Friday 18 November 2016

श्वास- (लघुकथा)


"अरे मुंगेरी, खाना खाने भी चलेगा, या मगन रहेगा यहीं |" मुंगेरी को दीवार से बात करता हुआ देख चाचा ने कहा |
बहुमंजिला इमारत में प्लास्टर होने के साथ बिजली का भी काम चल रहा था | दोपहर में भोजन करने सब नीचे जाने लगे थे | मुंगेरी भी चाचा के साथ नीचे आकर जल्दी-जल्दी खाना ख़त्म करने लगा | तभी अचानक इमारत धू-धूकर जलने लगी | जैसे ही आग मुंगेरी के बनाये मंजिल पर पहुँची, मुंगेरी फफक कर रो पड़ा | सारे मजदूर महज हो-हल्ला मचा रहे थे | लेकिन मुंगेरी ऐसे रो रहा था जैसे उसकी अपनी कमाई जलकर ख़ाक हो रही हो |
"तू इतना काहे रो रहा रे !" एक बुजुर्ग बोला|
"मेरी मेहनतss"
"मेहनत तो सबने की थी न, तेरी तरह तो कोई नहीं रो रहा है | और कौन सी अपनी मेहनत की कमाई लगी इसमें | हम तो राजगीर है, इधर मजदूरी मिली, उधर दीवार से रिश्ता ख़त्म |"
"मेरा तो सपना जल रहा है | अपना तन जलाकर कितने मन से बनाया था मैंने |"
"तन तो सबने ही जलाया, उसी की तो मजदूरी मिलती थी| अच्छा हुआ जल गया | अब साल भर की मजदूरी का यहीं फिर से जुगाड़ बन गया |"
"लेकिन उस मंजिल में जो रहता वह मुझे ही याद करता |" मुंगेरी आंसू पोंछते हुए बोला |
"अरी ! ताजमहल थोड़े ही बनाया था |" कहकर एक मजदूर युवक ठहाका मार के हँसा |
"मेहनत से मैंने मंदिर बनाया था | जिसमें प्रेम भाव से सुकून बसाया था | दीवारें भी बोलती हुई सी थीं उसकी | रहने वाला मकान में नहीं बल्कि घर में रहना महसूस करता |"
"ऐसा क्या किया था रे तूने !!"
"आह के श्वास से नहीं बल्कि मेहनत और उल्लास से भर खड़ी करी थीं दीवारें मैंने |"
सुनते ही सब बगले झाँकने लग पड़े | सविता मिश्रा

Sunday 13 November 2016

कीमत-(लघुकथा)


"माँ कैसे लाऊँ तेरे लिए पैरासिटामॉल! पांच सौ, हजार की नोट बंद हो गयीं, वही पर्स में है |"
"रहने दे बेटा परेशान न हो, मैं ठीक हो जाऊंगी।"
"आज सुबह ही शनिवार  के कारण  मंदिर के भिखारियों में रेज़गारी सारी बाँट आया मैं।  क्या पता था शाम आठ बजते ही यह नोटबन्दी की दुदुम्भी बज जायेगी।
"सुनिए जी .."
"अब तू क्या आर्डर करेगी| देख नहीँ रही है परेशान हूँ !"
चिल्लाते ही झेंपता हुआ बुदबुदाया -- " छोटी नोट तो घर में रहने ही न दिए मैंने। चिल्लाता था कि भिखारियों की तरह क्या चिल्लर जमा करके रखती हो। अब मैं तुम पर क्यों खीझ रहा हूँ !"
"समाचार में तो सुना था कि हस्पताल और दवा वाले लेंगे यह नोट|" वह धीरे से बोली।
"पर ले तो नहीं रहें हैं न ! वह इस बन्दी का फायदा उठाकर अपना ब्लैकमनी ठिकाने लगाएंगे या हमारा दर्द समझकर हमारी सहायता करेंगे। सबकी लंका जली पड़ी है इस समय।"
"अच्छा सुनिये!!"
"अब क्या? ढूढ़ने देगी दस बीस रुपये कि नहीं!"
"वहीँ दे रही हूँ! लीजिए।"
"कहाँ से मिला! मैं तो कब से खोज रहा हूँ। पर यह पॉलीथिन में क्यों रख के दे रही है ! ऐसा लग रहा है सौ  रुपये नहीं बल्कि हजारों पकड़ा रही है !"
"इस जरूरत में तो यह हजारों से भी ज्यादा है। पॉलीथिन में इस लिए दे रहीं हूँ क्योंकि फटा हुआ है।"

यदि जेब में और फट गया तो यह भी हज़ार की नोट की तरह दो कौड़ी का हो जायेगा।"
"हाँ सही कह रही हजार की नोट से भरे हुए इस बटुए पर आज यह फटा हुआ सौ का नोट भी भारी है|" 
"मैं माँ के माथे पर ठंडी पट्टी रखती हूं। आप जाइये जल्दी से दवा लाइए। कल सब्जी के लिए भी तो पैसे चाहिए !"
"हाँ, जाता हूँ! पांच रुपये की दवा आएगी और जो बचेंगे उनसे सन्डे तक काम चल जायेगा।"
"बड़ी नोट रखने का ख़ामियाजा तो भुगतना ही पड़ेगा कल तक।"
"गूंगी भी बोलने लगी।  सोमवार की सुबह ही इन सारी नोटों को छोटी करा लाऊँगा।"
सविता

'प्रतियोगिता के लिए' चित्र पर आधारित

Wednesday 9 November 2016

खोटा खज़ाना-

"पाँच सौ और हजार की नोटें बंद हो गयीं माँ, दो दिन बाद ही बैंक खुलेगा | तब इन्हें बदलवा पाऊँगा।" फोन पर बेटे से यह सुनते ही दीप्ती का चेहरा पीला पड़ गया |

वह बदहवास सी अलमारी की सारी साड़ियाँ निकालकर पलंग पर फेंकने लगी | पुरानी रखी साड़ी की तहों में से कई हरी-लाल नोट मुस्करा रही थीं | नोट देखते ही दीप्ती का चेहरा मुरझाए फूल सा हो जाता था |

फिर अचानक कुछ याद आते ही रसोई में जा पहुँची | चावल-दाल के सारे ड्रम वह पलट डाली | चावल के ढ़ेर से झांकते कड़क नोट उसको मुँह चिढ़ा रहे थें। ड्रम और मसालों के डिब्बों से निकले नोट इक्कट्ठा करके फिर से कमरे में आ गयी | अलमारी में बिछे अख़बार के नीचे भी उसने नजर दौड़ाई | अखबार हल्का सा उठाते ही लम्बवत लेटे नोट खिल उठते | पूरा अखबार उठाते ही सारे बिछे नोट हौले से अखबार के साथ अठखेलियाँ करने लगे | जिन्हें कल तक देखकर वह ठंडक पाती थी आज उबल पड़ी | रसोई और अलमारी से सारे नोट इक्कट्ठे होते ही उसे आश्चर्य हुआ 'इतना रुपया था उसके पास'|
चार दिन पहले ही तो पतिदेव से यह कहकर पैसे मांगे थे कि पैसे नहीं हैं | दो तारीख हो गयी आपने महीने खर्च के पैसे नहीं दिए अभी | "अब क्या कहूँगी मैं उनसे?" बुदबुदाई दीप्ती |
"बिल्ली के जैसे दबे पाँव यह खेल खेला सरकार ने | इस भूचाल की आहट ही न होने दी | महीने दो महीने पहले थोड़ी भी सुगबुगाहट मिलती तो धनतेरस पर मैं हार नहीं गढ़वा लेती |" करारे-करारे नोट देख आंखे नम हो गयीं उसकी |
रूपये बारम्बार गिनती हुई पूरी रात दीप्ती अपनी बचत को छुपाने की आदत पर सिर धुनती रही |
सविता मिश्रा

Sunday 6 November 2016

संगत -

संगत - तनुज अपनी बड़ी बहन की शादी के पांच-छ साल बाद उनकी ससुराल आया था| पता चला छठ पूजा के लिए सब पोखर की तरफ गए हैं| वह अपनी बहन से मिलने वहीं आ गया| छोटे से गंदे पोखर में छठ मैया की पूजा करने वालों की भीड़ लगी थी| तनुज हतप्रभ होकर अपनी बहन को पूजा करते एक टक निहारने लगा| दीदी को पूजा में ऐसे मग्न देखकर वह बरबस ही पुरानी यादों में घिरता जा रहा था| यह वही दीदी हैं जो कभी भी गंदे पानी में किसी को भी नहाते देखती थीं तो दस नसीहतें देने लगती थीं, खुद नहाना तो बहुत दूर की बात थी| बुआ जब घर आ जाती थीं तब चप्पल पहनकर रसोई में जाने को मनाही हो जाती थी| तो दीदी रसोई में कदम नहीं रखतीं थीं| मंदिर के साफ़ सुथरे फर्श पर भी बिना चप्पल के पैरों को अजीब सा मोड़कर चलती थीं| माँ की हर बात पर दसियों तर्कवितर्क करतीं थीं| 'वही दीदी आज नंगे पैरों से इस कंकडों भरे रास्ते पर चलकर आई हैं| ऊपर से कीचड़युक्त तालाब में डुबकी लगाकर, इतनी देर से खड़ी भी हैं|' आश्चर्यचकित होकर बुदबुदाया| दीदी पूजा निपटाकर भाई को देखकर खुश होते हुए जैसे ही पास आई| तनुज अपनी चप्पल आगे करके बोला- "दीदी चप्पल पहन लीजिए, कंकड़ चुभेंगे पैरों में|"| "नहीं बाबू, श्रद्धा और भक्ति की शक्ति हैं मेरे पास, चल लूँगी|" तनुज आश्चर्य से बोला- "दीदी क्या है ये सब, आप और ये !!" "पूरा नगर ही छठ का उपवास इसी तरह करता हैं| यह संगत का असर है बाबू।" ==============================

(चित्र आधारित)

Tuesday 1 November 2016

तरीका (लघुकथा)


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"क्या हुआ बड़े उदास दिख रहे हो| दूकान से भी इतनी जल्दी वापस आ गये?" कहते कहते रसोई में चली गयी |
पानी देते हुए बोली -"आजकल हो क्या गया है तुम्हें ? त्यौहार में तो खूब बिक्री हो रहीं होगी, फिर भी यह मायूसी क्यों चेहरे पर ?"
"कुछ नहीं संजू लुट गया मैं |"
"अरे! कैसे, बदमाश पीछे पड़ गए थे क्या?"
"नहीं संजू, ये साले समाजसुधारक रोजी-रोटी डुबाने पर तुले हुए हैं|"
"क्या कह रहे हो जी, ऐसा क्या कर दिया उन लोगों ने, जो आपकी दूकान बन्द होने की कगार पर आ गयी |"
"हर गली, हर मुहल्ले में चायनीज सामान के खिलाफ़ लोगों के दिमाग में चिंगारी लगा दी इन नासपिटों ने | वह चिंगारी ऐसी भड़की कि इस त्यौहार में रोटी के भी लाले पड़ने के आसार दिख रहें हैं|
"चायनीज!! चायनीज सामान के तो आप भी विरोधी थे| रखे ही क्यों ?"
"क्या बताऊ संजू , ज्यादा मुनाफ़ा कमाने के चक्कर में कहीं का न रहा| सोचा था उस मुनाफ़े से दीपावली में एक फ़्लैट खरीदूंगा| परन्तु अब तो न घर का रहा न घाट का | वह साला राजेश, जो अपनी दूकान में रखे हुए तिरंगे का अपमान करता है, वह भी पीठ पीछे मुझे देशद्रोही कह रहा है|"
"अच्छा..! कल के अख़बार को पढ़ वही राजेश, सबके सामने आपको देशभक्त और दयालु व्यक्ति कहेगा! कहकर कुछ सोचते हुए वह एक नामचीन एनजीओ का नम्बर घुमा के बात करने लगी |सविता मिश्रा
(चिंगारी विषय पर लिखी गयी लघुकथा )