Tuesday 11 September 2018

गहमर-साहित्यक-यात्रा

गहमर की धरती पर 8-9सितम्बर को अमृतवर्षा हुई ...आयोजन था 'अखिल भारतीय गोपाल दास गहमरी साहित्यकार सम्मेलन' जो की 'गहमर इंटर कॉलेज गहमर' जनपद गाजीपुर में हुआ। इस अमृतवर्षा का लाभ हम भी ले सके, यह हमारा सौभाग्य रहा..।
7 सितम्बर रात 2:15 पर ट्रेन पकड़े और भदौरा स्टेशन पर पहुँचे रात 11:30 बजे के आसपास। वहाँ पर अखण्ड भाई मिले फिर बाइक से उनके घर की ओर। कुल मिलाकर पूरे 22 घण्टे में पहुँचे गहमर की भूमि पर। जैसे-जैसे ट्रेन खच्चर हो रही थी वैसे-वैसे दिमाग में एक अजीबोगरीब डर बैठ रहा था। क्योंकि गाँव तो गाँव ही होता है कितना भी नामी-गिरामी हो या फिर मशहूर लोगों का ही क्यों न हो। शहरों की तरह सड़कों पर स्ट्रीट लाइटें तो नहीं ही मिलती ऊपर से सड़क खराब है! जाने से एक दिन पहले ही हम सुन चुके थे। खाना-पानी करके बिस्तर पर पड़े फिर अगले दिन सुबह छः बजे उठ गए। सुबह नाश्ता-पानी करके कार्यक्रम स्थल का जायजा लेने पहुँच गए जो कि सड़क पार करते ही स्थित था। वहाँ बच्चों को भाला फेंककर अभ्यास करते हुए देखना भी अच्छा लगा।
 कार्यक्रम थोड़ा देर से शुरू हुआ लेकिन देर आए दुरुस्त आए वाली स्थिति थी। गर्मी से बेहाल हुए जा रहे थे लेकिन अच्छा लगा सबको सुनकर। यह भी महसूस हुआ कि ऐसे आयोजनों में जाने पर ज्यादा शिष्टाचार निभाने के चक्कर में नहीं पड़ना चाहिए सामने वाला आदमी आपको पीछे और पीछे करने के चक्कर में हो जाता है...खैर देखते हैं कि हम आयोजनों में अपनी भागीदारी करते हुए कब तक शिष्टाचार न छोड़ेने की कवायद कर पाते हैं।
लघुकथा वाचन में हमने अपनी लघुकथा भी पढ़ी। फिर शाम को कवि सम्मेलन में कविता पाठ भी किया। औरों को सुनकर अच्छा लगा सबसे अच्छा तब लगता है जब कई लोग बिना देखे ही कविता या कथा-कहानियां पढ़ लेते हैं, एक हम हैं कि मुंडी पेपर से उठती ही नहीं।
वाराणसी के स्कूल से आई लड़कियों ने बहुत अच्छी प्रस्तुति दी। डांस, गायन में कजरी, स्वागत गीत सब मन को लुभाने ले लिए पर्याप्त थे। और असम प्रदेश का डांस के तो क्या कहने, बेहद अच्छी प्रस्तुति रही वहां ले लोक-नृत्य की भी।

 सैनिकों के गांव में एक से बढ़कर एक न जाने कितने मोती दिखाई पड़े....कुछ मोती हमारे हाथ लगे कुछ छिटक गए..उन सब ज्ञानियों के बीच खुद को खड़ा देखकर अभूतपूर्व खुशी मिली जिसे शायद शब्दों में बयान नहीं कर सकते हैं...दो-चार-दस से मिलने का साहस भी नहीं जुटा पाए हम...। श्रवण भैया ने नाम लेकर कहा था कि मेरा दोस्त है वहाँ मिलेगा लेकिन उन्हें सामने पाकर सिर्फ अभिवादन करके रह गए | परिचय न दिए न बात ही कर पाए। सबसे बड़ी खुशी की बात यह भी रही कि अयोध्या से शास्त्री जी आए थे जिन्हें शासन द्वारा दो लाख का पुरस्कार मिलने की घोषणा हुई है।
हमें इस बात का बड़ा अफसोस है कि एक बुजुर्ग शायद उसी गाँव की कोई प्रतिभा थी, वह कुछ सुनाना चाहते थे..हमसे 'माता जी' कहकर बोले थे अपनी बात लेकिन. जब तक हम उनकी बात समझते तब तक कोई उनसे कह चुका था कि कार्यक्रम समाप्त हो चुका कल आके सुनाना बाबा..कल यानी दूसरे दिन वह दिखे ही न...!
सुबह कार्यक्रम स्थल पर भी एक लड़का जो एयरफोर्स में जाना चाहता था और कवि सम्मेलन में भाग लेता रहता है जैसा कि उसने बताया, उसने अपनी तीन चार कविता सुनाई थी । काश ऐसे ही उन बुजुर्ग का मान रखते हुए हम उनसे भी सुन लेते, कुछ जो वो बोलना-गाना चाहते थे और मोबाइल में कैद कर लेते। इससे उनका मान भी रह जाता और हमें भी पछतावा न होता, खैर।

पहली बार कवि सम्मेलन में भाग लेने का सुअवसर मिला , संस्थाओं के आयोजनों में, संकलन के विमोचनों में और आगरा की साधिका समिति की बैठकों में कविता-पाठ करते रहे हैं पर ऐसे बड़े-बुजुर्गों-ज्ञानियों के बीच मंचासीन होकर कवि सम्मेलन का अनुभव पहली बार लिया..पहले से हमने अपना नाम भी नहीं दिया था लेकिन वहाँ रमेश तिवारी भैया ने पूछा फिर हमारा नाम लिख लिया । सच में बड़ा अजीब लगा । शायद पहली बार ऐसे मंच की जमीन पर बैठने के कारण लेकिन बहुत सुखद भी लगा और जब श्री सतीश राज पुष्करणा अंकल ने कहा कि बढ़िया कविता थी, तो हमारी प्रसन्नता की सीमा का अंदाजा भी कोई लगा नहीं सकता है...😊😊
लघुकथा वाचन-कवि -सम्मेलन और सम्मान पाकर अपार खुशी तो हुई ही, मेजबानों के आथित्य-सत्कार से भी मन गदगद हुआ😊
गर्मी से बड़े बेहाल भले हुए लेकिन गंगा मैया और कामाख्या देवी जी का दर्शन करके कलेजे को बड़ी ठंडक पहुँची।

दूसरे दिन सुबह गंगा मैया की सैर हुई बीना बुंदकी दीदी के सिवा किसी ने गंगा में डुबकी नहीं लगाई बस फोटो-शूट करने में लगे रहें।  उसके बाद कामाख्या माँ के दर्शन करने पहुँचे सब..वहाँ भी मैया के दर्शन और फोटो-पे-फोटो लिए गए..कई जनों से उधर वार्ता भी हुई। फोटोग्राफर से ग्रुप फोटो निकलवाई गयी जिसे लगभग सबने ही लिया, वह भी खुश हो गया होगा। फिर वहाँ से लौटकर नाश्ता किया गया। नाश्ते में लीट्टी बनी थी जो की न जाने कितने साल बाद खाई हमने। वार्तालाप और नाश्ता करने के बाद कार्यक्रम स्थल का रुख किया गया।
सम्मान पाकर किसे नहीं खुशी होगी अतः हमें भी 'पंडित कपिल देव द्विवेदी स्मृति सम्मान'  (समाज सेविका क्षेत्र में ) पाकर बहुत खुशी हो रही है...एक जन ने कहा था कि सविता तुम कब से सेविका बन गयी तो हमारा जवाब था  कि हम भारतवासियों के मूल में ही सेवा भाव है ।  विरला ही ऐसा कोई भारतवासी होगा जो जो भारतीयता के इस गुण से वंचित होगा। कुल मिलाकर गहमर की धरती पर आकर अपार खुशी मिली, इस महाकुंभ में आकर गंगा जल की कुछ बूंदें अवश्य ही अपने दिमागी कमंडल में आ पहुँची होगी और हम भी साहित्य के पथरीली जमीन पर चलने की कोशिश कर पाएंगे।
एक दो मोती ऐसे भी दिखे जिनकी चमक हमें आकर्षित न कर सकी ...फिलहाल मोतियों की माला के एक-एक मोती जो हमारे मोबाइल की गैलरी में गूंथे हुए हैं उन सबको उनके नाम के साथ पहचानने की कवायद जारी है...😊
आयोजन में हमें 'कपिल देव शास्त्री सम्मान' से सम्मानित करने हेतु जजों की टीम और अखंड गहमरी का धन्यवाद- कविता पाठ और लघुकथा पाठ के लिए मंच प्रदान करने क लिए भी आभार 😊😊
चाक-चौबंद व्यवस्था के लिए अखण्ड गहमरी भैया और उनके परिवार की प्रशंसा तो करना बनता है उनके सहयोगियों और उनके पूरे परिवार का हृदयतल से आभार । खासकर उनके बेटे और नन्हे से भतीजे का। सुबह हिन्दुस्तान अखबार में कवि-सम्मेलन खबर के साथ अपनी फोटो भी थी इससे और खुशी हुई शायद बड़ो-बड़ो को छोड़कर अंगार भाई के साथ हमारी फोटो इसलिए थी पत्रकार भाई सोचे होंगे ये आगरा के पगलखाने से भागकर आयी है इसकी तो फोटो लगा ही दो😀
आते-आते अखण्ड भैया के पिताजी से भी जरा-सी बात हुई ..फोटो भले न ले पाए उनकी लेकिन साथ में लेकिन मिलकर बात करके एक हस्ती लगे। उनका चेहरा भी रोबीले होने की कहानी कह रहा था। सबसे अच्छी बात लगी कि समारोह के मंच पर वह अपने वास्तविक परम्परावादी लिबास में रहें। वैसे तो धोती को लोग पीछे खोंसकर पहनते हैं लेकिन उन्होंने धोती को नार्मल कहिए या हम कहे कि तमिल स्टाइल में पहन रखा था उन्होंने तो आप सब अच्छे से समझ पाएंगे आप सब |
लौटने में भारत बंद आह्वान के कारण तनिक समस्या आयी हमें भदौरा के बजाय बक्सर से ट्रेन पकड़नी पड़ी लेकिन ओमप्रकाश क्षत्रिय भैया का साथ था अतः चिंतामुक्त थे । कुलमिलाकर 10 सितम्बर 11 बजे गहमर से निकलकर 11 सितम्बर की सुबह 8 बजे अपने घर को आ गए। ट्रेन में भी वाराणसी से पंडित जनों का झुंड बैठा था शाम ढलते ढलते पता चला सब प्राचार्य हैं और साथ-साथ कवि भी।
ऐसे सहित्यक महाकुंभ से वापस आने के बाद अपने आप से कहना पड़ता है कि सविता कुछ बढ़िया से लिखना- पढ़ना सीख ले..ऐसे आयोजनों में तेरी स्थिति डांट खाने से पहले वाले कालिदास सरीखी न हो....चार दिन अपने को ऐसे ही समझाने हुए पाँचवे दिन फिर सब दिन जात एक समान हो जाता है...खैर जब तक हम जागे या न भी जागे , आप सब महाकुंभ में चमकते चेहरों को निहारिए...और पहचानिए😊😊...सविता मिश्रा 'अक्षजा'













Monday 3 September 2018

'चुनिंदा लघुकथाएँ' साझा-संकलन-


'चुनिंदा लघुकथाएँ' साझा-संकलन -रवीना प्रकाशन
सम्पादक-ओमप्रकाश क्षत्रिय भैया
प्रकाशन समय -जून २०१८
"तोहफ़ा" #लघुकथा के साथ 'चुनिंदा लघुकथाएँ' सांझा-संकलन में भी उपस्थित हैं हम। आभार सम्पादक ओमप्रकाश क्षत्रिय भैया का --००--
 'तोहफ़ा' लघुकथा इस लिंक पर उपलब्ध --
http://kavitabhawana.blogspot.com/2017/11/blog-post_27.html
लेखिकीय पुस्तक नहीं दी गयी |

साझा-लघुकथा-संग्रह (व्योरा)

पिछले दस लघुकथा-संकलन में आज १/९/२०१८ तक कुल छः और #साझा-लघुकथा-संग्रह पुस्तक रूप में जुड़ गयी हैं |

१--"उद्गार" लघुकथा-संकलन- वनिका पब्लिकेशन फरवरी २९१८ में ..
https://kavitabhawana.blogspot.com/2018/03/blog-post.html

२--- 'चुनिंदा लघुकथाएँ' साझा-संकलन -रवीना प्रकाशन जून २०१८
http://kavitabhawana.blogspot.com/.../blog-post_28.html...

३--'अभिव्यक्ति के स्वर' लघुकथा-संकलन--'हिन्द युग्म' से प्रकाशित जुलाई २०१८
https://kavitabhawana.blogspot.com/.../blog-post_2.html...


४--'नयी सदी की लघुकथाएँ' लघुकथा-संकलन- 'नवशिला प्रकाशन' से प्रकाशित जुलाई २०१८
http://kavitabhawana.blogspot.com/2018/09/blog-post_3.html

५--लघुत्तम-महत्तम लघुकथा-संकलन-अभ्युत्थान प्रकाशन अगस्त २०१८

http://kavitabhawana.blogspot.com/2018/09/blog-post_1.html

६--लघुकथा अनवरत --अयन प्रकाशन सितम्बर २०१८

लघुत्तम-महत्तम लघुकथा-संकलन (साझा)

लघुत्तम-महत्तम लघुकथा-संकलन-अभ्युत्थान प्रकाशन
संपादिका -महिमा 'श्रीवास्तव' वर्मा
प्रकाशन समय - अगस्त २०१८
लघुकथा के १४वें संकलन में मेरी 'तीन' लघुकथाओं को स्थान दिया गया है | संपादिका महिमा 'श्रीवास्तव' वर्मा का आभार।
१--एक बार फिर
२--वेटिकन सिटी
३--इज्ज़त
--००--
एक बार फिर

"कहाँ आगे-आगे बढ़े जा रहे हो जी', मैं पीछे रह जा रही हूँ |"
"तुम हमेशा ही तो पीछे थी |" पार्क से बाहर निकलकर पति ने कहा |
"मैं आगे ही रही !" पत्नी पति के बराबर आकर बोली |
"अच्छा ..!"
"और चाहूँ तो हमेशा आगे ही रहूँ, पर तुम्हारे अहम को ठेस नहीं पहुँचाना चाहती हूँ, समझे !"
"शादी वक्त जयमाल में पीछे रही...!"
"डाला जयमाल तो मैंने आगे !"
"फेरे में तो पीछे रही..!"
"तीन में पीछे, चार में तो आगे रही न !"
"गृह प्रवेश में तो पीछे..!"
"जनाब ! भूल रहे हैं, वहां भी मैं आगे थी | "
इसी आगे पीछे को लेकर एक-दूजे से नोंकझोक करते हुए ही बेफिक्र हो बाइक से घर की ओर जा रहे थे | सुनसान रास्ते पर बदमाशों ने उनकी बाइक को रोककर तमंचा तान दिया - "निकालो सारे गहने" चीखा एक |
पत्नी को अपने पीछे कर, पति बदमाशों से भिड़ गया |
जैसे ही घोड़ा दबा, उसकी बाहों में झूलती हुई पत्नी मुस्करा कर बोली- " लो जी ! यहाँ भी मैं आगे ..!" सावित्री-सी होने का अहम उसके चेहरे पर तारी होने को था |
"ऐसे-कैसे मेरी शेरनी ! मैं तो रेड बेल्ट पर ही अटक गया था, तू तो ब्लैक बेल्ट थी | इतने में ही हिम्मत टूट गयी !
सुनकर वह दहाड़ी | बाह में गोली लगने के बावजूद पति के हमकदम हो लड़ी थक के चुकते दोनों इससे पहले ही सायरन की आवाज़ गूंजने लगी | बदमाशों के रफूचक्कर होते ही दोनों एक दुसरे के बाँहों में मुस्कराकर बोले हम साथ-साथ हैं, न आगे न पीछे |"
--००--सविता मिश्रा 'अक्षजा'

२--वेटिकन सिटी इस लिंक पर --
http://kavitabhawana.blogspot.com/2015/05/blog-post_15.html
३--इज्ज़त इस लिंक पर --
http://kavitabhawana.blogspot.com/2017/05/blog-post_12.html

'नयी सदी की लघुकथाएँ' लघुकथा-संकलन

'नयी सदी की लघुकथाएँ' लघुकथा-संकलन- 'नवशिला प्रकाशन' से प्रकाशित
सम्पादक- अनिल शूर आजाद
 प्रकाशन समय - जुलाई २०१८
 लघुकथा के १3वें संकलन में मेरी 'दो' लघुकथाओं को स्थान दिया गया है | सम्पादक डॉ.अनिल शूर आज़ाद का आभार।
 १--मन का चोर
 २--दूसरा कन्धा
 --००--
 १--मन का चोर
 सही ---
https://kavitabhawana.blogspot.com/2014/09/blog-post_87.html
 पहले वाली --
https://kavitabhawana.blogspot.com/2014/08/blog-post_19.html
२--दूसरा कन्धा
http://kavitabhawana.blogspot.com/2015/03/blog-post.html

Sunday 2 September 2018

'अभिव्यक्ति के स्वर' लघुकथा-संकलन


'अभिव्यक्ति के स्वर' लघुकथा-संकलन - 'हिन्द युग्म' से प्रकाशित
सम्पादक- विभा रानी श्रीवास्तव
प्रकाशन समय - जुलाई २०१८
लघुकथा के १२वें संकलन में मेरी 'पाँच' लघुकथाओं को स्थान दिया गया है | सम्पादक विभा रानी श्रीवास्तव दीदी का आभार।
१--मूल्य (बेटी)
२--वर्दी
३--ग्लानि 
४--गिरह
५--टीस 
--०००--
१--मूल्य इस लिंक पर ---
https://kavitabhawana.blogspot.com/2016/12/blog-post.html
२--वर्दी इस लिंक पर ---अविराम साहित्यिकी के जुलाई-सितम्बर २०१७ में छपी है यह लघुकथा --

३--
ग्लानि

" बेटा! अच्छा हुआ जो तू आ गया तेरे बाबा, जब से तेरे पास से लौटे हैं, गुमसुम से रहने लगे हैंक्या हुआ ऐसा वहाँ?"
"कुछ नहीं अम्मा!"
"कुछ तो हुआ ही होगा! रोज जितनी हिम्मत होती है, खेत में जाकर पेड़-पौधे लगाते रहते हैं गाँव वालों से भी उस सूख गए गड्ढे को खोदकर फिर से तालाब बनाने की गुजारिस करते फिर रहे हैं"
"तेरा पोता सुशील, अब बड़ा हो गया है अम्मा! और तू जानती है, वो बचपन से ही स्पष्ट-वक्ता रहा है"
"तो क्या उसने इन्हें कोई चुभती हुई बात कह दी! वरना जो आदमी एक तुलसी का पौधा न रोपा कभी, वह दिन में दो-चार पेड़ लगा दे रहा! तूने उसे कुछ बोला नहीं?"
"उसने कुछ गलत न बोला अम्मा, तो उससे क्या कहता मैं बल्कि मैं खुद बदलते वातावरण से परेशान हूँ, रिटायर होते ही इस ओर ध्यान दूँगा"
"बात तो बता बेटा, पहेलियाँ काहे बुझा रहा है? उसने ऐसा क्या कहा तेरे बाबा को?"
"उसने बाबा को फालतू पानी बहाते देख कह दिया कि दादाजी! एक दिन में बस पांच सौ लिटर पानी मिलता है इस तरह पानी की बर्बादी करेंगे, तो कैसे काम चलेगा' और..!"
"और ...कुछ और भी बोला! इतना बड़ा हो गया है क्या?" विस्मित-सी होकर अम्मा बोली
"और उसने बाबा से कह दिया कि आपके दादा-परदादा पेड़-पौधे लगाकर वातावरण को हरा-भरा रखे आप की पीढ़ी ने बैठे-बैठे उसके खूब मजे लूटे अब आपकी पीढ़ी की निष्क्रियता के दंड हम लोग भुगतेंगे ही' उसकी इन्हीं बातों से, बाबा क्रोधित होकर वहाँ से अकेले ही चले आए"
"हाय राम! उसने इतना कुछ कह कैसे दिया !"
"अम्मा! दादा-परदादा के लगाये पेड़-पौधे आंधी से उजड़ते रहे, हम उन्हें बेचते गए तालाब भी पाटकर बस्ती बसा डाली अब तक मन माफ़िक पानी की बर्बादी भी होती रही | कुएँ का भी जलस्तर गिरता जा रहा है अब इन सब का खामियाजा नई पीढ़ी को तो भुगतना ही पड़ेगा और वो इसी तरह झल्लाते हुए अपने पूर्वजों को कोसते रहेंगे.!” कहकर चिंतामग्न हो गया
थोड़ी देर बाद फिर बोला- "अम्मा! कल बाबा के साथ मैं भी पेड़ लगवा आऊँगा बस उनकी देखरेख तुम करती रहना"
"कई बार मैंने कही कि पुराने पेड़ धीरे-धीरे गिरते जा रहे हैं, लगा दीजिए कुछ फलों के पेड़ मेरे कहने से तो सुने नहीं कभी! अच्छा हुआ जो पोते ने चोट दी! अब उसकी दी हुई चोट की ओट में, जमीन की खोट दूर हो जाएगी कितने बीघे जमीन बंजर होने को थी"
---००---
Jul 31, 2016 obo
सविता मिश्रा 'अक्षजा'
 
४--गिरह इस लिंक पर --

टीस

"अँजुली में गंगाजल भरकर यह कैसा संकल्प ले रहे हो रघुवीर बेटा? इस तरह संकल्प लेने का मतलब भी पता है तुम्हें!" गंगा नदी में घुटनों तक पानी में खड़े अपने बेटे को संकल्प लेते देख पूछ बैठा पिता।
"पिताजी! आप अन्दर-ही-अंदर घुलते जा रहे हैं। कितनी व्याधियों ने आपको घेर लिया है। नाती-पोतों की किलकारियों से भरा घर, फिर भी आपके चेहरे पर मैंने आज तक मुस्कराहट..।"
आहत पिता ने कहा- "बेटा! अपने नन्हें-मुन्हें बच्चों को बिलखता हुआ छोड़कर कोई माँ कैसे जा सकती है! इस कैसे-क्यों का प्रश्न मेरे जख्मों को भरने ही नहीं देता।"
"पिताजी तभी तो..!"
पिता बेटे की बात को बीच में काटते हुए बोले- "बेटा! पैंतीस सालों में परिजनों के कटाक्ष को दिल में दफ़न करना सीख गया हूँ मैं। उसके जाने के बाद समय के साथ समझौता भी कर लिया था मैंने। हो सकता है उसके लिए उस व्यक्ति का प्यार मेरे प्यार से ज्यादा हो! इसलिए वो मेरा साथ छोड़कर, उसके साथ चली गयी हो।" 
"मैं उन्हें ...!" 
बेटा क्रोध में बोल ही रहा था कि पिता ने दुखी मन से कहा -"फिर भी बेटा! मैं सब कुछ भूलना चाहता हूँ! परन्तु यह समाज मेरे जख्म को जब-तब कुरेदता रहता है।"
"समाज के द्वारा आप पर होते कटाक्ष की इसी ज्वाला में जलकर तो मैं आज संकल्प ले रहा हूँ। मैं माँ का मस्तक आपके चरणों में ले आकर रख दूँगा पिता जी, बिलकुल परशुराम की तरह।"
"बेटा! गिरा दो अँजुली का जल तुम परशुराम भले बन जाओ, पर मैं जमदग्नि नहीं बन सकता हूँ।"
--००---
सविता मिश्रा 'अक्षजा'
आगरा
November 30, 2015 obo में ..
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Wednesday 15 August 2018

आरक्षण का तीर

आप सब विद्वानों में हम बहुत छोटे हैं घर-गृहस्थी के दायरे में बन्द, लेकिन फिर भी विचार देने धृष्टता कर रहे हैं....,🙏

आरक्षण वह औजार है जिससे देश की प्रगति-गौरव की नाव में लगातार छेद-पर-छेद किया जा रहा। अब तो धीरे -धीरे ये नाव डूब रही है और नाव को ठीक करने वाले खुद को कोसते हुए किनारे खड़े उसको डूबता हुआ देख रहे हैं।
एक दिन आएगा जब सब पछतायेंगे लेकिन तब पछताने से आखिर होगा क्या । मेरे भारत सोन चिरैया के पंख फिर से नोंच लिए जाएंगे। नोंचने वाले गैर नहीं अपने ही होंगे। कुछ कुर्सी के मद में नोचेंगे, कुछ कुर्सी न पाने की कोफ्त में। हर हाल में चोट तो अपने देश को ही लगेगी।

जाति-जाति करते-करते लुट गया अपना तो देश
प्रतिभाएं पलायन करके बस रही जाकर परदेश । सविता मिश्रा 'अक्षजा'

शब्द निष्ठा हवाट्स एप ग्रुप पर आज अभी-अभी लिखकर डाले...15/8/2018

Wednesday 8 August 2018

दृष्टि महिला लघुकथा-विशेषांक

दृष्टि पत्रिका  को पढ़ते हुए अपनी दृष्टि...😊


सब नामों में जी-जी लगाकर हमारे मत को पढ़ना
हमें उदंड, असंस्कारी कहकर कोई नाराज मत होना । ------

बलराम मेहनत करके किए एक असाधारण खगोलीय खोज
 कोने-कोने से खोज लिए महिलाओं की एक लंबी-सी फौज ।

 मार्टिन जान ने चार - चांद का कराया हमें दृष्टि-भान
उनके रेखा-चित्रों ने  नव-दृष्टि का दिया हमको वरदान।

 माधव नागदा ने हमारी कमी को लिया जैसे ताड़
 हमने भाषा का इंद्रधनुष पढ़ा कई-कई बार ठाढ़।

 लता के प्रश्नोत्तरी तो अब हमें बड़ा ही लुभाते हैं
शकुंतला के जवाब हमारा पथ-प्रदर्शन करवाते हैं ।

 अशोक भाटिया ने जिस-जिस लघुकथाओं का किया जिक्र
उन्हें पढ़ने के लिए हमने किया यत्र-तत्र ही अथक परिश्रम ।

 दो-चार भी न मिली कहीं पर वो लघुकथाएं हमको
 अशोक वाटिका में भटक दृष्टि में हम पुनः अटको।

 दृष्टि ने महिलाओं के भावनाओं की सच्ची-सुंदर-प्यारी कश्तियां बनाई
अशोक-कांता ने महिला विशेषांक के समुंदर में उन्हें बड़े करीने से तैराई।

दृष्टि महिला-विशेषांक की  लघुकथाओं का किया जो हमने मनन
 लगा घर-गृहस्थी की दहलीज भीतर कर रहीं हों वो अभी बतकुचन।

लघुकथाओं का सार जो भी निकले बस निकलता ही रहें
दृष्टि लघुकथा का विशेषांक यूँ ही सदा फलता-फूलता रहें। 😊😊

आभार शुक्रिया
 सविता मिश्रा 'अक्षजा'
 

Thursday 26 July 2018

कुछ तो है- ('परिंदों के दरमियां')

कुछ तो है, नहीं ! नहीं! बहुत कुछ है नवोदित लघुकथाकारों के लिए 'परिंदों के दरमियां' किताब में 😊
कभी-कभी कुछ किताबें पढ़कर आदमी मौन रह मनन करता रहता है, और करना भी चाहिए। बोलने के बजाय उस पुस्तक की बातों को मनन करना या फिर उसमें कहीं बातों के विषय में खुद से वाद करना लेखक से विस्तृत रूप में कहने से ज्यादा अच्छा है।
फिलहाल 'परिंदे पूछते हैं' हाईस्कूल की बोर्ड की तैयारी करने जैसा है तो 'परिंदों के दरमियां' को पढ़ना इंटर की बोर्ड परीक्षा पास करने के लिए बहुत जरूरी है। दोनों किताबें आपको उतना लाभ पहुँचाने में सक्षम है जितना आप मन से पढ़ेंगे। बस परीक्षा पास होने के लिए यानी सिर्फ और सिर्फ सतही लघुकथा लिखना है तो किताब के पन्नों पर सिर्फ सरसरी निगाह डालने भर से आपका काम हो जाएगा। लेकिन कुछ गूढ़ कथाएँ लिखनी है तो ऐसी पुस्तकें आपको लिखने में बहुत मदद करती हैं |

 यदि बढ़िया शिल्प-शैली की कथाएँ लिखनी है तो मन लगाकर लघुकथा को समझने वाली पुस्तक  'परिंदों के दरमियां' पढ़ें और पढ़ें और पढ़ते रहें ! फिर मनन करें।
 एक अच्छा शिक्षक यह जरूर कहेगा कि रट्टू तोता होकर परीक्षा में न बैठें । पढ़े फिर खुद से समझे, फिर चिंतन करके आगे बढ़े।
बस बलराम भैया के सम्पादन में छपी हुई 'परिंदों के दरमियां' किताब को पढ़ते-पढ़ते यही विचार आया। यदि वह विस्तृत रूप से हमें कहेंगे तो वह भी हम लिख सकते हैं लेकिन हम चाहेंगे कि पत्ता गोभी को परत-दर-परत खोलकर , अरे हमारा मतलब है इस किताब के हर पन्ने को लघुकथा के सहपाठी खुद ही पढ़कर महसूस करें तो बेहतर है। उनके आगे गोभी की पूरी परतें खोलकर हम क्यों रखें भला।
दोनों ही पुस्तक बार-बार पढ़कर मनन करना ही चाहिए, ऐसा हमें लगता है। फिर पढ़िए और बढिए सब |

सविता मिश्रा 'अक्षजा'

Saturday 21 July 2018

अलविदा😢 न कहना!

हिंदी साहित्य का दरख़्त धराशायी हो गया बीमारी के कारण, नहीं तो शायद अभी और कुछ साल तनकर खड़ा हो अपने गीतों के जरिये झूमता। श्रधांजलि💐#अक्षजा
लिखे जो खत तुझे, तेरी याद में...!😢

Monday 16 July 2018

'मात' से 'शह' -

अपने लॉन में झूले पर झूलते हुए चाय पी रही थी कि उसकी नजर उस चोटिल पक्षी पर गयी | जो अपने पंखो को फैलाकर, बारम्बार उड़ने की कोशिश करता हुआ गगन को चुनौती देने को बेताब था | उस पक्षी की प्रतिबद्धता देखकर नीता मुस्करा पड़ी | मुस्कराहट अभी चेहरे पर फ़ैल भी नहीं पाई थी कि अतीत ने दबिश डाल दी |

"बेटा, अभी देख रहे हैं ! शादी थोड़ी कर रहे हैं तेरी! शादी तय होने में भी समय लगता है | तेरे साँवले नयन-नक्श के कारण दो-तीन ने सीधे मना कर दिया | पच्चीस-पचास लाख दहेज देने की तो हैसियत है नहीं अपनी |" माँ की चिंता, विवशता और दलीलें ।

"माँ, शादी बिना भी जिन्दगी चलती है | मुझे आगे पढ़ना है |"   नीता कहती।
"तेरे दिल की बात जानती हूँ ! मैं भी चाहती हूँ कि तू पढ़कर कोई दमदार नौकरी हासिल कर ले, फिर देखना यही नकारने वाले खुद आएंगे तेरा हाथ माँगने |" माँ के समर्थन और आश्वस्त करते ममता भरे शब्द नीता को राहत देते!
फिर कुछ सालों बाद घर-मोहल्ले तथा उसकी कार्यशाला के सहकर्मियों द्वारा तिल-तिल करके घुलने को मज़बूर करते ताने!

"न शक्ल, न ही सूरत! कौन शादी करेगा?" आत्मा तक को भेदने वाले, भाभी के मुख से निकले हृदयभेदी तीर!
"शादी नहीं करोगी, तो फिर क्या करोगी?" बाइक के फटे साइलेंसर की तरह निकला बड़े भाई का चुभता हुआ सवाल!
"उसी वक्त तो मैंने छोड़ दिया था, भैया का वह संसार |" चाय का घूँट लेती हुई वह बुदबुदाई ।

उन दिनों जब कभी अतीत का तूफान वर्तमान में आकर उसके पग पखारता था तो वह पर कटे पक्षी की तरह तड़प उठती और मायूस हो चाय लेकर बालकनी में आकर आराम-कुर्सी पर पसर जाती थी | अपने एक कमरे के फ्लैट में कैद हो एकटक प्रकृति-सौन्दर्य को निहारती रहती थी | झुण्ड से अलग किसी पक्षी को दूर गगन में उड़ान भरते देखती तो हिम्मत-सी बंध जाती थी उसकी |

कई साल उसके द्वारा की गई कड़ी मेहनत, पत्थर पर घिसी मेहँदी-सी महक उठी थी | एक एनजीओ ज्वाइन करने के बाद देश क्या विदेश से भी अब उसे नारी-जाति को मार्गदर्शन देने के लिए बुलाया जाता था | जिस शक्लोसूरत को  देखकर लोग कभी मुँह फेरते थे, आज उसके साथ तस्वीर लेना अपना अहोभाग्य मान रहे थे | मुस्कराती हुई तस्वीर खिंचाती थी लेकिन बैकग्राउंड में बीती जिन्दगी का समुद्री लहरों-सा शोर उफान मारता रहता था |

आहट से तन्द्रा भंग हुई तो देखा कि सामने बालों में सफेदी लेकिन चेहरे पर लालिमा लिए पैंतालीस-पचास साल का युवा खड़ा था |

"जी, क्या चाहिए आपको ! मैं औरतों की खैरख्वाहो में गिनी जाती हूँ | आपकी क्या मदद कर सकती हूँ ?"
"मैं अपनी गलती सुधारने आया हूँ |"
"गलती..! कैसी गलती ?"
"दो दशक पहले आपसे शादी न करने की |"
झूलता हुआ झूला अचानक ठहर गया |
"आपकी गलती सुधारने के लिए मैं कोई गलती क्यों करूँ।" तनकर खड़ी हो, आँखे तरेरती हुई बोली।
उस व्यक्ति के जाते ही नीता ने देखा कि गगन में वह किंचित घायल पक्षी भी गर्वान्वित हो इठलाने लगा था। उसे देखकर मंद-मंद मुस्करा पड़ी नीता ।
---००--
मौलिक तथा अप्रकाशित
 सविता मिश्रा 'अक्षजा'
आगरा २८२००२
---00---


Saturday 16 June 2018

क्षितिज लघुकथा सम्मेलन के लिए इंदौर यात्रा --३

गतांक के आगे...भाग -३

क्षितिज तक पहुँची सविता --

अपने कमरे में तैयार हो ही रहे थे कि शोभना दीदी आकर बोली- आई-लाइनर है क्या ? हमने कहा दीदी हम तो ज्यादा मेकअप करते नहीं | हमारे पास मेकअप के नाम पर विको क्रीम और लिपस्टिक ही है तो वह हंसकर बोली तुम तो सुंदर हो ! तुम्हें मेकअप की क्या जरूरत | दो-एक और बात हुई फिर वह चली गयीं | कमरे से निकलने में लगभग 12:00 तो बज ही चुके थे। और सफ़र की थकावट से चेहरे पर भी | लेकिन हॉल में प्रवेश करते समय अभेद्य किले को भेदने की खुशी थी या लघुकथा- सम्मेलन हॉल के सजावट की खूबसूरती को निहारने की खुशी या फिर इतने अधिक संख्या में लघुकथाकारों को एक साथ देखने की ख़ुशी थी, जो भी हो हॉल में प्रवेश करते ही मन गदगद हुआ जा रहा था | अपने इंदौर नगरी अकेले ही सही आने के निर्णय पर अचानक से गर्व हो आया |
 लाल कुशन वाली कुर्सियां और कुर्सियों पर काबिज़ भिन्न-भिन्न स्थानों से आयें हुए लोग | वहां का उस समय वो पूरा दृश्य ही बहुत मनोरम लग रहा था । हमारी नज़र पहले अपनी कुर्सी पकड़ने की थी। ये कुर्सियों की चाहत भी बड़ी अजीब चीज होती है, हमारी भी चाहत थी कि आगे की कुर्सी मिले, जिससे हर गतिविधि को हम ढंग से देख-सुन सकें | दूसरे पीछे वाली कुर्सियों से वार्तालाप की आवाज़ें कानों के सुकून को हर न पाए। लेकिन बहुत देर से पहुँचने के कारण खाली सीट दिख नहीं रही थी।
फिलहाल बीच में एक कुर्सी दिखी तो चौथी- पांचवी लाइन की लाल कुर्सी का मोह भी त्याग हम सातवीं-आठवीं में ही जो कुर्सी मिली उसी से चिपक लिए। आगे सफेदपोश सोफ़े पर टिकने का मोह तो मन में बिलकुल न था। लेकिन पीछे बैठने की भी मंशा न थी | पर मरता क्या न करता बैठना पड़ा | सामने मंच इकोफ्रेंडली का अहसास करा रहा था और मन को यह भी अहसास कराने में कोई कसर न थी कि इस समारोह में महिला-कार्यकर्ताओं का वर्चश्व है| मंच की सजावट से यह साफ़-साफ परिलक्षित हो रहा था | खजूर के सूप सजाकर मंच को सजाया गया था ऐसे सूप हमारे उत्तर-प्रदेश में हमने नहीं देखे थे|
दो वृक्ष की हाथों जैसी आकृति में सूरज समाया हुआ था |
हम जब तक पहुँचे थे तब तक सांझा-संकलन और एकल- संकलन और अखबार का विमोचन हो चुका था । अध्यक्ष अपना वक्तव्य दे रहे थे ।
सबके हाथों में हम जूट का फ़ोल्डर देखे तो लगा यह भी लेना पड़ेगा। कहाँ मिलेगा ! पूछने पर पीछे बैठे लोगों की ओर इशारा कर दिया गया।
अपना नाम दर्ज करवाकर हम फ़ोल्डर और परिचय पत्र प्राप्त करके अपना नाम सविता मिश्रा 'अक्षजा' आगरा लिखकर फिर से आकर अपनी कुर्सी पर बैठ गए। फिर उसे अपनी साड़ी पर क्लिप से लगा लिए। लगाते ही गर्वान्वित-से हुए कि इस लघुकथा महाकुम्भ का हम भी हिस्सा हैं | भले ही घर से इतने दूर निकलने का जोख़िम उठाए |
सब कुछ सुनने में जितना हम कान दे रहे थे उतना ही पीछे से आती आवाज़ परेशान कर रही थी। घूमकर दो तीन बार हम पीछे देखे लेकिन कौन समझता है, समझता भी है तो कोई गौर नहीं करना चाहता था।
अध्यक्ष वक्तव्य के बाद documentary film फिल्म की उद्घोषणा हुई आवाज सुनते ही हमें यह आभास हो गया कि यह इंदौर की

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चिरपरिचित सुंदरी अंतरा सखी की आवाज है | इंदौर की ऐतिहासिक इमारतें मंदिरों से परिचित होते हुए, खाने की सराफा गलियों में घुमाकर फिर महेश्वरी की साड़ियां दिखाई गई | जिस पर हमारे ख्याल से सारी औरतों की नजरें जम गई होंगी और सारी इंद्रियों के बीच आपस में ही लड़ाई छिड़ गयी होगी | उस साड़ी को छूने और पहनने की इच्छा बलवती हो पर्स और मन भी आपस में गुत्थम-गुत्थी करने लगे होंगे| और कमोवेश यही हालात चटोरे पुरुषों के साथ भी हु-ब-हू हो रहें होंगें |
खनकती हुई आवाज़ के बंद होते ही उद्घोषणा हुई थी कि दोपहर का भोजन प्रांगण में लग चुका है कृपया भोजन के लिए आप सभी लोग पधारें |
हमारे घंटे भर बैठने के बाद ही खाने का समय हो गया था | अनाउंस होते ही सब बाहर ऐसे भागे जैसे बांधकर अभी तक रखा गया हो । बाहर निकलते ही कुछ लोग एक दूसरे से वार्तालाप में मशग़ूल हो गए कुछ खाने के लिए प्लेट उठाकर अचार-सलाद लेने में तो कई खाना लेने की लाइन में लग चुके थे |
खाना खाते-खाते लोग गुटों में बट चुके थे | सब आपस में वार्तालाप करते हुए दूसरे को निहार रहे थे व्यंजन की वैराइटी भले कम थी लेकिन सब व्यंजन लाजवाब थे | भले ही बुफे सिस्टम था लेकिन कई बंदे पूछ-पूछकर खाना परोस भी रहे थे | यानी कि भारतीय संस्कृति भी भोजन प्रांगण में विराजमान थी | इस कारण से भीड़ में घुसकर खाना लेने से हम तो बच गये थे | वो बच्चे मुस्कराते हुए जो मांगो वहीं हाजिर कर दे रहें थे | उन्हीं बच्चों की वजह से हम कस्टर्ड खा पाए वर्ना तो इतना लजीज पकवान हमसे छूट ही गया था | कैरी का रस बहुत स्वादिष्ट था |
पुनः दो बजे चर्चा सत्र शुरू हुआ | सभी हॉल में एकत्रित हो गए थे| अचानक मंचासीन विभूतियों का सम्मान करने हेतु हमारे नाम की उद्घोषणा हुई | जिसे सुनकर एक बारगी हम सकपका गये | अब तक बहुत से छोटे-बड़े कार्यक्रम अटेंड कर चुके थे लेकिन कभी ऐसे हमें नहीं बुलाया गया था | जब तक होश में आकर उठते तब तक दूसरे का नाम ले लिया गया | उसके बाद फिर हमें बुलाया गया सम्मान करने हेतु | हमने देखा हमारा नाम उद्घोषिका के पीछे खड़ी अंतरा सखी ने उनके कान में फुसफुसाया था | धीरे-धीरे ऐसे सम्मान करना भी सीख ही लेंगे |
सम्मान के बाद मंचासीन विभूतियों द्वारा वक्तव्य दिए गए | वक्तव्य का विषय था -- "लघुकथा कितनी पारंपरिक कितनी आधुनिक"
फिर दस लघुकथाकारों द्वारा लघुकथाओं का पाठ हुआ | और दो समीक्षकों के द्वारा समीक्षा की गयी |
साढ़े-तीन बजे सत्र का समापन हुआ और हाई-टी की उद्घोषणा हुई।
एक बार फिर से सभी जल्दी से जल्दी बाहर निकल गये | हमने हाई टी में से हाई को छोड़कर सिर्फ टी का दामन पकड़ा | हमें यूँ दो घंटे में ही खाने की आदत नहीं हैं | चाय-कॉफ़ी के जगह पर भी बार-बार भीड़ की वजह से पीछे हट जाते थे | चाय पर वार्ता करते हुए आधे घंटे सेकेंडो में बीते |
फिर चर्चा सत्र प्रारंभ हुआ | मंचासीन विभूतियाँ उद्घोषणा के होते ही मंच पर विराज उठी थी |  हमें फिर से विभूति का सम्मान करने हेतु बुलाया गया | सम्मान जिनका किया वह शायद हमारे ही कथा के समीक्षक थे | जिन्हें लगता है समझ आ गया था कि लेखन के क्षेत्र में यह अनाड़ी-और अड़ियल है और उन्होंने हमारी कथा की खटिया खड़ी कर दी | लेकिन वह "श्वास" नामक कथा अब भी हमारी प्रिय कथाओं में ही रहेगी |
इस बार वक्तव्य का विषय था- "हिंदी लघुकथा बुनावट और प्रयोगशीलता" | वक्तव्य और चर्चा के बाद दस लघुकथाकारों ने अपनी लघुकथाएं पढ़ीं जिसमें हम भी अपनी कथा श्वास के साथ शामिल थे | और उन पर समीक्षा की श्री अश्विनीकुमार दुबे जी और श्री राजेन्द्र वामन काटदरे जी ने।
समीक्षा के उपरांत फिर चाय के लिए एक छोटा-सा ब्रेक दिया गया |
चाय मीठी-फीकी के साथ आपसी वार्ता भी जारी रही | और आजकल की आधुनिक संस्कृति सेल्फी को कोई कैसे भूल सकता है भला | वह भी अपने-अपने चहेतों के साथ जारी ही रही | हमारे मोबाइल का कैमरा ख़राब होना भी एक बार फिर बहुत ही खला |कई लोग बड़े प्यार से मिलें जिन्हें चेहरे से हम नाम के साथ न पहचान पा रहे थे। जैसे कि नयना ताई जो पहचानने पर जोर डाली लेकिन अपनी यादाश्त का क्या कहें हम!! बाद में उनके साथ हमने कहकर फोटो ली कि जैसे भूले न अब।
पुनः बाहर की गर्मी से अन्दर की ठंडक में प्रवेश हुआ |
इस बार तृतीय चर्चा सत्र में वक्तव्य का विषय था- "लघुकथा आलोचना, मानदंड और अपेक्षायें"।
फिर से दस लघुकथाकारों द्वारा लघुकथाओं का पाठ हुआ | और दो समीक्षकों के द्वारा उनकी कथाओं की समीक्षा की गयी |
इसके बाद चतुर्थ सत्र लघुकथाओं के वाचन का ही होना था लेकिन समयाभाव के कारण उद्घोषणा हुई कि कल सुबह साढ़े नौ बजे किया जायेगा अभी लघुकथाओं पर आधारित लघुनाटिकाओं का मंचन होगा |
इधर मंचन हो रहा था उधर बादलों ने अपना मंचन शुरू कर दिया था | सोंधी खुशबू की महक अहसास दिला रही थी कि बाहर बूंदाबांदी शुरू है |
शुरू के कई नाट्य रूपांतर खूब लुभाए | नाटककारों ने नाटकों में जान डाल दी थीं | लेकिन कुछ लाइट के जाने से अवरोध हुआ और कुछ स्वर के कमतर होने से मजा किरकिरा हो रहा था | कुछ एकाकार होने के कारण और संख्या भी अधिक होने के कारण बोझिल हो गयी थीं या फिर हम सब की थकान ने अपना सिर उठा लिया था इस कारण कुछ नाट्य-रूपांतरण मन को भिगोनें में अक्षम रहीं |
उसके बाद फिर खाने का समय हो लिया | सब अपने- अपने जानकारों के बीच खाने की प्लेटें लेकर बातचीत में मशगुल हो गये | खाने में पुनः बड़े ही लजीज पकवान थे | खा-पीकर सब अपने-अपने कमरे का रुख किए | हम भी पानी ऊपर कहीं रखा हुआ है यह जानकारी लेते हुए राठी भैया से पानी के लिए कहा तो उन्होंने एक कैन रखने का फरमान जारी कर दिया | फिर हम भी अपने कमरे में चल दिए |
कपड़ा बदलते-बदलते संध्या दीदी को बताया कि पानी आपको चाहिए तो कैन रखी है बाहर | वह पानी लेने बाहर निकलीं फिर अंदर आयीं तो कहने लगी पानी तो जमीन पर रखा है, बोतल में कैसे लेंगे!  तब तक हम भी अपना नाईट-गाउन पहन चुके थे | थोड़ी बातचीत इधर-उधर की हो ही रही थी कि नीचे की आवाज़े ऊपर कमरे में पहुँचकर मन को नीचे ले आ दे रही थीं | पानी लेना ही था, हमने संध्या दीदी से कहा चलिए चलते हैं | उन्होंने कहा अब हमने तो घर वाला सलवार-शूट डाल लिया कैसे चलें! हमारे यह कहने पर कि हम तो गाउन में ही चल रहे वह उठकर नीचे आ गयीं | क्योंकि उनका भी मन मोर महुआ और नजर बुसौले पर थी |
थोड़ी देर बाद हम भी बोतल लेकर उतरे और उनकी और अपनी बोतल भरने को चल दिए | इधर गोल घेरे में कुर्सियों पर विराजे दस-बारह लोगों का ग्रुप गाने के तान को छेड़ रखा था | हम पानी लेकर आये तो भाटिया भैया बोलें कि घेरा बड़ा कर लो | छिटपुट वार्ता के बीच सभी लोग गाने ही गुनगुनाए जा रहे थे | कमाल तो तब हुआ जब मेजबान ने भी सपत्निक वहां अपनी उपस्थिति दर्ज करवा दी | उन्होंने ने भी सुर छेड़ने में देरी न की |
एक शायद हमी उस गोल में अगायिका थे | सुभाष भैया ने कहा सविता तुम भी गाओ कुछ , लेकिन हमें बिलकुल नहीं आता कहकर हम चुप रहे | एक गाँठ ही लगा दो हमने मजे लेते हुए हवा में हाथों से गाँठ लगा दी | शायद गाने में ऐसा कोई शब्द होता होगा हमें समझ कम आया हो | या फिर हम सुनने में गलती किये हो | कुल मिलाकर मुझ अनाड़ी को भी लोगों के सुर खूब भा रहे थे | गाने सुनते-सुनाते वक्त बीच में भाटिया भैया ने बड़े मार्के की बात की कि कभी जमाना था आदमी-औरत ऐसे एक साथ बैठ हंसी-ठठ्ठा नहीं कर सकते थे |
सच ही तो कहा उन्होंने जिस वातावरण से हम सभी आते हैं ऐसे कौन बैठता था महफ़िल लगाकर | वह भी आभासी दुनिया के लोगों के साथ आज से तीन चार पहले तक तो  सोच भी नहीं सकता था | लेकिन यह आभासी दुनिया से निकले रचनाकारों की कलम का ही कमाल है कि रिश्ते भी पाक बनने लगे और अजनबी शहरों में अजनबियों के बीच भी कईयों  में अजनबीपन न दिख रहा था | ट्रेन में चार परिवारों के बीच का विशवास यहाँ भी बहुत से अजनबियों के बीच तारी ही रहा | हम कई लोगों से कई-कई बार मिल चुके थे इसलिए हमें तो सब अपने से लगे | गाने का दौर खत्म हुआ तो सब अपने-अपने बिस्तर पर पसरने को बेताब हो उठे क्योंकि सफर की थकान, फिर दिनभर कार्यक्रम की थकान और कल फिर कार्यक्रम चलेगा इस बाबत सोच की थकान भारी पड़ रही थी | पलंग पकड़ते ही निंद्रा माई ने जल्दी ही हमें अपने आलिंगन में भर लिया, और शायद सभी को भी! उस दिन सभी ही थकान के कारण अनुमानतः सभी ही घोड़ा बेचकर सोये होंगे | क्रमशः

दो जून को लघुकथाकारों द्वारा की गयी लघुकथाएँ ...
सत्र-- 1
समीक्षाकार:-- श्री श्यामसुंदर दीप्ति / श्री संतोष सुपेकर

1- कपिल शास्त्री-- पंगत
2- नयना कानिटकर-- बापू का भात
3- शोभना श्याम-- इंसानियत का स्वाद
4- मधूलिका सक्सेना-- अगली पीढ़ी
5- मधु जैन-- अंतिम पंक्ति
6- ड़ॉ लीला मोरे धुलधोए-- श्रवण कुमार
7- डॉ मालती बसंत-- भाग्यशाली
8- कविता वर्मा-- नालायक
9- अंतरा करवड़े-- शाश्वत

सत्र- 2

समीक्षाकार: -- श्री अश्विनीकुमार दुबे / श्री राजेन्द्र वामन काटदरे

1-डॉ रंजना शर्मा-- ममत्व
2-सीमा भाटिया-- आईना बोल उठा
3-कोमल वाधवानी-- खाली थाली
4-नीना छिब्बर-- उदास घर
5-उषा लाल मंगल-- संस्कार
6-सविता मिश्रा 'अक्षजा'-- श्वास
7-डॉ वर्षा ढोबले-- ढोल
8-डॉ संध्या तिवारी-- चिड़िया उड़
9-मनोज सेवलकर-- नियति
10-पवन जैन-- वैवाहिकी

सत्र --3
समीक्षाकार: --श्रीमति मालती बसंत / श्री प्रताप सिंह सोढ़ी

1-कल्पना भट्ट-- धरती पुत्र
2-अनघा जोगलेकर-- जज्बा
3-कुमकुम गुप्ता-- फूलों का झरना
4-सेवा सदन प्रसाद-- बेशर्मी
5-शेख शहजाद उस्मानी-- भूख की सेल्फी
6-मधु सक्सेना-- माँ ही तो है ना
7-नीना सोलंकी-- पछतावा
8-आशा सिन्हा कपूर-- प्रीत पराई
9-अनन्या गौड़-- शक्ति
10- गरिमा संजय दुबे-- घर की मुर्गी
समयाभाव के कारण चौथा सत्र तीन जून के लिए कर दिया गया |




Monday 11 June 2018

क्षितिज लघुकथा सम्मेलन के लिए इंदौर यात्रा --2

गतांक के आगे...भाग -2

मन में अनजाना-सा डर लेकर अंततः ट्रेन आने का इंतजार शुरू हो गया। ट्रेन देहरादून-इंदौर साढ़े चार बजे आने को थी | देर होते-होते आयी 7:15 पर। पतिदेव एक कांस्टेबल को फोन कर दिए कि डिब्बा देख लें कि किधर लगा है | जैसे कि डिब्बा ढूढ़ने में समय बर्बाद न हो। मथुरा से चलते ही कांस्टेबल ने फोन कर दिया। पतिदेव बिटिया से कहकर सैंडविच बनवा दिए। बिटिया ने बनाकर पैक करके बैग में रख दिया। पतिदेव कैंट स्टेशन पर तैनात अपने मित्र से बात करके पानी-चाय देने के लिए बोल दिए। हम पानी दो बोतल लिए थे, लेकिन उन्हें अंदेशा था कि ट्रेन लेट पहुँचेगी, अतः और पानी को अपने मित्र से बोल हमें हिदायत दी कि ट्रेन से पानी या चाय के लिए उतरना मत। हर हिदायत पर बच्चों-सा हम हामी भरते रहें।
10 मिनट पहले ही कांस्टेबल ने खबर किया तो पतिदेव हमें लेकर घर से चल दिए स्टेशन तक छोड़ने । हमारी सीट पर कांस्टेबल बैठकर अधिग्रहण कर ही चुका था। पतिदेव के साथ स्टेशन पर पहुँचते ही ट्रेन आ गयी। कांस्टेबल बाहर आकर एयर-बैग लेकर अंदर हो लिया । जैसे ही हम अंदर घुसकर  केविन के गेट पर पहुँचे कि शोभना श्याम दीदी दिख गयीं। कई बार मुलाकात हो चुकी थी इसलिए साइड से देखने पर भी पहचान लिए। उन्हें देखते ही अपना डर रफ्फूचक्कर हो गया ।  पतिदेव अपनी सन्तुष्टि के लिए चढ़ लिए थे मेरे साथ, लेकिन ट्रेन चलने को हो गयी तो तुरन्त उतर गए।
हमें कांस्टेबल ने सीट बताकर सामान सीट के नीचे रख दिया। तभी शोभना दीदी उसी केविन में आ गयीं। हमें लगा वाह क्या संजोग है डिब्बे में नहीं बल्कि हम दोनों तो आमने-सामने नीचे वाली ही सीट पर हैं। पतिदेव ने भी पूछा कि जो मिली थी वह वहीं जा रहीं । हमारे हां कहते ही वह चिंतामुक्त होकर बोले तब तो ठीक है न। ध्यान रखना कहकर फोन काट दिया। कैंट पर पानी-चिप्स-और फ्रूटी एक वर्दीधारी दे गए। वर्दी ही काफी थी इसलिए चेहरा देखना जरूरी न लगा। जब ट्रेन चली तो पतिदेव को भी बता दिए कि ट्रेन कैंट से चल दी है और कोई दे गए हैं चीजें। 
ट्रेन चलती रही और चलती रही हम दोनों और एक और महिला की बातें। एक नटखट बच्चा भी ध्यानाकर्षण कर रहा था। टिफिन निकालकर सैंडविच खाया हमने एक दीदी को बढ़ाया एक उस बच्चे को। उधर मिडिल सीट वाली महिला नमकीन ऑफर करीं। लगा कितना भी आदमी डरे लेकिन विश्वास पर फिर भी चलता है। विश्वास पर ही तो चंद घण्टों की मुलाक़ात के कारण ही तो हम चार परिवार एक दूजे की दी हुई चीज खा रहे हैं। 
ट्रेन की केविन काफी गंदी थी लेकिन उसमें बैठे सभी लोगों का स्वभाव अच्छा था। बातों बातों में यह भी अजब संजोग था कि कइयों के नाम उस केविन में s से थे। केविन से ज्यादा गंदा था हमेशा की तरह बाथरूम। लग ही नहीं रहा था कि यह एसी थ्री टियर है। पहले बाथरूम में दो बार जाकर देख चुके थे गंदगी तो दूसरे वाले में चले गए। और कर बैठे गलती। चटकनी बड़ी टाइट थी जिसे हमने लगा तो दिया था लेकिन खुलने में मशक्कत करनी पड़ी। हमारे घबरा जाने के कारण भी शायद नहीं खुल रही थी। ऐसे तैसे न जाने कैसे तो खुली लेकिन अँगूठे को चोटिल कर गयी। उस समय तो हल्का-सा मीठा-मीठा दर्द था। लेकिन घर आने पर पता चला कि नाखून फट गया था |जिसे नेलकटर से काटकर हटाये।
उधर बाथरूम से निकलकर चुपचाप फिर सीट पर बैठ लिए इधर खाना-पीना सबका चला फिर थोड़ी देर बाद में उस बच्चे का परिवार किसी और केविन में बैठ गया। एक लड़की थी जिसे शिवपुरी उतरना था। उस कारण हम मीडियम वाली सीट को खोलकर लेट नहीं सकते थे। वह ऊपर से आकर नीचे बैठी थी। शोभना दीदी के सीट खोल लेने पर वह हमारे ही बगल बैठ गयी थी। जिस ट्रेन को लेट होने के बावजूद दस बजे उस लड़की के स्टेशन पर पहुँच जाना चाहिए था लेकिन नहीं पहुँची। अब-अब करते-करते बारह बज गए। पीट अकड़ने लगी थी क्योंकि घर में ये भी करना वो भी काम करना के चक्कर में आराम न कर पाए थे। शोभना दी तो पसर चुकी थी लेकिन वार्ता में शामिल रही।
तभी बगल वाली महिला ने कहा कि आने वाला है। उसका लगेज काफी था तो हमने कहा गेट के पास रख लो क्योंकि ट्रेन रुकेगी दो मिनट को ही।
बड़ी-सी अटैची, दो तीन छोटे-मोटे बैग। पूछने पर उसने कहा कि कमरा छोड़ दिया इसलिए सारा सामान उठा लाये जो बेचने के बाद बचा। 
उसको अकेली देख हमने उसके साथ उसका सामान गेट तक पहुँचवाया । फिर अकेली लड़की रात में अकेले गेट पर खड़ी रहे, यह बात इस जमाने के अनुसार हजम न हुई इसलिए हमें लगा साथ ही खड़े रहें हम भी। एक से भले दो सही है। 
लेकिन ट्रेन को तो खच्चर बनना था तो बनी। दस मिनट के बजाय आधे घण्टे उसके साथ वही खड़े रहें।  स्टेशन नहीं आना था तो नहीं आया।  गेट खोलने पर हर बार गुप्प अंधेरा दिखता। रुकती भी तो जंगल में। उसने बताया कि उसके पापा और बहन स्टेशन पर खड़े हैं। बच्ची को भी चिंता हो रही थी कि रात में बहन एक घण्टे से स्टेशन पर खड़ी है। हमने उससे कहा बेटा छोटा बैग लेकर और यही छोड़ सीट पर बैठते हैं। 
अततः 1:15 या 1:20 पर ट्रेन पहुँची। वह उतर गई तो मीडिल वाली सीट खुली, हमने नीचे वाली पर अपना विस्तर लगाया और लेटकर सो गए।
सुबह नींद खुली तो चाय की इच्छा हुई। दीदी चाय ले आयी तो हमने भी सोचा पी लें। उनसे पूछा तो उन्होंने कहा दस की दे रहा लेकिन चाय ठीक-ठाक है। हम गेट पर गए तो सामने ही स्टाल थी, उतरकर ले लिए। शोभना दीदी द्वारा दिया बीस का नोट उसे पकड़ाया तो उसने हमें तेरह रुपये लौटाए। दीदी को पूरे पैसे दिए तो वह आश्चर्य चकित हुई। हमें दस में दिया, बगल वाली से पूछा तो उन्हें भी दस में दिया। तुन्हें कैसे सात रुपये में दे दिया। खूब हंसे हम तीनों इसपर। अब यह तो राम ही जाने की उसने किसी को दस और किसी को सात में क्यों दिया। 
बातचीत का दौर फिर शुरू हो गया। गाड़ी खच्चर फिर हो चुकी थी। अंततः हम लोग दस बजे इंदौर के स्टेशन पर पहुँच गए। हमें कुछ करने की जरूरत ही न पड़ी दीदी ने फोन पर सूचित कर दिया था कि 10 बजे तक पहुँच जाएगी गाड़ी।
स्टेशन पर उतरकर जिधर दीदी चली उधर चल दिए। स्टेशन से बाहर निकलते ही सतीश राठी भैया द्वारा भेजी गई कार थी। हम दोनों को न पहचानने की वजह से ड्राइवर बगल में ही खड़ा होने पर भी समझ न पाया । लेकिन दीदी के फोन करने पर वह बोला लाता हूँ गाड़ी। गाड़ी वहीं आयी और हम दोनों को बैठाकर कार्यक्रम स्थल तक पहुंचा दी।
इस तरह अभेद्य किले का अंतिम दरवाज़ा बेधते हुए क्षितिज के मैदान पर सविता ने कदम रख दिया था। यानी की कहाँ जा सकता है जब ठान लो कोई चीज तो सारी कायनात जुट जाती है आपकी इच्छापूर्ति हेतु। हमारे साथ भी यही हुआ। पहले क्षितिज लघुकथा सम्मेलन का समय बढ़ना फिर ट्रेन की सीट येन वक्त पर कन्फ़र्म होकर मिलना, फिर ट्रेन में शोभना दीदी का मिलना । जहां चाह वहाँ राह बनाते हुए हम सम्मेलन स्थल के गेट से अंदर कदम बढ़ा दिए।
 जहां जितेंद्र गुप्ता भैया द्वारा हमें थोड़ा भटकाया गया। लिफ्ट से ऊपर नीचे फिर बाहर हॉल में खड़े हुए तो थकान के कारण पारा हाई होना ही था लेकिन ऐसे बड़े कार्यक्रम में छोटी-छोटी बातें हो जाती हैं सोचकर हम शांत रहें लेकिन शोभना दीदी भड़क गई थीं। खैर 111 कमरा नम्बर जो कि संध्या तिवारी दीदी के साथ शेयर था उसकी चाबी के लिए हॉल से बाहर उन्हें बुलवाकर चाबी उनके द्वारा हमें मिली। कमरे में जाते हम इससे पहले ही राठी भैया की बहू ने नाश्ते की प्लेट पकड़ा दी क्योंकि नाश्ते का समय खत्म हो चुका था। सारा सामान लगभग समेटा जा चुका था। पोहा-साबूदाने के नमकीन लड्डू और जलेबी का नाश्ता करके चाय पी, फिर कमरे में चले गए स्नानादि करके लघुकथा सम्मेलन समारोह में शामिल होने के लिए। जिसके लिए 15 घण्टे का सफर करके आये थे। क्रमशः