तुम पर क्यों खीझ रहा हूँ !"
"समाचार में तो सुना था कि हस्पताल और दवा वाले लेंगे यह नोट|" वह धीरे से बोली।
"पर ले तो नहीं रहें हैं न ! वह इस बन्दी का फायदा उठाकर अपना ब्लैकमनी ठिकाने लगाएंगे या हमारा दर्द समझकर हमारी सहायता करेंगे। सबकी लंका जली पड़ी है इस समय।"
"अच्छा सुनिये!!"
"अब क्या? ढूढ़ने देगी दस बीस रुपये कि नहीं!"
"वहीँ दे रही हूँ! लीजिए।"
"कहाँ से मिला! मैं तो कब से खोज रहा हूँ। पर यह पॉलीथिन में क्यों रख के दे रही है ! ऐसा लग रहा है सौ  रुपये नहीं बल्कि हजारों पकड़ा रही है !"
"इस जरूरत में तो यह हजारों से भी ज्यादा है। पॉलीथिन में इस लिए दे रहीं हूँ क्योंकि फटा हुआ है।"

यदि जेब में और फट गया तो यह भी हज़ार की नोट की तरह दो कौड़ी का हो जायेगा।"
"हाँ सही कह रही हजार की नोट से भरे हुए इस बटुए पर आज यह फटा हुआ सौ का नोट भी भारी है|" 
"मैं माँ के माथे पर ठंडी पट्टी रखती हूं। आप जाइये जल्दी से दवा लाइए। कल सब्जी के लिए भी तो पैसे चाहिए !"
"हाँ, जाता हूँ! पांच रुपये की दवा आएगी और जो बचेंगे उनसे सन्डे तक काम चल जायेगा।"
"बड़ी नोट रखने का ख़ामियाजा तो भुगतना ही पड़ेगा कल तक।"
"गूंगी भी बोलने लगी।  सोमवार की सुबह ही इन सारी नोटों को छोटी करा लाऊँगा।"
सविता

'प्रतियोगिता के लिए' चित्र पर आधारित

Wednesday 9 November 2016

खोटा खज़ाना-

"पाँच सौ और हजार की नोटें बंद हो गयीं माँ, दो दिन बाद ही बैंक खुलेगा | तब इन्हें बदलवा पाऊँगा।" फोन पर बेटे से यह सुनते ही दीप्ती का चेहरा पीला पड़ गया |

वह बदहवास सी अलमारी की सारी साड़ियाँ निकालकर पलंग पर फेंकने लगी | पुरानी रखी साड़ी की तहों में से कई हरी-लाल नोट मुस्करा रही थीं | नोट देखते ही दीप्ती का चेहरा मुरझाए फूल सा हो जाता था |

फिर अचानक कुछ याद आते ही रसोई में जा पहुँची | चावल-दाल के सारे ड्रम वह पलट डाली | चावल के ढ़ेर से झांकते कड़क नोट उसको मुँह चिढ़ा रहे थें। ड्रम और मसालों के डिब्बों से निकले नोट इक्कट्ठा करके फिर से कमरे में आ गयी | अलमारी में बिछे अख़बार के नीचे भी उसने नजर दौड़ाई | अखबार हल्का सा उठाते ही लम्बवत लेटे नोट खिल उठते | पूरा अखबार उठाते ही सारे बिछे नोट हौले से अखबार के साथ अठखेलियाँ करने लगे | जिन्हें कल तक देखकर वह ठंडक पाती थी आज उबल पड़ी | रसोई और अलमारी से सारे नोट इक्कट्ठे होते ही उसे आश्चर्य हुआ 'इतना रुपया था उसके पास'|
चार दिन पहले ही तो पतिदेव से यह कहकर पैसे मांगे थे कि पैसे नहीं हैं | दो तारीख हो गयी आपने महीने खर्च के पैसे नहीं दिए अभी | "अब क्या कहूँगी मैं उनसे?" बुदबुदाई दीप्ती |
"बिल्ली के जैसे दबे पाँव यह खेल खेला सरकार ने | इस भूचाल की आहट ही न होने दी | महीने दो महीने पहले थोड़ी भी सुगबुगाहट मिलती तो धनतेरस पर मैं हार नहीं गढ़वा लेती |" करारे-करारे नोट देख आंखे नम हो गयीं उसकी |
रूपये बारम्बार गिनती हुई पूरी रात दीप्ती अपनी बचत को छुपाने की आदत पर सिर धुनती रही |
सविता मिश्रा

Sunday 6 November 2016

संगत -

संगत - तनुज अपनी बड़ी बहन की शादी के पांच-छ साल बाद उनकी ससुराल आया था| पता चला छठ पूजा के लिए सब पोखर की तरफ गए हैं| वह अपनी बहन से मिलने वहीं आ गया| छोटे से गंदे पोखर में छठ मैया की पूजा करने वालों की भीड़ लगी थी| तनुज हतप्रभ होकर अपनी बहन को पूजा करते एक टक निहारने लगा| दीदी को पूजा में ऐसे मग्न देखकर वह बरबस ही पुरानी यादों में घिरता जा रहा था| यह वही दीदी हैं जो कभी भी गंदे पानी में किसी को भी नहाते देखती थीं तो दस नसीहतें देने लगती थीं, खुद नहाना तो बहुत दूर की बात थी| बुआ जब घर आ जाती थीं तब चप्पल पहनकर रसोई में जाने को मनाही हो जाती थी| तो दीदी रसोई में कदम नहीं रखतीं थीं| मंदिर के साफ़ सुथरे फर्श पर भी बिना चप्पल के पैरों को अजीब सा मोड़कर चलती थीं| माँ की हर बात पर दसियों तर्कवितर्क करतीं थीं| 'वही दीदी आज नंगे पैरों से इस कंकडों भरे रास्ते पर चलकर आई हैं| ऊपर से कीचड़युक्त तालाब में डुबकी लगाकर, इतनी देर से खड़ी भी हैं|' आश्चर्यचकित होकर बुदबुदाया| दीदी पूजा निपटाकर भाई को देखकर खुश होते हुए जैसे ही पास आई| तनुज अपनी चप्पल आगे करके बोला- "दीदी चप्पल पहन लीजिए, कंकड़ चुभेंगे पैरों में|"| "नहीं बाबू, श्रद्धा और भक्ति की शक्ति हैं मेरे पास, चल लूँगी|" तनुज आश्चर्य से बोला- "दीदी क्या है ये सब, आप और ये !!" "पूरा नगर ही छठ का उपवास इसी तरह करता हैं| यह संगत का असर है बाबू।" ==============================

(चित्र आधारित)

Tuesday 1 November 2016

तरीका (लघुकथा)


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"क्या हुआ बड़े उदास दिख रहे हो| दूकान से भी इतनी जल्दी वापस आ गये?" कहते कहते रसोई में चली गयी |
पानी देते हुए बोली -"आजकल हो क्या गया है तुम्हें ? त्यौहार में तो खूब बिक्री हो रहीं होगी, फिर भी यह मायूसी क्यों चेहरे पर ?"
"कुछ नहीं संजू लुट गया मैं |"
"अरे! कैसे, बदमाश पीछे पड़ गए थे क्या?"
"नहीं संजू, ये साले समाजसुधारक रोजी-रोटी डुबाने पर तुले हुए हैं|"
"क्या कह रहे हो जी, ऐसा क्या कर दिया उन लोगों ने, जो आपकी दूकान बन्द होने की कगार पर आ गयी |"
"हर गली, हर मुहल्ले में चायनीज सामान के खिलाफ़ लोगों के दिमाग में चिंगारी लगा दी इन नासपिटों ने | वह चिंगारी ऐसी भड़की कि इस त्यौहार में रोटी के भी लाले पड़ने के आसार दिख रहें हैं|
"चायनीज!! चायनीज सामान के तो आप भी विरोधी थे| रखे ही क्यों ?"
"क्या बताऊ संजू , ज्यादा मुनाफ़ा कमाने के चक्कर में कहीं का न रहा| सोचा था उस मुनाफ़े से दीपावली में एक फ़्लैट खरीदूंगा| परन्तु अब तो न घर का रहा न घाट का | वह साला राजेश, जो अपनी दूकान में रखे हुए तिरंगे का अपमान करता है, वह भी पीठ पीछे मुझे देशद्रोही कह रहा है|"
"अच्छा..! कल के अख़बार को पढ़ वही राजेश, सबके सामने आपको देशभक्त और दयालु व्यक्ति कहेगा! कहकर कुछ सोचते हुए वह एक नामचीन एनजीओ का नम्बर घुमा के बात करने लगी |सविता मिश्रा
(चिंगारी विषय पर लिखी गयी लघुकथा )

Tuesday 25 October 2016

खुलती गिरहें (गिरह )


पत्नी और माँ के बीच होते झगड़े से तंग आकर बेटा माँ को ही नसीहतें देने लगा | सुनी-सुनाई बातों के अनुसार माँ से बोला - "बहू को बेटी बना लो मम्मा, तब खुश रहोगी |"
"बहू बेटी बन सकती है?" पूछ अपनी दुल्हन से |" माँ ने भौंह को चढ़ाते हुए कहा |
"हाँ, क्यों नहीं?" आश्वस्त हो बेटा बोला |
"बहू तो बन नहीं पा रही, बेटी क्या खाक बन पाएगी वह |" माँ ने गुस्से से जवाब दिया |
"कहना क्या चाहती हैं आप माँजी, मैं अच्छी बहू नहीं हूँ?" सुनते ही तमतमाई बहू कमरे से निकलकर बोली |
"बहू तो अच्छी है, पर बेटी नहीं बन सकती |"
"माँजी, मैं बेटी भी अच्छी ही हूँ | आप ही सास से माँ नहीं बन पा रही हैं |"
"मेरे सास रूप से जब तुम्हारा यह हाल है, माँ बन गयी तो तुम मेरा जीना ही हराम कर देगी।" सास ने नहले पर दहला दे मारा |
"कहना क्या चाह रही हैं आप?" अब भौंह तिरछी करने की बारी बहू की थी |
"अच्छा ! फिर तुम ही बताओ, मैंने तुम्हें कभी सुमी की तरह मारा, कभी डाँटा, या कभी कहीं जाने से रोका !" सास ने सवाल छोड़ा |
"नहीं तो !" छोटा-सा ठंडा जवाब मिला |
बेटा उन दोनों की स्वरांजली से आहत हो बालकनी में पहुँच गया |
"यहाँ तक कि मैंने तुम्हें कभी अकेले खाना बनाने के लिए भी नहीं कहा | न ही तुम्हें अच्छा-खराब बनाने पर टोका, जैसे सुमी को टोकती रहती हूँ |" उसे घूरती हुई सास बोली|
"नहीं माँजी, नमक ज्यादा होने पर भी आप सब्जी खा लेती हैं !" आँखे नीची करके बहू बोली |
"फिर भी तुम मुझसे झगड़ती हो ! मेरे सास रूप में तो तुम्हारा ये हाल है| माँ बन, सुमी जैसा व्यवहार तुमसे किया, तो तुम तो मुझे शशिकला ही साबित कर दोगी।" बहू पर टिकी सवालिया निगाहें जवाब सुनने को उत्सुक थीं।
कमरे से आती आवाजों के आरोह-अवरोह पर बेटे के कान सजग थे | चहलकदमी करता हुआ वह सूरज की लालिमा को निहार रहा था |
"बस करिए माँ ! मैं समझ गयी | मैं एक अच्छी बहू ही बनके रहूँगी |" सास के जरा करीब आकर बहू बोली|
"अच्छा !"
"मैंने ही सासू माँ नाम से अपने दिमाग में कँटीली झाड़ियाँ उगा रखी थीं | सब सखियों के कड़वे अनुभवों ने उन झाड़ियों में खाद-पानी का काम किया था |"
"सुनी क्यों ! यदि सुनी भी तो गुनी क्यों ?"
बेटे ने बालकनी में पड़े गमले के पौधे में कली देखी तो उसे सूरज की किरणों की ओर सरका दिया |
"गलती हो गई माँ ! आज से उन पूर्वाग्रह रूपी झाड़ियों को समूल नष्ट करके, अपने दिमाग में प्यार का उपवन सजाऊँगी | आज से क्यों, अभी से| अच्छा बताइए, आज क्या बनाऊँ मैं, आपकी पसंद का ?" बहू ने मुस्कराकर कहा |
"दाल भरी पूरी ..! बहुत दिन हो गए खाए हुए।" कहते हुए सास की जीभ, मुँह से बाहर निकल होंठों पर फैल गई |
धूप देख कली मुस्कराई तो, बेटे की उम्मीद जाग गयी | कमरे में आया तो दोनों के मध्य की वार्ता, अब मीठी नोंकझोंक में बदल चुकी थी |
सास फिर थोड़ी आँखें तिरछी करके बोली- "बना लेगी..?"
"हाँ माँ, आप रसोई में खड़ी होकर सिखाएँगी न !" मुस्कराकर चल दी रसोई की ओर |
बेटा मुस्कराता हुआ बोला, "माँ, मैं भी खाऊँगा पूरी |"
माँ रसोई से निकल हँसती हुई बोली, "हाँ बेटा, जरुर खाना ! आखिर मेरी बिटिया बना रही है न |"
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25 October 2016 नया लेखन में

Saturday 22 October 2016

~~ठंडा लहू ~~



हिंदी साहित्य डेढ़ सौ रूपये किलो का बैनर देख एक व्यक्ति दुकानदार से बोला "परशुराम जी की किताब मिलेगी क्या ?"
दुकानदार की आँखों में चमक आ गयी | हाँ साहब क्यों नही मिलेगी | उनकी किताब तो कई है मेरे पास| आपको कौन सी चाहिए ?"
'दूर के परिंदे' लघुकथा संग्रह ! और भी जो उनकी कथा संग्रह तीन-चार किलो भी हों जाए तो भी दे दो सब |"
"लगता है आप पढ़ने के शौकीन है लघुकथाओं तथा कहानियों के |"
"नहीं ऐसा कुछ नहीं है| मैंने सुना है वो शायद चल बसे | दसियों साल से किसी साहित्यिक कार्यक्रम या गोष्ठी में नहीं दिखे वह | आज की नई जनरेशन उनको भूल गयी हैं |"
"तो आप उनको पढ़-जानकर उन्हें खोजना चाहते है !" ख़ुशी चेहरे पर छुपाए न छुप रही थी | उनकी कथाओं का प्रचार कर उन्हें प्रसिद्धि दिलाना चाहते हो!" अनगिनत ख्बाब आँखों में जैसे पलने को आतुर हो उठे |
"तुम्हें क्या करना इससे? और हाँ ध्यान रहें ऐसे प्राकशक की तौलना जो हलके पेज वाली पुस्तक छापता हो | भले किसी और कथाकार की एक दो रखनी पड़े तराजू पर |"
थोड़ा मायूस हुआ दूकानदार कि सस्ते में भी और सस्ता माल चाहिए इन्हें | लगता हैं सच में मुझे कोई नहीं पढ़ना चाहता है|
"पर साहब आपको चाहिए क्यों ?" पैसा हाथ में लेता हुआ दूकानदार फिर चिहुँक कर पूछ बैठा | कान शायद सुनना चाहते थे कि कोई तो है जो परशुराम यानि मुझे पढ़ना चाहता है |
"बस उनकी कथाओं के कथ्य में हल्का फेरबदल कर अपनी लघुकथा संग्रह छपवाऊँगा| उनको इस जमाने के लोग जानते भी नहीं और न पढ़े ही है कभी उनकी कथाएँ |"
"तो आप कैसे जानते है उन्हें ?" रोष छुपाते हुए दूकानदार बोला |

"पिताजी कहते थे बहुत अच्छे लघुकथाकार थे वह | लिखना है तो उनकी कथाएँ गहराई से पढ़ो | आजकल तो तुम जानते ही हो सब ऐसे ही खेल चलता है| साहित्य बेचते-बेचते इतना अनुभव तो तुम्हें भी हो ही गया होगा | आखिर ये बाल धूप में तो सफेद नही ही हुए होंगे तुम्हारें|" व्यंग्य भरी मुस्कान के साथ ग्राहक बोला |

"हाँ साहब,बस लहू न सफ़ेद हो रहा |"



चित्र पर आधारित लघुकथा..नया लेखन ग्रुप में विजेता बनी

Tuesday 18 October 2016

रीढ़ की हड्डी

बेहोशी से उबरी बीनू ने देखा कि बच्चे सब्जी-रोटी खा रहे हैं।
उसे संतोष हुआ कि बच्चे उसकी बीमारी की वजह से कम से कम भूखे नहीं रह रहे। खाना खत्म करके वे जैसे ही उसके पास बैठे, वह पूछ बैठी- "पिंकी, खाना किसने बनाया? पड़ोस वाली आंटी ने?"
"नहीं, पापा ने बनाया।"
"पापा ने!"
"हाँ, पापा ने! सुबह उन्होंने नाश्ता भी बनाया था! फिर बर्तन धोए। झाड़ू-पोंछा भी किया आपकी तरह। और दोपहर में दाल-चावल भी बनाये थे पापा ने।"
"तुम दोनों ने मदद न की पापा की?"
"नहीं, पापा ने कहा आज मैं करता हूँ। तुम दोनों हस्पताल में रहो, अपनी मम्मी के साथ।"
"कहाँ है तेरे पापा?"
"डॉक्टर ने आपकी दवा लाने के लिए भेजा है।" पिंकी ने बताया।
तभी, दरवाजे पर पापा को देखते ही टिंकू बोला- "लो, आ गए पापा।"
"बीनू उठो, दवा खा लो। टिंकू एक गिलास पानी दे बेटा।" निकट आकर पति ने कहा।
"आप ! परन्तु आप कैसे आ गये? छुट्टी मिल गयी क्या?" सवालों की बौछार लगा दी उसने।
"हाँ, मिल गयी। पूरे पन्द्रह दिन अब मैं तुम्हारे साथ ही रहूँगा।"
"इत्ते दिन!"
"हाँ..!"
"मुझे तो समझ ही न आ रहा था कि कैसे होगा...ये बीमारी भी अचानक। कोई रिश्तेदार भी तो नहीं जो महीना- पन्द्रह दिन आ जाए...।"
"चिंता न कर बीनू, सब हो जायेगा, मैं हूँ न!"
"इतनी बार परेशानी आई। हास्पिटल के चक्कर अकेली ही लगाती रही थी। इस बार कैसे आपके अफ़सर की मेहरबानी हो गई?"

"पुलिस अधिकारी भी जानते है कि बच्चों पर कोई समस्या आएगी तो बीवी झेल लेगी, परन्तु बीवी ही बीमार हो जाएगी तो फिर कौन संभालेगा। इसलिए फटाफट सेंक्शन कर दी छुट्टी।"
"यानि रीढ़ की हड्डी हूँ मैं आपकी।"
"हाँ, वो तो हो ही बीनू। बिना किसी शिकायत के अकेली ही सब- कुछ सम्भालती रही हो।"
"पर पन्द्रह दिन तो आप हो, हमारी रीढ़ की हड्डी|" कहते हुए मुस्करा दी बीनू।
"हाँ भई, अभी तक सरकारी नौकर था, पन्द्रह दिन 'नौकर बीवी का' हूँ। दोनों ही खिलखिला पड़े।
-0-
सविता मिश्रा 'अक्षजा'

प्रदत्त विषयाधारित लघुकथा: (पति का एक दिन) नया लेखन ग्रुप में लिखी १८/२०१६ में |
'सपने बुनते हुए' साझा संग्रह में प्रकाशित जुलाई २०१७ में 

Monday 17 October 2016

सबक ~


भोर सी मुस्कराती हुई भाभी साज सृंगार से पूर्ण अपने कमरे से निकली।
"अहा भाभी, आज तो आप नयी नवेली दुल्हन सी लग रही हैं, कौन कहेगा शादी को आठ साल हो गए हैं।" ननद ने अपनी भाभी को छेड़ा।
"हाँ! आठ साल हो गए पर खानदान का वारिस अब तक न जन सकी।" सास ने मुँह बिचका दिया।
"माँ, भी न ! जब देखो भाभी को कोसती रहती हैं। सोचते हुए वह भाभी की और मुखातिब हुई- "भाभी मैं आपके कमरे में बैठ जाऊँ? मुझे 'अधिकारों की लड़ाई' पर लेख लिखना है।"
"सुन सुधा, सुन तो! तू माँ के ....|" भाभी की बात अधूरी रह गयी थी और वह कमरे में जा पहुँची थी।
"भाभी यह क्या ? आपका तकिया भीगा हुआ है। किसी बात पर लड़ाई हुई क्या भैया से !"
"वह रात थी सुधा, बीत गयी। सूरज के उजाले में तू क्यूँ पूरी काली रात देखना चाह रही है।"
"काली रात का तो पता नहीं भाभी! परन्तु रात का स्याह अपनी छाप तकिये पर छोड़ गया है और इस स्याह में भोर सा उजास आप ही ला सकती हैं।"
सुधा अनायास ही गंभीर हो गयी थी और इधर उसका लेख 'अधिकारों की लड़ाई' भाभी के दिमाग में सबक बन कौंध रहा था।
--००---
#सविता
रात विषय आधारित इस लिंक पर
https://www.facebook.com/groups/540785059367075/permalink/991128497666060/

(जिंदगीनामा:लघुकथाओं का सफर में रात विषय पर आधारित करके लिखा १६ अक्तूबर २०१६ में )

Wednesday 5 October 2016

स्त्रीत्व मरता कब है

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जंगलो में भटक-भटककर नक्सली लड़कियाँ थकान से पूरी तरह से टूट चुकी थीं | थोड़ा आराम करना चाहती थीं | भारी कदमो से ऐसे स्थान की तलाश में थीं, जहाँ वो थोड़ी देर बिना किसी भय के आराम कर सकें | तभी एक तरफ से संगीत की मधुर आवाज कानों में पड़ते ही सभी ठिठक गयीं | न चाहते हुए भी वे मधुर आवाज की ओर खींचती हुई चली गयीं | जैसे शहद की ओर मक्खी खिंची चली आती है वैसे ही वो आवाज़ की ओर बढ़ते-बढ़ते गाँव के बीचोबीच आ पहुँची थीं | वहां पहुँचकर एक सुरक्षित टीले पर चढ़कर आव़ाज कि दिशा में निगाहें दौड़ा दीं | दूर एक स्कूल में 'कुछ सुकोमल सुसज्जित लड़कियों को देख' ग्लानी से भर उठी |
उधर सुसज्जित लड़कियां संगीत की धुन पर थिरक रही थीं, इधर नक्सली भेष में वो सभी अपनी स्थिति पर अफ़सोस कर रही थीं।
"देश भक्ति के गीत पर थिरकती युवतियाँ कितनी सुन्दर लग रही है |" उसमें से एक बोली |
"हाँ ! बालो में गजरा, सुन्दर साड़ी, चेहरे पर एक अलग ही लालिमा छायी है इनके |" दूसरी ने हुंकारी भरकर उन नाचतीं हुई लड़कियों को फटी आँखों से देखते हुए कहा |
पहली बोली - "हमें देखो, बिना शीशा कंघी के ! कसकर बांधे हुए बाल, लड़को से ये लिबास, कंधे पर भारी भरकम राइफल, दमन कारी अस्त्र शस्त्र लादे, जंगल-जंगल भटक रही हैं |"
सरगना हुलसकर बोली- "हम भी तो इन्हीं की तरह थे, सुकोमल अंगी-खूबसूरत | किन्तु आज देखो कितने कठोर हो गये हैं | समय ने हम सब में बहुत--सा परिवर्तन ला दिया है | एक भी त्रियोचरित्र गुण नहीं रह गया हम सब में |"
दूसरी ने भी हाँ में हाँ मिला कर कहा- "जिसे देखो हमें रौंदकर आगे बढ़ जाता है | सारे सपने चकनाचूर हो गये | कहने को कोई अपना नहीं इन हथियारों के सिवा |"
उस नक्सली ग्रुप की सबसे छोटी सदस्य ने वितृष्णा से भरकर कहा- "ये हथियार भी तो हमारी अस्मिता की रक्षा कहाँ कर पाए, हाँ खूनी जरुर बना दिए हमें |
सरगना मायूस होकर बोली- "हाँ, अब तो बदनाम ही है नक्सलाईट के नाम से | ये गाँव वाले भी हम सब से डरते हैं | यह क्या जाने असल में डरते तो हम सब हैं इनसे | तभी तो बन्दूक लेकर चलते हैं | छुप-छुपकर रहते हैं जंगलों में कि कहीं हम पर इनकी नजर न पड़ जाये और यह हमारी ख़बर पहुँचा दें पुलिस तक |"
पहली उचटती हुई बोली - "हाँ, सरकार तो हम सब के खून की प्यासी है ही | वह यह थोड़ी देखेंगी कि हमें फंसाया गया है | हमारा अपरहण करके हमें इस दलदल में धकेल दिया गया | और जब बुरी तरह फंस गये, तो इन हथियारों को पकड़ाकर हमें झोंक दिया ! अपनों को ही मारने के लिए | हम सबका शौक थोड़ी था खूनखराबा करना | "
सब के मन की पीड़ा सुनकर सरगना ने आपसी सहमती से निर्णय लिया | सभी नक्सली लड़कियाँ एक दूजे की आँखों में देखकर उस निर्णय पर अवलम्ब क़दम बढ़ा दीं | धीरे-धीरे सब ऐसे स्थान पर आ गयीं, जहाँ पर पुलिसवालों की नजर उन पर पड़ सकें |
आज शायद १५ अगस्त था, अतः पूरे लाव-लश्कर के साए के तले गाँव वाले आज़ादी का जश्न मना रहे थे | आखिरकार किसी पुलिस वाले की निगाह उन नक्सली लड़कियों पर पड़ ही गयीं, जो मग्न थी जश्न देखने में | लेकिन यह भी चाहती थीं कि पुलिस वाले, या गाँव के मुखबीर उन्हें देखें |
सभी गाँव वाले, पुलिसवालों के साथ मिलकर नक्सली लड़कियों को चारो तरफ से घेरकर धर दबोचे | अपने को घिरा हुआ देखकर भी उनके चेहरे पर तनिक भी शिकन नहीं थी | यहीं तो चाहती थीं सब की सब | पुलिस अपने कामयाबी पर फूले नहीं समा रही थीं और नक्सली लड़कियां मंद- मंद मुस्करा, त्रियोचरित्र सपने बुन रही थीं | उन चंद क्षणो में हजारों सपने देख डाले होंगे उन्होंने |
स्वतंत्रता के दिन समर्पण या अपने हथियार डाल देने वालें नक्सली, मुख्यधारा में शामिल कर लिए जायेंगे | ससम्मान समाज में उन सबके रहने की व्यवस्था की जाएगी | शहर में चीफ़ मिनिस्टर के सामने पहुँचने पर जैसे ही यह ज्ञात हुआ तो वो सब अपने निर्णय पर गर्वान्वित हों उठीं |
सभी मुख्यधारा में शामिल होने का, मन ही मन जश्न मना रही थीं | आज भटकाव के रास्ते से लौट आने की ख़ुशी भी उन सबके चेहरे पर साफ़ झलक रही थी | बिना किसी साज सृंगार के कालिख पूते चेहरे पर स्त्रियोचित लालिमा इतराने लगी थी | आँखों का भय कहीं कोने में दुबककर बैठ गया था, अब उन्हीं आँखों में हया तैर रही थी | नाचती हुई स्त्रियों के चूड़ियों की खनखन उन्हें अपनी कलाइयों पर महसूस होने लग रही थी |
सब एक दूजे की ओर देखकर मुस्करा पड़ी | आँखों ही आँखों से जैसे कह रही थीं - "स्त्रीत्व मरता कब है ! देखो आज इतने सालों बाद आखिर जाग ही गया | आज भटकाव के रास्ते से लौट आने की ख़ुशी भी उन सबके चेहरे पर साफ़ झलक रही थी | बिना किसी संगीत के और बिना नृत्य की किसी भावभंगिमा के उनका पूरा तन-मन थिरक रहा था | उन सबने अपने अंदर पनपे मर्दानेपन को पल भर में ही थपकी देकर सुला दिया था और उनमें स्त्रीत्व काली घनी रात के बाद आयें भोर की भांति अंगडाई ले चुका था | लाल-नीले-पीले परिधानों में सजी सभी बहुत सुंदर दिख रही थीं .!.....सविता मिश्रा
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12 July 2014 को नया लेखन - नए दस्तखत में स्त्रीत्व मरता कब है कथा लिखी थी बाद में कहानी बना दिए

Monday 3 October 2016

पहला इम्प्रेशन (पहली कहानी)

"मम्मी ......... कहाँ हो आप !"
"क्या है छवि ? मैं छत पर हूँ, आ रही हूँ! क्या हुआ, क्यों चीखे जा रही हो?"
"मम्मी मम्मीईईई" छवि बड़ी तेज बोली।
"अरे बाबा क्या हुआ आती हूँ! सीढियों पर गिरकर पैर थोड़े ही तोड़वाने हैं |"
"हाँ, बता क्या हुआ! स्कूल में किसी से लड़कर आई है क्या ?"
"नहीं मम्मी, टीचर ने कहा है पत्र लिखकर ले आना ट्यूशन पर देखूँगी |"
"अच्छा-अच्छा पहले खाना खा ले। फिर लिखवाती हूँ तेरा पत्र..! ट्यूशन तो चार बजे से है न! अभी तो बस ढाई बजे है। हाथ मुहँ धो कर कपड़ें बदल ले पहले । तब तक मैं खाना गरम कर देती हूँ |"
खाना जल्दी-जल्दी ख़त्म करके छवि कापी-पेन लेकर बैठ गयी । "मम्मी जल्दी करिए|" बर्तनों की आवाज सुनकर छवि ने आवाज लगाई।
रूपा ने विषय को देखकर बोला - "अरे इतना तो सरल विषय दिया है ! पापा को ही तो पत्र लिखना है। वह भी तू खुद से नहीं लिख सकती!"
"अरे मम्मी अब लेक्चर मत दीजिए, लिखवा दीजिए ना। आप लिखवाएंगी तो पहले दिन ही मेरा इम्प्रेशन अच्छा जमेगा |" बिटिया की बात सुनकर रूपा जोर से हँसी और फिर लिखवाने लगी पत्र |
बिटिया को सहेजकर ट्यूशन भेजते ही रूपा अपने पुराने दिनों में खो गयी। जब वह अपने पापा को ख़त लिखती थी। वह भी क्या दिन थे। पोस्टकार्ड और अंतर्देशीय पत्र खूब चलते थे| आजकल के बच्चे तो जानते ही नहीं ये किन बलाओं के नाम हैं | बस विषय के एक भाग के रूप में पत्र लेखन करते हैं। असलियत में तो पत्र लिखना जैसे भाता ही नहीं, बस फेसबुक और ह्वाट्स एप्स पर खूब लिखवा लो स्टेट्स- मैसेज वगैरह |
हमारे जमाने में ये सब कहाँ थे! पत्र ही चलते थे । खूब लिखे पत्र रिश्तेदारों को, पति महोदय को । पति का ख्याल आते ही मन ही मन मुस्करा उठी रूपा|
पति को लिखे गये पत्र तो सहेजकर रखे भी हैं इतने सालो तक। ये आज की पीढ़ी इन भावो को क्या-कैसे संभालेगीं ! कम्प्यूटर और मोबाईल मैमोरी में क्या !! जमाना कितना बदल गया। सोचते ही अनमनी होकर, अतीत और भविष्य में तालमेल बैठाने लग गयी |
पत्र के विषय में सोचते-सोचते रूपा अचानक अलमारी में सहेजे पति के पत्र निकालकर, पढ़ते-पढ़ते खो सी गयी थी कि दरवाजे की घंटी बज उठी। जल्दी-जल्दी पुराने पर्स में फिर से पत्रों को सहेज अलमारी में छुपाकर रख दिया और दरवाजा खोलने चली गयी|
बिटिया दरवाजा खोलते ही चहक उठी, "मम्मी, मम्मी" रूपा बोली, "अरे बता तो क्या हुआ?"
"मम्मी टीचर ने कहा तुम्हारी हिंदी तो बहुत अच्छी है, बहुत सुन्दर लिखा है तुमने| सारे बच्चों ने खूब ताली बजायी मेरे पत्र को सुनकर और हाँ टीचर ने भी|"
"अच्छा तब तो तुम्हारा इम्प्रेशन खूब अच्छा पड़ा न?" रूपा मुस्करा कर बोली|
"हाँ मम्मी, पर..!"
"..पर क्या?" रूपा थोड़ा आश्चर्य से बोली
"..मम्मी मैंने टीचर को सच भी बता दिया बाद में, कि पत्र आपने लिखवाया है। उन्होंने आपका मोबाइल नंबर माँगा मुझसे। पता नहीं वो मेरी शिकायत शायद आपसे करेंगी ! मम्मी आप संभाल लेना | मैं अब खेलने चली। ठीक जाऊ न?" खिलखिलाती हुई छवि बोली..।
रूपा आशंका से भर गयी । मुस्कराहट का लबादा ओढ़कर कहा - "अच्छा ठीक है जाओ, पर आधे घंटे में आ जाना अच्छा! आधे घंटे मतलब आधे घंटे ही समझी|"
रूपा भी अपने काम में लग गयी तभी मोबाइल बज उठा, उठाते ही आवाज आई- "आप छवि की मम्मी बोल रही हैं?"
रूपा समझ गयी कि ये छवि की टीचर ही होंगी । वह सफाई देना ही चाहती थी कि उधर से आवाज आई-
"आपकी बिटिया बहुत प्यारी और साफदिल की है। उसकी यह साफगोई बनी रहे इसका आप ख्याल रखियेगा। आजतक बहुत बच्चों को मैंने पढाया है, पर ऐसे बच्चें आज के जमाने में कहाँ मिलते हैं ! वह चाहती तो नहीं बताती, किन्तु उसने बताया की आपने उसकी मदद की है। पढ़ने में भी खूब अच्छी है। मेहनती है, खूब आगे बढ़ेगी।"
रूपा ने सकुचाते हुए कहा कि "आप उसका ख्याल रखियेगा।" उन्होंने भी भरोसा दिलाया .."आप चिंता ना करें, मैं अपने बच्चों को खूब मेहनत से पढ़ाती हूँ।"
"बस भेजने में डर रहीं थी कि आने जाने में..!"
"आप डरिये नहीं। मैं बच्चों को समय से छोड़ भी देती हूँ। जिस दिन भी देर हो, या आपको लगे कि मैं अपना काम ईमानदारी से नहीं कर रही हूँ आप निसंकोच फोन कर सकती हैं।"
मोबाईल पर टीचर से बात करने के बाद रूपा गदगद और आश्वस्त हो चुकी थी कि एक अच्छी शिक्षक मिल गयी है बिटिया को | वर्ना आज कल के शिक्षकों को तो पैसों की ही भूख है, बच्चें के भविष्य को उज्ज्वल बनाने की भूख कहाँ दिखती है किसी शिक्षक मेँ !! और न ही आजकल के शिक्षक अपने कार्य में हस्तक्षेप पसंद करते हैं | ये तो सामने से खुद कह रही हैं कि टोंक दीजियेगा हमें, यदि पढ़ाने में कोई कमी दिखें |
फोन रखकर बुदबुदाई- "शिक्षक हों तो ऐसे |" मन ही मन मुस्कराते हुए फिर अपने काम में लग गयी |...सविता मिश्रा 'अक्षजा'
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जय विजय वेब पत्रिका में छप चुकी

~पुरानी खाई -पीई हड्डी~लघुकथा अनवरत में छपी हुई (२०१६)


अस्त्र-शस्त्रों से लैस पुलिस की भारी भीड़ के बीच एक बिना जान-जहान के बूढ़े बाबा और दो औरतों को कचहरी गेट के अन्दर घुसते देख सुरक्षाकर्मी सकते में आ गए |
"अरे! ये गाँधी टोपीधारी कौन हैं ?"
"कोई क्रिमिनल तो न लागे, होता तो हथकड़ी होती |"
"पर, फिर इतने हथियारबंद पुलिसकर्मी कैसे-क्यों साथ हैं इसके ?" गेट पर खड़े सुरक्षाकर्मी आपस में फुसफूसा रहे थे |
एक ने आगे बढ़ एक पुलिसकर्मी से पूछ ही लिया, "क्या किया है इसने? इतना मरियल सा कोई बड़ा अपराध तो कर न सके है |"
"अरे इसके शरीर नहीं अक्ल और हिम्मत पर जाओ !! बड़ा पहुँचा हुआ है| पूरे गाँव को बरगलाकर आत्महत्या को उकसा रहा था |" सिपाही बोला
"अच्छा! लेकिन क्यों ?" सुरक्षाकर्मी ने पूछा
"खेती बर्बाद होने का मुआवज़ा दस-दस हजार लेने की जिद में दस दिन से धरने पर बैठा था | आज मुआवज़ा न मिलने पर इसने और इसकी बेटी,बीबी ने तो मिट्टी का तेल उड़ेल लिया था | मौके पर पुलिस बल पहले से मौजूद था अतः उठा लाए |"
"बूढ़े में इसके लिए जान कैसे आई ?" सुरक्षाकर्मी उसके मरियल से शरीर पर नज़र दौड़ाते हुए बोला|
"अरे जब भूखों मरने की नौबत आती है न तो मुर्दे से में भी जान आ जाती है, ये तो फिर भी पुरानी खाई -पीई हड्डी है |" व्यंग्य से कहते हुए दोनों फ़ोर्स के साथ आगे बढ़ गया |

"गाँधी टोपी में इतना दम, तो गाँधी में ..." सुरक्षाकर्मी बुदबुदाकर रह गया |#सविता
नया लेखन ग्रुप में लिखी हुई
25 September 2015

Friday 30 September 2016

(कीमत) बाजी-


"वाह भई, कलम के सिपाही भी मौजूद हैं।” पीडब्‍ल्‍यूडी के चीफ इंजीनियर साहब ने पत्रकार पर चुटकी ली। 
"काहे के सिपाही। कलम तो आप सब के हाथ में हैं, जैसे चाहे घुमाये।" पत्रकार सबकी तरफ देखता हुआ बोला।
“पत्रकार भाई, आजकल तो जलवा आपकी ही कलम का है। आपकी कलम चलते ही, सब घूम जाते हैं । फिर तो उन्हें ऊँच-नीच कुछ नहीं समझ आता है। आपकी कलम का तोड़ खोजने के लिए जो बन पड़ता हैं, वो कर गुजरते हैं।” डॉक्टर साहब व्यंग्य करते हुए बोल उठे।

“पत्रकार भाई को तो चाय पानी देना बहुत जरुरी हैं
वरना न देने वाले को तो बिन पानी मछली की तरह तड़पना पड़ता है
  ” डॉक्टर की बात के समर्थन में एक पुरजोर आवाज आयी  
गेट पर खड़ा चपरासी चुपचाप सबके लिए गेट खोलता और बंद करता।  चेहरा भावहीन था लेकिन कान सजग थे। 
"सही कह रहे हो आप सब। वैसे हम सब एक ही तालाब के मगरमच्‍छ हैं। एक-दूजे का ख्याल रखें तो अच्छा होगा। वरना लोग लाठी-डंडे लेकर खोपड़ी फोड़ने पर आमदा हो जाते हैं।" लेखपाल ने बात आगे बढ़ाई ।
"पर ये ताकतवर कलम, हम तक नहीं पहुँच पाती है।" ठहाका मारते हुए बैंक मैनेजर बोला।
"क्यों? आप कोई दूध के धुले तो हैं नहीं !" गाँव का प्रधान बोला।
"अरे! कौन मूर्ख कहता है हम दूध के धुले हैं। पर काम ऐसा है कि जल्दी किसी को समझ नहीं आता है हमरा खेल।" फिर जोर का ठहाका ऐसे भरा जैसे इसका दम्भ था उन्हें।
सारी नालियाँ जैसे बड़े परनाले से मिलती हैं, वैसे ही विधायक महोदय के आते ही, सब उनसे मिलने उनके नजदीक जा पहुँचे।
"नेता जी ! मेरे कॉलेज को मान्यता दिलवा दीजिये, बड़ी मेहरबानी होगी आपकी।" कॉलेज संचालक बिनती करते हुए बोला।
"बिल्कुल, कल आ जाइये हमारे आवास पर। मिल बैठकर बात करते हैं।" विधायक जी बोले।
"क्यों ठेकेदार साहब, आप काहे छुप रहे हैं ? अरे मियाँ, यह कैसा पुल बनवाया, चार दिन भी न टिक सका। इतने कम कीमत में तो मैंने तुम्हारा टेंडर पास करवा दिया था, फिर भी तुमने तो कुछ ज्यादा ही ...।"
"नेता जी आगे से ख्याल रखूँगा। गलती हो गयी, माफ़ करियेगा ।" हाथ जोड़ते हुए ठेकेदार बोला।
विधायक जी ठेकेदार को छोड़, दूसरी तरफ मुखातिब हुए, "अरे एसएसपी साहब ! आप भी थोड़ा ..., सुन रहें हैं सरेआम खेल खेल रहे हैं। आप हमारा ध्यान रखेंगे, तो ही तो हम आपका रख पाएंगे।" विधायक साहब उनके कान के पास बोले।
"जी सर, पर इस दंगे की तलवार से, मेरा सिर कटने से बचा लीजिए। दामन पर दाग़ नहीं लगाना चाहता । आगे से मैं आपका पूरा ख्याल रखूँगा।" साथ में डीएम साहब भी हाथ जोड़ खड़े थे।
सुनकर नेता जी मुस्करा उठे।
सारे लोगों से मिलने के पश्चात उनके चेहरे की चमक बढ़ गई थी । दो साल पहले तक, जो अपनी छटी कक्षा में फेल होने का अफ़सोस करता था। आज अपने आगे-पीछे बड़े-बड़े पदासीन को हाथ बाँधे घूमते देख, गर्व से फूला नहीं समा रहा था।
तभी सभा कक्ष के दरवाजे पर खड़ा हुआ चपरासी रोष पूर्वक बोल उठा, “और मैं एक किसान परिवार का बेटा हूँ। जिसकी पढ़ाई करवाते-करवाते पिता कर्जे से दबकर आत्‍महत्‍या कर बैठे। परिवार का पेट भरने के लिए मुझे चपरासी की नौकरी करनी पड़ रही है। पर मुझे आज समझ आया कि मेरे पिता की आत्‍महत्‍या और मेरे परिवार को इस स्थिति में लाने में आप सबका हाथ है। आपका कच्‍चा चिठ्ठा अब मेरे पास है।”
बाजी पलट चुकी थी! विधायक से लेकर ठेकेदार तक, सब एक-दूसरे का मुँह ताक रहे थे।

यह हमारी मौलिक लघुकथा है
Sep 30, 2016

Tuesday 6 September 2016

हिम्मत का बीज~ (कहानी)


रामलीला मैदान में मंच पर रावण-वध का मंचन हो रहा था | राम द्वारा चलाये बाण से घायल हुआ रावण अट्टहास करता हुआ वीर गति को प्राप्त हुआ | रामलीला मंचन को देखने गयी आठ साल की तरु पर उसका गहरा प्रभाव पड़ा |
"पापा ! रावण इतनी जोर से हँसा क्यों ?" सवाल सुनकर भी पिता ने बात को टाल दिया | रामलीला देखने के बाद,वहां सही हुई दुकानों से तरु के लिए खिलौने-गुब्बारे खरीदें गये | लेकिन तरु का चेहरा मुरझाए हुए फूल सा रहा | 
माँ ने पूछा- "आइसक्रीम खाएगी ?
तरु हाँ या ना करने के बजाय सवाल छोड़ दी- “मम्मी रावण इतना शक्तिशाली था, तो इतनी जल्दी 
’मरा कैसे?"
उत्तर न देकर माँ ने बिटिया के हाथों में आइसक्रीम पकड़ा दी |

घर लौटकर तरु ने मम्मी-पापा से फिर वही सवाल किया | पापा ने यह कहकर कि "कल बात करेंगे बेटा, अभी आप घूमकर के थक गये होगें न और हम दोनों भी थक चुके हैं |  अब चलो सो जाओ |" फिर से मासूम के प्रश्न को प्रश्न ही रहने दिया |

नन्हीं तरु के मन में सवाल अब भी गुंजायमान था कि आखिर रावण मरते समय हँसा क्यों ? अपने कमरे में जाती हुई तरु पलटकर बोली- "मम्मी ! कोई ऐसे मरते समय हँसता है क्या ?"
"न! कोई नहीं | अब जा, जाकर सो जा |" माँ बोझिल होती आँखों को बंद करते हुए बोली |

क्यों? कब ? कैसे मारे गये रावण? थके-हारे माता-पिता तरु के इन सवालों से घायल थे | नन्हीं सी बच्ची के मासूम मन की परवाह किए बिना दोनों ही बड़े प्यार से उसको उसके कमरे में भेजकर खुद भी सो गये |

अलसुबह तरु की चीखने की आवाज से निर्मला उठ बैठी | वह भागती हुई तरु के कमरे में पहुँची | पसीने से तरबतर तरु को सीने से लगाती हुई बोली- "क्या हुआ बेटा, कोई बुरा सपना देखा ?"
थोड़ी देर माँ कि छाती से लिपटी सुबकती रही वह | फिर बोली - "मम्मी ,आप कहती हैं न सुबह के सपने सच होते हैं ? "
"हाँ बेटा ! बड़े-बुजुर्ग तो यही कह गये हैं !!"
"मम्मी! वो रावण ...." उसकी आव़ाज डर से अब भी अटक रही थी |

"क्या रावण ?" माँ समझ गयी कि तरु के दिमाग पर कल की रामलीला का दृश्य ही छाया हुआ है | रावण को ही शायद सपने में देखकर डर गयी है | तरु को समझाते हुए बोली- "ऐसा क्या तुमने देखा बेटा ? जो इतनी ज्यादा डर गयी हो तुम |"
सिसकते हुए तरु सपने में देखा गया सारा वितांत सुनाने लगी |

"मम्मी मैंने देखा कि  रावण ने सपने में आकर मुझसे कहा कि "मैं अट्टहास कर रहा था क्योंकि मैंने देखा कि उस रामलीला मैदान में ज्यादतर लोग मुझसे भी ज्यादा गये-गुजरे बैठे हैं | मैंने तो मर्यादा में रहकर सीता का अपरहण किया था, किन्तु वहाँ उपस्थित लोगों की आँखों में मर्यादा तनिक भी नहीं दिख रही थी मुझे |"
"अच्छा ! और क्या कहा उन्होंने ?" उसका पसीना पोंछते हुए प्यार से माँ ने पूछा |
उन्होंने आगे कहा-- "अपनी विकराल छवि युवाओं में देखकर मैं पुनः अट्टहास कर बैठा था | मेरी निगाहों में साफ़ झलक रहा था कि 'हे राम ! तुम तो अकेले ही मुझ एक को मार गिराए; परन्तु कलयुग में तो मैं सहस्त्र रूपों में रहूँगा ! और तुम ! तुम तब तक रहोंगे ही नहीं | फिर क्या करोंगे !'

माँ ! वह अहंकार में ललकार रहे थे | उनकी आवाज मेरे कानों में तीर सी चुभ रही थी | वह जैसे स्टेजपर तेज--तेज बोल रहे थें न, वैसे ही सपने में बोले- "मैं आज भी हूँ, और कल भी रहूँगा | मैं सास्वत हूँ ! मेरा वध ! हाँ ! हाँ ! मेरा वध कभी नहीं किया जा सकता है | जितनी बार मरूँगा, उतनी बार ! उसके चार गुना अधिक रूपो में जन्म लूँगा मैं | "

यह सुनकर राम घबरा गये और उन्होंने अपने धनुष-बाण वहीँ रख दिए | विभीषण और लक्ष्मण ने बहुत समझाया पर राम को उनमें भी रावण दिखने लगा | 
उनसे रावण जैसे कह रहा हो -"मारो राम ! जैसे मैं कई रूपों में जन्म लेता रहूँ ! मेरी संख्या बढ़ती रहे | जैसे-जैसे मैं मरूँगा ! बीभत्स रूप में चार से, दस गुना अधिक ताकतवर होकर जन्म लूँगा | मारो राम! मारो!" रावण बार-बार यह कहकर अट्टहास करता रहा और राम असहाय से खड़े रहें |' सपने में देखा हुआ घटित वितांत सुनाकर तरु माँ के सीने से चिपक गयी। उसके शरीर के सारे रोयें खड़े होकर उसके डर की गवाही दे रहे थें |

"कहा था मैंने कि रामलीला दिखाने मत ले चलो, पर मेरी सुनता कौन है इस घर में !" पति पर नाराज होते हुए निर्मला चिल्लाई।
पति किकर्त्व्यविमुढ सा बेटी के पास बैठा रहा |
"पर नहीं चलो दिखा लाऊं! तरु को भी रामलीला | अपने परम्पराओं और संस्कृति से परिचय करा लाऊं |  देख लिया न बच्ची डर गयी है |  लो अब भुगतो |" गुस्से में उसकी आवाज में कम्पन विराजमान हो चुका था |

"कुछ नहीं मेरी बच्ची ये बस एक सपना है | डर मत | रावण को हम मिलकर मार गिरायेंगे | रावण से डरना नहीं चाहिए, बल्कि खुद में हिम्मत पैदा करके उससे लड़ना चाहिए | जैसे राम-लक्ष्मण लड़ें थे, जैसे सीता लड़ी थीं ! वैसे तू भी रावण को दुगने तेज स्वर से प्रतिकार करती फिर देखती तुझसे डरकर वह हँसना भूलकर मिमियाने लगता |"  पिता ने तरु को समझाते हुए कहा |

"पर मम्मी रावण तो सब में है ! कैसे मारेंगे ? कितनों को मारेंगे ? हम तो कमजोर हैं ना ? आप तो कहती हैं कि मेरी बिटिया फूल सी है | फिर पत्थर से कैसे जीत पाऊँगी मैं ?"
"बिटिया ! फूल भी यदि दृढ निश्चय कर लें न तो पत्थर में भी सुराग करके जन्म ले लेता है | पत्थर उसका कुछ नहीं कर सकता |" समझाती हुई निर्मला ने कहा |

"पर मम्मा ! पत्थर तो फूल को कुचल सकता है न ! और तोड़कर ख़राब भी कर सकता है ?"
"हाँ, कुचल सकता है ! किन्तु कुचलने पर भी फूल अपनी सुगंध चहुँ दिशा में फैला देगा |" साइड टेबल से फूल को मसलकर, उसकी सुगंध को महसूस करने को बोलते हुए कहा |
"ये तो पहले से भी ज्यादा महकने लगा !" बिटिया  ने मासूमियत से बोला |


“हाँ ..! हमें भी कष्ट जब मिलता है तो हम पहले से जयादा ताकतवर हो जाते हैं | बिना मुसीबत में पड़े हमें अपने अन्दर की हिम्मत का पता ही नहीं चलता है,  जैसे इस फूल की सुगन्ध पता नहीं चला था की इसमें कितनी अधिक सुगंध छुपी हुई  है |”
“अच्छा ..!”
"ऐसे ही यह पानी बहुत मुलायम और सरल होता है, परन्तु लगातार किसी पत्थर पर पड़ने पे वह पत्थर में छेद कर देता है, समझी | और मेरी बिटिया कमजोर थोड़ी है वह तो दस साल की हिम्मत वाली चतुर बिटिया है |" पापा उसको गुदगुदी करते हुए हँसाने का प्रयास करने लगे |

"मन में जब विश्वास भरकर कोई बात ठान ली जाये तो कुछ भी असम्भव नहीं हैं 'मेरी नन्ही कली | जानती है एक चींटी भी हाथी को मार सकती है, और देख रामलीला में भी तो तूने देखा ना कि सुकोमल सीता शक्तिशाली रावण से बिल्कुल भी नहीं डरीं | अपनी बात पर अडिग हो खड़ी रहीं | उन्होंने रावण के अहंकार को चूर-चूर कर दिया |" माँ ने बात आगे फिर से उदाहरण देकर समझाते हुए कहा |

पापा ने तरु से कहा कि "रावण इसी लिए ठठाकर हँसा था कि इतना ताकतवर होते हुए भी वह मारा गया | समझी ...! मेरी लाडो | बुराई कितनी भी ताकतवर हो उसका अंत निश्चित है |"


हाँ! हाँ ! हाँ ! जोर से खिलखिला पड़ी तरु | 
उसको हँसता देखकर माता-पिता को राहत महसूस हुई वो भी तरु के साथ हँसने लग पड़े |

खिलखिलाते हुए तरु बोली- "मम्मी, मैं भी सीता की ही तरह बिल्कुल नहीं डरूंगी , बल्कि लड़ कर हरा दूँगी रावण को, आने दो अब उसको मेरे सामने | देखती हूँ कितनी शक्ति है रावण में !! ढिशुम-ढिशुम ! .ढिशुम-ढिशुम ...! ये मारा, वो मारा ....टेडी उठाकर उसे ही मारने लगी वह |
बिटिया में हिम्मत का बीज रोपित हो चुका था | माता-पिता ने खिलखिलाती हुई तरु को सीने से लगा संतोष की साँस ली | एक-दुसरे की आँखों में झाँकते हुए बुदबुदाये कि अब ऐसी गलती वो दुबारा कभी नहीं दोहराएगे ! इसके छोटे-बड़े सवालों को कभी भी हवा में अनुत्तरित नहीं छोड़ेंगे यथासम्भव हर सवाल  का उत्तर देंगे |
“मम्मा! लक्ष्मण ने सीता को वन में अकेला क्यों छोड़ दिया....?” गले से  विलग  होके तरु ने अचानक फिर सवाल उछाला |
“यह तुम्हें, तुम्हारे पापा बताएँगे ...मैं नाश्ता  बनाऊं ! मेरी बिटिया को भूख लगी होगी न !!
“सुनो निर्मला ! सुनो तो मुझे ऑफिस ...!” लेकिन निर्मला तो फुर्र से रसोई में जा चुकी थी |
“पापा बताओ न ..!”
“स्कूल भी जाना है न ! तुम तैयार होती रहो, मैं फटाफट बताता रहता हूँ |”
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सविता मिश्रा 'अक्षजा'

Sunday 7 August 2016

...मित्रता दिवस की बधाई ...

मित्र अच्छे हों या बुरे,बस मित्र होने चाहिए | हो सकता हैं जिसे हम बुरा कह रहें वो सबसे अच्छा मित्र हो| अक्सर होता यूँ हैं जो मेरी हाँ में हाँ मिलाए वो अच्छा मित्र और जो थोड़ा भी विरोध जताए वो घाती मित्र | मतलब है अपने पैरों पर आप कुल्हाड़ी मारने से मना करने वाले मित्र को हम मित्रता लायक न मानते| क्यों ऐसा ही होता है न ?

जो भी हो एक अदद मित्र तो होना ही चाहिए| ऐसा भी नहीं कि बिन मित्र के जिन्दगी गुजरेगी ही न, गुजरेगी भई| येन केन प्रकारेण तब भी ऐसी ही गुजरेगी जैसे पहले और अभी गुजरती रही हैं | माँ-बाप-भाई-बहन-दादी-दादा किसी न किसी रूप में दोस्त मिल ही जाते है| और जीवन की गाड़ी अपनी रफ़्तार से आगे बढ़ती रहती है |

कहते हैं कि जब भी कुछ होता है तो किसी न किसी बात की ओर संकेत करता है | आज नाग पंचमी और मित्रता दिवस दोनों का एक ही दिन होना, यह संजोग कहीं कोई संकेत तो नहीं कर रहा हैं न !
कुछ मित्र बरसाती सांप सरीखे हो सकते है, उनसे डरने की भी जरूरत न! बस थोड़ी सी सावधानी ही चाहिए होती हैं|  संवेदनशील व्यक्ति असावधान हो सकता है| तो भी क्या ! वो लूट कर क्या ले जाएगा आपका, बस अपना ही रंग दिखला जाएगा| वैसे भी सब कुछ यहीं पर कमाना है और यहीं छोड़ कर जाना है | कुछ भी तेरे-मेरे साथ न जाना | अतः दोस्ती के सीने पर खंजर मारने वालो से डरने की जरूरत ना शायद | अपनी अल्पबुद्दी तो यही कहती है| कुछ नाग सरीखे लोग होते जिनसे हम दोस्ती करने में भले डरे पर होते वो सच्चे दोस्त | मतलब साफ़ जो दीखते, वो लोग वो न होते जो दिखाई पड़ते है; बल्कि वो होते जो वो दिखलाना  चाहते हैं |


परन्तु इस साल यह दोनों दिवस एक साथ पड़ बहुत बड़े घात से आगाह भी करवा रहें हैं |
अतः दिखलाने और ना दिखने वाले स्वभाव -गुणों के भेद को समझ सावधान रहिए | आज के जमाने में तो लगता हैं कि 'ना काहू से दोस्ती, ना काहू से बैर' इस कहावत पर सरपट दौड़ना चाहिए| जैसे आपको दुखी हो यह गाना न गुनगुनाना पड़े कि 'दोस्त दोस्त ना रहा, प्यार प्यार ना रहा जिंदगी हमें तेरा ऐतबार ना रहा'| सविता मिश्रा

Friday 8 July 2016

~इशारा ~


आज घर में तूफ़ान सा आया था| सारी अस्तव्यस्त चीजें सही स्थान पर रखी जा रहीं थीं | घर को बड़े सलीके से सजाया जा रहा था| पुरे मुहल्ले में लड्डू बाँटने की तैयारी पूरी हो चुकी थी | बधाइयों का तो जैसे ताँता लगा था| मोबाईल की घंटी हर क्षण घनघना उठ रही थी | जब से खबर आई थी कि अंजू ने आईएएस में टॉप किया |अंजू की ख़ुशी का ठिकाना न था | माँ-बाप के कदम तो जमीं पर ही न थे | परिवार का कोई सदस्य थक कर लेटा-बैठा न था| सब कुछ न कुछ करें जा रहें थें | पत्रकार इन्टरव्यू के लिए बस आने ही वाले थे |
अंजू अपने पिता की ख़ुशी को देख, न चाहते हुए कुछ साल पीछे का वह दिन याद करने लगी, जब घर में ऐसे ही तूफ़ान आया था | सब चीजें अस्त व्यस्त हो गयी थीं | अलमारी में रखी उसकी किताबें जमीं में बिखर गई थीं | पापा के क्रोध का शिकार हुआ उसके मोबाईल का पुरजा-पुरजा इधर उधर जमीं पर बिखरा पड़ा था | आग बबूला हो पापा ने फरमान जारी कर दिया था कि कोई जरूरत नहीं आगे पढ़ने की | घर बैठो, अपने माँ से भोजन बनाना सीखो |
माँ को भी कहाँ छोड़े थे,'देख लिया लाड प्यार का नतीजा | बड़ा जुनून था न कि अंश और इसे एक सा माहौल देकर एक मिसाल कायम करने की| एक भी संस्कार न दिए | अवारा घुमती रहती है; उसी का खामियाजा हैं | फोर्टी परसेंट नम्बर आये हैं इंटरमिडीएट में | सिखाओ अब बेटियों वाले गुण | बहुत जल्द शादी खोज अपने घर से विदा करता हूँ इसे |" गुस्से में बस बोले चले जा रहें थें |

कितना रोई-गिड़गिड़ाई थी मैं | पापा रत्ती भर भी न पिघले थे | माँ से वादा किया कि मैं सिर्फ पढूंगी और कुछ न; न दोस्त, न टीवी, न मोबाईल, कुछ भी न | किताबी कीड़ा हुई तब कहीं जाके तूफ़ान ठहरा था | फिर भी माँ को महीनों लग गये थे पापा को मुझे काँलेज में एडमिशन के लिए मनाने में |
माँ सर पर हाथ फेर बोली "अंजू, बेटा पत्रकार आ गए |" सुनते ही वर्तमान में लौटी तो देखा तूफ़ान थम चूका था | कल और आज के तूफ़ान में जमीन-आसमान का फर्क नजर आ रहा था | कल के उस क्रोध से तमतमाये चेहरे से आज फूलों की वारिस हो रहीं थी|
पत्रकार का पहला सवाल, "अंजू जी आप अपनी सफलता का श्रेय किसे देंगी |"
अंजू ने सामने बैठे पिता की ओर 'इशारा' बस कर दिया | पिता का सीना गर्व से तन गया |
माँ अपने दिए ,संस्कार, पर गदगद हो पिता की ओर देखने लगीं | सविता

~कुछ मन की~ (आज की शिक्षा पर सवाल )

फेशबुक पर जब रूबी राय का मजाक उड़ाती पोस्टों पर जब नजर जाती हैं एक टीस सी होती दिल में | रूबी राय का मजाक उड़ाने वाले हो सकता है खुद ही रूबी राय ही रहें हों | न पूरा सही अंशमात्र ही सही | घर में भी झांकिएँ रूबी राय का थोड़ा बहुत अंश दिखेगा | हम खुद ही रूबी राय की तरह पोडिकल साइंस वाले है | न जाने कितने शब्दों का उच्चारण गलत करते | इंग्लिश तो इंग्लिश हिंदी की भी लुटिया बखूबी डुबोते| लिखने में भी हिंदी शब्द को कितना गलत लिखते ये हमें यही पर पता चला , जब कईयों ने शब्दों के लिए टोका |

हमारे 'दिमाक को दिमाग' करने में प्रभाकर भैया के साथ और कई लोग जुटे रहें | श्रवण भैया, विजय सिंघल भैया,मुकेश कुमार पांड्या भैया ने बहुत मदद की | विनीता सुरेना सखी और दीपिका द्विवेदी दी और भी कई नाम हैं जिनका योगदान कम न हमारी रचना के परिमार्जन में | हाँ ये बात और है कि हम नकल नहीं करें कभी | शायद इसी लिए टॉपर भी न रहें | सामान्य विद्यार्थी थे और पढ़ना छोड़ा तो दिमाग में भी भूसा भरता गया | प्रश्नपत्र हल करके घर आते तो कोई एक भी प्रश्न का उत्तर पूछ लेता तो हमें नहीं आता था| अंशमात्र भी न याद रहता कि उत्तर-पुस्तिका में लिखे क्या हैं |

इन दिनों समाचार पत्र में पढ़े की कई शिक्षकों को प्रार्थनापत्र तक लिखना नहीं आया | बहुत सी गल्तियाँ की उन्होंने, तो लगा जब 'राजगीर ऐसा तो मकान फिर कैसा' | इन शिक्षकों की भी शिक्षा शायद ऐसे ही किसी शिक्षक के द्वारा पूर्ण हुई होगीं | मोटी रकम भर शिक्षक की कुर्सी मिली होगीं| फिर उस कुर्सी को खाली रखने के लिए आधी रकम संस्थापक के जेब में भरी होगीं | खरीदना-बेचना जब तक होता रहेगा ऐसे ही बच्चें निकलते रहेंगे | हजारों क्या लाखों ऐसे ही बच्चें कुर्सी की शोभा बढ़ा रहें और आगे भी बढ़ाते रहेंगे | आरक्षण ने तो सोने पे सुहागा किया हुआ हैं | देश को चलाने में तो अग्रणी है ऐसे ही बच्चें | देश का राष्ट्रीय गान व गीत नहीं जिन्हें पता वो देश चला रहें |
खैर ये तो सरकारी स्कूल के बच्चों की बात हुई | कान्वेंट में पढ़े बच्चें भी फर्राटे से भले इंग्लिश बोल ले पर हिंदी में तो उनकी भी नानी मरती | इंटर का बच्चा भी इतनी लिखने में गल्तियाँ करता जितनी सरकारी स्कूल के पांचवी-छटवी के बच्चें करतें | दिमाग में एक बात घुमड़ रहीं कि ऐसे बच्चों की काँपी मेरे ससुर श्री राधेश्याम मिश्रा के हाथ लगती होगीं तो उसका क्या होता होगा| इतने मग्न हो काँपी जांचते थे , एक-एक शब्द पढ़| ज्यादातर तो शुरू-अंत पढ़ नम्बर दे देते हैं शायद | जैसे चल रहा चलने दो | यदि कोई माता-पिता शिकायत करें भी तो टीचर हाथ खड़े कर देता | हर का रटा -रटाया जबाब, हमारे क्लास में ५० विद्यार्थी ,ऐसे एक-एक को हम नहीं सिखा सकते | माता-पिता भी मजबूर , पढ़ाना तो हैं ही अतः मुहं पर पट्टी बांध लेता | इमेज भी बनाएं रखनी आखिर नामी-गिरामी स्कूल का लेबल जो लगता | कोई खडूस टाइप का हो तो कह दें, 'इतनी फ़ीस फिर किस बात की भई' |
देखा जाय तो हमारे दिमाग के नींव में ही ये बात बैठा दी जाती हैं कि सब चलता हैं | देखो, सुनो पर कड़वा यानि सच्चाई न बोलो | शिक्षक अपने कर्म भूल, पैसे से मोह करते रहेंगे तो हम जैसे छात्र भी बनते रहेंगे | ना जाने कितने फर्जी बाड़े रोज समाचारों में पढने को मिल जाते हैं |स्कूल- काँलेज कुकुरमुत्तों की तरह हर गली-मुहल्लें में खुले | डिग्रियां बिकती है बोलो खरीदोगें !! नकल भी खूब होती, ज्यादतर कालेजों में पैसा गुरु और सब चेला का बोलबाला हैं | फिर उम्मीद कैसे कि कोई टॉपर सही मायने में टॉपर ही है | ऐसे टॉपरों के लिए फर्जी कॉलेजों की भी भरमार है आजकल |पैसा फेंको तमाशा देखो |
जो पकड़ा गया वो चोर जो छूट गया वो शाह !! हद है !! हम भारतीय हैं ही ऐसे एक अगुवा होता नहीं कि चल पड़ते पीछे-पीछे | पीछे की सच्चाई से किसी को कोई मतलब नहीं | कुर्सी पातें ही अपना इतिहास भूल जाते लोग, फिर वर्तमान को इतना दूषित कर देते कि इतिहास भी गर्वान्वित हो जाता | गलती उनकी भी कहाँ, जब नींव की ईंट ही लोना लगी हो| वैसे हम भारतीय अपनी गलती छुपा दुसरे की गल्तियाँ उजागर करने में भी माहिर हैं; शायद इसी लिए हम भी अपनी असफलता का घड़ा अपने ही शिक्षकों पर फोड़ रहें| खुद की खोपड़ी में भूसा भरा था | मेहनत से भी जी चुराते रहें | हमारी तरह कई सोचेंगे तो ऐसा ही सोचेंगे --
मिट्टी घट थे
निखारा होता गर
आसमां छूते |
जी-जान से सब मेहनत करें तो शायद बात कुछ और हो| मेहनतऔर लगन से आदमी कहाँ से कहाँ पहुँच जाता हैं| नकल और दौलत को बैशाखी बना आगे बढ़ने से अच्छा हैं लंगड़ा कर चलना | परन्तु लंगड़े का मजाक उड़ाते सब, जिस दिन सब मजाक उड़ाना छोड़ उन्हें भी इज्जत देने लगेंगे कोई रूबी राय नहीं बनेगी/गा |

शिक्षा का शिखर उतना मायने नहीं रखता जितना अनुभव का| एक अनपढ़ भी अनुभवी हो सकता हैं और आप सभी पढ़े-लिखों पर भारी भी | इतिहास और वर्तमान दोनों गवाह है कि शिक्षा से ज्ञान नहीं वरन ज्ञान से शिक्षा हो जाती है...अपना मत तो यही है 
बाबा रामदेव को ही देख लीजिए...बिना एमबीए किए भी किसी एमबीए के टॉपर से भी कम दिमाग न उनमे..!😊😊
शिक्षा तो एक पड़ाव पर आ समाप्त हो जाएंगी पर अनुभव आपको जिन्दगी भर शिक्षित करता रहेंगा|
किसी भी व्यक्ति को जीवन में इतना कड़ा अनुभव न कराए कि वो जिन्दगी जीना ही छोड़ दे | सविता मिश्रा

~कुछ मन की~ (आज की शिक्षा पर सवाल )

फेशबुक पर जब रूबी राय का मजाक उड़ाती पोस्टों पर जब नजर जाती हैं एक टीस सी होती दिल में | रूबी राय का मजाक उड़ाने वाले हो सकता है खुद ही रूबी राय ही रहें हों | न पूरा सही अंशमात्र ही सही | घर में भी झांकिएँ रूबी राय का थोड़ा बहुत अंश दिखेगा | हम खुद ही रूबी राय की तरह पोडिकल साइंस वाले है | न जाने कितने शब्दों का उच्चारण गलत करते | इंग्लिश तो इंग्लिश हिंदी की भी लुटिया बखूबी डुबोते| लिखने में भी हिंदी शब्द को कितना गलत लिखते ये हमें यही पर पता चला , जब कईयों ने शब्दों के लिए टोका |

हमारे 'दिमाक को दिमाग' करने में प्रभाकर भैया के साथ और कई लोग जुटे रहें | श्रवण भैया, विजय सिंघल भैया,मुकेश कुमार पांड्या भैया ने बहुत मदद की | विनीता सुरेना सखी और दीपिका द्विवेदी दी और भी कई नाम हैं जिनका योगदान कम न हमारी रचना के परिमार्जन में | हाँ ये बात और है कि हम नकल नहीं करें कभी | शायद इसी लिए टॉपर भी न रहें | सामान्य विद्यार्थी थे और पढ़ना छोड़ा तो दिमाग में भी भूसा भरता गया | प्रश्नपत्र हल करके घर आते तो कोई एक भी प्रश्न का उत्तर पूछ लेता तो हमें नहीं आता था| अंशमात्र भी न याद रहता कि उत्तर-पुस्तिका में लिखे क्या हैं |

इन दिनों समाचार पत्र में पढ़े की कई शिक्षकों को प्रार्थनापत्र तक लिखना नहीं आया | बहुत सी गल्तियाँ की उन्होंने, तो लगा जब 'राजगीर ऐसा तो मकान फिर कैसा' | इन शिक्षकों की भी शिक्षा शायद ऐसे ही किसी शिक्षक के द्वारा पूर्ण हुई होगीं | मोटी रकम भर शिक्षक की कुर्सी मिली होगीं| फिर उस कुर्सी को खाली रखने के लिए आधी रकम संस्थापक के जेब में भरी होगीं | खरीदना-बेचना जब तक होता रहेगा ऐसे ही बच्चें निकलते रहेंगे | हजारों क्या लाखों ऐसे ही बच्चें कुर्सी की शोभा बढ़ा रहें और आगे भी बढ़ाते रहेंगे | आरक्षण ने तो सोने पे सुहागा किया हुआ हैं | देश को चलाने में तो अग्रणी है ऐसे ही बच्चें | देश का राष्ट्रीय गान व गीत नहीं जिन्हें पता वो देश चला रहें |
खैर ये तो सरकारी स्कूल के बच्चों की बात हुई | कान्वेंट में पढ़े बच्चें भी फर्राटे से भले इंग्लिश बोल ले पर हिंदी में तो उनकी भी नानी मरती | इंटर का बच्चा भी इतनी लिखने में गल्तियाँ करता जितनी सरकारी स्कूल के पांचवी-छटवी के बच्चें करतें | दिमाग में एक बात घुमड़ रहीं कि ऐसे बच्चों की काँपी मेरे ससुर श्री राधेश्याम मिश्रा के हाथ लगती होगीं तो उसका क्या होता होगा| इतने मग्न हो काँपी जांचते थे , एक-एक शब्द पढ़| ज्यादातर तो शुरू-अंत पढ़ नम्बर दे देते हैं शायद | जैसे चल रहा चलने दो | यदि कोई माता-पिता शिकायत करें भी तो टीचर हाथ खड़े कर देता | हर का रटा -रटाया जबाब, हमारे क्लास में ५० विद्यार्थी ,ऐसे एक-एक को हम नहीं सिखा सकते | माता-पिता भी मजबूर , पढ़ाना तो हैं ही अतः मुहं पर पट्टी बांध लेता | इमेज भी बनाएं रखनी आखिर नामी-गिरामी स्कूल का लेबल जो लगता | कोई खडूस टाइप का हो तो कह दें, 'इतनी फ़ीस फिर किस बात की भई' |
देखा जाय तो हमारे दिमाग के नींव में ही ये बात बैठा दी जाती हैं कि सब चलता हैं | देखो, सुनो पर कड़वा यानि सच्चाई न बोलो | शिक्षक अपने कर्म भूल, पैसे से मोह करते रहेंगे तो हम जैसे छात्र भी बनते रहेंगे | ना जाने कितने फर्जी बाड़े रोज समाचारों में पढने को मिल जाते हैं |स्कूल- काँलेज कुकुरमुत्तों की तरह हर गली-मुहल्लें में खुले | डिग्रियां बिकती है बोलो खरीदोगें !! नकल भी खूब होती, ज्यादतर कालेजों में पैसा गुरु और सब चेला का बोलबाला हैं | फिर उम्मीद कैसे कि कोई टॉपर सही मायने में टॉपर ही है | ऐसे टॉपरों के लिए फर्जी कॉलेजों की भी भरमार है आजकल |पैसा फेंको तमाशा देखो |
जो पकड़ा गया वो चोर जो छूट गया वो शाह !! हद है !! हम भारतीय हैं ही ऐसे एक अगुवा होता नहीं कि चल पड़ते पीछे-पीछे | पीछे की सच्चाई से किसी को कोई मतलब नहीं | कुर्सी पातें ही अपना इतिहास भूल जाते लोग, फिर वर्तमान को इतना दूषित कर देते कि इतिहास भी गर्वान्वित हो जाता | गलती उनकी भी कहाँ, जब नींव की ईंट ही लोना लगी हो| वैसे हम भारतीय अपनी गलती छुपा दुसरे की गल्तियाँ उजागर करने में भी माहिर हैं; शायद इसी लिए हम भी अपनी असफलता का घड़ा अपने ही शिक्षकों पर फोड़ रहें| खुद की खोपड़ी में भूसा भरा था | मेहनत से भी जी चुराते रहें | हमारी तरह कई सोचेंगे तो ऐसा ही सोचेंगे --
मिट्टी घट थे
निखारा होता गर
आसमां छूते |
जी-जान से सब मेहनत करें तो शायद बात कुछ और हो| मेहनतऔर लगन से आदमी कहाँ से कहाँ पहुँच जाता हैं| नकल और दौलत को बैशाखी बना आगे बढ़ने से अच्छा हैं लंगड़ा कर चलना | परन्तु लंगड़े का मजाक उड़ाते सब, जिस दिन सब मजाक उड़ाना छोड़ उन्हें भी इज्जत देने लगेंगे कोई रूबी राय नहीं बनेगी/गा |

शिक्षा का शिखर उतना मायने नहीं रखता जितना अनुभव का| एक अनपढ़ भी अनुभवी हो सकता हैं और आप सभी पढ़े-लिखों पर भारी भी | इतिहास और वर्तमान दोनों गवाह है कि शिक्षा से ज्ञान नहीं वरन ज्ञान से शिक्षा हो जाती है...अपना मत तो यही है 
बाबा रामदेव को ही देख लीजिए...बिना एमबीए किए भी किसी एमबीए के टॉपर से भी कम दिमाग न उनमे..!😊😊
शिक्षा तो एक पड़ाव पर आ समाप्त हो जाएंगी पर अनुभव आपको जिन्दगी भर शिक्षित करता रहेंगा|
किसी भी व्यक्ति को जीवन में इतना कड़ा अनुभव न कराए कि वो जिन्दगी जीना ही छोड़ दे | सविता मिश्रा

Tuesday 1 March 2016

सर्वधाम (मात -पिता परमेश्वर)

"क्या चल रहा आजकल?" फोन उठाते ही जेठानी ने पूछा।
"अरे कुछ नहीं दीदी, घर अस्त-व्यस्त है उसे ही समेट रही थी। चारोधाम यात्रा करने चले गए थे न।"
"अच्छा! चारोधाम कर आयी और हमें भनक भी न लगने दी," तुनकते हुए बोली।
"नहीं दीदी ऐसी बात नहीं है!"
"ऐसी-कैसी बात है फिर? वैसे तो तुम कहती हो हर बात बताती हूँ, फिर इतनी बड़ी बात छुपा ली मुझसे! डर था क्या कि हम सब भी साथ हो लेंगे। साथ नहीं चाहती थी तो मना कर देती, छुपाया क्यों?"
"अरे दीदी सुनिए तो...।"
"क्या सुनूँ सुमन। मैं तो सब बात बताती हूँ, पर तुम छुपा जाती हो। अरे ख़र्चा हम भी दे देते। माना हम पाँच और तू चार है ..एक बच्चे का ख़र्चा सहने में तकलीफ़ थी तो बता देती। आगे से कहीं भी जायेंगे तो हम ज़्यादा दे देंगे समझी। एहसान मैं नहीं लेती किसी का।"
"अरे नहीं दी! सुनिए तो ..," फोन कट।
थोड़ी देर में सुमन फिर फ़ोन मिलाकर बोली- "दीदी ग़ुस्सा ठंडा हुआ हो तो सुनिए, आपसे पूछा था मैंने।"
"कब पूछा तुमने?" ग़ुस्से में बोली जेठानी।
"महीने भर पहले ही जब बात हुई थी तभी मैंने आपसे पूछा था कि आप अम्मा-बाबूजी के पास इस गर्मी की छुट्टी में गाँव चलेंगी।"
अब दूसरी तरफ शांति फैल गई थी।
--००--

===(शब्द निष्ठा सम्मान-२०१७ में ३५ वें नम्बर पर सम्मानित) ====

यहाँ  लिखी  थी इसे .
29 February 2016 में ...
https://www.facebook.com/events/979124858844337/permalink/982249925198497/?ref=1&action_history=null

Sunday 31 January 2016

माता

"अरे ओ! ठहर |" सुरक्षाकर्मी के आवाज लगाते ही वह आकृति स्टेच्यु के जैसी खड़ी हो गयी |
"ऐसे कैसे यह हाथ में सूखी रोटी पकड़े, इन दो बच्चों को गोद में उठाए, यहाँ चली आ रही है | जानती नहीं है! यह राजपथ है |"
"जानती हूँ ! मेरे कुछ बच्चे भूखे हैं, अतः उनके लिए अमीर-घरों से रोटियाँ माँगकर इकठ्ठी कर लायी हूँ | कूड़े की ढेर पर पड़ी इस अनाथ बच्ची को उठा लिया मैंने, पालूँगी इसे | जैसे सब बच्चों को पाल रही हूँ !”
“और इतने तुड़े-मुड़े झंडे ?”
“देश के सम्मान का प्रतीक तिरंगा ! यहीं राजपथ पर ही बिखरा धूलधुसरित हो रहा था | कैसे अपमान होते देखती! अतः उठाकर सहेज लिया मैंने ...|"
"हैं कौन रे, तू "
“मैं ! "मैं भारत माता हूँ |"
"तूss हाँ ! हाँ ! और भारत माताss ...| हाथ में झंडा होने से भारत माता हो गयी क्या |" हँसी उड़ाते हुए सुरक्षाकर्मी ने कहा |
"क्यों, शर्मिंदगी हुई क्या यह सुनकर?
"यार विवेक! देख इसे, फटेहाल अपनी भारत-माता |" जोर का ठहाका लगाते हुए सुरक्षाकर्मी अपने दोस्त को आवाज लगाकर बोला |
"अब भी कोई शक है, क्या तुम्हें ?"
"नहीं ! नहीं ! माता ! पर यहाँ कैसे, और यह चेहरा क्यों ढक रक्खा है आपने ?" व्यंग्य भरे स्वर में सुरक्षाकर्मी पूछ बैठा |
"यहाँSS ! नेताओं के गिरगिटी रंग देखने आई हूँ ! और चेहरे से पर्दा उठा दिया न, तो और भी शर्मिंदा होने के साथ-साथ डर भी जाओंगे बेटे |"
"क्यों भला ?" बेपरवाही से वह बोला |
"क्योंकि कुदृष्टि डाली थी किसी ने | मेरे विरोध करने पर एसिड फेंक दिया मुझपर, नक्शा बिगड़ गया है मेरा |" दुःख भरी आवाज में कहा उसने |
"क्या बहस कर रही है यह 'बुढ़िया' ? भागाओ इसे इधर से | नेताओं का आना शुरू हो चुका है | किसी की नजर तुम पर पड़ी तो नौकरी से जाओगे |" दूसरा साथी गुस्से में आदेशात्मक स्वर में चीखा |
"पागल है यार ! बस अभी हटा रहा हूँ ..|"
"भारत माता, आप जरा कृपा करेंगी!! जो उधर कुर्सिया रक्खी है, वहाँ जाकर विराजेंगी | आप ऐसे यहाँ इस अवस्था में खड़ी रहीं तो मेरी नौकरी चली जाएगी माता |" कुटिल हँसी हँसते हुए वह सुरक्षाकर्मी बोला |
"हाँ बेटा, क्यों नहीं ? माँ बच्चों के लिए गूंगी-बहरी-अंधी सबकुछ बनी रह सकती है |
“जी माता ! आप कृपा करें !” यह कह हँसकर वहाँ से जाने को हुआ कि– “बस मेरे बच्चें सही सलामत रहें | परन्तु बच्चों को कुछ हुआ तो...! बुढ़िया की तेज तीखी आवाज़ सुरक्षाकर्मी के कान से टकराई |
ध्वजारोहण के साथ उसका चेहरा खुल गया था | सुरक्षाकर्मी ने पलटकर देखा तो उसकी आँखे और चेहरा दोनों ही आग उगल रहे थे |
--००--
सविता मिश्रा ‘अक्षजा’
26 January 2015 at 06:03

दाए हाथ का शोर (रंग-ढंग)

चेतन का फेसबुक अकाउंट पुरानी यादों को ताज़ा कर रहा था। आज अचानक उसको वें तस्वीरें दिखी, जो उसने पांच साल पहले पोस्ट की थी। दूसरों की मदद करते हुए ऐसी तस्वीरों की अब उसे जरूरत ही कहाँ थी। उसने उन्हें स्क्रॉल कर दिया।
कभी समाजसेवा का बुखार चढ़ा था उस पर। 'दाहिना हाथ दें, तो बाएं को भी पता नहीं चले! सेवा मदद ऐसी होती है बेटा।' माँ की दी हुई इसी सीख पर ईमानदारी से चलना चाहता था वह।
लोग एनजीओ से नाम, शोहरत और पैसा, सब कुछ कमा रहे थे। और वह, वह तो अपना पुश्तैनी घर तक बेचकर किराये के मकान में रहने लगा था
पत्नी परेशान थी उसकी मातृभक्ति से। कभी-कभी वह खीझकर बोल ही देती थी कि 'यदि मैं शिक्षिका न बनती तो खाने के भी लाले पड़ जातेचेतन झुंझलाकर रह जाता था। उसी बीच उसने गरीब बच्चों को खाना खिलाते, उन्हें पढ़ाते हुए तस्वीरें फेसबुक पर पोस्ट कर दी थी।
यादों से बाहर आ उसने पलटकर फेसबुक पर वही अल्बम फिर से खोल लिया। तस्वीरों को देखकर बुदबुदाया- "सोशल साइट्स न होती, तो क्या होता मेरा। यही तस्वीरें तो थी, जिन्हें देखकर दानदाता आगे आये थे और पत्रकार बंधुओ ने मेरी वाहवाही करते हुए अपने समाचार-पत्र में स्थान दिया था। फिर तो मैं दूसरों को मदद करते हुए  सेल्फ़ी लेता और डाल देता था फ़ेसबुक पर। ये कारनामा फेसबुक पर शेयर होता रहा और मैं प्रसिद्धी प्राप्त करता रहा। उसके बाद पीछे मुड़कर नहीं देखा मैंने।"
"अरे! कहाँ खोये हो जी! कई लोग आएँ हैं।" पत्नी की आवाज ने उसे आत्मग्लानि से उबारा।
"कहीं नहीं! बुलाओ उन्हें।"
"जी चेतन बाबू, यह चार लाख रूपये हैं। हमें दान की रसीदें दे दीजिए, जिससे हम सब टैक्स बचा सकें।" कुर्सी पर टिकते ही बिना किसी भूमिका के सब ने एक स्वर में बोला।
हाँ, हाँ ! क्यों नहीं, अभी देता हूँ।" रसीद उन सबके हाथ में थमा वह रुपयों की गड्डियाँ हाथ में लेकर मुस्कुराया
अचानक माँ की तस्वीर की ओर देखा! आँखे झुकी, फिर लपकर उसने तस्वीर को पलट दिया।
सविता मिश्रा ‘अक्षजा’
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