Saturday 19 October 2013

### उठो जागो ###


उठो जागो
क्यों खोयी हो
खुद में !

कभी अपना परिवार
कभी अपने बच्चे
कभी बस अपना पति
कभी अपना घर
कभी सौन्दर्य-गृह में
कर श्रृंगार
निखारती रहती
सौन्दर्य को ही !
जागो!
झांको अन्दर अपने
तुमसे ज्यादा खूबसूरत
कोई भी तो नहीं!

कभी किटी पार्टी
कभी रहती हो
करती काना-फूसी
क्यों करती हो बर्बाद समय
समय रहते जागो!

उठो !
बाहर निकलो
बदल डालो सब
तुममें शक्ति हैं
तुम दुर्गा हो!
पहचानों अपने आप को
निकलो लेकर मशाल
फैला दो अपनी रोशनी!
घर ही संवारना
काम नहीं हैं तुम्हारा
अपने देश को
अपनी मातृभूमि को
समाज एवं परिवार को भी
अलंकृत करने का
बीड़ा उठाओ !

तुम कर सकती हो
बस एक बार
अपने मन में
ठानकर तो देखो !!..सविता मिश्रा

++ज्यादा की चाह ++

  किस्मत में खूब मेरे लिखा फिर भी
ज्यादा की हमेशा ही चाह रही
तुझे देख कर आह भरू मैं
खुद की सोच पर करूँ अफ़सोस
तेरे देख हालात क्यों आँखे मेरी
गयी डबडबा दिल क्यों आया भर
देखकर पड़ा थाल में भोजन
याद तेरी ही हमको हो आई|
नहीं छोड़ती थी भोजन पर
एक एक दाना चुग अब जाती हूँ
ना जाने क्यों मन मस्तिष्क में
तस्वीर उभर तेरी ही आती है|
बड़ी किस्मत से है मिला सोचती हूँ
क्यों मैं बर्बाद कर जाती हूँ
क्या पता किस जन्म में तेरे जैसे ही
भूखे पेट ही मैं भी कितने दिन सोयी हूँ|
मिली कभी जब एक रोटी हो तो
बाँट कई हिस्से में उसे भी खायी हूँ
शायद वही पुन्य कर्म हो जो
खा रही हूँ इस जन्म में रोटी भरपेट |
सब लेना सीख जरा करना मत बर्बाद
                 बड़ी मुश्किल से मिला हैं भोजन तुमको आज||
सविता मिश्रा

Monday 14 October 2013

++जलता रावण ++

~~जलता रावण ~~

रावण सपरिवार धू-धू कर
जल रहा था
पैसों की बर्बादी देख कर
हमें दुःख बहुत हो रहा था !!

अगल-बगल देखा तो
रावण ही रावण बिखरे थे
सब दुष्ट रावण से निखरे थे
कुटिल चेहरों पर कुटिल मुस्कानें
आँखों में मक्कारी के क़तरे बिखरे थे।

हमने झट प्रभु को याद किया ,
हे राम!
सतयुगी रावण का किया संहार
आओ, फिर कलयुग में कर दो
इन सभी पापियों का उद्धार !

आँख बंद कर
कर ही रहे थे विनती
एक चिंगारी हम पर आ गिरी
लगा हम ही जलने लगेंगे
जलकर भस्म हो जाएंगे।

पति डाँटकर देने लगे नसीहतें
जब चिंगारी चिटकी
क्या तुम तब सो रही थी
जब आग थीं इतनी भड़की
तुम क्यों नहीं पीछे को सरकी।

.जैसे-तैसे राम जाने कैसे
जान बची तो फिर हमने
प्रभु को किया याद घबड़ाकर
और पूछा कि मेरे साथ
आपने क्यों किया ऐसा ?

प्रभु मंद-मंद मुस्काए
फिर बोले
रे मूरख !
तूने ही तो कहा था
आस-पास बिखरे
कलयुगी रावण का उद्धार करो
तो सबसे पास तो तू ही थी
तुझसे ही शुरुआत किया
अब बोल तू चाहती हैं क्या ?
उद्धार करूँ या छोडूँ !!

हम स्तब्ध रहे खड़े
अपने ही गिरेबान झाँक
बहुत ही हुए शर्मिंदा
प्रभु करो तुम अब क्षमा
छोड़ ही दो
थे हम अज्ञानी
नहीं देखेंगे अब से
दूसरों के दोष
अपने में से ही ढूढ़
पहले समाप्त करेंगे!!

प्रभु भी थे मेरे बड़े दयालु
झटपट मान गये
आगे से मत कहना हम से
साथ ही यह भी समझा गये!

तब से जैसा चल रहा है वह चलने दे रहे हैं
रावण को जलता देख हम भी खुश हो रहे हैं|
सविता मिश्रा

आप सभी को दशहरा की हार्दिक शुभ कामनायें  .......:)

Sunday 13 October 2013

क्या रावण को सच में पापी की संज्ञा दे पुतला दहन किया जाना चाहिए ?

यह सिर्फ हमारे विचार है (ek srtri ki najr se )जरुरी नहीं सभी सहमत ही हों, यदि किसी को आपत्ति हैं तो, हमें खेद है ............

रावण एक प्रभावी व्यक्तित्व के स्वामी थें| उनमें  हर गुण थें ! आज के पापी इंसान को तो रावण की संज्ञा देना, रावण का घोर अपमान करना है| रावण ने एक गलती कि उन्होंने सीता का अपरहण किया| पर उसके पीछे का कारन क्यों कोई नहीं देखता|
राम ने तो कई गल्तियां की .....सीता जैसी सुकोमल नारी को वन-वन ले भटकें, पत्नी आज्ञा मान स्वर्ण-हिरन के पीछे दौड़े, जबकि मालूम था कि ऐसा हो नहीं सकता, फिर सीता की अग्नि-परीक्षा लीं | इससे भी संतुष्टि ना मिली तो उन्होंने गर्भवती सीता का परित्याग कर दिया|  वह भी किसी स्थान पर सुरक्षित सम्मान सहित पहुंचवाएं होते तो भी कुछ बात ठीक थी, पर उन्होंने जंगल में छुड़वाया|

कहाँ  रावण की महज एक गलती, कहाँ  राम की इतनी सारी गल्तियाँ|  जब राम की गलती के पीछे दस आधार बतायें जातें हैं, तो रावण की गलती के पीछे कोई यह क्यों नहीं देखता, कि रावण ने अपनी प्रिय बहन के लिए सीता हरण किया|
खैर वह भी बात अलग थी, पर आज के नालायक पापियों के लिए रावण कि संज्ञा भला क्यों ?  काश आज के पापी रावण के नख बराबर भी होते तो शायद पाप में कुछ कमी आ जाती| पर आज के पापी, एक रावण नहीं करोंणों रावण के द्वारा हुय पाप को
भी मिला  दें तो भी आजकल का एक पापी न तैयार होगा | हाँ आज के पापी को समझने के लिय  सतयुग ही नहीं बल्कि द्वापर युग के दुस्साशन, दुर्योधन जैसे पापियों को भी मिलाना पड़ेगा |

राम जो सतयुग में किये आज कोई करें , तो उसे भी लोग पापी ही कहेंगे| पर उन्हें नहीं कहतें क्योंकि वो बिष्णु भगवान के अंश थे| यदि आज रावण भी होंते तो शायद उनका स्थान भी भिन्न होता |
सब राम जैसे बने, रावण जैसे नहीं | सुनकर आश्चर्य होता हैं | क्या अभी कम नारियों  पर अत्याचार हों रहें हैं, यदि आज सब राम बन गए तो, पाप कि परकाष्ठा हो जाएगी| हों सकता हैं यह हमारे वचन अतिश्योक्ति से लगे पर सच यहीं हैं |
हम आदर करते है
राम  का और साथ-साथ रावण का भी| हमें लगता है हर साल रावण का पुतला दहन कर पैसा बर्बाद करने से अच्छा है, कि हर साल एक बलात्कारी रावण की जगह, एक आतंकवादी कुभ्करण की जगह और एक भ्रष्टाचारी या डकैत मेघनाथ की जगह, भरी सभा में फांसी दे दी  जाय | हर साल दशहरे पर ऐसा हो इससे पैंसे की बर्बादी भी रुकेंगी और गुनाहगार भी कम हो जायेंगे | सार्वजिनक रूप से जब सब पापी का नाश देखेंगे तो खौफ पैदा होगा और फिर पाप करने से ही तौबा करने लगेंगे |
इससे अपराध में कमी भी आएगी और जो पापी है ५-१० साल में निपट जायेंगे | और तो और आगे से तुच्छ मानसिकता, मनोरोगी भी किसी भी पाप को करने से पहले सौ नहीं हजार बार सोचेंगे| क्यों ? हैं न ....सविता मिश्रा



सभी को दशहरे की हार्दिक बधाई .............

*आत्मज्ञान का प्रकाश*


किताब के कुछ पन्नों को
रॉकेट बना उड़ा दिआ  हमने
और कुछ पन्नों को आग में
जला कर ख़ाक किया हमने
लौ भभकी उजाला हुआ पर
अँधेरा (अज्ञान का)तब भी ना मिटा
कुछ पन्नों को बाचना चाहा
दिमाक की बत्ती जली
पर वह तारे की टिमटिमाहट
जैसी ही रौशनी कर सकी
अन्धकार बहुत घना था
एकाक पोथी पढ़ नहीं हटना था
इन बाहरी आडम्बरों की बजाय
अब तो आत्मज्ञान ही खोजा जाय
मन में इस अनुभूति के होते ही
जैसे ही आँख बंद कर
अंदरूनी ज्ञान बाचने लगे
कालिख अँधेरे का छटने लगा
चहुँ ओर दिव्य प्रकाश बिखरने लगा| सविता मिश्रा

Saturday 12 October 2013

दिल का साफ़ कोई नहीं दीखता


गिद्ध कौवे है बहुतेरे
हंस कही नहीं दिखता
नोंच-खसोट कर खा गये
मानस तन अब नहीं दिखता
फंसे रहे हम अन्धकार में

उजियारा कही नहीं दिखता
निकले कैसे इस अंधियारे से
फरिश्ता कोई नहीं दिखता
सब के सब भेड़-बकरी से
इंसान सा कोई नहीं दिखता
मन में राम बगल में छुरी
मन का साफ़ कोई नहीं दिखता
तन है गोरा-चिट्टा
मन के सब काले है
इस भीड़ भरी दुनिया में
दिल का साफ़ कोई नाही दिखता ||

||साविता मिश्रा||

Thursday 10 October 2013

माँ मेरे रूह में तू बसी --



खबर आई थी कि
तू अस्पताल में है माँ,
सास घर पर थीं
कमजोर दांतो को अपने

निकलवा कर-

दोनों को ही
एक समान
आदर देने के चक्कर में
कल पर छोड़ दिया था
तुझसे मिलना मैंने माँ |

पर वह कल कभी नहीं आया
बल्कि उस कल के सूरज उगते ही
एक मनहूस खबर आई थी
मेरे जीवन का सूरज
मुझमें अपना सारा तेज भरकर
डूब चुका था अनन्त में
भागते हुए पहुँची थी अस्पताल
पर नहीं मिली वहाँ
मुझे तू माँ !

मायके पहुँची तोतू वहां थी
किन्तु हमेशा के लिए
मौन हो चुकी थी
तेरा मृत शरीर सामने था
वह सब अविश्वसनीय सा था |

जीवन का पहला अनुभव था
किसी मिट्टी हुए शरीर को
झकझोर करके उठाना
आसपास फैली अजीब सी
मनुहूसियत, दुखी -मुरझाये चेहरे
आभास करा रहे थे
कि तू नहीं रही माँ !

आँसू थे कि थमने का
नाम ही नहीं ले रहे थे
आँखों के साथ मन रो रहा था
आत्मा चीत्कार रही थी

जब तुझे ले जाने लगे थे
उस तख्ती पर
तो भी समझ नहीं आया मुझे
लगा ही नहीं
कि सच में अब नहीं रही
इस दुनिया में तू माँ !

घर में आईं रिश्तें की
बहन बेटियाँ बहुएँ
जेठानी, देवरानी
सब तैयारी में लगे थे
नहाने और तेरा शरीर जहाँ था
उस स्थान को धोने में !

पवित्र करने में
छिड़क रहें थे वह गंगाजल
जो तेरे ही द्वारा लाया गया था
वह पवित्र जल भी
मुझ सा ही भ्रमित था।

हम खोये थे
बालकनी की खिड़की पर अटके
और सोच रहे थे
कि तू चिता से उठ जाएगी
सब को आश्चर्य में डाल
लौट आएगी घर अपने
रास्ता तकते रहे थे
जब तक सब न आ गए
तब तक तेरे होने की
खुशखबरी का था
बेसब्री से इन्तजार माँ !

पर
ऐसा न हुआ
फिर भी विश्वास था कि
टूट ही नहीं रहा था
जब-जब बेटी का होता है जन्म
सोचते है
शायद तू उनमें
रूप धरकर आ जाएगी
पर यह भ्रम भी
एक दो साल का होने पर
टूट जाता है
क्योंकि तुझ सा
उनमें कुछ भी नहीं दिखता ...!

ओ माँ
तू सशरीर इस दुनिया में भले ना हो
पर मेरे रूह में तू अब भी बसती है...।।

सविता मिश्रा 'अक्षजा'

माँ से बढकर दूजा शब्द नहीं 

'''गम का बाजार'''

परिस्थितियाँ कुछ ऐसी बनी कि,
हमारें अश्रु मोती बन बहे |
हुई जटिल समस्या कि ,
अब रोके ना रुकें |
गम के इस बाजार में ,
गम ही हमको मिले |
|| सविता मिश्रा ||

आईना
=======
आईना को जब हमने
आईना दिखाना चाहा तो
आईना भी शर्मसार हो गया
आईने के सामने से हट गया |
आईना कों जब हमने उसके
उसूलों को समझाया तो
वह कुपित होकर
चकनाचूर हो गया |
||सविता मिश्रा ||

Wednesday 9 October 2013

## बेटे एवं बेटी के बीच की खाई ##

आगे कुआँ पीछे है खाई ,
क्यों मतभेद करती हो माई |
मैं तो अभी नन्ही सी कली हूँ ,
तेरे ही गोदी में मैं पली-बढ़ी हूँ |
भैया को देती हो रोज दूध-मलाई ,
मुझे तो तुने हमेशा ही सुखी रोटी पकड़ाई ,
भैया तो राज-दुलारा ,आँखों का तारा ,
प्यार लुटाती हो उस पर ही सारा का सारा |
कुछ तो मुझे भी समझ ले मैया ,
ना तू मुझ से दुर्व्योहार कर ओ मेरी मैया |
एक दिन जब चली जाऊँगी घर से तेरे ,
याद आयेगे तुझे काम सब मेरे |

नहीं देगी
बहू तुझे एक गिलास
भी जब पानी ,
तब बहुत ही याद आऊँगी मैं यह बात जानी |
रोयेगी तब बहुत ही पछताऐगी,
पर मेरे दिल के घाव कैसे भर पाऐगी |
अतः जितनी जल्दी हो उतनी जल्दी  माई ,
बेटे एवं बेटी के बीच की पाट ले खाई|

||सविता मिश्रा ||


६/५/2012

Tuesday 8 October 2013

~प्यार का सागर भर जाऊँगी~(मैं बेटी हूँ)


मैं बेटी हूँ ...
जरुरत पडने पर हमारी,
हमको ही याद करती हो,
नव रात्र का उद्दयापन करने,
हमें ही घर घर ढूढवाती हो |

इतना परेशान होती हो मैया
पर अपने घर में नहीं लाती हो|
पैदा होते ही हमको,
दूध में डूबा मरवा देती हो,
या जिन्दा ही मिट्टी में गड़वा देती हो |

मैया तुम ही सोचो ,
तुम भी तो बेटी थी,
नानी जी ने मारा होता तुम्हें तो ,
तुम हमें क्या इस तरह मार पाती |
तुम बेटी होकर भी क्यों ,
बेटी को मारती जाती हो |

हममें भी जीवन को जीने की अभिलाषा है,
मैया यूँ ना खत्म करो हमें, तुमसे ही तो आशा है|
जैसे प्यार से तुने दो कुल सवाँरे है ,
मुझे भी वह करने का मौका दो |

मैं मान हूँ , सम्मान हूँ तेरा,
तु माने तो अभिमान हूँ तेरा |
मैया मुझे तुम जब दुनिया में आने दोगीं ,
जरुरत पर यूँ घर- घर डोल कन्या नहीं ढूढोगीं|

हर घर में मैं भी किलकारी मारते दिख जाऊँगी,
सबके ह्रदय में प्यार का सागर भर जाऊँगी || सविता मिश्रा

Wednesday 2 October 2013

---कड़वा सच ---


स्वयं ही स्वयं को कोसते है,
किसी से नहीं बोलेगें सोचते है |
पर जुबाँ है कि फिसल जाती है ,
कैंची की तरह चल जाती है |
सामने वाला हो जाता है घायल ,

हो जाता है उसको मलाल |
क्यों बोलती हू सच कड़वा ,
झूठ का खिलाती नहीं क्यों हलवा|
झूठ ही है दुनिया पर छाया ,
सच को कोई समझ न पाया|
झूठ बोल स्वयं पर इतराया ,
सच बोलना सबको क्यों नहीं आया |
झूठ फरेब से उकता गयी हूँ ,
सच के घेरे में आ गयी हूँ |
सच के कारन अपनो से बिछुड गयी ,
अपने ही दायरे में सिकुड़ गयी |
कोई करता नहीं है मुझको सलाम ,
क्योकि सच बोलती हूँ यह जानती है आवाम |

||सविता मिश्रा ||
26---7--98.