Sunday 18 February 2018

साझा-लघुकथा-संग्रह (व्योरा)

इसके लिए हम आभारी हैं आप सभी के ...
आज १८/२/२०१८ तक कुल दस #साझा-लघुकथा-संग्रह पुस्तक  रूप में आ चुकी हैं | जिनमें #बत्तीस #लघुकथाएँ प्रकाशित हुई हैं | चार आधी रूप में अधर में है, एक की कोई सूचना नहीं मिली | यानी पांच हाथ में आ नहीं पायी हैं | मतलब यह कह सकते हैं कि कुल पंद्रह संग्रह लघुकथा के हो गये ...बहुत हैं न !
अबतक जो संग्रह हाथ में आई है उनमें कोई भी कथा दूसरी संग्रह में रिपीट नहीं हुई है |
१-- 'मुट्ठी भर अक्षर' साझा-लघुकथा-संग्रह (६लघुकथाएँ - १०किताब -२१००)
http://kavitabhawana.blogspot.in/2017/12/blog-post_9.html
२--'लघुकथा अनवरत' सत्र २०१६ लघुकथा-साझा-संग्रह (४लघुकथाएँ-किताब खरीदना दो ६००)
http://kavitabhawana.blogspot.in/2017/12/blog-post_23.html
३--'अपने अपने क्षितिज' साझा -लघुकथा-संग्रह - (४लघुकथाएँ -दो किताब -९००)
 http://kavitabhawana.blogspot.in/2017/12/blog-post_24.html

४-- "लघुकथा अनवरत" साझा-लघुकथा-संग्रह (२०१७)- (३ लघुकथाएँ-किताब खरीदना दो ६००)
 http://kavitabhawana.blogspot.in/2017/12/blog-post_25.html

५--‘सपने बुनते हुए' साझा-लघुकथा-संग्रह - (३लघुकथाएँ-एक किताब+१५०० मिले हमको)
http://kavitabhawana.blogspot.in/2018/02/blog-post.html

६-- "आधुनिक हिंदी साहित्य की चयनित लघुकथाएँ" साझा-लघुकथा-संग्रह (१लघुकथा-एक किताब+५०० मिले हमको)
http://kavitabhawana.blogspot.in/2018/02/blog-post_78.html

७--"नई सदी की धमक" साझा-लघुकथा-संग्रह - (१ लघुकथा- न लिया न दिया/ किताब एक मिली ) दो खंड के साथ फ्री थी |
 http://kavitabhawana.blogspot.in/2018/02/blog-post_51.html

८-- 'सफ़र संवेदनाओं का' -साझा-लघुकथा-संग्रह -(४लघुकथाएँ -१०००-दो किताब)
http://kavitabhawana.blogspot.in/2018/02/blog-post_93.html

९-- "आसपास से गुज़रते हुए" साझा-लघुकथा-संग्रह --(१लघुकथा -२०० में एक किताब )
 http://kavitabhawana.blogspot.in/2018/02/blog-post_80.html

१०.'सहोदरी लघुकथा' साझा-लघुकथा-संग्रह - (५लघुकथाएँ -२००० में ५ किताब)
http://kavitabhawana.blogspot.in/2018/02/blog-post_17.html

लघुकथा.कॉम वेबसाइट के 'संचयन' में

लीजिए खुशी का मटका ऐसे भी फूटता है, एक साथ पांच कथाएँ फेवरेट वेबसाइट लघुकथा.कॉम पर। 
संजोग देखिये fb फरवरी माह का ही अपडेट दिखा रहा ! ब्रेकिंग न्यूज़ नामक रचना छपने का।😊😊   शायद फ़रवरी महीना लकी हमारे लिए ..

बड़ी उत्सुकता थी कि कौन-कौन सी कथाएं लगी हैं। पता चला आज कि पांच लगी हैं | जिनमें 'उपाय' अपनी पसंदीदा रचना । वैसे तो अपनी सारी उँगली बराबर, बस उपाय हमें पसन्द थी | सबको लिखने में हमें ज्यादा नहीं सोचना-समझना पड़ा। 

 लेकिन दो एक को 'उपाय' पसंद नहीं आयीं थी। यादास्त  कमजोर अपनी। अब यहाँ लिखने में यह याद कि पसन्द नहीं आयी थी लेकिन यह याद नहीं कि कैइसी थी जो पसन्द न आई और क्या कुछ हम परिवर्तन करें उसके बाद । वैसे 'उपाय' obo में लिखी 'पैंतरा 'का बिगड़ते -बिगड़ते सुधरा रूप है  
खैर कोई न अब खुशियों में शामिल होइए आप सब भी----


पढ़कर पञ्च परमेश्वर को ! अरे हमारी इन पाँचों कथाओं को और बताइये आपको कौन-सी बेहतर लगी या नहीं भी लगी |😊


-तोहफ़ा.

.पछतावा
-परिपाटी
--उपाय
--अमानत

तोहफ़ा इस लिंक पर उपलब्ध ..
 http://kavitabhawana.blogspot.in/2017/11/blog-post_27.html
और  चारों कथाएँ इस लिंक पर उपलब्ध हैं .
 http://kavitabhawana.blogspot.in/2018/02/blog-post_93.html

आभार सम्पादक द्वय Sukesh Sahni भैया औरRameshwar Kamboj Himanshu भैया का तहेदिल से। बड़े आशीर्वाद बनाये रखें तो मार्ग सहज होता जाता है और खुशकिस्मती कि सब बड़ो का आशीष बना हुआ है।

बस एक क्लिक पर यहाँ भी पढ़ सकते हैं ...😊

http://laghukatha.com/लघुकथाएँ-15/

Saturday 17 February 2018

लेखन का दुःख (व्यंग्यमुखी)

हाँ तो सब तैयार हैं न? फेसबुक पर हमारे यह कहते ही आश्चर्यचकित हो सब मुँह खोलकर सुनने में लग गये कान लगाकर | कुछ छिपकली की तरह कुछ बन्दर की तरह | कुछ ही थे जिन्होंने हमारे इस वाक्य को सीरियसली लिया | माने हमऊ नेता माफ़िक होई गये चंद मिनट खातिर | शुक्र है आदतन भाइयों-बहनों नहीं बोले थे हम, वरना तो लोग जय-जयकार करने लगतें भई | ऊ क्या है कि हमको ई जयकारा छटांग भर भी नहीं भाता है | इस लिए जुबान को कंटोल करना पड़ा, बटन तो खटखट चल पड़ी थी, चलने के बाद उसे भी डिलीट मारना पड़ा | 
अच्छा हाँ, अपनी भाषा सही रखें हम, नहीं तो सब इसी पर जंग जीत लेंगे | हाँ तो तैयार हैं न बिल्कुल मीडिया के जैसे, कैमरा और माइक लेकर। और हाँ ख़ुफ़िया कैमरा लेकर भी, क्योंकि बहुत से लोग इसी खास कैमरे से देख सकेंगे। अपने विरोधियों की गतिविधियों को देखना इसी कैमरे से तो आसान होता है ! हाँ तो अच्छी तरह से सभी ने अपने-अपने कैमरे, अरे भई सामान्य कैमरे की कौन बेवकूफ बात कर रहा है, ख़ुफ़िये (कुछ और समझते हैं, तो उस आपकी समझ में हमारी लेखनी का कोई दोष नहीं है :P ) कैमरे यथास्थान फीट कर लिए हैं न !
यह अपना भारत भी बड़ा अजीब देश है और भारतवासी उससे भी ज्यादा अजीबो-गरीब |

यहां कोई बस बकरा बन भर जाए, सब उसे हलाल होते देखना चाहते हैं | क्या राजा क्या रंक! क्या अमीर, क्या गरीब! क्या कलम के हस्ताक्षर और क्या अँगूठा छाप। यहाँ तक की, कि बहुत से बकरे भी बकरा को हलाल होता देख मजा लेना चाहते हैं।

तो रहिये तैयार और पढ़िए यह --!
हाँ तो हम बकरा बनने को तैयार क्या हुए, सब हिंगलिश- संस्कृत- हिंदी -अंग्रेजी में दुई के पाँच पढ़ने लगें और हमें "शुभष्य शीघ्रं" की शिक्षा देने लगें | अब क्रोध में हमने शब्दों की तलवार उठायी तो थी, पर सोचे राय ले ली जाय कि सबका दिन ख़राब करें या रात में परी के सपने में आने के तार तोड़ दें |

राय मांगना भर था कि सब बोल उठे कि हंगामा हो तो अभी ही हो | हंगामे के समर्थन में नारे लगाने लगें | माने मजा सबको तुरंत ही चाहिए | कोई हलाल हो इससे किसी को कोई ख़ास मतलब नहीं होता है | हु-हा की लाठी लेकर चल पड़े, माने शांत बैठे गाँधी भक्त भी चूके नहीं ! हिंसा चाहने वाले तो इन मामलों में हमेशा ही सजग रहते हैं भई !

ऐसा विरोधाभाषी आचरण वाला आश्चर्य तो भारत में ही सम्भव है | कहने का अभिप्राय है कि मन में राम और बगल में छूरी रखने वाले भी हैं कई और कई तो ख़ास रूप से तभी दिखे जब फेसबुक पर यह गलती से अनाउंस हो गया हमारे मुख से | कई गहरे पानी में धक्का देने को आतुर दिखें, बिना यह जाने कि हमें तैरना आता भी या हम ऐसे ही डींग हांक दिए |

शाम को आतंकवादी आक्रमण करते हैं यह आठवाँ अजूबा आज ही पता चला हमें | हमने आव देखा न ताव हाँक दिया कि "चिंता न करा, हम उनहू से भिड़ी जाब, मरब या मारब" लेकिन सच पूछिये तो डर तो लगा | क्योंकि यहाँ तो सब मौके की ताक में ही रहते हैं कि कब कोई किसी को कोई कुछ कहें तो वो भी अपनी रोटी सेंक लें फुर्ती से | रोटी सेंकने वाले इतने उतावले रहते हैं कि सर फुटव्वल भी कर लेते हैं आपस में ही |
फिर चिंतक आगाह किए कि भिड़ना ठीक नहीं ! हम बाज क्यों आते, बोल दिए - ब्रह्मास्त्र है अपने पास | शुक्र है जुकरबर्ग भैया जानते थे कि यह फेसबुक भारत में कत्लेआम मचा देगा | गालियों-धमकियों का एक नया ग्रन्थ लिखवा देगा इसलिए उन्होंने ब्रह्मास्त्र की व्यवस्था आपातकालीन स्थिति के लिए रख छोड़ी थी | बस उसी ब्रह्मास्त्र के बलबूते पर हम जैसे लोग सर्वाइब कर रहे हैं बंधुओं | हमें भी इस ब्रह्मास्त्र बड़ा गुमान है और जुकरबर्ग से प्रार्थना है कि अपडेट के नाम से भविष्य में हमसे यह हथियार नहीं छीना जाए |

हाँ तो खुफियागिरी वाले ज्यादा ध्यान दें | और यह खबर वाइरल कर दें कि आदमी से जितना सम्भले उतना ही भार उठाए | तैरना न जाने तो  हमारी तरह पानी में जबरजस्ती ही नहीं कूद पड़े, बिना सोचे-समझे | वरना लेने के देने पड़ सकते हैं |

लड़की से शादी वक्त अक्सर सवाल पूछा जाता है बिटिया खाना बना लेती हो ? हाँ कहने पर फिर सवाल उछलता है -बीस-पचास का बना लोगी ? हाँ कहने पर सास ठहर जाती है और पसंद कर लेती है | लेकिन लड़की की माँ तैस में आकार यह कह दें कि हमारी लाड़ो तो पूरी बारात खिला लेगी ! और तो और शादी की पूरी व्यवस्था सम्भाल लेगी | तो भैये यह सही है क्या ? नहीं न |
आदमी हर काम और दस हाथ के सम्भलने वाला काम अकेले नहीं कर सकता | इसलिए उसे उतना ही काम अपने सिर पर लेना चाहिए, जितना वह सुचारू रूप से कर सकें | माने हम खामखाँ ही सीख देने पर उतारू हो गये हैं |
अब मुद्दे की बात पर आते हैं ! जिसके फलस्वरूप ये पांच सौ शब्दों का तानाबाना बुन उठा |
हमारी कथा "बदलाव" छपी है उस "बदलाव' में लिंग ही बदल दिया | उस कथा की ऐसी खटिया खड़ी करी गयी है कि हम पढ़कर क्रोधित हो उठे | घंटो आँख फोड़कर लिखने और गलतियों पर बारीकी से निरिक्षण करने का इतना कष्ट हुआ कि पूछिये ही मत |

उस किताब से सम्बन्धित आठ सम्पादक लोग हैं | किसे सुनाए समझ ही नहीं आ रहा है | इमेल का भी अता-पता नहीं मिल रहा है, घंटो मशक्कत कर लिए  | हम फोन भी करें कि जाने आखिर हमारा असली मुलजिम है कौन ! पर फोन उठा नहीं |  तो क्रोध की सीमा रेखा पार हो गयी, जो फेसबुक पर पोस्ट रूप में चिपकी |

लेकिन फिर देखा कि एक लाइन नहीं पूरा पैराग्राफ ही तहसनहस हुआ है | तो फिर क्या ! उठा लिए कलम और आ गये जनता दरबार में | मेहनत पानी में नहीं जाये इसका ख्याल तो सम्पादकों को अवश्य ही रखना होगा | अपनी टांग अड़ाने से अच्छा है जैसा लेखक दें हुबहू वही छाप दिया जाय | सम्पादन के नाम से कथा रूपी शरीर के पेट का आपरेशन करने के बजाय दिमाग का आपरेशन न कर दिया जाय ! फान्ट बदलने की गलती तो आदमी बर्दास्त कर सकता पर इस तरह की गलती असहनीय है !  असहनीय !! है न !!


देखिये आप सब भी इस कथा को...इतनी गलतियाँ ..पिछली बार के सम्पादक ने पता ही बदल दिया था, इस बार स्त्रीलिंग का पुलिंग में वार्ता कर दिया गया--


सही कथाएँ इस लिंक पर ..

http://kavitabhawana.blogspot.in/2018/02/blog-post_17.html

१०) 'सहोदरी लघुकथा' साझा-लघुकथा-संग्रह

'सहोदरी लघुकथा' साझा-लघुकथा-संग्रह प्रकाशन -भाषा सहोदरी हिंदी |
सम्पादक - कुल आठ सदस्य मुख्य सम्पादक श्रीमती कांता राय |
विमोचन- दिल्ली के "हँसराज कॉलेज" में जनवरी २०१८ को हुआ |
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'सहोदरी लघुकथा' साझा-लघुकथा-संग्रह जनवरी -२०१८ में पांच कथाएँ प्रकाशित हुई हैं |
आठ सम्पादको की देखरेख में कुल ७० नवांकुरो के साथ १५ वरिष्ठ अतिथि लघुकथाकारों के लघुकथाओं से सजी ३८० पेज की किताब .. |
भाषा सहोदरी हिंदी द्वारा लघुकथा अधिवेशन 2018, हँसराज कॉलेज, दिल्ली यूनिवर्सिटी में दिनांक : 15 जनवरी 2018 को सम्पन्न हुआ जिस में सौभाग्य से हम उपस्थिति रहे |
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प्रकाशित पांच लघुकथाएँ-
१..उम्रदराज प्रेमी
२ -रंग-ढंग
३--बदलाव
४--सबक
५.-सभ्यता के दंश
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--उम्रदराज प्रेमी
इसका बदला हुआ स्वरूप ब्लॉग और फेसबुक के इस लिंक पर ...
फेसबुक 
https://www.facebook.com/savita.mishra.3994/posts/1716223348415913
इसे 9 February 2015 को इस ग्रुप में लिखा था ..
https://www.facebook.com/groups/364271910409489/permalink/425160117654001/
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२--रंग-ढंग अब इस नाम से --दाए हाथ का शोर
चेतन का फेसबुक अकाउंट पुरानी यादों को ताज़ा कर रहा था। आज अचानक उसको वें तस्वीरें दिखी, जो उसने पांच साल पहले पोस्ट की थी। दूसरों की मदद करते हुए ऐसी तस्वीरों की अब उसे जरूरत ही कहाँ थी। उसने उन्हें स्क्रॉल कर दिया।
कभी समाजसेवा का बुखार चढ़ा था उस पर। 'दाहिना हाथ दें, तो बाएं को भी पता नहीं चले! सेवा मदद ऐसी होती है बेटा।' माँ की दी हुई इसी सीख पर ईमानदारी से चलना चाहता था वह।
लोग एनजीओ से नाम, शोहरत और पैसा, सब कुछ कमा रहे थे। और वह, वह तो अपना पुश्तैनी घर तक बेचकर किराये के मकान में रहने लगा था
पत्नी परेशान थी उसकी मातृभक्ति से। कभी-कभी वह खीझकर बोल ही देती थी कि 'यदि मैं शिक्षिका न बनती तो खाने के भी लाले पड़ जातेचेतन झुंझलाकर रह जाता था। उसी बीच उसने गरीब बच्चों को खाना खिलाते, उन्हें पढ़ाते हुए तस्वीरें फेसबुक पर पोस्ट कर दी थी।
यादों से बाहर आ उसने पलटकर फेसबुक पर वही अल्बम फिर से खोल लिया। तस्वीरों को देखकर बुदबुदाया- "सोशल साइट्स न होती, तो क्या होता मेरा। यही तस्वीरें तो थी, जिन्हें देखकर दानदाता आगे आये थे और पत्रकार बंधुओ ने मेरी वाहवाही करते हुए अपने समाचार-पत्र में स्थान दिया था। फिर तो मैं दूसरों को मदद करते हुए  सेल्फ़ी लेता और डाल देता था फ़ेसबुक पर। ये कारनामा फेसबुक पर शेयर होता रहा और मैं प्रसिद्धी प्राप्त करता रहा। उसके बाद पीछे मुड़कर नहीं देखा मैंने।"
"अरे! कहाँ खोये हो जी! कई लोग आएँ हैं।" पत्नी की आवाज ने उसे आत्मग्लानि से उबारा।
"कहीं नहीं! बुलाओ उन्हें।"
"जी चेतन बाबू, यह चार लाख रूपये हैं। हमें दान की रसीदें दे दीजिए, जिससे हम सब टैक्स बचा सकें।" कुर्सी पर टिकते ही बिना किसी भूमिका के सब ने एक स्वर में बोला।
हाँ, हाँ ! क्यों नहीं, अभी देता हूँ।" रसीद उन सबके हाथ में थमा वह रुपयों की गड्डियाँ हाथ में लेकर मुस्कराया। अचानक माँ की तस्वीर की ओर देखा! आँखे झुकी, फिर लपकर उसने तस्वीर को पलट दिया।

सविता मिश्रा ‘अक्षजा’
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इसे ओबीओ में लिखा था |
http://www.openbooksonline.com/forum/topics/32-5...
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३--बदलाव
ब्लॉग के इस लिंक पर ..
http://kavitabhawana.blogspot.in/2017/01/blog-post_23.html
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‎ लघुकथा प्रतियोगिता - बदलाव/परिवर्तन ......दिनांक २५/०५/२०१५ से दिनांक ०२/०६/२०१५ तक
25 May 2015
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४--सबक


भोर-सी मुस्कुराती हुई भाभी, साज-श्रृंगार से पूर्ण होकर अपने कमरे से जब निकलीं।
“अहा! भाभी आज तो आप नयी-नवेली दुल्हन-सी लग रही हैं, कौन कहेगा कि शादी को आठ साल हो गया है।” कहकर ननद ने अपनी भाभी को छेड़ा।
“हाँ! आठ साल हो गए, पर खानदान का वारिस अब तक न जन सकी।” सास ने मुँह बिचका दिया।
‘माँ भी न, जब देखो भाभी को कोसती रहती हैं।’ सोचते हुए वह भाभी की ओर मुखातिब हुई। “भाभी मैं आपके कमरे में बैठ जाऊँ, मुझे 'अधिकारों की लड़ाई' पर लेख लिखना है।”
“सुन सुधा, सुन तो! तू माँ के... ।” भाभी की बात अधूरी रह गयी थी और सुधा भाभी के कमरे में जा पहुँची थी।
“भाभी यह क्या? आपका तकिया भीगा हुआ है। किसी बात पर लड़ाई हुई क्या भैया से!” पीछे-पीछे दौड़ती आई भाभी की ओर उसने सवाल छोड़ा।
“वह रात थी सुधा, बीत गयी। सूरज के उजाले में, तू क्यूँ पूरी काली रात देखना चाह रही है।”
“काली रात का तो पता नहीं भाभी! परन्तु रात का स्याह, अपनी छाप तकिये पर छोड़ गया है। और इस स्याह में, भोर-सा उजास आप ही ला सकती हैं।” सुधा अनायास ही गंभीर हो गयी थी और इधर उसका लेख का शीर्षक 'अधिकारों की लड़ाई' भाभी के दिमाग में, सबक बनकर कौंध रहा था।
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सविता मिश्रा "अक्षजा'
"सबक" 16 October 2016 को इस ग्रुप में ...
https://www.facebook.com/groups/540785059367075/permalink/991128497666060/

https://kavitabhawana.blogspot.in/.../blog-post_17.html...
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--सभ्यता के दंश

''मैं तहज़ीब के शहर लखनऊ से हूँ।" दोस्त की पत्नी शीला से विवेक ने अपना परिचय देते हुए कहा।
"किस तहज़ीब की बात कर रहे है, जनाब? तहज़ीब तो अब उस शहर में बेगैरत लोगों के घर में पानी भरती है। शर्मशार करने वाली खबरें आपके इस तहज़ीब भरे शहर से आ ही जाती हैं।" शीला ऐसे भड़की मानो ठहरे शांत पानी में विवेक ने ‘तहज़ीब’ नामक कंकड़ फेंक दिया हो।
दोस्त इशारे से शीला को शांत कराता रहा।
पर ज्वार तो फूटकर बह निकला था।
"
अभी हाल ही की मोहनलालगंज की घटना को सुनकर, आपकी जुबान ने भी खूब कहर ढाया होगा, उन नामुरादों पर।"
"
जीss.."
"
लेकिन किया क्या आप सबने! सिवाय मोमबत्तियाँ जलाने के?"
"
पानी भी तो दे जाओ, या सुनाती ही रहोगी!"
रसोई में जाते हुए शीला बोलते हुई गयी-

"
भाईसाहब! औरत तो मर कर भी नहीं मरती। बड़ी सख्त जान है यह औरत जात। वह तो मर गयी, खुशकिस्मत थी। अच्छा करते हैं वह माँ-बाप, जो कन्या-भ्रूण की हत्या कर देते हैं! वरना! ये भूखे भेड़िये पैदा होते ही बलात्कार करने की ताक में रहेगें।पानी से भरा जग क्या रखा, शीला ने अपनी तीखी वाणी से पानी-पानी कर दिया विवेक को।
सुनकर विवेक मन ही मन बोला- "बेटा! किस बर्रे के छत्ते में हाथ डाल दिया।
पहली मुलकात में ही तेरी खटिया खड़ी करने पे आमदा हैं ये तो।"
दोस्त ने रसोई में जाकर शीला को चुप रहने की हिदायत दे डाली।

फिर टेबल पर आकर बैठते हुए विवेक से बोला, ''यार! बुरा नहीं मानना, ऐसी घटनाओं पर तेरी भाभी कुछ ज्यादा ही भावुक हो उठती है।"
"अरे, नहीं! नहीं..! भाभी का गुस्सा जायज है। हम सच में न जाने किस मानसिकता के वशीभूत हो रहे हैं। पहले तो बस औरतों की बेकदरी करते थे! अब आये दिन ऐसी घटनायें चुल्लू-भर पानी में डूबने को विवश करती हैं।'' विवेक चेहरे पर बिना सिकन के शन्ति से बोला।
फिर मन-ही-मन बुदबुदाया- "तहज़ीब का शहर कह आग में घी तो मैंने ही डाला था! अब उठती लपटों से झुलसना ही पड़ेगा।
"
वह रोटी देने आई तो विवेक ने कहा ''भाभी! शर्मिंदा हैं हम! आपसे वादा है, कम से कम मैं अपनी जिन्दगी में कभी भी औरतों की बेइज्जती नहीं करूँगा और न ही अपने आसपास में किसी को ऐसा करने दूँगा।'' यह सुनकर शीला के क्रोध पर जैसे घड़ो पानी पड़ गया हो, वह मुस्कराकर विवेक की प्लेट में रोटी देते हुए बोली- "और लीजिये न भाईसाहबसंकोच मत करिए"
मुस्कराता हुआ विवेक भाभी का दो मिनट पहले का रूप याद कर मन में ही कह रहा था- "यह वही हैं
, दो मिनट पहले वाली चंडी, जो अब अन्नपूर्णा बन गयी हैं।"
---
०---
सविता मिश्रा "अक्षजा'

(सहोदरी में सभ्यता के दंश ऐसी छपी है, बाद में इसमें बदलाव करके ब्लॉग पर पोस्ट है)

Tuesday 13 February 2018

९) "आसपास से गुज़रते हुए" साझा-लघुकथा-संग्रह -

"आसपास से गुज़रते हुए" साझा-लघुकथा-संग्रह - अयन प्रकाशन |
सम्पादक द्वय - सम्पादक द्वय .. ज्योत्स्ना 'कपिल' और डॉ. उपमा शर्मा |
विमोचन- दिल्ली विश्व पुस्तक मेले में जनवरी २०१८ में हुआ |
"आसपास से गुज़रते हुए" साझा-लघुकथा-संग्रह जनवरी -२०१८ में प्रकाशित "परिवर्तन" नामक कथा-
जिसका विमोचन विश्व पुस्तक मेले में अयन प्रकाशन के स्टॉल पर हुआ |
सम्पादक द्वय .. ज्योत्स्ना 'कपिल' और डॉ. उपमा शर्मा | नवांकुर सम्पादकों की एक कामयाब कोशिश |
 रामेश्वर काम्बोज भैया द्वारा हस्ताक्षरित ..आशीर्वाद है यह भी बड़ो का :) भैया को भी पसंद आई कथा जिसका जिक्र उन्होंने किताब के फ्लैप पर किया हैं | है न ख़ुशी की बात ..:)
 कमल चोपड़ा भैया द्वारा हमारी कथा परिवर्तन के विषय में उल्लेख ...अच्छा लगता है जब बड़े आशीर्वाद दें :)

"आसपास से गुज़रते हुए" साँझा-लघुकथा-संग्रह जनवरी -२०१८ में प्रकाशित "परिवर्तन" नामक कथा-

परिवर्तन -
लघुकथा इस लिंक पर 
http://kavitabhawana.blogspot.in/2014/10/blog-post_18.html


८) 'सफ़र संवेदनाओं का' -साझा-लघुकथा-संग्रह

 'सफ़र संवेदनाओं का' साझा-लघुकथा-संग्रह - वनिका पब्लिकेशन
सम्पादक द्वय -डॉ. जितेन्द्र जीतू जी और डॉ. नीरज सुधांशु जी |
विमोचन- दिल्ली विश्व पुस्तक मेले में जनवरी २०१८ में हुआ |
प्रकाशित चार लघुकथाएँ .--
१..पछतावा
२ -परिपाटी
३--उपाय
४--अमानत
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लघुकथा विषय में महत्वपूर्ण बात ..


-तोहफ़ा के साथ यही चारों कथाएँ लघुकथा.कॉम वेबसाइट के संचयन में  भी संचित हैं ....इस लिंक पर ..
-तोहफ़ा.
.पछतावा
-परिपाटी
--उपाय
--अमानत
http://laghukatha.com/%E0%A4%B2%E0%A4%98%E0%A5%81%E0%A4%95…/
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१..
पछतावा इस लिंक पर  ....
http://kavitabhawana.blogspot.in/2015/05/blog-post.html


 २- परिपाटी-
अपनी बहन की शादी में खींची गई उस अनजान लड़की की तस्वीर को नीलेश जब भी निहारता, तो सारा दृश्य आँखों के सामने यूँ आ खड़ा होता, जैसे दो साल पहले की नहीं, कुछ पल पहले की ही बात हो।
वह भयभीत-सी इधर-उधर देखती फिर सबकी नजर बचाकर चूड़ियों पर उँगलियाँ फेरकर खनका देती। चूड़ियों की खनक सुनकर बच्चियों-सी मुस्कुराती फिर फौरन सहमकर गम्भीरता ओढ़ लेती। सोचते-सोचते नीलेश मुस्कुरा दिया।
वहीं से गुजरती भाभी ने उसे यूँ एकान्त में मुस्कराते देखा तो पीछे पड़ गईं, ‘‘किसकी तस्वीर है? कौन है यह?’’ उनके लाख कुरेदने पर नीलेश शर्माते हुए इतना ही बोल पाया, ‘‘भाभी हो सके तो इसे खोज लाओ बस, एहसान होगा आपका!’’
फिर क्या था! भाभी ने लड़की की तस्वीर ले ली और उसे ढूँढ़ना अपना सबसे अहम टारगेट बना लिया। आज जैसे ही नीलेश घर वापस आया, भाभी ने उस लड़की की तस्वीर उसे वापस थमा दी, और उससे आँखें चुराती हुई बुदबुदाईं, “भूल जा इसे। इस खिलखिलाते चेहरे के पीछे सदा उदासी बिखरी रहती है, नीलेश!’’
‘‘क्या हुआ भाभी, ऐसा क्यों कह रही हैं आप!!’’ मुकेश ने पूछा तो आसपास घर के अन्य सदस्य भी आ गए।
‘‘यह लड़की मेरे बुआ के गाँव की है। उसकी शादी हो चुकी है, पर अफसोस उसका पति सियाचिन बॉर्डर पर शहीद हो चुका है।’’ भाभी ने बताया। सबने देखा कि नीलेश भाभी के आगे हाथ जोड़कर,गिड़गिड़ाने लगा, ‘‘भाभी इस लड़की के साथ मैं अपनी मुस्कुराहट साझा करना चाहता हूँ। प्लीज कुछ करिए आप!’’
नीलेश की यह बात सुनते ही परिजन सकते में आ गए।
‘‘मेरी सात पुश्तों में किसी ने विधवा से शादी करने का सोचा तक नहीं, फिर भले वह विधुर ही क्यों न रहा हो! तू तो अभी कुँवारा ही है! अबे! तू विधवा को घर लाएगा..? कुल की परिपाटी तोड़ेगा.., नालायक?’’ पिता जी फौरन कड़कते हुए नीलेश को मारने दौड़े। बीच-बचाव में माँ, पिता को शान्त कराने के चक्कर में अपना सिर पकड़कर फर्श पर ही बैठ गईं।
पिता जी अभी शान्त भी न हुए थे कि अब बड़ा भाई शुरू हो गया, ‘‘अरे छोटे! तेरे लिए छोकरियों की लाइन लगा दूँगा। इसे तो तू भूल ही जा।’’
विरोध के चौतरफा बवंडर के बावजूद नीलेश अडिग रहा। उसने रंगबिरंगी चूड़ियों में समाई उस लड़की की मुस्कान वापस लौटाने की जो ठान ली थी। इस हो-हल्ले में माँ ने जब अपने दुलारे नीलेश को अकेला पड़ता पाया, तो उन्होंने नीलेश की कलाई पकड़ी ओैर अपने कमरे की तरफ उसे साथ में लेकर बढ़ चलीं ओर धीमी आवाज में बोलीं, ‘‘रंगबिरंगी नहीं, मूरख! लाल-लाल चूड़ियाँ लेना! हमारे यहाँ सुहागनें लाल चूड़ियाँ ही पहनती हैं। कुल की परिपाटी तोड़ेगा क्या नालायक!’’
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३--उपाय
माँ मना करती रही कि घर में कैक्टस नहीं लगाया जाता। किन्तु सुशील बात कब सुनता माँ की। न जाने कितने जतन से दुर्लभ प्रजाति के कैक्टस के पौधे लगाए थे। आज अचानक उसे बरामदे में लगे कैक्टस को काटते देख रामलाल बोले, ‘‘अब क्यों काटकर फेंक रहा है? तू तो कहता था कि इन कैक्टस में सुंदर फूल उगते हैं? वो खूबसूरत फूल मैं भी देखना चाहता था।’’
‘‘हाँ बाबूजी, कहता था, पर फूल आने में समय लगता है, परन्तु काँटे साथ-साथ ही रहते। आज नष्ट कर दूँगा इनको!’’
‘‘मगर क्यों बेटा?’’
‘‘क्योंकि बाबूजी, आपके पोते को इन कैक्टस के काँटों से चोट पहुँची है।’’
‘‘ओह, तब तो समाप्त ही कर दो ! पर बेटा इसने अंदर तक जड़ पकड़ ली है! ऊपर से काटने से कोई फायदा नहीं!’’
‘‘तो फिर क्या करूँ?’’
‘‘इसके लिए पूरी की पूरी मिट्टी बदलनी पड़ेगी। और तो और, इन्हें जहाँ कहीं भी फेंकोगे ये वहीं जड़ें जमा लेंगे।’
‘‘मतलब इनसे छुटकारा पाने का कोई रास्ता नहीं?’’
‘‘है क्यों नहीं…’’ कहकर कहीं खो से गए।
‘‘बताइए बाबूजी, चुप क्यों हो गए?’’
‘‘तू अपनी दस बारह साल पीछे की ज़िन्दगी याद कर!’’
माँ के मन में उसने न जाने कितनी बार काँटे चुभोए थे। अपनी जवानी के दिनों की बेहूदी हरकतों को यादकर शर्मिंदा हुआ। माँ भी तो शायद चाहती थी कि ये काँटे उसके बच्चों को न चुभें।
‘‘मैंने तुझे संस्कार की धूप में तपाया, तू इन्हें सूरज की तेज़ धूप में तपा दे।’’ उसकी ओर गर्व से देख पिता मुस्कुराकर बोले।
फिर वह तेजी से कैक्टस की जड़ें खोदने लगा।
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इसी "पैंतरा"कथा का बदला हुआ स्वरूप है "उपाय" कथा ..सही करते करते रूप रंग बदल गया ..
४--
अमानत इस लिंक पर
http://kavitabhawana.blogspot.in/2017/01/blog-post_57.html

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७) "नई सदी की धमक" साझा-लघुकथा-संग्रह -

"नई सदी की धमक" साझा-लघुकथा-संग्रह- दिशा प्रकाशन 
सम्पादक - श्री मधुदीप गुप्ता 
विमोचन- दिल्ली विश्व पुस्तक मेले में जनवरी २०१८ को हुआ |
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"नई सदी की धमक" साझा संग्रह प्रभाकर भैया और मधुदीप अंकल के आशीर्वाद के साथ प्राप्त कर ली हमने  | पड़ताल के दो खंड खरीदने पर धमक फ्री, जिसके स्पांसर प्रभाकर भैया थे  | इसलिए इस किताब पर उनका आशीर्वाद बहुत जरूरी था ...है न !!


मूल्य - (धमक में छपी -बेटी नाम से )

इसी ब्लॉग के निचे दिए गये इस लिंक पर बेटी लघुकथा मौजूद है ---
http://kavitabhawana.blogspot.in/2016/12/blog-post.html
इस कथा की समीक्षा उमेश महादोषी भैया द्वारा हुई है ..आभार आपका भैया जी ..:)--

"नई सदी की धमक" साझा संग्रह में प्रकाशित "मूल्य - (धमक में -बेटी)" नामक लघुकथा को अपने सम्पादन में स्थान देने के लिए मधुदीप अंकल जी का दिल से आभार ..अंकल जी के साथ हम पुस्तक मेले में जनवरी २०१८ |


21/10/2016-ओबीओ में लिखी थी हमने यह लघुकथा ..:)
  
http://openbooks.ning.com/.../blogs/5170231:BlogPost:809199

६) "आधुनिक हिंदी साहित्य --साझा-लघुकथा-संग्रह

प्रतियोगिता के अन्तर्गत 'शब्द निष्ठा सम्मान-2017' में मेरी लघुकथा 'सर्वधाम' ३५वें स्थान पर रही |"आधुनिक हिंदी साहित्य की चयनित लघुकथाएँ" साझा-लघुकथा-संग्रह--बोधि प्रकाशन |
सम्पादक- कीर्ति शर्मा 
विमोचन- अजमेर में अक्टूबर 2017 को |
--००--२०१७ में पुरस्कृत "सर्वधाम" नामक कथा प्रकाशित -
अच्छा लगता है, सपना जो कभी देखा ही नहीं, लेकिन वहीं फलित होने पर बड़ा सच्चा लगता है। बहुत बहुत शुक्रिया डॉ. अखिलेश पालरिया जी आपका।
यह हमारी अपनी कामयाबी की सीढ़ी का पहला पायदान भी कहा जा सकता है । 😊😊😊😊
सभी प्रकाशित लोगों को हार्दिक बधाई भी हमारी ओर से।  #शब्द निष्ठा #सम्मान😊😊😊😊👍


'शब्द निष्ठा सम्मान 2017' श्री अखिलेश पालरिया  द्वारा आयोजित 
आचार्य रत्नलाल 'विद्यानुग' स्मृति अखिल भारतीय लघुकथा  प्रतियोगिता में आयी 170 लघुकथाकारों की 850 कथाओं में से 110 चुनी गई कथाओं के बीच हमारी अपनी भी ३५वें नम्बर पर  "सर्वधाम" नामक लघुकथा को प्राप्त हुआ शब्दनिष्ठा सम्मान-2017।
शुक्रिया सभी जजों का । 

बुरा नहीं रहा फेसबुक का सफ़र। कुछ खरोंचे जरूर आयी कांटो की वजह से, तो खुशियां भी अपार मिली।
--००--

सर्वधाम 

"क्या चल रहा आजकल?" फोन उठाते ही जेठानी ने पूछा।
"अरे कुछ नहीं दीदी, घर अस्त-व्यस्त है उसे ही समेट रही थी। चारोधाम यात्रा करने चले गए थे न।"
"अच्छा! चारोधाम कर आयी और हमें भनक भी न लगने दी," तुनकते हुए बोली।
"नहीं दीदी ऐसी बात नहीं है!"
"कैसी बात है फिर? वैसे तो तुम कहती हो हर बात बताती हूँ, फिर इतनी बड़ी बात छुपा ली मुझसे! डर था क्या कि हम सब भी साथ हो लेंगे। साथ नहीं चाहती थी तो मना कर देती, छुपाया क्यों?"
"अरे दीदी सुनिए तो...।"
"क्या सुनूँ सुमन। मैं तो सब बात बताती हूँ, पर तुम छुपा जाती हो। अरे ख़र्चा हम भी दे देते। माना हम पाँच और तू चार है ..एक बच्चे का ख़र्चा सहने में तकलीफ़ थी तो बता देती। आगे से कहीं भी जायेंगे तो हम ज़्यादा दे देंगे समझी। मैं एहसान नहीं लेती किसी का।"
"अरे नहीं दी! सुनिए तो ..," फोन कट।
थोड़ी देर में सुमन फिर फ़ोन मिलाकर बोली- "दीदी ग़ुस्सा ठंडा हुआ हो तो सुनिए, आपसे पूछा था मैंने।"
"कब पूछा तुमने?" ग़ुस्से में बोली जेठानी।
"महीने भर पहले ही जब बात हुई थी तभी मैंने आपसे पूछा था कि आप अम्मा-बाबूजी के पास इस गर्मी की छुट्टी में गाँव चलेंगी।"
अब दूसरी तरफ शांति फैल गई थी।
--००--
सविता मिश्रा "अक्षजा'
 आगरा  
 2012.savita.mishra@gmail.com
(शब्द निष्ठा सम्मान-२०१७ में ३५ वें नम्बर पर सम्मानित)
यहां इस ग्रुप में लिखी  थी इसे .
29 February 2016 में ...
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