Saturday 27 January 2018

लघुकथा लेखन-प्रश्न के जवाब Subhash Neerav भैया द्वारा

Subhash Neerav ...आप सभी परिंदों को मेरा पुन: नमस्कार और गणतंत्र दिवस की हार्दिक शुभकामनाएं !
Savita Mishra... नमस्ते भैया
उत्तर देने के लिए अतिथि का सम्मान सहित स्वागत है। आज लिखित आजादी का दिन है सम्भलकर भैया जरा 😀🙏🙏सादर
Rachana Agarwal Gupta ..आदरणीय, मेरा प्रश्न यह है कि लघुकथा में काल्पनिकता का पुट कहाँ तक सही है।
लघुकथा यथार्थ के धरातल पर बुनी हुई, हमारी या हमारे आस पास की घटनाओं से उठी संवेदनाओं पर रची जाती है।
तो यहाँ यथार्थ और कल्पना में वीरोधाभाष सा है।
सादर🙏
Subhash Neerav ...रचना जी, कोरा यथार्थ हमारे पास रा मैटीरियल की तरह आता है, वह बहुत खुरदरा होता है, उसे ग्राह्य बनाने के लिए कल्पना की चाशनी की जरूरत होती है। कोरे यथार्थ पर खबर बन सकती है बढ़िया सी, पर रचना नहीं। उस यथार्थ को साहित्यिक यथार्थ में बदलने के लिए रचनात्मक कल्पना की बेहद आवश्यकता होती है।
Rachana Agarwal Gupta ...जी सर, 'साहित्यिक यथार्थ' इस बात ने शंका का बहुत हद तक समाधान किया।
सादर धन्यवाद।
Arvina Gahlot ...कथानक चयन के साथ साथ प्रोसेस/ट्रीटमेंट से सर आप का आशय है उसे बार-बार पढ़ कर कुछ समय रखकर उसपर विचार करे
Subhash Neerav.... हर रचना को विकसित करने के लिए एक रचनात्मक प्रोसेस से गुजरना पड़ता है। इसमे आपका चिंतन-मनन बहुत सहायक होता है। इस प्रोसेस से गुजरे बिना रचना हल्की और सपाट रह जाने का भय बना रहता है।
Arvina Gahlot ऐसी लघुकथा जो समयांतर चले से आशय समझना चाहूँगी
Subhash Neerav मैंने समय के साथ चलने वाली लघुकथा की बात की है। कोई भी साहित्यिक रचना अपने समय से आँखें मूंद कर नहीं चल सकती। उसे अपने समय से मुठभेड़ करनी ही होती है। लेखक इस से बच नहीं सकता।
Kanak K. Harlalka... तब क्या एतिहासिक घटना क्रम लघुकथा का विषय नहीं हो सकता ।या उसे वर्तमान परिप्रेक्ष्य में लाना होगा ।
Arvina Gahlot ...जी बहुत अच्छा सुझाव है सर
Usha Bhadauria ....Subhash Neerav सर, इस प्रश्न का मतलब समझ नहीं आया और ना ही इसके जवाब का । जब भी समय मिले प्लीज एक बार और एक्सप्लेन कर दीजियेगा। 🙏🙏
Rupendra Raj ...आदरणीय हार्दिक स्वागत है आपका प्रश्नोत्तरी पटल पर🙏
मेरा प्रश्न लघुकथा के.मानक से संबंधित है, बहुत अधिक समय नही हुआ है गद्य की इस विधा को प्रारंभ हुए। माधवराव सप्रे द्वारा लिखी गई एक टोकरी मिट्टी को प्रथम लघुकथा का दर्जा दिया गया। मुंशी प्रेमचंद और सदाअत हसन मंटों की लघुकथाओं मे ज़मीन आसमान का अंतर.है।आज जो कथाएं लिखीं जा रहीं हैं कुछ मानक तय हुए हैं, किंतु मतभ्रांत की स्थित से हम नवांकुर पथभ्रष्ट हो रहे हैं, क्या कोई निश्चित मानक भविष्य मे तय होने की संभावना है।अथवा मुख्य कथाकारों की समीक्षाओं पर ही नये लघुकथाकारों का भविष्य निर्भर होगा। सादर🙏
Subhash Neerav... कुछ लघुकथा के विद्वानों ने इस विधा को लेकर कुछ मानक बनाये हैं जैसे लघुकथा का लघु होना ज़रूरी है। उसके कथा भी होना आवश्यक है। वह बहुत बड़े समय या कालखंड को लेकर न चले, उसमें अंत में कोई एक चरम बिन्दु हो आदि आदि ! परंतु, मैं कभी इन मानकों को ध्यान में रखकर लघुकथा नहीं लिखता, उसे सहज ही प्रवाहित होने देता हूँ खुले रूप में, इन बने खांचों में बांधने की कोशिश नहीं करता ! हर नये लेखक को बस इतना ध्यान रखना है कि वह जीवन के जिस एक छोटे से अंश, छोटे से पल, छोटी सी विसंगति को केन्द्र बना रहा है उसमें कथा का भी समावेश हो तो बहुत बेहतर है। बिना कथा वाली लघुकथाएं भी लिखी गई हैं, सिर्फ़ स्थितियों को लेकर, पर मेरा मानना है कि यदि 'लघुकथा' में 'कथा' जुड़ी है तो कथा को आना ही चाहिए। नवांकुरों को मेरी राय में इन मानकों की तरफ़ ज्यादा न जाकर, अग्रजों की लिखी श्रेष्ठ और प्रभावशाली लघुकथाओं को पढ़ना और उनका मनन करना चाहिए, उसी में से बहुत कुछ वह अपने लेखन के लिए तय कर सकता है !
Rupendra Raj ....आदरणीय बेहतर.सुझाव दिया गया आपके द्वारा।किंतु अंग्रेजी लघुकथाओं को कितने लोग पढ़ाने मे सक्षम होंगे भाषा की समस्या को इंगित करना चाहती हूं।क्या अनुवादित कथाएं उपलब्ध हैं।
Neeta Saini ...अंग्रेजी की लघुकथा नहीं लिखा यहां अग्रजो यानी वरिष्ठों की लघुकथाओं के विषय मे लिखा गया है ।
Rachana Agarwal Gupta ...जी, मैंने भूल से पढ़ लिया
Rupendra Raj ...अंग्रेजों की लिखी लघुकथाएं तो अंग्रेजी मे ही होंगी न आदरणीय नीता जी।भाषा की असुविधा को इंगित किया है।और जब तक भाषा का संपूर्ण ज्ञान नहीं होगा तब तक कथा का मर्म कैसे समझा जाएगा।सांकेतिक रुप से कही बात तो कई बार अपनी भाषा मे ही समझ नहीं आती।सादर क्षमा के साथ अपनी बात रखी है।🙏
Aparna Gupta ...सर क्या लघु कथा मे भावनाओ को व्यक्त करते हुये कविता का कुछ भाग या कोई शेर लिखना सही होगा या नही
Subhash Neerav... यह कथ्य की मांग पर निर्भर करता है और यदि कथ्य की मांग है तो फिर यह लेखक के रचना कौशल का हिस्सा है कि वह उसे किस तरह प्रयोग करता है ।
Savita Mishra ...लघुकथा में वरिष्ठजन एक जुट होकर एक नियम कानून की आधारशिला क्यों नहीं रख रहें??
Subhash Neerav ....नियम हमेशा किसी को बांधने के लिए होते हैं। परिन्दों को उड़ान चाहिए, और उडान के लिए खुला आकाश, न कि सीमित और बंधा हुआ आकाश !
Savita Mishra ...कुछ बांधते, कुछ खुला छोड़ते हैं, यह तो वह बात हुई एक मारे दूसरा प्यार जता चुप करा दें😜🙏
Anuradha Saini ...सर लघुकथा लेखन में फिर अनुशासन का क्या महत्व ?
Sheikh Shahzad Usmani ....अनुशासन कैसे क़ायम हो सकेगा। विद्यालयों में छात्र-छात्राओं को लघुकथा विधा और अन्य कथा विधाओं में स्पष्ट अंतर हम शिक्षक कैसे समझा पायेंगे? लिखित विधि-विधान तो होना ही चाहिए। उसमें बदलाव की प्रक्रिया अतिरिक्त अध्ययन-अध्यापन के तहत रहेगा न?
Sumeet Chaudhary ...आद. सर जी, मेरा प्रश्न है कि क्या अब लघुकथा और लघुकहानी में अंतर समाप्त हो रहा है? यदि हाँ तो लघुकथा के स्वतंत्र अस्तित्व पर खतरा क्यूँ नहीं और यदि नहीं तो कौनसे ऐसे फर्क हैं जिनका लेखकों को ध्यान रखना चाहिए?
Subhash Neerav ...एक समय था जब 'लघुकहानी' का बहुत शोर उठा था। लेकिन अब वर्तमान में कथा साहित्य में सिर्फ़ यही विधायें है - जैसे उपन्यास, कहानी, संस्मरण, डायरी, नाटक और लघुकथा ! और मेरी राय में लघुकथा के अस्तित्व को अब कोई खतरा नहीं है।
Sumeet Chaudhary ...धन्यवाद सर जी... यानी अब लघुकहानी कुछ भी नहीं है.... पूर्व में कभी थी... और अब इसका विलय लघुकथा में हो चुका है... यही तथ्य मैं जानना चाहता था... इस पर सभी को एकमत होना चाहिए...
शब्द मसीहा केदार नाथ ....सहमत हूँ सर ! आज लघुकथा का विस्तार जिस प्रकार हो रहा है ...हर्ष का विषय है . सबसे बड़ी उपलब्धि है कि घरों और समाज के विषय भी रचनाकारों द्वारा उठाये जा रहे हैं . विशेषकर महिलाओं का आना लेखन में एक उपलब्धि है . इसके बहुआयामी फायदे हैं
Sheikh Shahzad Usmani... अभी यह सवाल सुलझा नहीं है। लघु कहानी का विलय लघुकथा में कैसे ?
Subhash Neerav ...लघु कहानी अब है ही नहीं। कहानी है या लघुकथा।
Kanak K. Harlalka... आदरणीय सुभाष सर , सादर प्रणाम ग्रहण करें । बहुत देर से प्रतीक्षारत थी प्रश्नोत्तर प्रारंभ हो तो अपनी समस्या आपके समक्ष रख सकूं । सर, कथ्य ,विषय बस्तु, भाषा निर्वहन भी ठीकठाक हो जाता है ,पर कथा में सूई की नोक सा तीखापन ,तलवार की धार नहीं आ पाती यद्यपि सोच में अवश्य रहती है । आपका दिशा निर्देश चाहिए ।
Subhash Neerav ...यह सभी के साथा होता है, निराश होने की बात नहीं। अच्छी और श्रेष्ठ लघुकथाएं पढ़ें, उनका मनन करें तो रास्ता स्वयं ही बन जाएगा। और अभ्यास तो बहुत कुछ सिखा देता है कनक जीi !
Sumeet Chaudhary....सर जी... मेरा एक प्रश्न और है... लघुकथा में समीक्षक केवल लेखक ही क्यूँ हों? जो व्यक्ति सिर्फ समीक्षक है उसका लेखक ना होने का अर्थ उसका कार्य शून्य होना क्यों माना जाता है?
Subhash Neerav ...लेखन और समीक्षा अलग अलग धर्म हैं। ज़रुरी नहीं कि अच्छा लेखक समीक्षक भी अच्छा हो। लघुकथा के साथ यह विडम्बना रही कि इसे स्वतंत्र समीक्षक या आलोचक मिले ही नहीं। बहुत कम मिले। अब जाकर भाई मधुदीप जी ने पड़ाव और पड़ताल के रूप में इस दिशा में कुछ काम किया है और उन्होंने स्वतंत्र समीक्षक आलोचक भी तैयार किये हैं। एक नाम बी एल आच्छा का उभरकर सामने आया है।
Sumeet Chaudhary.... Subhash Neerav सर जी... मेरे प्रश्न के आपके उत्तर ने मेरे दिमाग का बहुत बड़ा बोझ हटा दिया.... यह बात उन सभी को जाननी चाहिए... जो स्वतंत्र समीक्षक जो लेखक नहीं है... के काम को शून्य कहते हैं... हृदय से साधुवाद आपको....

Arvina Gahlot ...सर लघुकथा के मानक भिन्न-भिन्न स्रोतों में भिन्न है जहां न्यूज पेपर में आने वाली लघुकथा और लघुकथा संग्रह में आने वाली लघुकथा में भिन्नता है । सही क्या है संशय बना हुआ है

Subhash Neerav.... अरविना जी, आप बस मोटी मोटी बातें ध्यान में रख लें लघुकथा लेखन को लेकर और इन बहुत सारे मानकों की परवाह न करें। अखबार, पत्रिकाओं और पुस्तकों में आने वाली लघुकथाएं भिन्न होना स्वाभाविक है। आज भी अखबार और कुछेक पत्रिकाएं लघुकथा को फिलर के तौर पर लेते हैं। उन्हें अपने अखबार में या पत्रिका में शेष बच गई जगह को भरना होता है और वह लघुकथा के नाम पर बहुत कुछ ऐसा छापते रहते हैं जो लघुकथा नहीं होती। नये लेखकों में उन्हीं छपी हुई लघुकथाओं (?) को पढ़कर भ्रम की स्थिति उपजती है।
Anuradha Saini ..अच्छा संशय दूर हुआ सर आपके जवाब को पढ़कर
Arvina Gahlot जी आदरणीया आपने मुझे असमंजस से निकलने में मदद की आभारी हूँ
Sheikh Shahzad Usmani ..वैसे प्रकाशकों-सम्पादकों को उस कोलम का नाम ' लघुकथा' नहीं रखना चाहिए, बल्कि ' कथा-कहानी' होना चाहिए। आप वरिष्ठजन आपत्ति दर्ज़ तो करते होंगे न?

Savita Mishra ...आप वरिष्ठ आपस में जब अपनी अपनी लघुकथा पर एक दूसरे से सम्पर्क करते हैं तो हम नवांकुरों को पोस्ट करने पर सलाह देने हेतु क्यों नहीं पोस्ट पर आतें??
हमारी लिस्ट में शायद 20 दिग्गज होंगे आखिर मेसेज किसको किया जाय, सबके पास समयाभाव सोच कर मेसेज नहीं किया जा सकता है अतः पोस्ट पे कम से कम एक दो जन का आना बनता है न??
Subhash Neerav ..समय का अभाव होता है मेरे पास तो। बहुत सारे कार्य एक साथ मुझे करने होते हैं जो समय सीमा में बंधे होते हैं इसलिए मैं अधिक नहीं आ पाता हूँ।
Sheikh Shahzad Usmani ..आदाब । विनम्र निवेदन है कि फेसबुक लघुकथा समूहों पर माह में एक दिन तो दीजियेगा रचनाओं पर।
Anuradha Saini.. प्रणाम आदरणीय गणतंत्र दिवस की हार्दिक शुभकामनाओं सहित मेरा प्रश्न यह है कि
आजकल सकारात्मक व नकारात्मक कथा पर काफी बात की जा रही है चूंकि हमने आदरणीया कान्ता दीदी से लघुकथा लेखन सीखा है और वह कथा में पंच पंक्ति को काफी महत्व देती है परन्तु कई वरिष्ठजन को सुना है कि कथा सकारात्मक अंत के साथ सम्पन्न हो |
ऐसे में दुविधा यह है कि पंच पंक्ति जो कि जोर का वार करती है व तीर सी चुभती है परन्तु समस्या का समाधान अक्सर न करके समस्या को पुरजोर रखती है तो नवोदित क्या करें?
पंच पंक्ति के तहत समस्या को पुरजोर रखकर चिंतन पैदा करे
या
वरिष्ठजन के कहे अनुसार कथा में काल्पनिकता या कभी कभी हकीकत रखकर उसे सकारात्मक अंत देकर ही समाप्त कर दे |
Subhash Neerav ...अभी एक छोटी सी बहुत महत्वपूर्न किताब आई है - परिन्दे पूछते हैं। मेरे मित्र और लघुकथा के जाने माने हस्थाक्षर अशोक भाटिया ने बड़ी मेहनत से तैयार की है। उसमें नवांकुरों की लघुकथा से जुड़ी बहुत सारी जिज्ञासाओं, संशयों को साफ़ करने की एक सफल कोशिश की है उन्होंने। आपके इस प्रश्न का उत्तर भी उन्होंने दिया है। किताब मात्र 100 रुपये में उपलब्ध है। आप सभी को उसे पढ़ना चाहिए। मेरा मानना है कि इसे पढ़कर आप की अस्सी फीसदी जिज्ञासाएं तो शांत हो ही जाएंगी। बहरहाल, जब हम सकारात्मकता की बात करते हैं तो उसमें यह ध्वनि छिपी होती है कि समाज में कुछ पोजिटिव जोड़ा जाए। नेगेटिव नहीं। और लेखक की यह जिम्मेदारी होती है कि वह समाज को विभक्त करने वाली, समाज को और अधिक निराश हताश करने वाली रचनाएं न दें। समाज को, समाज की इकाई मनुष्य की सोच को बेहतर बनाना है। यही उद्देश्य होना चाहिए। 1984 में हुए दंगों को केंद्र में रखकर मैंने एक लघुकथा लिखी थी- इन्सानी रंग। मेरे मित्र और हिन्दी के कथाकार रमेश बतरा(स्व) को जब मैंने यह लघुकथा अपने निवास पर सुनाई तो उन्होंने यही कहा कि ऐसे संवेदनशील विषय पर लेखक को बहुत सोच समझ कर लिखना चाहिए। तुम्हारी लघुकथा एक नेगेटिव विचार समाज को दे रही है जो नहीं होना चाहिए। जब कि समाज में ऐसा ही(भी) घटित होता है। लेखक का एक उत्तरदायित्व होता है कि वह इन सबसे ऊपर होता है और वह समाज को जोड़ने की बात करता है, मनुष्यता को जीवित रखनेकी बात करता है, मर रही संवेदना जो जिलाये रखने की बात करता है। अत: मेरा मानना है कि कथ्य के अनुरूप हम पोजिटिविटी की बात करें। यदि नकारात्मक अंत या बात आ रही है तो संदेश नकारात्मक नहीं होना चाहिए। कई बार इस नकारात्मकता के पीछे भी सकारात्मकता छिपी होती है जिसे पाठक पकड़ लेता है। जहां तक काल्पनिकता की बात है, मैं इस पर ऊपर किसी प्रश्न के जवाब में कह चुका हूँ।
Anuradha Saini ..आपका आशय यह है कि लेखक की जिम्मेदारी सर्वाधिक है, जो भी लिखे समाज की उन्नतिकरण के लिए होे |🙏🙏
Sumeet Chaudhary ...Subhash Neerav सर जी... बेहतरीन उत्तर... अंत भले ही नकारात्मक हो किन्तु सन्देश सकारात्मक हो....
Anuradha Saini ...सहमत व संतुष्ट हूं सर
Kanak K. Harlalka ..सर , क्या कथा में हमेशा एक सकारात्मक, आदर्श वादी अन्त अनिवार्य है ।क्या विसंगति का यथावत यथार्थ चित्रण कथा की गुणवत्ता को कम कर देता है
Subhash Neerav ...कनक जी, अनुराधा सैनी के प्रश्न के जवाब में दिया गया मेरा उत्तर पढ़ें।
सीमा भाटिया स्वागत है आदरणीय। मैं महसूस करती हूं कि लघुकथा लेखन में बहुत ज्यादा ध्यान और चिंतन मनन करने की आवश्यकता है। हालांकि आप अपने भावों को कविता के रूप में थोड़ा सरलता से ढाल सकते हैं, पर लघुकथा लिखना वाकई एक तलवार की धार पर.चलने जैसा है। जरा सी असावधानी अच्छे भले कथानक को बेअसर कर देती है। मेरी लघुकथाएँ अक्सर सशक्त अंत के लिए जूझती रहती हैं। कुछ सुझाव दें।
Kanak K. Harlalka ...आदरणीय मेरा प्रश्न भी तत्समान सम्स्या से समबन्धित है ।
Subhash Neerav सीमा जी और कनक जी, यह आपकी ही समस्या नहीं है, मैं भी अपनी 38 साल की लेखकीया यात्रा में आज भी जूझ रहा हुँ। पर जो व्यक्ति मुश्किल से जूझता है, वही रास्ता भी निकाल पाता है।
सीमा भाटिया.. आदरणीय कोशिश करती रहती हूँ सफलता और असफलता तो साथ ही हैं। और मुझ जैसी नौसीखिया की क्या बात, जो सिर्फ एक साल से लघुकथा लेखन में है।
Savita Mishra ..जो जिस देश प्रदेश यानी परिवेश का होगा वह उसी भाषा के टच में होकर लिखेगा। फिर भाषा पे लोगों के बीच मतभेद क्यों?? क्या साहित्यिक भाषा का कोई एक अपना दायरा ?
भाषा दोष क्या है ?
Subhash Neerav ...आप साहित्य रचना कर रहे हैं तो आपकी एक साहित्यिक भाषा और शिल्प भी धीरे धीरे विकसित होगा। इसमें अध्ययन बहुत बड़ा योगदान देता है। यह भाषा लेखक के अपने परिवेश से उपजती है। भाषा तो आपके विचारों को, भावों को कागज पर उतारने में पुल का काम करती है। आप अपनी रचना के कथ्य के अनुसार नेरेशन में, संवादों में अपने क्षेत्र की बोली का प्रयोग करके उसे जीवंत बना सकते हैं। अगर आपकी रचना में कोई अनपढ या बहुत कम पढ़ा लिखा व्यक्ति पात्र बनकर आता है तो आप उससे एकेडिमिक स्तर की भाषा तो नहीं ही बुलवा सकते न ? वह तो अपनी समझ के अनुसार ही बोलेगा। यदि वह अपनी बोली, अपनी भाषा के साथ रचना में आता है तो उसका चरित्र (करेक्टर) अधिक जीव्ंत होगा न कि लेखक अपनी भाषा में उससे संवाद बुलवाये। भाषा में कोई दोष नहीं है !
Kanta Roy.... कई बार यहाँ नव लेखकों द्वारा लघुकथा के नाम पर कहानी पोस्ट करना एक समस्या बन जाती है। अच्छी होने के बाद भी जब हम कहते हैं कि यह लघुकथा नहीं है तो कथाकार में असंतुष्टि पैदा होती है। इसके लिए हमें क्या करना चाहिए एवं
कम शब्दों में कही गई कहानी और लघुकथा,
दोनों के बीच अंतर क्या है?
आपसे विनम्र निवेदन है कि आप मार्गदर्शन करें।
मंच पर आने वाली कहानी और लघुकथा में कैसे भेद करें?
Subhash Neerav ...यहां मैं जो उत्तर देने जा रहा हूँ वह मेरा निजी विचार है। शायद आपके काम का भी हो ! कथाकार अशोक भाटिया नें लघुकथा को एक-आयामी कहा है। मैं सहमत हूँ, पर इतना और जोड़ता हूँ कि लघुकथा अपने आकार में एक-आयामी है, न कि अर्थ में। वह एक आयामी होते हुए भी अपने अर्थ में बहु-आयामी हो सकती है। उपन्यास से कहानी छोटी होती है और कहानी से छोटी तो लघुकथा को होना ही पड़ेगा, क्योंकि इसके संग 'लघु' भी लगा है। यह लघु 'कथ्य' हो सकता है, यह लघु समय हो सकता है, यह लघु लघुकथा का परिवेश हो सकता है, यह लघु पात्रों को लेकर भी हो सकता है। कहानी जिस विस्तार और डिटेल्स की मांग करती है, लघुकथा को उससे बचना ही पड़ता है। मुझे ये मोटे मोटे अंतर 'कहानी' और 'लघुकथा' में दिखाई देते हैं।
Anuradha Saini ..लघुकथा के सटीक मानदंड क्या है?
है भी या नही
अगर है तो वो क्या है?
अगर नहीं तो फिर क्यों इतना विरोधाभास है लघुकथा लेखन में?
Subhash Neerav ..इसका उत्तर मैं ऊपर किसी प्रश्न के जवाब में दे चुका हूँ अनुराधा जीi !
i
Anuradha Saini ..जी सर, मैने वहाँ पढ़ा आपका जवाब
परन्तु क्षमा सहित सर 🙏मै संतुष्ट नही हो सकी |
Mrinal Ashutosh ..सर,सत्य कथा और लघुकथा में विभेद को स्पष्ट करने का निवेदन है।
और क्या साहित्यकार को सामाजिक जिम्मेदारी नहीं समझनी चाहिए?
Subhash Neerav ...मृणाल जी, लेखक को सत्य कथा लिखनी है तो लिखे। कौन रोकता है, पर जब वह यह कहता है कि मेरी लघुकथा सत्यकथा पर आधारित है तो मुझे क्या,बहुत से अग्रजों को ठीक नहीं लगता। (यह बात कहानी पर भी लागू होती है) लेखक का काम अखबार की रिपोर्ट या खबर लिखना नहीं है, उसे सत्यकथा को साहित्यिक कथा में रूपांतरित करना होता है। इसके लिए उसे एक रचना प्रक्रिया(प्रोसेस) जिसका ऊपर भी उल्लेख हुआ है, से गुजर कर साहित्यिक जामा पहनाना होता है। घटना से रचना का सफ़र इसे ही कहते हैं। और साहित्यकार तो समाज के यथार्थ को ही अपनी रचनाओं में रूपांतरित करता है, वह साजाजिक जिम्मेदारी से कैसे बच सकता है। बहरहाल लेखक भी एक सामाजिक प्राणी है !
Anuradha Saini.. बहुत अच्छा लगा जवाब
Mrinal Ashutosh ..हार्दिक आभार सर। कुछ साहित्यकार जाने अनजाने कुछ रिश्ते को नकारात्मक रूप से समाज में प्रतिस्थापित कर रहे हैं।

Savita Mishra.. वास्तविक कथानक हो, इस बात पर नवांकुर आपस में सिरफुटौव्वल करते हैं, लेकिन कई वरिष्ठ जन की कथाएँ पढ़ी हमने जिसमें फिल्मी सीन से वाकये विधमान रहते हैं, यह मतिभरम हम नवांकुरों में ही है या सच में "ऐसा हो नही सकता वैसा हो नहीं सकता" होता है
Suneel Verman.. बहुत अच्छा और आवश्यक प्रश्न है|
Subhash Neerav ..आपके भीतर का लेखक क्या कहता है ? आप पहले उसकी सुनें। जब मैंने लिखना शूरु किया, खासकर लघुकथा तो मैं भी बहुत धुंधलके में था। आठवें दशक में लघुकथाओं की बाढ़ आई हुई थी। छोटी बड़ी पत्रिकाओं के लघुकथा विशेषांक छप रहे थे, पर अच्छे लघुकथा लेखक मुझे निराश करते थे। इसमे मेरी मदद रमेश बतरा ने की। उसने मुझे दिगभ्रमित करने वाली लघुकथाओं की बजाय वो लघुकथाएं उपलब्ध करवाई या उन लेखकों के संग्रह दिये जो वास्तव में मेरे इस धुंधलके को साफ़ कर सकते थे। मैंने उन्हें पढ़ा, उनपर चिंतन मनन किया पर उन्हें कोपी नहीं किया। उसमें से ही अपना रास्ता निकालने का प्रयास किया और यह सोचकर किया कि सुभाष नीरव की लघुकथा यदि अच्छी है या खराब है, वह सुभाष नीरव की ही है। उसके लिए मैं जिम्मेदार होऊंगा। मैंने अपनी कथा शैली खोजने का प्रयास किया, कुछ परंपरा से लिया, कुछ अग्रजों से सीखा और कुछ अपना मौलिक चिंतन से। आज भी बहुत सारे मेरे अग्रज वरिष्ठ (जिनका मैं बहुत सम्मान करता हूँ) की लघुकथाएं मुझे अपील ही नहीं करतीं। तो मैं उस रास्ते पर चलता ही नहीं।

Savita Mishra.. शुक्रिया भैया। भीतर लेखक है या नहीं अभी तो यह पता नहीं। पर कहता है मन कि अपने मन की लिखो। सुनो सबकी ससम्मान मानो मन की।
नमक मिर्च का अनुपात सही रखो बस, भोजन तैयार।
हम कुछ भी सोचकर नहीं लिखते, लिखते लिखते मन खुद ही बहा ले जाता है। लेकिन जब वरिष्ठ या समकक्ष उस कथा पर कुछ बोलते नहीं हैं तो लगता है कहीं गलत तो नहीं लेकिन अड़ियल मन मानता नहीं है, हां दुबारा तिबारा पढ़कर थोड़ा सोच विचार जरूर करता है।
आभार भैया एक रास्ता बताने के लिए😊😊😊🙏😊


Kanak K. Harlalka ...सटीक । कभी कभी अपना समीक्षक स्वयं को ही बनना पड़ता है । पर जिनके लिए लिखते हैं(पाठक ) उनका समर्थन भी तो मिलना आवश्यक है ।
Savita Mishra जिनपर पाठक का समर्थन मिलता वह लघुकथारों को मान्य नहीं होती कभी कभी। और जो कथाकार पसन्द करते उन्हें पाठक नहीं मिलते।
पाठक तो जब लाइक मिलती जाएगी आते जाएंगे, हमारे ख्याल से वह मतिभरम के सिवा कुछ न।
हम आपके आप हमारे वाली रीति है और गुटबन्दी होती बस |
Suneel Verma ..हर विधा का एक आकार होता है| अपना स्वरूप होता है, परंतु लघुकथा में वरिष्ठ जनों का एक समूह इस बात को पूरी तरह नकार देता है|
सवाल पुराना है मगर यथावत है कि इस विधा में 'शब्द सीमा' तय है भी या नही..?
एक 'पूड़ी' थोड़ा सा विस्तार लेते ही 'रोटी' बन जाती है| कथा और लघुकथा में यह दायरा कहाँ आकर समाप्त होता है..?
Beena Sharma ..आदरणीय मैं भी शब्द सीमा के बारे में जानने की इच्छुक हूँ
Rachana Agarwal Gupta ..लघुकथा क्षण विशेष की मांग करती है।
कथ्य क्या है, भूमिका देनी नही है, फिर आखिर किस हद तक बढ़ जायेगी लघुकथा।
शब्दो का अनावश्यक इस्तेमाल ना हो, कथा में अनकहा छोड़ना है, इशारों में बात को तीक्ष्णता के साथ कहना है, शस्यद इनसब को ध्यान में रख कर लघुकथा लिखे तो शब्द अपने आप अपना आकार निर्धरित कर लेंगे ।
वैसे तो मुंशी प्रेमचंद जी की 800 शब्दो तक भी लघुकथा पढ़ी है।
Subhash Neerav ..यदि आप तीनों सुनील जी, बीना जी, रचना जी, ने क्या अशोक भाटिया की अभी हाल में आई पुस्तक 'परिंदे पूछते हैं' पढ़ी है ? उसमें पहला ही चैप्टर इस विषय पर है और बहुत अच्छे ढंग से इन प्रश्नों का अशोक भाटिया जी ने उत्तर दिया है, मैं उनसे पूरी तरह सहमत हूँ। मेरी गुजारिश है कि यदि आपने यह छोटी सी पुस्तक न पढ़ी हो तो इसे खरीद कर (मात्र 100 रुपये में) इसे अवश्य ही पढ़ें। बहरहाल मैं अपनी बात कहता हूँ कि मुझे जो लेखक लघुकथा में लेकर आया था, उसने खुद 31 शब्दों की सबसे छोटी लघुकथा 'कहूं कहानी' लिखी थी और उसकी अपनी लघुकथाएं अधिक से अधिक 500 से 700 शब्दों के बीच रहींं। एक आदर्श स्थिति तो यही मानता हूँ कि लघुकथा हजार शब्दों से ऊपर न जाने पाये। पर प्रयोग हुए हैं, मैंने भी किए हैं, और कुछ प्रयोग सफल भी रहे हैं। इसलिए कोई बंधी बधाई शब्द सीमा नहीं है, पर यह तो तय है कि वह कहानी की तरह शब्दसीमा नहीं ले सकती !
Varsha Agarwal सभी को गणतंत्र दिवस की शुभकामनाएं।
कहा जाता है लघुकथा एक कथ्य,एक क्षण विशेष की किसी विसंगति को लक्ष्य करती रचना होती है।लेकिन कई उत्कृष्ट लघुकथाओं में समयांतर और एक से अधिक कथ्य भी हैं।साथ ही अंत सकारात्मक होने पर विसंगति समाप्त हो जाती है,और नकारात्मक होने पर रचना ही नकार दी जाती है।
समीक्षक ये तो बताते हैं रचना नकारात्मक है,कारण नहीं बताते। नए लेखक कैसे जानें रचना की कमियों को?
Savita Mishra लिखने का भार हल्का कर दिया आपने😊😊हम भी यही जानना चाहेंगे।
क्या कथा सकारात्मक ही समाप्त की जाय??
Subhash Neerav वर्षा जी और सविता जी, इस पर मैं ऊपर जवाब दे चुका हूँ।
Ranjana Sharma प्रणाम सर -क्या सीधी साधी, कथ्य को उकेरती कथा, विसंगतियों से जूझती एक मृदुल भाव छोड़ती समाप्त हो जाये -- बिना पंच के तो वह लघुकथा की श्रेणी से बाहर होगी?
Subhash Neerav.. देखना यह है कि लघुकथा समाप्त होने पर पाठक पर कैसा प्रभाव दे रही है, उसको स्पर्श कर रही है, उद्वेलित कर रही है, सोचने के लिए विवश कर रही है कि नहीं। मैं पंचलाइन' की अनिवार्यता को खारिज करता हूँ। 'परिंदे पूछते हैं' में इसके उदाहरण में अशोक भाटिया ने सुशांत सुप्रिय की लघुकथा 'सबके लिए' का उदाहरण दिया है और उस लघुकथा को भी पाठकों के समक्ष रखा है। इस लघुकथा में कोई पंच लाइन नहीं है, फिर भी यह एक शानदार, परिपक्व लघुकथा है। दिल को छूती है। स्त्री जीवन का एक बहुत बड़ा सच कुछ ही शब्दों में अद्भुत तरीके से लेखक ने रेखांकित कर दिया है।
Ranjana Sharma ..धन्यवाद सर आपका मार्ग दर्शन बहुत कीमत रखता है।अभी तक दिग्भ्रमित थी ।पुनःहृदय से धन्यवाद।
Alpana Harsh ...मेरा प्रश्न ये है कि भूतकाल का स्वप्न देखना भी लघुकथा में कालखण्ड दोष हो सकता है क्या ? मूल विचार प्रश्न मेरा स्वप्न पर है
Subhash Neerav.. मैं इस कालखंड दोष की परिकल्पना से हमेशा से विरोध में रहा हूँ। अशोक वर्मा की 'खाते बोलते हैं' मधुदीप की 'समय का पहिया' अशोक भाटिया कि 'नमस्ते की वापसी' पढ़ें। मेरी अपनी लघुकथाओं पा कालदोष का आरोप खूब लगा। मेरी लघुकथा 'वाह मिट्टी' को इसी दोष में लपेटकर खारिज भी किया गया(यह लघुकथा इस ग्रुप पर आज दी गई है) पर मैंने इसकी परवाह नहीं की !
Arvina Gahlot सर कथ्य के साथ तारतम्य स्थापित रहे अंत तीव्र हो पिंच करे उसके लिए क्या आवश्यक है। क्या कथानक छोटा हो ये ज़रूरी है
Minni Mishra.. जी बिल्कुल मैं आपकी बात का समर्थन करना चाहूँगी ।
Subhash Neerav ..आप जो भी कथानक चुनें लघुकथा के लिए,उसे आप रचिये ही नहीं, बल्कि उसे जीने की कोशिश भी करंं पहले अपने भीतर और फिर कागज पर उतारें। कथा का बुनना एक अच्छे स्वेटर के बुनने जैसा ही है। कौन सा फुंदा आपको छोड़ना है, कौन सा बढ़ाना है, यह कलाकारी धीरे धीरे विकसित होती है। अच्छी लघुकथाओं का अध्ययन कीजिए, खुद ब खुद आ जाएगा।
Arvina Gahlot ..बहुत सुंदर उत्तर सर
स्वेटर बुनने में महारथ है अब कथा को भी उसी मनोयोग से बुनूगी आभार सरल शब्दों में गूण बात कही है।
Arvina Gahlot.. बहुत सही सर लेखक को ऐसी कथा लिखनी है पाठक उसे बार-बार पढ़े
Minni Mishra ..बहुत सुंदर सरल शब्दों में उत्तर , आभार आदरणीय ।
चित्रा राणा राघव... आदरणीय, लेखकों से अलग यदि सामान्य पाठक की सोच को देखें तो पाठकीयता तृप्ति उसके लिए बहुत आवश्यक है। बेहद तीखी, धारदार रचना में भी वह अधर में रह जाना महसूस करें तो क्या वह पूर्ण लघुकथा है?
मेरे कुछ मित्र अक्सर इस बात को कहते हैं कि एक भाव उचित है पर एक ही बात का होना उन्हें एक पाठक के तौर पर असंतुष्ट छोड़ता है।
जैसे, दलित रमेश पहले ही दिन आगे बैठने पर पीटे जाने के बाद अपनी ही कक्षा के अंतिम छोर पर बैठा था।
तभी दलित ऑफिसर के दौरे पर आने पर उसे सबसे आगे खड़ा कर दिया जाता है।
बस ऐसे ही एक बात को कुछ जगह लघुकथा कह छाप दिया जाता है। क्या इस तरह का लेखन भी लघुकथा रूप में मान्य है?
Subhash Neerav ..रचना पठनीय हो, पर हर पाठक की भूख को तृप्त करे यह ज़रुरी नहीं होता। लेखक का जोर इस बात पर होना चाहिए, पहला यह कि वह पठनीय हो यानी आसानी से पढ़ी जा सके या कहें कि रचना अपने आप को पढ़वा ले जाए, और दूसरा यह कि वह पाठक को समृद्ध करे, सजग करे और संवेदनशील बनाएं।
Anita Jha सबसे अच्छी लघुकथा का स्वरूप बताइए ?
१. काल्पनिक
२. वास्तविक / यथार्थ
३. पारिवारिक
Rachana Agarwal Gupta.. मेरे अनुसार point 3, पॉइंट 1 और 2 से अलग है।
जहाँ तक मुझे लगता है लघुकथा में यथार्थ और कल्पना का शर्बत सा घुला मिश्रण हो,
मेरे प्रश्न के उत्तर में सुभाष सर ने अभी थोड़ी देर पहले इस समस्या का समाधान किया है।
और पॉइंट 3,:
कथा पारिवारिक, सामाजिक, राजनैतिक, धार्मिक, मनोवैज्ञानिक कुछ भी हो सकती है।
दी अन्यथा ना लें, आपने सर से प्रश्न किया पर मैंने जवाब देदिया।
सादर
Subhash Neerav..ऐसा कोई फार्मूला नहीं है कि इनमें से किस स्वरूप की लघुकथा अच्छी होगी। परन्तु लेखक समाज की बात करता है, समाज में मनुष्य है, उसका परिवार भी आ जाता है। साथ साथ लेखक अपने समय की बात भी करता है। जैसा कि मैंने कहा पहले भी कि समाज का कोरा यथार्थ या सत्य ही साहित्य नहीं हो सकता। उसे साहित्यिक यथार्थ में बदलने के लिए आपको कल्पना का सहारा लेना ही पड़ेगा, वह भी कोरी कल्पना का नहीं, रचनात्मक कल्पना का !

Anagha Joglekar.. प्रणाम आदरणीय
क्या मात्र सार्थक संवाद लघुकथा नही बन सकते?
मैंने एक shortest लघुकथा पढ़ी थी जिसमे मात्र 2 पंक्तियाँ थीं।
उदाहरणार्थ खलील जिब्रान जी की 2 संवादों की लघुकथा 'आजादी'।
क्या ऐसे में कथ्य की आवश्यकता नही होती?
Subhash Neerav ..'संवाद शैली' भी लघुकथा की एक परिपक्व और लोकप्रिय शैली रही है। इस शैली में बहुत सारी बेहतरीन लघुकथाएं हमें पढ़ने को मिलती है। अब रही बात दो वाक्यों यानि दो संवादों वाली लघुकथा की तो क्या उसमें 'कथा' भी समाहित है या सिर्फ़ एक स्थिति या बात 'लघु' के रूप में दे दी है, देखना यह होगा।
Subhash Neerav रमेश बतरा कि 'कहूं कहानी' भी पढ़ें !
Anagha Joglekar ..आजादी by खलील जिब्रान
उसने कहा, "किसी गुलाम को सोते देखो तो जगाओ मत। हो सकता है वो आजादी का सपना देख रहा हो
"अगर किसी गुलाम को सोते देखो तो उसे जगाओ और आज़ादी के बारे में बताओ।" मैंने कहा।
ये मात्र दो संवाद हैं लेकिन सारगर्भित।
इसमें तो कोई कहानी है ही नही। फिर भी यह श्रेष्ठ लघुकथा मानी जाती है।
तो क्या संवाद के साथ कहानी होना आवश्यक नही?

Suneel Verma.. लघुकहानी और लघुकथा..!
नाम एक जैसे हौने की वजह से अक्सर लेखकों को भ्रम में रखते हैं| फेसबुक के ही अन्य समूह 'फलक' पर आने वाली लगभग हर रचना 'लघुकहानी' होती है| लेखक एक पात्र को केन्द्र में रखकर उसे पीड़ित/आदर्श बनाकर उसकी पूरी जीवनी लिख दी जाती है, जिसे पाठकों के खूब 'लाईक्स' मिल जाते हैं|
लाईक्स की अधिकता की वजह से ये 'लघुकहानियाँ' जब लघुकथा के प्रति समर्पित अन्य समूहों में भी पोस्ट की जाती है तो वहाँ उपस्थित लेखकों को भ्रमित करती हैं| वे इस 'लाईक्स' के फेर में 'लघुकथा' का सही स्वरूप भूल जाते हैं| इस परिस्थिति में हम लघुकथा लेखकों के लिए आपके कोई सुझाव...!!

Rupendra Raj ..जी बिल्कुल मै आपकी बात का समर्थन करना चाहूंगी, पूरी जीवनी को.फ़्लैश बेक मे कह देना भी कहाँ तक उचित है ससम्मान यह प्रश्न भी आपके प्रश्न मे जोड़ना चाहती हूँ।

Anagha Joglekar ..मेरा प्रश्न भी इससे जुड़ता है कि कथा लिखते लिखते अचानक से भूतकाल में जाना और फिर किसी आवाज या वस्तु के गिरने से वर्तमान में आना और पुनः कथा वहीं से शुरू करना जहाँ से भूतकाल में गए थे, क्या कथा के लय को नही तोड़ता?
Rachana Agarwal Gupta.... किसी अन्य ग्रुप का नाम mention ना ही किया जाये तो बेहतर होगा सर।
Suneel Verma...हम यहाँ किसी 'व्यापारिक प्रतिस्पर्धा' के लिए चर्चा न करके...विधा संबंधित बातें कर रहे हैं|
और फिर मेरे सवाल में उस समूह के लिए कुछ आपत्तिजनक बात भी नही है
Rachana Agarwal Gupta ..जी, मैंने सिर्फ अपनी बात राखी आगे आप मुझसे कहीं ज्यादा अनुभवी हैं।
सादर।
Subhash Neerav ..वर्तमान में 'लघु कहानी' जैसी कोई विधा नहीं है, ऊपर भी कह आया हूँ कि आज से 35-40 साल पहले इसे लेकर खूब वाद विवाद चला था। आज कहानी है या लघुकथा। कहानी को अंग्रेजी में शार्ट स्टोरी कहते है, यह उसी का अनुवाद हो सकता है। फेसबुक पर निजी वॉल अथवा ग्रुप्स में मिले लाइक्स किसी रचना के अच्छे होने का प्रमाण पत्र नहीं होते। जहाँ तक कथा में फ्लैश बैक में जाने की बात है, कहानी, उपन्यास और फिल्मों, टीवी सीरियलों में बखूब इस्तेमाल होता है, वर्तमान की बात करते करते यदि भूतकाल की किसी बात का उससे कोई लिंक है और उसका हस्तक्षेप होना उपयोगी लग रहा है तो इसे दिया जा सकता है, पर जहाँ यह कहानी या उपन्यास में सहज रूप में आता है, लघुकथा में थोड़ा मुश्किल होता है। पर लघुकथा में बहुत से लेखकों ने इसका प्रयोग किया है और वे सफल भी हुए हैं। यह रचनाकार के रचनात्मक कौशल पर ही निर्भर करेगा कि वह लघुकथा में इसे किस तरह समाहित करे कि वह कथा की गति में व्यवधान न बनें।
Anagha Joglekar.. धन्यवाद सर।
लेकिन क्या लघुकथा भूतकाल से ही आरम्भ नही की जा सकती?
Subhash Neerav ..कथ्य की मांग क्या है, यह देखना होगा।
prerna Gupta आदरणीय सादर नमस्कार। आज कथ्य को लेकर मेरे मन में बहुत बड़ा प्रश्न बन गया है। मेरी समझ में सारे कथ्य देशव्यापी हैं। चाहे वो नारी विमर्श हो, भ्रष्टाचार, बाल मनोविज्ञानिक और भी बहुत सारे ... अनेकानेक। उन्हीं पर रचनाएँ की जा रही है। आज ही नहीं मुंशी प्रेमचंद्र जी के जमाने से उन्हीं सारे कथ्यों पर लिखा जा रहा है। मैं ये समझती हूँ कि मौलिकता शिल्प में होनी चाहिए। मौलिकता हमारे विचार और हम भावनाएँ कैसे व्यक्त कर रहे हैं, उसमें होनी चाहिए। लेकिन जब लोग ये कहने लगते हैं कि एक ही कथ्य पर तुमने लिख दिया है। ऐसे में क्या करूँ? जबकि वही घटनाएँ हमारे आस-पास भी घटती हैं। ये बात मैं समझ नहीं पा रही हूँ, कृपया मार्गदर्शन कीजिए। सादर।
Varsha Agarwal सही कहा प्रेरणा जी आपने,
पिछले दिनों एक लघुकथा ग्रुप में डाली तो किसी ने कहा ये पढ़ी हुई है।मैंने पूछा कहाँ?ये तो कल ही लिखी गई है तो उन्होंने कहा बहुत दिन पहले मैंने अखबार में पढ़ी थी इसी तरह की।अब उनसे ये पूछिये आप मध्यप्रदेश में रहती हैं मैं उत्तरप्रदेश में।अधिकांशतः रचनाएँ आदि उस क्षेत्र के लोकल पेज पर छपती हैं।फिर यहाँ तो स्टेट का अंतर था।मुझे समझ नहीं आया मैंने कैसे कॉपी की रचना?
Subhash Neerav विषयों का मौलिक होना कोई जरुरी नहीं है, विषय पुराने भी हो सकते है, बिलकुल नये भी। भारत में दहेज की समस्या पर सैकड़ों हजारों कहानियाँ, उपन्यास लिखे गये होंगे, आज भी लिखे जा रहे हैं। इसका अर्थ यह नहीं कि यह विषय अपनी प्रासंगिकता खो बैठा है। मेरे मित्र रमेश बत्तरा ने भी इस 'दहेज' के कोढ को लेकर एक कहानी लिखी थी -दूसरी मौत। जब कि वह जानते थे कि इस विषय पर उनसे पहले बहुत कुछ लिखा जा चुका है। पर उन्होंने फिर भी यह विषय उठाया और एक सफल कहानी लिखी। बस, उनका इसे लेकर एक नया विजन था, नया दृष्टिकोण इसलिए वह पहले लिखी कहानियों से अलग दिखती थी। बाद में उन्होंने स्वय ही इस कहानी का नाट्य रुपान्तर किया और वह दिल्ली सहित कई जगहों पर खेला गया। हाँ लेखका शिल्प उसका कहन मौलिक हो सकता है। एक बार राजस्थान के एक बड़े लेखक विजयदान देथा की कहानी पर से उनका नाम हटाकर पाठकों से पूछा गया कि पढ़कर बतायें कि यह कहानी किस लेखक की हो सकती है। तो जानते है, करीब 80 प्रतिशत लेखकों ने सही बताया कि यह विजय दान देथा की कहानी है। कारण विजयदान देथा की जो किस्सागोई की मौलिक शैली रही है, उसे देखते हुए पाठकों ने तुरंत पकड़ लिया।
Savita Mishra एक कथा में विरोध हुआ था एक ग्रुप में, तो आदरणीय वरिष्ठ ने कहा कि आप कभी वेश्या से मिले हैं? नहीं मिले फिर भी सब इस कथा पर टिप्पणियां दें रहें कि यह नहीं हो सकता।
कुल मिलाकर बात यह कि हम गृहणियों को तो कथा लिखनी ही नहीं चाहिए फिर!! क्योंकि हम तो एक दायरे में रहतें, सुनी सुनाई समाचारों को सच मान कथा लिख डालते। इस पर जवाब आपका क्या है भैया??
Subhash Neerav इन गृहणियों ने भी साहित्य की झोली अमीर की है। यह वे भूल जाते हैं। स्त्री पुरुष से ज्यादा मोर्चों पर जीवन में जूझती है, उसके अनुभव पुरुष से अधिक होते हैं। वह चीजों को पुरुष की बनस्पित ज्यादा बारीकी से छांनना जानती है । जो स्त्रियां अपने घर परिवार और दफ़तर आदि की जिम्मेदारियों से जूझती हुई भी सृजनरत है, साहित्य लिख रही हैं, उन्हें मैं सलाम करता हूँ। लेखन सिर्फ़ और सिर्फ़ पुरुषों की बपौती नहीं है।
Usha Bhadauria आजकल जब भी लोग लघुकथा लेखन से असंतुष्ट होकर कुछ लिखते हैं तो सबसे पहले यही लिखेंगें कि फेसबुक और सोशल मीडिया पर लेखकों की बाढ़ सी आ गयी है। गृहणीयों ने भी अब तो लिखना शुरू कर दिया है ..etc...
वैसे लेखक बढ़ गए हैं उसमें बुरा ही क्या है? अगर लोग अपने विचारों को लेखन के साथ ला रहे हैं । पर इस तरह से बोलने वालों के ज़रूर विचार पता चलते हैं कि महिलाओं की प्रगति उनसे आज भी नहीं देखी जाती चाहे खुद उन्होंने महिलाओं के पक्ष में कितना कुछ लिख डाला हो।
Savita Mishra वह पक्ष नहीं है उषा बहना वह औरतों की बेचारगी लिखते हैं। लेकिन हम सब लिख लिखकर उस बेचारगी से बाहर निकल आये हैं।
Usha Bhadauria हाँ, यही होगा। actually, वे अपने द्वारा किये गए अन्यायों को ही लिख देते होंगे । थोड़ा घुमा कर ..😊😊
Anagha Joglekar मेरा एक प्रश्न और है कि अक्सर कहा जाता है कि लघुकथा में कुछ अनकहा होना चाहिए जिसपर पाठक स्वयं विचार करें।
परंतु जब ऐसा अनकहा कुछ लिखा जाता है तो पाठक स्वयं ही कहते हैं कि कथा कुछ अधूरी सी जान पड़ती है।
ऐसे में लेखक कैसे लिखे? पाठकों के लिए या मानकों के लिए?
Rachana Agarwal Gupta सही है, जहाँ पाठक खुद कनेक्ट हो पाते हैं, वहाँ तो सही, पर जहाँ विषय थोड़ा हटकर हो और पाठक उस अनकहे को ना सुन पाये तो कथा पर प्रश्नवाचक चिन्ह लग जाते हैं
Subhash Neerav ऐसा कविता में बहुत कहा जाता है कि कविता वही नहीं है जो सामने है, वह भी है जो सामने नहीं है यानी जो कवि ने नहीं कहा। कहा जाता है कि कविता के बीच की पंक्तियों का गैप भी बहुत कुछ बोलता है, जहां शबद नहीं होते। तो हम सब जानते हैं कि 'मौन' अपने आप में कितनी बड़ी भाषा है ! यह बात लघुकथा में भी कही जानी शुरू हो गई है कि लघुकथा में कहे से अधिक 'अनकहा' महत्व्पूर्ण होता है। मैं इसे दूसरे रुप में लेता हूँ। यह सही है कि हम रचना करते समय सबकुछ साफ़ साफ नहीं लिखते, बहुत कुछ छोड़ते भी चलते हैं। यह छोड़ना ही अनकहा है। अच्छा लेखक अपने लिखे हुए से अधिक अपने अनकहे में बोलता है और पाठक को उस अनकहे तक पहुंचाने की कोशिश करता है यानी जो उसने लिखा है, वहीं से अनकहे तक की यात्रा शूरु होती है। ऐसा क्यों होता है कि कोई लघुकथा या रचना पढ़कर सोच में पढ़ जाता है ! अपने स्तर पर उसका निरीक्षण/परीक्षण करने लगता है। उसे तौलने लगता है। उसे अपने जीवन अथवा अपने आसपास के जीवन से मिलाकर देखता है। यह स्थिति पाठक की कमोबेश, मेरे दृष्टि में उसी 'अनकहे' तक पहुंचने की होती है !
Kanak K. Harlalka सर, क्या आध्यात्मिक या दार्शनिक कथ्य लघुकथा की विषयवस्तु नहीं बन सकती ?
Subhash Neerav बन सकते हैं, बस लेखक में सामर्थ्य होना चाहिए !
Kumar Gourav लघुकथा की गुणवत्ता कैसे तय होती है । कथ्य से या शिल्प से ?
चित्रा राणा राघव...क्या यह स्वाद का मामला नहीं है? ☺️
मानसिक और शारीरिक खुबसूरती जैसा अंतर प्रतीत होता है। दूसरे की चॉइस है।
Anuradha Saini हाँ व्यक्तिगत रूप से तो यह स्वाद का मामला ही जान पड़ता है परन्तु हकीकत ऐसी होती नही दिख पड़ती है तो यह सवाल उठना लाजिमी है वरना तो इसी तर्ज पर लेखन भी व्यक्तिगत स्वाद का ही मामला बन जाता है अत: सवाल देखा जाये तो सही है |
Savita GuptaGroup admin क्यों न हम इसका उत्तर अपने अतिथि से लें और फिर कभी परस्पर विमर्श करें।
Subhash Neerav गुनवत्ता किसी एक तत्व से निर्धारित नहीं होती है। जब हम स्वादिष्ट भोजन करते हैं तो पूरे भोजन कि तारीफ़ करते है। यानि उसे बनाने में जो जो वस्तु का इस्तेमाल हुआ है, वह अपने सही अनुपात में हुआ है और सही ढंग से पकाया गया है, तभी वह भोजन स्वादिष्ट होता है। दूसरी बात, ज़रुरी नहीं कि जो किताब मुझे बहुत अच्छी लगी है और मैं आपको सुझाव देता हूँ कि इसे अवश्य पढें, आपको पसन्द आएगी, पर आप अपने टेस्ट के हिसाब से उसे तौलते हैं, और जब उस पर उसे खरा नहीं पाते तो आप कहते हैं कि क्या खराब किताब मुझे सजेस्ट की गई ! यह मानकर चलें कि बहुत अच्छा और श्रेष्ठ पढ़ने के लिए आपको उससे कई गुना खराब भी पढ़ना पड़ता है।
sumeet Chaudhary सर जी... इन दिनों कुछ प्रकाशक रुपये लेकर लघुकथा संकलनों में कुछ भी छाप देते हैं.... साहित्य का व्यवसायीकरण... इसके अलावा... चेहरा देखकर वाहवाही की परंपरा ... लघुकथा जैसी उठती हुई विधा को कितना लाभ या नुक्सान पहुंचा रहा है??
Anuradha Saini "चेहरा देखकर वाह वाही की परम्परा" सटीक प्रश्न किया है आपने
Neeta Saini यह सच मे चिंता का विषय है ।
Subhash Neerav सुमीत जी, यह सिर्फ़ लघुकथा विधा की पुस्तकों के संग ही नहीं हो रहा, कविता, कहानी, उपन्यास के साथ भी हो रहा है। इन प्रकाशकों को हम मुट्ठीभर लेखकों ने ही बिगाड़ा है। यदि कोई लेखक पैसे देकर किताब छपवाने में राजी है तो वहक्यों नहीं छापेंगे, यह तो उनका व्यवसाय है। वह उसकी गुणवत्ता पर क्यों जाएंगे ? मेरा पहला कहानी संग्रह 'दैत्य तथा अन्य कहानियाँ' 1990 में आया था आत्माराम एंड संस से(हिन्दी का एक बड़ा प्रकाशक)। इस पर हिन्दी अकादमी ने 5000 रुपये का अनुदान दिया था। इसके बाद 13 साल बाद 'औरत होने का गुनाह' मेधा से आया। इस बीच बहुत से प्रकाशकों ने कहा कि आप नये हैं, पहला संग्रह किसी ने अनुदान मिलने के कारण छाप दिया है, इसलिए आपको अभी दो तीन पुस्तकें पैसा देकर छपवानी पड़ेगी। मैंने साफ़ इन्कार कर दिया। 13 साल बाद खुद प्रकाशक मेरे पास आया और मेरा संग्रह छापने को उत्सुक हुआ। पैसा मैंने नहीं दिया, पैसा उसने भी नहीं दिया, हाँ तीस चालीस प्रतियां अवश्य दीं। तब से मैंने कभी फूटी कौड़ी भी अपनी किताब के प्रकाशन में खर्च नहीं की। भले कई बरस किताब न छपे। तो सुमीत जी, यह तो लेखकों को ही सोचना है कि वह पैसा देकर छपना पसंद करेंगे या बिना पैसा देकर। ऐसा नहीं है कि हर प्रकाशक पैसा लेकर ही छाप रहा है, कुछ प्रकाशक यदि कृति दमदार है तो बिना पैसा लिए भी छाप रहे हैं, पर वे लेखक को कुछ दे नहीं रहे, सिवाय कुछ प्रतियों के !
Sumeet Chaudhary अच्छे लेखक कभी भी पैसा देकर नहीं छपवायेंगे सर जी.... आपने जो खुदकी मिसाल दी है... वो अनुकरणीय है.... फिर से दिल से साधुवाद....
पता नहीं कितना असर करेगी.... किन्तु मेरी अपील यही है सभी से... पैसा देकर ना छपवायें.... क्योंकि आपकी अपनी कुछ अस्तरीय रचनाएँ भी एक दिन कहीं पूरी की पूरी किताब को साहित्य की दुनिया से ना हटा दे....
कुछ प्रकाशक जैसे मधुदीप जी सर हैं.... वे बहुत सोच समझ कर प्रकाशित करते हैं....
Neena Singh Solanki नमस्कार सर
मेरा प्रश्न यह है कि एक ही लघुकथा एक जगह सराही जाती है और दूसरी तरफ उसे नकार दिया जाता है । लिखने वाला समझ ही नहीं पाता कि किसे सही माने ।
6
Manage
Like
Like
Love
Haha
Wow
Sad
Angry
· Reply · 9h
Arvina Gahlot
Arvina Gahlot विचारणीय प्रश्न है
1
Manage
Like · Reply · 9h
Rachana Agarwal Gupta
Rachana Agarwal Gupta सराहने वालों और नकारने वालों की गुणवत्ता भांप कर, इस समस्या का हल मिल सकता है शायद।
3
Manage
Like · Reply · 8h
Madhu Singh
Madhu Singh तुलसी इस संसार में, भांति भांति के लोग।
सबसे हस मिल बोलिए, नदी नाव संजोग॥
3
Manage
Like · Reply · 7h
Neeta Saini
Neeta Saini इस भेद को मुझे भी समझना है ।
Manage
Like · Reply · 7h
Subhash Neerav
Subhash Neerav इसमें ज्यादा चिंतित होने की क्या बात है। हर रचना हर किसी को पसंद ही आये, यह ज़रूरी तो नहीं। मुझे आज भी असगर वजाहत की कई लघुकथाएं बिल्कुल पसंद नहीं आतीं,पर साहित्य का एक बड़ा तबका वाह बाह करता फिरता है। लेखक को इसकी चिंता नहीं करनी चाहिए कि फलां तारीफ़ कर रहा है तो दूसरा उसको सिरे से नकार रहा है !
Bharti Kumari आदरणीय मेरा प्रश्न लेखकीय प्रवेश को लेकर है। क्या वाचक शैली में लिखी गई लघुकथा दोषपूर्ण है? स्वगत संवाद, डायरी, संस्मरणात्मक शैली पर भी मार्गदर्शन करें।
Subhash Neerav वाचक से आपका तात्पर्य मौखिक से है क्या ?
Bharti Kumari नहीं 'मैं' शैली में लिखी गई।
Janki Wahie मैं कई बार ये देखती हूँ कि कई लघुकथाएँ प्रारम्भ होने ही अपना अंत प्रकट कर देती हैं। इस तरह की लघुकथाएँ कहाँ तक लघुकथा के साथ न्याय करती हैं?
मेरा प्रश्न यही है सर जी।
Kanak K. Harlalka सर, जब हम फ्लैश बैक में कथा लिखते हैं तो अन्त पहले आ जाता है ।ऐसी स्थिति में क्या करना चाहिए ँ
Subhash Neerav यह अच्छी रचना के गुण नहीं है। यदि सबकुछ पहले ही पता चल गया तो फिर रहा क्या जानकी जी ! कनक जी, चाहे किसी भी शैली में लघुकथा लिखो, चाहे उसमे फ्लैश बैक हो, या संवाद शैली हो, या डायरी शैली हो या वर्णात्मक शैली, अंत तो अंत में ही आना चाहिए। यही तो लेखक का कमाल या रचना कौशल होता है, जो निरन्तर अभ्यास से आता है।
Janki Wahie सौ प्रतिशत सहमत हूँ सर जी।
Prerna Gupta आदरणीय, हाल ही मैंने एक लघुकथा लिखी थी "सोने की बिल्ली" जो कि नितांत मुझसे जुड़ी हुई घटना थी। जिसे मैंने लघुकथा में ढालने का प्रयास किया। जिसका कथ्य वरिष्ठ रचनाकार भगवती चरण वर्मा जी की कहानी "प्रायश्चित" से मिल गया। जब लोगों ने उसका लिंक दिया। तब मुझे भी पढकर लगा कि कहीं न कहीं कथ्य में समानता है। जबकि हम सारा साहित्य नहीं पढ पाते और ऐसी बातों से हम अनभिज्ञ रहते हैं। ऐसी समानता के लिए क्या करें ? क्या ऐसी कुरीतियों पर न लिखें। जैसे मंगली कन्या का पीपल के पेड़ से विवाह, काले कुत्ते से विवाह ...।
सादर।
*सोने की बिल्ली*
फूलों से महकता घर-आँगन मेहमानों की हंसी-ठिठोली से गूँज रहा था | बसंत पंचमी के उत्सव के बीच हल्दी की रस्म की तैयारियाँ भी चल रही थीं | सहेलियों के साथ हँसती-खिलखिलाती पंखुरी सीढियाँ उतरती चली आ रही थी, तभी उसका पाँव बिल्ली के बच्चे के ऊपर जा पड़ा, जो छत का रास्ता भटक कर आँगन की सीढ़ी के कोने में जा दुबका था | वह खुद को सम्हालती, इतने में बच्चा भागने की कोशिश में लुढ़कता हुआ नीचे हल्दी घुली परात में जा गिरा | पंडितजी चिल्ला पड़े, “अरे बिटिया सम्हल के ... |”
परात की कगार से चोट खाकर वह मूर्छित हो गया। पंखुरी जल्दी-जल्दी सीढियाँ उतरती धम्म से वहीं पर जा बैठी और हल्दी से सने उस बच्चे को उठाने का प्रयास करने लगी | मगर उसकी गर्दन एक ओर लुढक गयी।
वहाँ सन्नाटा छा गया | गंभीर स्वर में पंडितजी बोल उठे, “राम-राम ! यह तो बड़ा अपशगुन हो गया |”
समय की नजाकत देखकर पिताजी ने फ़ौरन माली-काका को बुलाया और उसे वहाँ से हटाने का इशारा किया | वह उसे बोरे में डालकर कहीं ले गये |
उनके जाते ही पंखुरी अवरुद्ध कंठ से बोली, "अब क्या होगा पिताजी ?”
पंडितजी बोल पड़े, “होना क्या है बिटिया | सोने की बिल्ली बनवा कर दान कर दिया जायेगा, सारा पाप धुल जाएगा | कहते हुए उनके होठों पर मुस्कान तैर गयी |
पंखुरी ने पिताजी का हाथ थाम लिया और काँपते स्वर में बोली, “नहीं चाहिए मुझे वो सोने का हार, जो आपने मेरे लिए बनवाया है|”
उनकी आँखें भर आईं |
“माना कि सोने की बिल्ली दान करके हम पाप मुक्त हो जायेंगे, लेकिन पिताजी क्या इस अपराध-बोध से कभी हम मुक्त हो पाएंगे?"
इतने में बाहर से माली काका की आवाज आई, “ओ पंखुरी बिटिया ! जरा इधर तो आना ... |”
सभी की निगाहें उधर ही घूम गईं |
उनके हाथों में हल्दी से लिपापुता बिल्ली का वही बच्चा था, जो अब अपनी कंचे जैसी चमकती आँखों से टुकुर-टुकुर देखता म्याऊँ-म्याऊँ किये जा रहा था | पंखुरी ने झट उसे अपनी बाहों में भर लिया और चिहुँक कर बोल पड़ी, “पंडितजीSS देखियेSS ! लौट आई हमारी ये सोने की बिल्ली |”
पंडितजी का चेहरा उतर गया और घर-आँगन मंगलगान से गूँजने लगा |
मौलिक एवं स्वरचित
प्रेरणा गुप्ता – कानपुर – यू पी
22 - 1 - 2018
आदरणीय इतनी लम्बी पोस्ट के लिए क्षमा कीजिएगा। 🙏
भगवतीचरण वर्मा :: :: :: प्रायश्चित :: कहानी
Subhash Neerav कथ्य में समानता सम्भव है आ जाए, पर यदि उसका ट्रीटमेंट, उसका विजन भिन्न है तो ऐसी बातों से नहीं घबराना चाहिए। मेरे पास खुद ऐसे कई उदाहरण हैं। मेरी लघुकथा 'बारिश' (हंस में प्रकाशित) का जो रूप अब है वह पहले ड्राफ़्ट में नहीं था। पहल डाफ़्ट में एक बूढ़ा अपनी झोपड़ी में बारिश से भीगते एक लड़का लड़की को प्रश्रय देता है और खुद झोपड़ी के बाहर बारिश में बैठकर भीगता रहता है और अंत में जब बारिश रुक जाती है और लड़का-लड़की जाने लगते हैं तो वह उनसे कुछ पैसों की अपेक्षा रखता है। इस पर बलराम अग्रवाल ने कहा कि उस गरीब बूढ़े ने तुम्हारा क्या बिगाड़ा कि उसके चरित्र को तुमने यूं दर्शाया? मुझे बलराम अग्रवाल की बात सही नहीं लगी। मैंने यही लघुकथा अपने एक पंजाबी लेखक बलविंदर बराड़ को पढ़वाई। उसने बताया कि नीरव, तुम्हारी लघुकथा का अंत पंजाबी की प्रख्यात लेखिका अजीत कौर की कहानी 'पांच रुपये का काम' से बहुत मिलता है और तुम चूंकि पंजाबी से हिन्दी में अनुवाद करते रहते हो तो तुमपर आरोप लग सकता है। तब मैंने अजीत कौर की वह कहानी पढ़ी और मुझे लगा जो बात मैं कहना चाह रहा हूं, वह तो अजीत कौर कई साल पहले कह चुकी हैं यानी यह संयोग ही था। इसलिए मैंने उस लघुकथा पर फिर काम किया और वह एक यादगार लघुकथा बनी।
Prerna Gupta आदरणीय Subhash Neerav ji, आपका बहुत-बहुत शुक्रिया। आपके मार्गदर्शन से मेरा मनोबल बढा। क्योंकि मौलिक रचना के लिए नकल का आरोप किसी भी तरह से स्वीकार नहीं किया जा सकता। क्या मैं भी अपनी इस कथा में कुछ परिवर्तन करूँ। कृपया अपना सुझाव अवश्य दीजिएगा। सादर आभार आपका।
मधु जैन ..महिला सशक्तिकरण,भ्रूण हत्या, वृद्धाश्रम,आदि विषयों पर बहुत सी लघुकथा लिखी गई है विषय एक ही लेकिन शिल्प अलग होने पर भी कहा जाता है मौलिक नहीं है कृपया बताए मौलिक की परिभाषा क्या है?
Subhash Neerav मधु जी, यह बात मैं ऊपर भी कह चुका हूँ कि विषय मौलिक नहीं हुआ करते। रचना का शिल्प, उसका ट्रीटमेंट मौलिक हुआ करता है।
Kalpana Mishra गणतंत्र दिवस की हार्दिक शुभकामनाएं आदरणीय।
जब हम लघुकथा लिखते हैं ,वह कहीं न कहीं समाज में घटित होती हैं। यानि सत्य होती हैं।
पर कोई यदि टिप्पणी कर दे कि, सत्य घटना को लघुकथा में नही ढालना चाहिये,तो क्या करें? कृपया मार्गदर्शन करें🙏
Subhash Neerav इस बारे में भी मैं ऊपर जवाब दे चुका हूँ। समाज की सत्य घटना अखबार की खबर हो सकती है, साहित्यिक रचना बनने के लिए उसे साहित्यिक यथार्थ में रूपान्तरित करना पड़ेगा, रचनात्मक कल्पना का सहारा लेकर। आप घटना नहीं रचना लिख रही हैं यह ध्यान रखना होगा !
Kalpana Mishra जी मैनें यही किया है (रचनात्मक कल्पना का सहारा )
पर फिर भी कई लोग इसे समझ नही पाते।
मार्गदर्शन करने के लिए बहुत बहुत धन्यवाद आदरणीय🙏
Ravi Yadav आदरणीय जी सादर प्रणाम।
मेरा सवाल-क्या आप वरिष्ठ व नवोदित लघुकथाकारों में सामंजस्य का अभाव महसूस करते हैं, अगर हाँ तो कैसे और अगर नहीं तो कैसे?
Subhash Neerav जी, रवि जी ! कुछ बरस पहले तक तो इस सामंजस्यता का बहुत अभाव दीखता था। न बड़े लेखक नये लेखकों से संवाद रचाना चाह्ते थे, न नये लेखकों में इतना धैर्य था कि वे वरिष्ठों की बात पर तवज्जों दें। कुछ वर्षों से फेसबुक के आने से कह लो या कुछ और, कि दोनों के बीच परस्पर संवाद की स्थितियां बनी हैं। नि:संदेह इसमें कुछ फेसबुक पर सक्रिय लघुकथा के ग्रुप्स को श्रेय जाता है और कुछ मेरे वरिष्ठ और समकालीन साथियों को जैसे मधुदीप जी, बलराम अग्रवा और अशोक भाटिया। पंजाबी लघुकथा लेखन में यह अभाव 35-40 वर्ष पहले भी नहीं था और न आज है। आज भी वहाँ वरिष्ठ लेखक नयों से स्वयं संवाद रचाने की पहल करते हैं, उनकी सुनते है, उन्हें वाजिब सलाह देते हैं, जिला स्तर पर त्रैमासिक लघुकथा गोष्ठियां करवाते हैं, अंतरराज्यीय लघुकथा सम्मेलन करवाते है जिनमे वरिष्ठों और नये लेखकों की बहुतायत में भागीदारी होती है।
Savita Gupta.. लघुकथा में नाटकीय तत्व और कविता तत्व की कितनी मात्रा का समावेश मान्य है ? लघुकथा इन गहनों का कितना बोझ सह सकती हैं ?
Subhash Neerav सविता जी, नाटकीय तत्व तो लघुकथा में प्रारंभ से ही रहे हैं। संवाद शैली में लिखी गई या लिखी जा रही लघुकथाएं इसका नमूना हैं। न केवल संवाद शैली बल्कि वर्णनात्मक शैली में आये संवाद भी लघुकथा को नाटकीय गरिमा प्रदान करते हैं। कविता तत्व के प्रयोग भी हुए हैं और सफल हुए हैं। कहानी में कविता जैसी भाषा को लेकर तो खूब रचा गया है। मेरे मित्र और मेरे समकालीन कथाकार व गज़लकार ज्ञानप्रकाश विवेक की कहानियों में बीच बीच में ये कविता तत्व बड़े ही खूबसूरत अंदाज में आपको मिल जाएंगे, इससे कथा में रोचकता और गति आ जाती है। लघुकथा को इन दोनों तत्वों से परहेज नहीं करना चाहिए। ये गहने लघुकथा के लिए बोझ नहींं, बल्कि लघुकथा को और अधिक संप्रेषणीय और मारक बनाने के औजार के रूप में देखता हूँ मैं तो।
Savita Gupta...Subhash Neerav ji, आभार आदरणीय, जिज्ञासा समाधान और मार्गदर्शन हेतु।
Sheikh Shahzad Usmani मुझे भी मेरे सवाल का जवाब यहां मिला। हार्दिक आभार आदरणीय सर जी।
Sunita Khatri आदरनीय गणतंत्र दिवस की शुभकामनाएं |
मेरा प्रश्न है क्या घटित घटना पर आधारित कहानी लघुकथा के दायरे में आती है |
Sumeet Chaudhary आदरणीय सुनीता खत्री जी.... कृपया गणतंत्र शब्द को सही कर दें... करबद्ध निवेदन...
Subhash Neerav क्यों नहीं ? पर फिर यहाँ वही सवाल पैदा होता है कि घटित घटना को लिखना चाह रही हैं या रचना ?
सीमा भाटिया आदरणीय पारिवारिक व्यस्तताओं के चलते लेखन से दूर हूँ थोड़े समय से। इस बीच एक लघुकथा के लिए प्रयास किया, पर संतुष्ट नहीं हो सकी। कई बार तो लगता है कि दोबारा शुरुआत करना बहुत मुश्किल होगा। ऐसे में लघुकथा जैसी विधा से जुड़े रहने के लिए क्या सुझाव हैं ताकि इस अल्पविराम के बाद निराशा हाथ न आए लेखन के प्रयास में?
Subhash Neerav.. एकमात्र सुझाव - खूब पढ़ें। इधर हाल ही में लघुकथा पर तीन बेहतरीन किताबें आई हैं, बलराम अग्रवाल की 'लघुकथा का मनोविज्ञान', दिशा प्रकाशन से 'कालजयी लघुकथाएं' और अशोक भाटिया की बहुत पतली सी, कम कीमत की बहुत महत्व्पूर्ण किताब 'परिन्दे पूछते हैं'। इन्हें पढ़ें। अगर इनमें 'नई सदी की धमक' भी जोड़ लें तो और भी बेहतर होगा क्योंकि उसमेम बिलकुल नई पीढ़ी की श्रेष्ठ लघुकथाओं को रखने का प्रयास किया गया है !
Savita Gupta..आपके विचार से लघुकथा को मंच पर या अंतर्जाल मीडिया पर कितनी सफलता मिलेगी ? इससे विधा का अहित होगा या हित ? जैसे मंच की कविता,गंभीर और अलंकृत गहरी कविता से नितांत भिन्न होती है। वीर रस या हास्य रस के कवि अधिक तालियाँ बटोरते हैं। अब यदि लघुकथा भी मंच पर चढ़ी तब इसके लेखन में बदलाव तो अवश्यम्भावी है। फिर लघुकथा का क्या भविष्य होगा यदि मंच पर वाह-वही के नज़रिये से लिखी जाने लगीं ?
Subhash Neerav.. अंतर्जाल एक साधन के रूप में हमें मिला है। इसका सार्थक ढंग से उपयोग होना चाहिए। फेस बुक से पहले नेट पर ब्लॉग्ज़ की दुनिया की बहुत धूम थी। अच्छे रीडर्स थे, वहाँ मेरे खुद के साहित्य और अनुवाद को लेकर छह ब्लाग्ज़ कई बरस खूब धूम मचाये रहे। साहित्य में लघुकथा भी थी, कहानी भी, कविताएं भी ! पर बाद में फेसबुक आने पर ब्लाग्ज़ की रीडरशिप लगभग खत्म हो गई! दूसरा लघुकथा को मंच की विधा बनाने का प्रश्न है। मेरा विचार है कि यदि हमें लघुकथा का सही ढंग से वाचन करना आ जाए तो यह मंच पर सफल हो सकती है। पर जैसा कि हर चीज के साथ होता है, कि गुण भी होते हैं और अवगुण भी। भय यही रहता है कि अवगुण गुणों पर भारी न पड़ जाएं। पर हमें आशावादी होना चाहिए और इस बारे में प्रयासरत भी !
Sumeet Chaudhary.. एक मित्र से चर्चा हुई थी... कवियों के मंच पर देखा है कि एक कवि एक घंटा कविता पाठ श्रोताओं से रूबरू होते हुए कर देता है... उन मित्र ने लघुकथा सम्मेलनों में भाग लिया था... मैनें भी उन मंचों की तस्वीरें देखी हैं... ज़्यादातर लघुकथाकार पांच मिनट की लघुकथा कागज़ या मोबाइल में देखकर अपनी लघुकथा पढ़ते हैं.... जबकि छोटे मोटे कवि भी ऐसा नहीं करते.... हमारे साथ ऐसा क्यूँ?
Subhash Neerav ...मैंने कई साल पहले से कविता के बड़े मंचों पर जाना छोड़ रखा है। गोष्ठियों संगोष्ठियों में प्राय: जाता रहता हूँ। मुझे लगता है, छोटे से छोटा कवि पूरी तैयारी के साथ आता है और अधिकांश बिना पढ़े ही धाराप्रवाह कविता पढ़ते हैं। पर लघुकथा के साथ ऐसा नहीं है। पढ़कर भी लघुकथा का सही वाचन नहीं कर पाते हैं। कुछ लेखक उभर कर आये हैं जो वाचन पर भी खूब ध्यान देते हैं और वे सफल भी होते हैं मंच से अपनी लघुकथा को श्रोताओं के दिलों में उतारने में। इसमें अभी समय लगेगा।
रचना अग्रवाल लघुकथा में लेखकीय प्रवेश कितना सही है??
Subhash Neerav ...लघुकथा कथा साहित्य की एक सबसे छोटी विधा है। इसमें लेखकीय प्रवेश की संभावनाएं मैं कम ही पाता हूँ। मेरा मानना है कि लेखकीय प्रवेश रचना को बेहतर बनाने के लिए ही होना चाहिए, बेमतलब का प्रवेश इस विधा को नुकसान पहुंचा सकता है !
Sumeet Chaudhary ...//लेखकीय प्रवेश रचना को बेहतर बनाने के लिए ही होना चाहिए// - बहुत बड़ा संशय मिटा....
रचना अग्रवाल... जी लेकिन कई बार लघुकथा में एक सूत्रधार के रूप में लेखकीय प्रवेश देखने में आता है क्या ये मान्य है??
Ravi Yadav ...आदरणीय जी मैं हूँ तो ग़ैरसाहित्यक मगर मैं लेखकों में फेमस होने की जल्दबाज़ी को काफ़ी दिन से महसूस कर रहा हूँ। कहीं न कहीं साधना का अभाव है। आपका क्या कहना है?
Sumeet Chaudhary... सर जी... आप गैरसाहित्यिक हैं कहाँ.... साहित्य को समझने वाले गैर साहित्यिक हो ही नहीं सकते...
Ravi Yadav वो क्या है सुमित भाई मैंने कुछ लिखा नही है सो। अब इतने विशारद लेखकों में मैं तो ग़ैरसाहित्यक ही हुआ न।
Sumeet Chaudhary... Ravi Yadav सर जी... सच कहूं... मुंह पर तारीफ़ अच्छी बात नहीं... किन्तु आप (सभी से तो नहीं) बहत सारे लेखकों से अधिक साहित्यिक हैं... मेरा एक प्रश्न इसी पोस्ट पर था... स्वतंत्र समीक्षक हेतु... उसी के रिफरेन्स में .... सुभाष नीरव सर जी ने जो उत्तर दिया उसे अपनी सोच से जनरल करते हुए..... केवल लेखक ही नहीं किन्तु साहित्य को समझने वाले भी साहित्यिक होते हैं....
साहित्यिक प्रवृत्ति बहुत सारे लेखकों में नहीं होगी... आप में दृष्टिगत होती है....
Ravi Yadav ...सुमित भाई मैं तो इतना जानता हूँ कि जब तक किसी लघुकथा में खुद को गड़ा न दू तब तक वाचन नहीं हो पाता,जहाँ समझ न आये वहाँ लेखक से बात कर लेता हूँ मगर कथा के साथ अन्याय सहन नही होता। जल्दबाजी मुझसे तो कम से कम नहीं होगी औऱ ऐसा मेरे नियमित विश्लेषक भी मुझे कहते रहते हैं।
Sumeet Chaudhary ...Ravi Yadav सर जी... शायद जल्दबाजी में लिखी गयी अधपकी लघुकथाओं ने लघुकथा विधा को सबसे ज़्यादा नुक्सान पहुंचाया है... किसी बिरले लेखक की क्षमता तो हो सकती है कि एक लघुकथा को चार दिनों में परिपक्व कर दे.... किन्तु उनकी देखादेखी कर एक दिन में चार लघुकथाएं देना ज़्यादातर लेखकों के बस की बात नहीं....इस होड़ में बहुत सारे लेखकों से लघुकथा छूट रही है....
मेरी स्मृति में शायद फेसबुक पर ही सुभाष नीरव जी सर की पोस्ट पढ़ी थी कि उन्होंने पिछले वर्ष 6 लघुकथाएं लिखीं.... एक वर्ष में सिर्फ 6 !???!! यह आश्चर्य हो सकता है उनके लिए जिन्हें परिपक्वता का अर्थ जानने की ज़रूरत....
Subhash Neerav ...जी रवि जी, आप सही कह रहे हैं। बहुत से नये लेखकों ने लघुकथा को साहित्य में प्रवेश का शॉर्ट कट समझ लिया है। वे तुरत फुरत लिखते हैं, तुरत फुरत छपना चाहते है और तुरतफुरत ही फेमस होना भी। साहित्य तो साधना मांगता है। कई कई दशक बीत जाते हैं अपने आपको साहित्य में जमाने के लिए। यह जल्दबाजी साहित्य ही नहीं, बल्कि जीवन के किसी भी क्षेत्र में अच्छी नहीं होती। और यहां दूसरी बात, आप खुद नहीं लिखते हैं, पर लिखे हुए को बेहतर से बेहतर ढंग से प्रस्तुत करना चाहते हैं। उसके लिए मेहनत करते हैं। शब्द शब्द की गहराई में जाते हैं, उसके मीटर को पकड़ते है अपनी स्वर लहरियों में, यह भी एक रचने की ही प्रक्रिया है, यानी रचना करने के बहुत करीब की। इसलिए मैं तो आपको गैर-साहित्यकार नहीं मानूंगा ! जो हम नहीं कर पा रहे वो आप कर रहे हैं, रच रहे है अपने स्वर से…
Neerja Thakur... अभिनंदन आदरणीय। लघु कथा को 200 शब्दों में समेटने के कुछ गुर बताइये
Subhash Neerav... मुझे नहीं आते ! मैंने कभी भी शब्द संख्या सामने रखकर कोई रचना नहीं की और न भविष्य मेंं करना चाहूंगा। रचना को उसका सहज आकार लेने देने का मैं हिमायती रहा हूँ। कांटना छांटना और तरासना तो बाद की प्रक्रिया है !
Anagha Joglekar... सर, सभी कहते हैं कि लघुकथा लिखने के बाद उसे बंद डिब्बे में डाल दो। उसे पकने दो।
लेकिन जब हम किसी प्रदत्त चित्र या प्रदत्त विषय पर लघुकथा लिखते हैं तो उसकी समयावधि लघु व निश्चित होती है। ऐसे में लघुकथा को पकने के लिए छोड़ना कैसे सार्थक हो सकता है?
मानती हूँ कि आवश्यक नही कि हम हर विषय या चित्र पर लिखे हीं परंतु वो विषय दिए ही जाते हैं लिखने के लिए। ऐसे में कभी तो मन होता ही है कि कुछ लिखें। ऐसे में क्या करना उचित होगा?
Sumeet Chaudhary... अच्छा प्रश्न... इस प्रश्न पर मेरी भी जिज्ञासा... जबकि थोड़ा बहुत उत्तर पता है किन्तु सुभाष नीरव सर जी के उत्तर से अधिक ज्ञान मिलेगा....
Subhash Neerav... अनघ जी, साहित्य साधना का क्षेत्र है। अच्छी रचना तुरत फुरत नहीं लिखी जाती। अपवाद हो सकता है, पर यह तो वैसे ही हुआ कि इमारत के लिए ईंट की ज़रूरत होती है और ईंट के अच्छी तरह पकने की एक निश्चित समय सीमा होती है। जो लोग साहित्य की इमारत में कच्ची ईंटें लगाना चाहते हैं, वे साहित्य का अहित ही कर रहे हैं। मैं आज भी 38 साल की अपनी लेखकीय यात्रा में ये दो बातें किया करता हूँ-पहली, कि रचना लिख लेने के बाद अपने कम से कम दो (उस विधा के) लेखकों को अवश्य दिखाता हूँ भले ही उनके विचार मुझे ग्राह्य हो या न हो। दूसरा - मैं लिखी रचना को कम से कम एक माह के लिए लिखकर भूल जाता हूँ यानी एक तरफ़ रख देता हूँ। जब उसे कम से कम एक माह बाद पढ़ता हूँ तब मैं उस समय उस रचना का लेखक नहीं होता, एक संपादक अथवा पाठक होता हूँ क्योंकि रचाना लिखते समय जो लेखक के ऊपर नशा होता है, तब तक वह उतर चुका होता है। मुझे अगर उसमे खामियां नजर आती है तो मैं उसपर काम करता हूँ। यदि संतुष्ट करती है तो उसे पाठकों के सम्मुख रख देता हूँ। मैं तो अपनी बात कहता हूँ कि मुझे यह एक कारगर तरीका लगता है।
Sumeet Chaudhary... //जो लोग साहित्य की इमारत में कच्ची ईंटें लगाना चाहते हैं, वे साहित्य का अहित ही कर रहे हैं।//
//रचना लिख लेने के बाद अपने कम से कम दो (उस विधा के) लेखकों को अवश्य दिखाता हूँ भले ही उनके विचार मुझे ग्राह्य हो या न हो। //
// मैं लिखी रचना को कम से कम एक माह के लिए लिखकर भूल जाता हूँ यानी एक तरफ़ रख देता हूँ।//
.... अनुकरणीय बातें....
Sumeet Chaudhary.... सर जी... एक और प्रश्न है... कितने दिनों से परेशां भी हो रहा हूँ... फेसबुक के लघुकथा समूहों की तरह लघुकथा लेखकों के समूह बन रहे हैं... हो सकता है इस कारण से कुछ अच्छे लेखक फेसबुक से अलविदा भी कह चुके हैं.... हर समूह के अपने अपने अंदाज हैं... कोई लघुकथा को किसी तरीके से बताता है तो कोई किसी और .... लेखकों में गुटबाजी .... लघुकथा को लघु-गुट-कथा जैसे बनाता जा रहा है.... मेरे गुट की लघुकथा अच्छी और दूसरे की खराब....
सर जी प्रश्न है कि गुटबाजी वाली कथाएँ.... अगरचे पकने से पहले फल कह दी जाएँ तो लघुकथा का भविष्य क्या होगा???
कभी कभी वरिष्ठ लेखक भी यही करते हैं।
Subhash Neerav... आप अपनेपर भरोसा रखें, जो लिखे भरपूर आत्मविश्वास के साथ लिखें। नये पुराने लेखकों की गुटबाजियां हित की जगह अहित ही अधिक किया करती हैं।
Sumeet Chaudhary ...Subhash Neerav सर जी... सही कहा आपने... किन्तु आपस की लड़ाई से साहित्य का अहित देख परेशां हो जाता हूँ... पता नहीं क्यों???
Seema Jain ...लेखन का स्तर, सफलता को क्या बाज़ारवाद प्रभावित कर पाता है? कल के मानदंड क्या आज पिछड़ेपन की निशानी है? जैसे कल की बेईमानी आज की कुशलता के नाम से जानी जाती है।
Sumeet Chaudhary ...आज के साहित्य की बड़ी समस्या....
Subhash Neerav ...बाज़ारवाद ने किस किस चीज को प्रभावित नहीं किया आज सीमा जी ? उसके दबाव या प्रभाव में रहकर ही लिखना लेखक के लिए एक चुनौती है ! कल का सच आज का सच नहीं रहा है, आज का सच आने वाले समयों का सच नहीं रहेगा। समय के साथ साथ चीजें बदलती रह्ती हैं, पर कुछ चीजें हैं जो कभी नहीं बदलती। आज से बरसों पहले का साहित्य पढ़कर देख ले, तबभी मुकम्मल तौर पर 'मनुष्य और मनुष्यता' को बचाने की बात वो साहित्य करता था, आज के साहित्य की भी यही पुरजोर कोशिश है कि कैसे मनुष्य और मनुष्यता को बचा सकते हैं। जब मैं मनुष्य कह रहा हूं तो इसमें प्रकृति को भी शामिल करता हूँ।
Seema Jain ...सटीक, सम्पूर्ण हर पहलू को समेटे एक सुंदर जवाब के लिए शुक्रिया आदरणीय सुभाष जी!
Neeta Saini ...ऐसा लगता है कि अभी अभी ब्याह कर ससुराल में आई कोई दुल्हन हो लघुकथा । कोशिश में लगी है अपनी जड़ें जमाने की । कोई स्नेह देता है कोई दुत्कार देता है ।
एक ही लघुकथा पर कई लोग वाह -वाही करते हैं तो कइयों के गले से ही नहीं उतरती । इसे क्या समझा जाये ? एक ही लघुकथा पर जब वरिष्ठजन ही एकमत नहीं तो हम नवोदित कैसे समझे इस विधा को ?
Subhash Neerav... सबकी अपनी अपनी सोच और सबके अपने अपने विचार ! पर लेखक की अपनी भी संतुष्टि भी कोई चीज होती है। मेरी कई लघुकथाओं को वरिष्ठों ने सिरे से खारिज किया है पर मेरे भीतर का लेखक आज भी उनसे संतुष्ट है ! और लघुकथा ने अब तक जितनी यात्रा कर ली है, उसमें वह अभी अभी ब्याहकर आई दुल्हन तो नहीं ही है वह !
Varsha Agarwal कितनी बार समूहों में हुई प्रतियोगिता में अच्छी लघुकथाओं के होते हुए भी ऐसी रचनाओं को सर्वश्रेष्ठ लघुकथा कहकर पुरस्कृत किया जाता है जो असल में लघुकथा के एक भी मानक पर नहीं होती।ऐसे में लघुकथा का अस्तित्व भ्रामक नहीं हो जाएगा क्या?
Sumeet Chaudhary... यही तो हो रहा.... कपड़ों की सफेदी सिर्फ मेरे वाशिंग पाउडर में है... यह प्रवृत्ति नुक्सानदेह है... कच्चे को कच्चा कहने के लिए दम चाहिए.... किन्तु अपनी जड़ें जमाने की महत्वाकांक्षा के कारण आत्मविश्वास कम हो रहा..
Rajesh Shaw ....Varsha ji मंच की प्रतियोगिताओ का उद्येश्य लिखने को प्रोत्साहित करना होता है जिसका मूल्यांकन भी साथियों द्वारा ही किया जाता है , मतलब लेखन और समीक्षक का वर्कशाप से अधिक समझने की भूल कर रहीं है आप ।
फिरभी आपका कहना की चुनी गयी रचनाएं एक भी मानक पर नहीं होती तो , आपको इसका एक उदाहरण देने का साहस करना चाहिये वरना आपके शब्द आयोजकों को सिर्फ गाली देने जैसा है ।
सादर
Subhash Neerav ....वर्षा जी, और सुमीत जी, ऐसा हमें भी अपने शुरुआती लेखन में लगता था। तब केवल प्रिंट मीडिया था। जिसे हम अपनी बहुत अच्छी रचना मानते थे वह लौट आती थी, और खराब रचनाओं को वहाँ छपा हुआ पाते थे। खूब किलसते थे, पर धीरे धीरे समझ आ गई कि किसी पत्रिका में छपना ही रचना के सर्वश्रेष्ठ होने का मापदंड नहीं है ! लिखना नहीं छोड़ा और वही पत्रिकाएं जो पहले रचनाएं लौटा दिया करती थीं, बाद में मांग मांगकर छापने लगीं।
Sumeet Chaudhary ....Rajesh Shaw सर जी...पवन जैन जी सर ने आपस में चर्चा करने को मना किया है... इसलिए आपको इनबॉक्स में भेज रहा हूँ....यह कोई भय की बात नहीं क्योंकि इस आयोजन के बारे में बहुत ही बार खुल कर लिखा है मैनें.... नाम सहित....
Anil Makariya ...मैंने कई विदेशी लघुकथाए पढ़ी है ।
मुझे विदेशी लघुकथाओ में विवधता ज्यादा नजर आती है ना सिर्फ विवधता पर उनमे symbolism का प्रयोग किया जाता है जिससे लघुकथा को बड़ी बात कम शब्दों में कहने की ताकत मिलती है ।
पर अगर मैं यही चीज हिंदी लघुकथा में प्रयोग करता हु तो मुझे लोगो की पहली प्रतिक्रिया मिलती है "कहानी realistic नहीं है "
तो क्या हिंदी की प्रतीकात्मक कहानी लघुकथा नहीं होती ?
Sumeet Chaudhary ...सहमत... हिंदी लघुकथा में maturity की कमी है अभी... ज़्यादातर लेखकों में प्रतीकात्मक लघुकथा की समझ अभी होनी बाकी.... अच्छी प्रतीकात्मक रचनाओं पर विचार नहीं होता.... क्योंकि समझने में वक्त लगता... किन्तु कुछ रचनाकारों ने लिखी है...प्रतीकात्मक.... कुछ सालों पहले और आज की स्थिति में .... हिंदी लघुकथा का विकास हुआ है.... पूरी तरह नहीं किन्तु और भी होगा... यही उम्मीद....
Subhash Neerav ....जरूरी नहीं कि जो बिम्ब या प्रतीक आप प्रयोग कर रहे हैं, उसे हर कोई समझ ही ले। वक्त लगता है। मुक्तिबोध की कविता 'अंधेरे में' भी बहुत बाद में समझी गई ! यहां यह बात और जोड़ना चाहूंगा कि आप जिस प्रतीक को रचना में इस्तेमाल कर रहे हैं, क्या रचना की मांग के अनुरूप है भी कि नहीं? प्रतीक रचना को बेहतर और प्रभावी बनाने के लिए प्रयोग किए जाते हैं न कि उसे उलझाने के लिए। मेरी 'मकड़ी' लघुकथा पढ़ें जो आज ग्रुप में दी है।
Rahila Asif ....नमस्कार आदरणीय सर जी!,
मेरा प्रश्न ये है कि बिल्कुल कोरी कल्पना ,जैसे मरने के बाद की बात या आत्माओं आदि को लेकर बनी लघुकथायें साहित्य जगत में किस हद तक स्वीकार योग्य हैं। क्योकिं मैं भी इस बात को लेकर काफी कंफ्यूज हूँ कि एक वरिष्ठ लेखक जहां ऐसी रचना का खुले दिल से स्वागत करते हैं, वहीं दूसरे वरिष्ठ लेखक उसे लघुकथा मानने से ही इंकार कर देते हैं।
Anagha Joglekar ...मैंने भी एक लघुकथा लिखी थी, "फिर दरवाजा हिल उठा" इसमें रूह के माध्यम से तो नही लेकिन कथा में रूह का इन्वॉल्वमेंट है।
लेकिन अमान्य रही
Sumeet Chaudhary अगरचे रचना अच्छी हो.... आत्माओं आदि के प्रतीक से मेरी सहमती.... किन्तु सुभाष नीरव जी सर क्या कहते.... उनका अनुसरण करेंगे...
Anagha Joglekar ...जी सुमित जी। हो सके तो मेरी यह लघुकथा पढियेगा । परिन्दे पर है। आपकी समीक्षा चाहूँगी।
Sumeet Chaudhary ...आद. Anagha Joglekar जी... यदि उसका लिंक भेज सकें तो मैं पढने की ख्वाहिश रखता हूँ...
‎Anagha Joglekar‎ to लघुकथा के परिंदे
17 December 2017 ·
....…फिर दरवाज़ा हिल उठा......
उस सीलन लगे कमरे के दरवाजे पर लगा मैला पर्दा हिल रहा था। अंदर से खाट के चरमराने और करवट बदलने की आवाज़ के साथ ही एक हल्की-सी हूक उठी। लेकिन मेरे पांव बाहर ही ठिठक गए। मैं उल्टे पैर लौट आई। आकर सोफ़े पर बैठी ही थी कि तभी मेरे दरवाज़े पर दस्तक हुई। जानती थी वे आएंगे लेकिन मैंने किवाड़ न खोला। अपनी जगह से हिली तक नहीं। बैठी रही अतीत की यादों में खोई।
वह कमरा मेरी यादों से कभी आज़ाद हुआ ही नही। हाँ, वह वही कमरा था जहाँ हम पहली बार मिले थे। वहीं हमारा प्यार परवान चढ़ा था। वहीं पहली बार हमारे घर किलकारियाँ गूंजी थीं। और वहीं वह मनहूस रात भी आई थी जब इन्होंने मुझे चरित्रहीन कह, अपनी जिंदगी से बेदखल कर दिया था। मेरे दूर के चचेरे भाई, जो उस दिन पहली बार विदेश से आये थे, इनकी अनुपस्थिति में, रात में ही मुझसे मिलने चले आये थे। उनके साथ इतनी रात अकेले मुझे उस कमरे में देख़, इन्होंने मुझे बदचलन समझ लिया था। मैंने लाख समझाना चाहा लेकिन इन्होंने एक न सुनी। मैंने एक आखिरी कोशिश की लेकिन नाकाम रही। और मैं अपना सामान, जिसमें इनका एक लाल रुमाल, इनके कमीज़ के बटन, इनकी एक जोड़ी जुराबें, इनका परफ्यूम, इनके लिखे खत, इनके हंसने का अंदाज़ और इनके साथ बीते दिनों की यादें लेकर, मैं वहाँ से निकल पड़ी।
आज अचानक निक्की की शादी में यहाँ आना हुआ तो पता चला, निक्की का ससुराल इसी मुहल्ले में है। सबके साथ आ तो गई थी लेकिन अपनी उस उजड़ी, वीरान ख़्वाबगाह को देखकर मन पत्थर का हो गया। निक्की की मां से ही पता चला कि मेरे यहाँ से जाने के कुछ समय बाद ही, मेरे गम में, ये दुनिया छोड़ गए थे। जाने से पहले कहते थे, "मैंने अपनी देवी जैसी पत्नी पर शक किया। मैं मर भी जाऊं तो भी यहीं उसका इंतज़ार करूंगा। जब तक वह आकर मुझे माफ़ नही कर देती, मेरी रूह यहीं कैद रहेगी।"
और आज मैं फिर यहाँ आ पहुंची थी लेकिन उस कमरे के बाहर से ही वापस चली आई, उन्हें माफ़ी मिलने की उम्मीद में वहीं टँगा छोड़ कर।
मैं अभी आकर बैठी ही थी कि फिर मेरे दरवाज़े पर दस्तक हुई। जानती थी वे आएंगे..... फिर दरवाज़ा हिल उठा था......
©अनघा
Rachana Agarwal Gupta ...यह रहा सुमीत चौधरी जी, अनघा जी की कथा का लिंक
Subhash Neerav ...हमारे भारत में ही नहीं, बल्कि पूरी दुनिया में जासूसी लेखन अथवा थ्रिलिंग को लेकर कोरी कल्पना पर आधारित लेखन हुआ है। वह पाठक में जुगुप्सा तो पैदा करता है, आपके न कट रहे समय को भी बिता देता है, पर आपको, आपके समाज को देकर क्या जाता है, सोचना यह है। आज बदले हुए समय में ढेरों ऐसे प्रासंगिक और लिखे जाने वाले मुद्दे हैं जो समय की मांग हैं। ये हमारे समाज से जुड़े हैं, उन्हें प्रभावित कर रहे हैं, आम मनुष्य उन्हें समझ नहीं पा रहा है। ऐसे में हमें साहित्य में जमीन से जुड़े मुद्दों को ही रेखांकित करने के बारे में सोचना चाहिए।
Sheikh Shahzad Usmani ...दरअसल अत्याधिक कल्पना और अत्याधिक आदर्शवादिता/भाषणबाजी से बचने को कहा जाता है। उसमें चतुराई से तथ्यों का कुशन लगाते हुए यथार्थ से जोड़ते हुए कथ्य को उभारने की सलाह हमारे वरिष्ठजन व गुरूजन देते हैं।
यहां आदरणीय सर से इसे उदाहरण सहित समझाने का विनम्र निवेदन करता हूं।
Renuka Chitkara ...आ. सर
यदि एक कथा लघुकथा के सभी मानको के अनुसार हो परंतु सिर्फ एक कालखंड दोष हो (जिसे लेकर वरिष्ठों में भी मतभेद है ) तो भी उसे लघुकथा के दायरे में माना जाएगा ? या फिर उसे लघु कथा कहा जाएगा। 🙏
Subhash Neerav ...मैंने ऊपर कहा है, मैं इस कालखंड दोष को मानता ही नहीं।
Jaya Arya ...आदरणीय नीरव जी, जीवन का कटु सत्य लघुकथा में क्यों ग्राह्य नहीं है ? जीवन को दिशा देने हेतु ये रचनाएं लिखी जाती है। कृपया बताएं।
Subhash Neerav ...बहुत सी लघुकथाएं जीवन के कटु सत्य पर लिखी गयी हैं।
Arti Roy ..क्या वर्तनी अशुद्धियों और भय युक्त वातावरण में चित्र प्रतियोगिता या लघुकथा प्रतियोगिता.. साहित्य प्रेमी को अनुकूल माहौल देगा ?
Subhash Neerav ...अपने प्रश्न को स्पष्ट करें ! वर्तनी की अशुद्धियां और भययुक्त वातावरण ?
Arti Roy 1--सादर.. अक्सर..पुरे मनोयोग से कथा लिखी जाती है..पर व्याकरण की अशुद्धियाँ और मात्रा की अशुद्धियों की वजह से कथा सही होते हुए भी साहित्यकार के आलोचनाओं से कथाभाव धुमिल हो जाती है ।
2- वरिष्ठ साहित्यकारों का कहना है..कथा पर दो तीन महीने का समय देना चाहिए.. अगर प्रयाप्त धैर्य का आभाव हो तो लघुकथा नहीं लिखनी चाहिए ..सादर
Anupama Solanki ...लघुकथा में वर्जनाएं क्या हैं
लघुकथा में शब्द संख्या या कहें आकार पर ही निर्भर करती है
लघुकथा के मुख्य छ्ह बिंदु
Subhash Neerav ऊपर दिये मेरे जवाबों में आप अपने प्रश्न का उत्तर तलाश सकती हैं !
Anupama Solanki... सर तकनीकी का क्या अर्थ है
लघुकथा लिखने में क्या कोई तकनीकी होती है?
यदि हां तो क्या ?
Sumeet Chaudhary सर जी... लघुकथा का अंत कैसा हो? प्रश्न में यह जिज्ञासा छिपी है कि आप किस तरह लघुकथा का अंत करना पसंद करते हैं?
Subhash Neerav रचना जिस प्रकार अपना आकार स्वयं लेती है, उसी तरह मेरी रचनाएं अंत भी स्वयं ले लेती रही है। कुछेक अंत नहीं ले पाती तो बरसों अटकी पड़ी रहती है। ऐसा तभी होता है जब हम अपने कंसेप्ट के क्लियर नहीं होते>
Anagha Joglekar ऊपर लिखे मेरे प्रश्न में मैंने इस कथा का जिक्र किया था। यहाँ सबके अवलोकनार्थ पोस्ट कर रही हूं।
प्रश्न था कि संवादों के साथ कहानी का होना कितना आवश्यक?
आजादी by खलील जिब्रान
उसने कहा, "किसी गुलाम को सोते देखो तो जगाओ मत। हो सकता है वो आजादी का सपना देख रहा हो
"अगर किसी गुलाम को सोते देखो तो उसे जगाओ और आज़ादी के बारे में बताओ।" मैंने कहा।
ये मात्र दो संवाद हैं लेकिन.......सारगर्भित।
परंतु इसमें कोई कहानी नही है। फिर भी यह श्रेष्ठ लघुकथा मानी जाती है।
.....तो क्या संवाद के साथ कहानी होना आवश्यक नही?
Sumeet Chaudhary खलील जिब्रान की बातें... रचनाएँ.... बहुत सालों से सुनाई जा रहीं.... किन्तु मेरे मत में .... खलील जिब्रान को आज भी समझने की ज़रूरत....
कुमार आदेश चौधरी 'मौन' नमस्कार सर...
एक प्रश्न मेरा -
लधुकथा के कथानक की संक्षिप्ता के लिए किन किन बातो का ध्यान रखा जाना जरूरी होता है? लघु कथा के मूल तत्वो को भी बताइए
Subhash Neerav जीवन के किसी महत्वपूर्ण क्षण, सूक्ष्म घटना या स्थिति से जुड़ा होगा तो स्वयं ही संक्षिप्तता लिए होगा बशर्ते कि आपमें यह कौशल भी हो कि जो बात कहनी है, उसमें अधिक फैलाव न हो।
Janki Wahie सर जी, अगर एक लघुकथा में दो पात्र घर-परिवार की कुछ पुरानी और कुछ वर्तमान की यादें और बातें कह अपने मन की बाँट रहे हों तो क्या ये लघुकथा क्षेत्र को लाँघ कर कहानी क्षेत्र में प्रवेश कर रही होगी या लघुकथा ही कहलाएगी?
Janki Wahie अर्थात क्या ऐसी लघुकथा में कई विसंगतियाँ मानी जायेगी?
Subhash Neerav ऐसी कुछेक लघुकथाएं आप पढ़ें, आप स्वयं समझ जाएंगी !
Manju Saxena सर....एक प्रश्न है..
क्या लघुकथा व्यंग्यात्मक शैली मे भी लिखी जा सकती है?
Subhash Neerav खूब लिखी जाती रही हैं। हरिशंकर परसाई को पढ़ें !
Usha Bhadauria ...आजकल का एक कथन ...लघुकथा कचरा लिखी गयी ? आखिर यह कचरा क्या है ?
आखिर एक सहित्यिक person, किसी अन्य की रचना या लेखन को कचरा कैसे कह सकता है ।
किसी और क लिए ही सही , पर जब इस तरह के डायलॉग पढ़ते हैं तो लेखन करने में किसकी रुचि रह जाएगी ?
Ravi Yadav ऊषा जी साफ़गोई से कहूं तो कोई नवोदित तो नही कह रहा होगा औऱ किसी वरिष्ठ ने कहा है तो दुर्भाग्यपूर्ण है।
Poornima Sharma एक वरिष्ठ कथा को अच्छा और दूसरा 'बेकार' कह देते हैं।वहां भी एकमत नहीं|
Sharma Divya सर कुछ प्रश्न मेरे भी है..
1-लघुकथा को 200शब्दों में कैसे समेटा जाये।
2-संवाद को कैसे कम किया जाये।
3-आंशिक कालखंड आ रहा है तो क्या लघुकथा नहीं रहेगी।
4-लेखक के विचारों को अभिव्यक्ति के लिए कितनी स्वतंत्रता मिले
5-एक विषय को अगर कोई अपने अनुरूप लिखे तो क्या वो मौलिक नही माना जायेगा।
Subhash Neerav दिव्या जी, अगर आप ऊपर दिये गये मेरे जवाबों को पढ़ें तो आपके इन सभी सवालों के जवाब मिल जाएंगे।
Subhash Neerav पांच बज रहे हैं और प्रश्न भी समाप्त हो गए हैं। कई घंटे लगातार बैठने के कारण मैं भी थक गया हूँ, अब मुझे विश्राम दिया जाए।
Neeta Saini पूरी चर्चा पढ़ें तो लघुकथाओं के विषय मे हमारे मन मे जितनी भी जिज्ञासाएं थी लगभग सभी सवाल जबाब हो चुके हैं ।
हृदय से आभार आपका ।
Subhash Neerav किसी के प्रश्न का उत्तर न दे सका होऊं तो क्षमा करें, क्योंकि प्रश्नों की स्पीड बहुत थी और मेरे उत्तर की स्पीड बहुत कम !
Neeta Saini आप अकेले थे जबाब देने वाले और हम प्रश्न पूछने वाले बहुत लोग । इस हिसाब से आपके जबाब देने की स्पीड बहुत ज्यादा थी ।
आपने बड़े ही स्नेह और विनम्रता से सबके सवालो के जबाब दिए हैं । हम सब आपके बहुत आभारी हैं । बहुत बहुत धन्यवाद सर आपका । अपना स्नेह हम नवरचनाकारों के प्रति यूँ ही बनाये रखें । सादर नमन आपको ।
Subhash Neerav एक बात तो उभर कर आई कि प्रश्न बार बार वही आ रहे हैं, जिनका मेरे पूरवर्ती लेखकों ने पहले ही जवाब दे रखा है। शायद वह मुझसे मेरा जवाब चाहते हों। एक बात कहूंगा कि इन प्रश्नों को देखकर लगता है कि यदि ये प्रश्नकर्ता नये लेखक अशोक भाटिया की पुस्तक 'परिन्दे पूछते हैं' पढ़ लें तो वे दुबारा शायद ये प्रश्न नहीं करेंगे। एक महत्वपूर्ण किताब है ये।
Chandresh Kumar Chhatlani....बहुत-बहुत आभार आदरणीय Subhash Neerav सर जी, मैनें चर्चा में तो भाग नहीं लिया किन्तु आपके प्रत्येक उत्तर को पढ़ कर उसे ग्राह्य करने का प्रयास ज़रूर किया है| यह सही है कि प्रश्न लगभग वही हैं जो पूर्व में भी पूछे गए, लेकिन दृष्टिकोण एवं विचारों की विविधता से सीखने को बहुत मिलता है| सादर,
Suneel Verma... धन्यवाद आदरणीय
आपने सचमुच बहुत समय दिया आज की इस साहित्यिक प्रश्नोत्तरी में। आप सही कह रहे हैं की इस आयोजन में पुराने आयोजनों में पूछे गए प्रश्नो की पुनरावृति हो रही थी जिसका जवाब भी आपने स्वयं ही दे दिया की संभवतः साथी परिंदे आपसे इन सवालों पर आपका अपना निजी दृष्टिकोण जानना चाह रहे थे। यक़ीनन यही बात रही होगी।
दरअसल 'परिंदे पूछते हैं' अपने आप में सम्पूर्ण दस्तावेज है, जो इन जिज्ञासाओं को पूरी तरह से शांत करने में सक्षम है। किन्तु किसी बात को समझाने के सबके अपने तरीके होते है। जाने कब किसकी कौनसे तरीके से कही बात समझ आ जाये। वैसे इन आयोजनों की सफलता हम जिज्ञासु परिंदों के सवालों पर आप वरिष्ठों के धैर्य और स्नेह से ही है। एक बार फिर से बहुत बहुत आभार
Sheikh Shahzad Usmani ..आदाब मुहतरम जनाब Subhash Neerav साहिब।
मेरे कुछ सवाल इस तरह हैं-
१- लघुकथा में एक पल/क्षण/विसंगति की बात चल रही थी। वार्तालाप में या विवरण में उसी से जुड़ी/जुड़ती बातें/विसंगतियां परत-दर-परत आती/खुलती जाती हैं कसावट वाले शिल्प/शैली में ही 250-450 शब्द-सीमा में, तो उसे लघुकथा मानने से इंकार क्यों कर दिया जाता है?
Sheikh Shahzad Usmani २- "आपकी रचना में भाव व कथानक तो अवश्य हैं, लेकिन कथ्य का अभाव है " - इस दोष को कृपया विस्तार से समझाइयेगा और समाधान बताइयेगा।