Saturday 16 June 2018

क्षितिज लघुकथा सम्मेलन के लिए इंदौर यात्रा --३

गतांक के आगे...भाग -३

क्षितिज तक पहुँची सविता --

अपने कमरे में तैयार हो ही रहे थे कि शोभना दीदी आकर बोली- आई-लाइनर है क्या ? हमने कहा दीदी हम तो ज्यादा मेकअप करते नहीं | हमारे पास मेकअप के नाम पर विको क्रीम और लिपस्टिक ही है तो वह हंसकर बोली तुम तो सुंदर हो ! तुम्हें मेकअप की क्या जरूरत | दो-एक और बात हुई फिर वह चली गयीं | कमरे से निकलने में लगभग 12:00 तो बज ही चुके थे। और सफ़र की थकावट से चेहरे पर भी | लेकिन हॉल में प्रवेश करते समय अभेद्य किले को भेदने की खुशी थी या लघुकथा- सम्मेलन हॉल के सजावट की खूबसूरती को निहारने की खुशी या फिर इतने अधिक संख्या में लघुकथाकारों को एक साथ देखने की ख़ुशी थी, जो भी हो हॉल में प्रवेश करते ही मन गदगद हुआ जा रहा था | अपने इंदौर नगरी अकेले ही सही आने के निर्णय पर अचानक से गर्व हो आया |
 लाल कुशन वाली कुर्सियां और कुर्सियों पर काबिज़ भिन्न-भिन्न स्थानों से आयें हुए लोग | वहां का उस समय वो पूरा दृश्य ही बहुत मनोरम लग रहा था । हमारी नज़र पहले अपनी कुर्सी पकड़ने की थी। ये कुर्सियों की चाहत भी बड़ी अजीब चीज होती है, हमारी भी चाहत थी कि आगे की कुर्सी मिले, जिससे हर गतिविधि को हम ढंग से देख-सुन सकें | दूसरे पीछे वाली कुर्सियों से वार्तालाप की आवाज़ें कानों के सुकून को हर न पाए। लेकिन बहुत देर से पहुँचने के कारण खाली सीट दिख नहीं रही थी।
फिलहाल बीच में एक कुर्सी दिखी तो चौथी- पांचवी लाइन की लाल कुर्सी का मोह भी त्याग हम सातवीं-आठवीं में ही जो कुर्सी मिली उसी से चिपक लिए। आगे सफेदपोश सोफ़े पर टिकने का मोह तो मन में बिलकुल न था। लेकिन पीछे बैठने की भी मंशा न थी | पर मरता क्या न करता बैठना पड़ा | सामने मंच इकोफ्रेंडली का अहसास करा रहा था और मन को यह भी अहसास कराने में कोई कसर न थी कि इस समारोह में महिला-कार्यकर्ताओं का वर्चश्व है| मंच की सजावट से यह साफ़-साफ परिलक्षित हो रहा था | खजूर के सूप सजाकर मंच को सजाया गया था ऐसे सूप हमारे उत्तर-प्रदेश में हमने नहीं देखे थे|
दो वृक्ष की हाथों जैसी आकृति में सूरज समाया हुआ था |
हम जब तक पहुँचे थे तब तक सांझा-संकलन और एकल- संकलन और अखबार का विमोचन हो चुका था । अध्यक्ष अपना वक्तव्य दे रहे थे ।
सबके हाथों में हम जूट का फ़ोल्डर देखे तो लगा यह भी लेना पड़ेगा। कहाँ मिलेगा ! पूछने पर पीछे बैठे लोगों की ओर इशारा कर दिया गया।
अपना नाम दर्ज करवाकर हम फ़ोल्डर और परिचय पत्र प्राप्त करके अपना नाम सविता मिश्रा 'अक्षजा' आगरा लिखकर फिर से आकर अपनी कुर्सी पर बैठ गए। फिर उसे अपनी साड़ी पर क्लिप से लगा लिए। लगाते ही गर्वान्वित-से हुए कि इस लघुकथा महाकुम्भ का हम भी हिस्सा हैं | भले ही घर से इतने दूर निकलने का जोख़िम उठाए |
सब कुछ सुनने में जितना हम कान दे रहे थे उतना ही पीछे से आती आवाज़ परेशान कर रही थी। घूमकर दो तीन बार हम पीछे देखे लेकिन कौन समझता है, समझता भी है तो कोई गौर नहीं करना चाहता था।
अध्यक्ष वक्तव्य के बाद documentary film फिल्म की उद्घोषणा हुई आवाज सुनते ही हमें यह आभास हो गया कि यह इंदौर की

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चिरपरिचित सुंदरी अंतरा सखी की आवाज है | इंदौर की ऐतिहासिक इमारतें मंदिरों से परिचित होते हुए, खाने की सराफा गलियों में घुमाकर फिर महेश्वरी की साड़ियां दिखाई गई | जिस पर हमारे ख्याल से सारी औरतों की नजरें जम गई होंगी और सारी इंद्रियों के बीच आपस में ही लड़ाई छिड़ गयी होगी | उस साड़ी को छूने और पहनने की इच्छा बलवती हो पर्स और मन भी आपस में गुत्थम-गुत्थी करने लगे होंगे| और कमोवेश यही हालात चटोरे पुरुषों के साथ भी हु-ब-हू हो रहें होंगें |
खनकती हुई आवाज़ के बंद होते ही उद्घोषणा हुई थी कि दोपहर का भोजन प्रांगण में लग चुका है कृपया भोजन के लिए आप सभी लोग पधारें |
हमारे घंटे भर बैठने के बाद ही खाने का समय हो गया था | अनाउंस होते ही सब बाहर ऐसे भागे जैसे बांधकर अभी तक रखा गया हो । बाहर निकलते ही कुछ लोग एक दूसरे से वार्तालाप में मशग़ूल हो गए कुछ खाने के लिए प्लेट उठाकर अचार-सलाद लेने में तो कई खाना लेने की लाइन में लग चुके थे |
खाना खाते-खाते लोग गुटों में बट चुके थे | सब आपस में वार्तालाप करते हुए दूसरे को निहार रहे थे व्यंजन की वैराइटी भले कम थी लेकिन सब व्यंजन लाजवाब थे | भले ही बुफे सिस्टम था लेकिन कई बंदे पूछ-पूछकर खाना परोस भी रहे थे | यानी कि भारतीय संस्कृति भी भोजन प्रांगण में विराजमान थी | इस कारण से भीड़ में घुसकर खाना लेने से हम तो बच गये थे | वो बच्चे मुस्कराते हुए जो मांगो वहीं हाजिर कर दे रहें थे | उन्हीं बच्चों की वजह से हम कस्टर्ड खा पाए वर्ना तो इतना लजीज पकवान हमसे छूट ही गया था | कैरी का रस बहुत स्वादिष्ट था |
पुनः दो बजे चर्चा सत्र शुरू हुआ | सभी हॉल में एकत्रित हो गए थे| अचानक मंचासीन विभूतियों का सम्मान करने हेतु हमारे नाम की उद्घोषणा हुई | जिसे सुनकर एक बारगी हम सकपका गये | अब तक बहुत से छोटे-बड़े कार्यक्रम अटेंड कर चुके थे लेकिन कभी ऐसे हमें नहीं बुलाया गया था | जब तक होश में आकर उठते तब तक दूसरे का नाम ले लिया गया | उसके बाद फिर हमें बुलाया गया सम्मान करने हेतु | हमने देखा हमारा नाम उद्घोषिका के पीछे खड़ी अंतरा सखी ने उनके कान में फुसफुसाया था | धीरे-धीरे ऐसे सम्मान करना भी सीख ही लेंगे |
सम्मान के बाद मंचासीन विभूतियों द्वारा वक्तव्य दिए गए | वक्तव्य का विषय था -- "लघुकथा कितनी पारंपरिक कितनी आधुनिक"
फिर दस लघुकथाकारों द्वारा लघुकथाओं का पाठ हुआ | और दो समीक्षकों के द्वारा समीक्षा की गयी |
साढ़े-तीन बजे सत्र का समापन हुआ और हाई-टी की उद्घोषणा हुई।
एक बार फिर से सभी जल्दी से जल्दी बाहर निकल गये | हमने हाई टी में से हाई को छोड़कर सिर्फ टी का दामन पकड़ा | हमें यूँ दो घंटे में ही खाने की आदत नहीं हैं | चाय-कॉफ़ी के जगह पर भी बार-बार भीड़ की वजह से पीछे हट जाते थे | चाय पर वार्ता करते हुए आधे घंटे सेकेंडो में बीते |
फिर चर्चा सत्र प्रारंभ हुआ | मंचासीन विभूतियाँ उद्घोषणा के होते ही मंच पर विराज उठी थी |  हमें फिर से विभूति का सम्मान करने हेतु बुलाया गया | सम्मान जिनका किया वह शायद हमारे ही कथा के समीक्षक थे | जिन्हें लगता है समझ आ गया था कि लेखन के क्षेत्र में यह अनाड़ी-और अड़ियल है और उन्होंने हमारी कथा की खटिया खड़ी कर दी | लेकिन वह "श्वास" नामक कथा अब भी हमारी प्रिय कथाओं में ही रहेगी |
इस बार वक्तव्य का विषय था- "हिंदी लघुकथा बुनावट और प्रयोगशीलता" | वक्तव्य और चर्चा के बाद दस लघुकथाकारों ने अपनी लघुकथाएं पढ़ीं जिसमें हम भी अपनी कथा श्वास के साथ शामिल थे | और उन पर समीक्षा की श्री अश्विनीकुमार दुबे जी और श्री राजेन्द्र वामन काटदरे जी ने।
समीक्षा के उपरांत फिर चाय के लिए एक छोटा-सा ब्रेक दिया गया |
चाय मीठी-फीकी के साथ आपसी वार्ता भी जारी रही | और आजकल की आधुनिक संस्कृति सेल्फी को कोई कैसे भूल सकता है भला | वह भी अपने-अपने चहेतों के साथ जारी ही रही | हमारे मोबाइल का कैमरा ख़राब होना भी एक बार फिर बहुत ही खला |कई लोग बड़े प्यार से मिलें जिन्हें चेहरे से हम नाम के साथ न पहचान पा रहे थे। जैसे कि नयना ताई जो पहचानने पर जोर डाली लेकिन अपनी यादाश्त का क्या कहें हम!! बाद में उनके साथ हमने कहकर फोटो ली कि जैसे भूले न अब।
पुनः बाहर की गर्मी से अन्दर की ठंडक में प्रवेश हुआ |
इस बार तृतीय चर्चा सत्र में वक्तव्य का विषय था- "लघुकथा आलोचना, मानदंड और अपेक्षायें"।
फिर से दस लघुकथाकारों द्वारा लघुकथाओं का पाठ हुआ | और दो समीक्षकों के द्वारा उनकी कथाओं की समीक्षा की गयी |
इसके बाद चतुर्थ सत्र लघुकथाओं के वाचन का ही होना था लेकिन समयाभाव के कारण उद्घोषणा हुई कि कल सुबह साढ़े नौ बजे किया जायेगा अभी लघुकथाओं पर आधारित लघुनाटिकाओं का मंचन होगा |
इधर मंचन हो रहा था उधर बादलों ने अपना मंचन शुरू कर दिया था | सोंधी खुशबू की महक अहसास दिला रही थी कि बाहर बूंदाबांदी शुरू है |
शुरू के कई नाट्य रूपांतर खूब लुभाए | नाटककारों ने नाटकों में जान डाल दी थीं | लेकिन कुछ लाइट के जाने से अवरोध हुआ और कुछ स्वर के कमतर होने से मजा किरकिरा हो रहा था | कुछ एकाकार होने के कारण और संख्या भी अधिक होने के कारण बोझिल हो गयी थीं या फिर हम सब की थकान ने अपना सिर उठा लिया था इस कारण कुछ नाट्य-रूपांतरण मन को भिगोनें में अक्षम रहीं |
उसके बाद फिर खाने का समय हो लिया | सब अपने- अपने जानकारों के बीच खाने की प्लेटें लेकर बातचीत में मशगुल हो गये | खाने में पुनः बड़े ही लजीज पकवान थे | खा-पीकर सब अपने-अपने कमरे का रुख किए | हम भी पानी ऊपर कहीं रखा हुआ है यह जानकारी लेते हुए राठी भैया से पानी के लिए कहा तो उन्होंने एक कैन रखने का फरमान जारी कर दिया | फिर हम भी अपने कमरे में चल दिए |
कपड़ा बदलते-बदलते संध्या दीदी को बताया कि पानी आपको चाहिए तो कैन रखी है बाहर | वह पानी लेने बाहर निकलीं फिर अंदर आयीं तो कहने लगी पानी तो जमीन पर रखा है, बोतल में कैसे लेंगे!  तब तक हम भी अपना नाईट-गाउन पहन चुके थे | थोड़ी बातचीत इधर-उधर की हो ही रही थी कि नीचे की आवाज़े ऊपर कमरे में पहुँचकर मन को नीचे ले आ दे रही थीं | पानी लेना ही था, हमने संध्या दीदी से कहा चलिए चलते हैं | उन्होंने कहा अब हमने तो घर वाला सलवार-शूट डाल लिया कैसे चलें! हमारे यह कहने पर कि हम तो गाउन में ही चल रहे वह उठकर नीचे आ गयीं | क्योंकि उनका भी मन मोर महुआ और नजर बुसौले पर थी |
थोड़ी देर बाद हम भी बोतल लेकर उतरे और उनकी और अपनी बोतल भरने को चल दिए | इधर गोल घेरे में कुर्सियों पर विराजे दस-बारह लोगों का ग्रुप गाने के तान को छेड़ रखा था | हम पानी लेकर आये तो भाटिया भैया बोलें कि घेरा बड़ा कर लो | छिटपुट वार्ता के बीच सभी लोग गाने ही गुनगुनाए जा रहे थे | कमाल तो तब हुआ जब मेजबान ने भी सपत्निक वहां अपनी उपस्थिति दर्ज करवा दी | उन्होंने ने भी सुर छेड़ने में देरी न की |
एक शायद हमी उस गोल में अगायिका थे | सुभाष भैया ने कहा सविता तुम भी गाओ कुछ , लेकिन हमें बिलकुल नहीं आता कहकर हम चुप रहे | एक गाँठ ही लगा दो हमने मजे लेते हुए हवा में हाथों से गाँठ लगा दी | शायद गाने में ऐसा कोई शब्द होता होगा हमें समझ कम आया हो | या फिर हम सुनने में गलती किये हो | कुल मिलाकर मुझ अनाड़ी को भी लोगों के सुर खूब भा रहे थे | गाने सुनते-सुनाते वक्त बीच में भाटिया भैया ने बड़े मार्के की बात की कि कभी जमाना था आदमी-औरत ऐसे एक साथ बैठ हंसी-ठठ्ठा नहीं कर सकते थे |
सच ही तो कहा उन्होंने जिस वातावरण से हम सभी आते हैं ऐसे कौन बैठता था महफ़िल लगाकर | वह भी आभासी दुनिया के लोगों के साथ आज से तीन चार पहले तक तो  सोच भी नहीं सकता था | लेकिन यह आभासी दुनिया से निकले रचनाकारों की कलम का ही कमाल है कि रिश्ते भी पाक बनने लगे और अजनबी शहरों में अजनबियों के बीच भी कईयों  में अजनबीपन न दिख रहा था | ट्रेन में चार परिवारों के बीच का विशवास यहाँ भी बहुत से अजनबियों के बीच तारी ही रहा | हम कई लोगों से कई-कई बार मिल चुके थे इसलिए हमें तो सब अपने से लगे | गाने का दौर खत्म हुआ तो सब अपने-अपने बिस्तर पर पसरने को बेताब हो उठे क्योंकि सफर की थकान, फिर दिनभर कार्यक्रम की थकान और कल फिर कार्यक्रम चलेगा इस बाबत सोच की थकान भारी पड़ रही थी | पलंग पकड़ते ही निंद्रा माई ने जल्दी ही हमें अपने आलिंगन में भर लिया, और शायद सभी को भी! उस दिन सभी ही थकान के कारण अनुमानतः सभी ही घोड़ा बेचकर सोये होंगे | क्रमशः

दो जून को लघुकथाकारों द्वारा की गयी लघुकथाएँ ...
सत्र-- 1
समीक्षाकार:-- श्री श्यामसुंदर दीप्ति / श्री संतोष सुपेकर

1- कपिल शास्त्री-- पंगत
2- नयना कानिटकर-- बापू का भात
3- शोभना श्याम-- इंसानियत का स्वाद
4- मधूलिका सक्सेना-- अगली पीढ़ी
5- मधु जैन-- अंतिम पंक्ति
6- ड़ॉ लीला मोरे धुलधोए-- श्रवण कुमार
7- डॉ मालती बसंत-- भाग्यशाली
8- कविता वर्मा-- नालायक
9- अंतरा करवड़े-- शाश्वत

सत्र- 2

समीक्षाकार: -- श्री अश्विनीकुमार दुबे / श्री राजेन्द्र वामन काटदरे

1-डॉ रंजना शर्मा-- ममत्व
2-सीमा भाटिया-- आईना बोल उठा
3-कोमल वाधवानी-- खाली थाली
4-नीना छिब्बर-- उदास घर
5-उषा लाल मंगल-- संस्कार
6-सविता मिश्रा 'अक्षजा'-- श्वास
7-डॉ वर्षा ढोबले-- ढोल
8-डॉ संध्या तिवारी-- चिड़िया उड़
9-मनोज सेवलकर-- नियति
10-पवन जैन-- वैवाहिकी

सत्र --3
समीक्षाकार: --श्रीमति मालती बसंत / श्री प्रताप सिंह सोढ़ी

1-कल्पना भट्ट-- धरती पुत्र
2-अनघा जोगलेकर-- जज्बा
3-कुमकुम गुप्ता-- फूलों का झरना
4-सेवा सदन प्रसाद-- बेशर्मी
5-शेख शहजाद उस्मानी-- भूख की सेल्फी
6-मधु सक्सेना-- माँ ही तो है ना
7-नीना सोलंकी-- पछतावा
8-आशा सिन्हा कपूर-- प्रीत पराई
9-अनन्या गौड़-- शक्ति
10- गरिमा संजय दुबे-- घर की मुर्गी
समयाभाव के कारण चौथा सत्र तीन जून के लिए कर दिया गया |




Monday 11 June 2018

क्षितिज लघुकथा सम्मेलन के लिए इंदौर यात्रा --2

गतांक के आगे...भाग -2

मन में अनजाना-सा डर लेकर अंततः ट्रेन आने का इंतजार शुरू हो गया। ट्रेन देहरादून-इंदौर साढ़े चार बजे आने को थी | देर होते-होते आयी 7:15 पर। पतिदेव एक कांस्टेबल को फोन कर दिए कि डिब्बा देख लें कि किधर लगा है | जैसे कि डिब्बा ढूढ़ने में समय बर्बाद न हो। मथुरा से चलते ही कांस्टेबल ने फोन कर दिया। पतिदेव बिटिया से कहकर सैंडविच बनवा दिए। बिटिया ने बनाकर पैक करके बैग में रख दिया। पतिदेव कैंट स्टेशन पर तैनात अपने मित्र से बात करके पानी-चाय देने के लिए बोल दिए। हम पानी दो बोतल लिए थे, लेकिन उन्हें अंदेशा था कि ट्रेन लेट पहुँचेगी, अतः और पानी को अपने मित्र से बोल हमें हिदायत दी कि ट्रेन से पानी या चाय के लिए उतरना मत। हर हिदायत पर बच्चों-सा हम हामी भरते रहें।
10 मिनट पहले ही कांस्टेबल ने खबर किया तो पतिदेव हमें लेकर घर से चल दिए स्टेशन तक छोड़ने । हमारी सीट पर कांस्टेबल बैठकर अधिग्रहण कर ही चुका था। पतिदेव के साथ स्टेशन पर पहुँचते ही ट्रेन आ गयी। कांस्टेबल बाहर आकर एयर-बैग लेकर अंदर हो लिया । जैसे ही हम अंदर घुसकर  केविन के गेट पर पहुँचे कि शोभना श्याम दीदी दिख गयीं। कई बार मुलाकात हो चुकी थी इसलिए साइड से देखने पर भी पहचान लिए। उन्हें देखते ही अपना डर रफ्फूचक्कर हो गया ।  पतिदेव अपनी सन्तुष्टि के लिए चढ़ लिए थे मेरे साथ, लेकिन ट्रेन चलने को हो गयी तो तुरन्त उतर गए।
हमें कांस्टेबल ने सीट बताकर सामान सीट के नीचे रख दिया। तभी शोभना दीदी उसी केविन में आ गयीं। हमें लगा वाह क्या संजोग है डिब्बे में नहीं बल्कि हम दोनों तो आमने-सामने नीचे वाली ही सीट पर हैं। पतिदेव ने भी पूछा कि जो मिली थी वह वहीं जा रहीं । हमारे हां कहते ही वह चिंतामुक्त होकर बोले तब तो ठीक है न। ध्यान रखना कहकर फोन काट दिया। कैंट पर पानी-चिप्स-और फ्रूटी एक वर्दीधारी दे गए। वर्दी ही काफी थी इसलिए चेहरा देखना जरूरी न लगा। जब ट्रेन चली तो पतिदेव को भी बता दिए कि ट्रेन कैंट से चल दी है और कोई दे गए हैं चीजें। 
ट्रेन चलती रही और चलती रही हम दोनों और एक और महिला की बातें। एक नटखट बच्चा भी ध्यानाकर्षण कर रहा था। टिफिन निकालकर सैंडविच खाया हमने एक दीदी को बढ़ाया एक उस बच्चे को। उधर मिडिल सीट वाली महिला नमकीन ऑफर करीं। लगा कितना भी आदमी डरे लेकिन विश्वास पर फिर भी चलता है। विश्वास पर ही तो चंद घण्टों की मुलाक़ात के कारण ही तो हम चार परिवार एक दूजे की दी हुई चीज खा रहे हैं। 
ट्रेन की केविन काफी गंदी थी लेकिन उसमें बैठे सभी लोगों का स्वभाव अच्छा था। बातों बातों में यह भी अजब संजोग था कि कइयों के नाम उस केविन में s से थे। केविन से ज्यादा गंदा था हमेशा की तरह बाथरूम। लग ही नहीं रहा था कि यह एसी थ्री टियर है। पहले बाथरूम में दो बार जाकर देख चुके थे गंदगी तो दूसरे वाले में चले गए। और कर बैठे गलती। चटकनी बड़ी टाइट थी जिसे हमने लगा तो दिया था लेकिन खुलने में मशक्कत करनी पड़ी। हमारे घबरा जाने के कारण भी शायद नहीं खुल रही थी। ऐसे तैसे न जाने कैसे तो खुली लेकिन अँगूठे को चोटिल कर गयी। उस समय तो हल्का-सा मीठा-मीठा दर्द था। लेकिन घर आने पर पता चला कि नाखून फट गया था |जिसे नेलकटर से काटकर हटाये।
उधर बाथरूम से निकलकर चुपचाप फिर सीट पर बैठ लिए इधर खाना-पीना सबका चला फिर थोड़ी देर बाद में उस बच्चे का परिवार किसी और केविन में बैठ गया। एक लड़की थी जिसे शिवपुरी उतरना था। उस कारण हम मीडियम वाली सीट को खोलकर लेट नहीं सकते थे। वह ऊपर से आकर नीचे बैठी थी। शोभना दीदी के सीट खोल लेने पर वह हमारे ही बगल बैठ गयी थी। जिस ट्रेन को लेट होने के बावजूद दस बजे उस लड़की के स्टेशन पर पहुँच जाना चाहिए था लेकिन नहीं पहुँची। अब-अब करते-करते बारह बज गए। पीट अकड़ने लगी थी क्योंकि घर में ये भी करना वो भी काम करना के चक्कर में आराम न कर पाए थे। शोभना दी तो पसर चुकी थी लेकिन वार्ता में शामिल रही।
तभी बगल वाली महिला ने कहा कि आने वाला है। उसका लगेज काफी था तो हमने कहा गेट के पास रख लो क्योंकि ट्रेन रुकेगी दो मिनट को ही।
बड़ी-सी अटैची, दो तीन छोटे-मोटे बैग। पूछने पर उसने कहा कि कमरा छोड़ दिया इसलिए सारा सामान उठा लाये जो बेचने के बाद बचा। 
उसको अकेली देख हमने उसके साथ उसका सामान गेट तक पहुँचवाया । फिर अकेली लड़की रात में अकेले गेट पर खड़ी रहे, यह बात इस जमाने के अनुसार हजम न हुई इसलिए हमें लगा साथ ही खड़े रहें हम भी। एक से भले दो सही है। 
लेकिन ट्रेन को तो खच्चर बनना था तो बनी। दस मिनट के बजाय आधे घण्टे उसके साथ वही खड़े रहें।  स्टेशन नहीं आना था तो नहीं आया।  गेट खोलने पर हर बार गुप्प अंधेरा दिखता। रुकती भी तो जंगल में। उसने बताया कि उसके पापा और बहन स्टेशन पर खड़े हैं। बच्ची को भी चिंता हो रही थी कि रात में बहन एक घण्टे से स्टेशन पर खड़ी है। हमने उससे कहा बेटा छोटा बैग लेकर और यही छोड़ सीट पर बैठते हैं। 
अततः 1:15 या 1:20 पर ट्रेन पहुँची। वह उतर गई तो मीडिल वाली सीट खुली, हमने नीचे वाली पर अपना विस्तर लगाया और लेटकर सो गए।
सुबह नींद खुली तो चाय की इच्छा हुई। दीदी चाय ले आयी तो हमने भी सोचा पी लें। उनसे पूछा तो उन्होंने कहा दस की दे रहा लेकिन चाय ठीक-ठाक है। हम गेट पर गए तो सामने ही स्टाल थी, उतरकर ले लिए। शोभना दीदी द्वारा दिया बीस का नोट उसे पकड़ाया तो उसने हमें तेरह रुपये लौटाए। दीदी को पूरे पैसे दिए तो वह आश्चर्य चकित हुई। हमें दस में दिया, बगल वाली से पूछा तो उन्हें भी दस में दिया। तुन्हें कैसे सात रुपये में दे दिया। खूब हंसे हम तीनों इसपर। अब यह तो राम ही जाने की उसने किसी को दस और किसी को सात में क्यों दिया। 
बातचीत का दौर फिर शुरू हो गया। गाड़ी खच्चर फिर हो चुकी थी। अंततः हम लोग दस बजे इंदौर के स्टेशन पर पहुँच गए। हमें कुछ करने की जरूरत ही न पड़ी दीदी ने फोन पर सूचित कर दिया था कि 10 बजे तक पहुँच जाएगी गाड़ी।
स्टेशन पर उतरकर जिधर दीदी चली उधर चल दिए। स्टेशन से बाहर निकलते ही सतीश राठी भैया द्वारा भेजी गई कार थी। हम दोनों को न पहचानने की वजह से ड्राइवर बगल में ही खड़ा होने पर भी समझ न पाया । लेकिन दीदी के फोन करने पर वह बोला लाता हूँ गाड़ी। गाड़ी वहीं आयी और हम दोनों को बैठाकर कार्यक्रम स्थल तक पहुंचा दी।
इस तरह अभेद्य किले का अंतिम दरवाज़ा बेधते हुए क्षितिज के मैदान पर सविता ने कदम रख दिया था। यानी की कहाँ जा सकता है जब ठान लो कोई चीज तो सारी कायनात जुट जाती है आपकी इच्छापूर्ति हेतु। हमारे साथ भी यही हुआ। पहले क्षितिज लघुकथा सम्मेलन का समय बढ़ना फिर ट्रेन की सीट येन वक्त पर कन्फ़र्म होकर मिलना, फिर ट्रेन में शोभना दीदी का मिलना । जहां चाह वहाँ राह बनाते हुए हम सम्मेलन स्थल के गेट से अंदर कदम बढ़ा दिए।
 जहां जितेंद्र गुप्ता भैया द्वारा हमें थोड़ा भटकाया गया। लिफ्ट से ऊपर नीचे फिर बाहर हॉल में खड़े हुए तो थकान के कारण पारा हाई होना ही था लेकिन ऐसे बड़े कार्यक्रम में छोटी-छोटी बातें हो जाती हैं सोचकर हम शांत रहें लेकिन शोभना दीदी भड़क गई थीं। खैर 111 कमरा नम्बर जो कि संध्या तिवारी दीदी के साथ शेयर था उसकी चाबी के लिए हॉल से बाहर उन्हें बुलवाकर चाबी उनके द्वारा हमें मिली। कमरे में जाते हम इससे पहले ही राठी भैया की बहू ने नाश्ते की प्लेट पकड़ा दी क्योंकि नाश्ते का समय खत्म हो चुका था। सारा सामान लगभग समेटा जा चुका था। पोहा-साबूदाने के नमकीन लड्डू और जलेबी का नाश्ता करके चाय पी, फिर कमरे में चले गए स्नानादि करके लघुकथा सम्मेलन समारोह में शामिल होने के लिए। जिसके लिए 15 घण्टे का सफर करके आये थे। क्रमशः

Sunday 10 June 2018

क्षितिज लघुकथा सम्मेलन के लिए इंदौर यात्रा --1

पहला भाग---

कहीं की भी यात्रा करने का मतलब है कि एक औरत का अभेद्य किला को फतह करने के अभियान पर चलना |
औरत को घर की दहलीज लांघने से पहले एक युद्ध लड़ना पड़ता है | घर की जिम्मेदारियों से मुक्ति का युद्ध! अपनी जिम्मेदारियाँ किसी के कन्धों पर टांगने का युद्ध | फिर कहीं जाना कितना जरूरी है या नहीं इस मुद्दे को साबित करने का युद्ध |
पुरुष वर्ग को कहीं जाना होता है तो घर में फ़रमान जारी कर देता है,लेकिन एक स्त्री के साथ ऐसा बिलकुल नहीं होता है | उसे घर से बाहर निकलने से पहले बहुत कुछ सोचना-समझना पड़ता है | हमें भी इस यात्रा से पहले बहुत ज्यादा मशक्कत करनी पड़ी और हिम्मत भी | क्योंकि अकेले जाने के नाम से ही भय दिलो-दिमाग पर तारी हो जा रहा था |
लघुकथा सम्मेलन में सबसे जाकर मिलना और सभी के विचारों से अवगत होने की महत्ता जाहिर करके पतिदेव से अनुमति और बच्चों से अपने जाने का आदेश-सा सुनाकर हमने इंदौर यात्रा के किले का पहला दरवाज़ा भेद दिया था | 
अब मामला दूसरे दरवाजे पर आकर अटक गया था | अंतरा करवड़े सखी से वार्ता करके पता किया कि कौन परिचित आ रहा है ! लेकिन संध्या तिवारी दीदी के अलावा किसी का पता न चल पाया | फिर दिमाग ने निर्णय लिया कि इंदौर नहीं जाना | अकेले जाना फिर वहाँ अकेले ही घूमना सम्भव ही नहीं है | लेकिन एक दिन पता चला कि नामिनेशन पांच अप्रैल तक बढ़ गया है, जो की पहले बीस मार्च था शायद | बस उसी दिन दिल ने निर्णय लिया कि जाना है और तुरंत ही रात ग्यारह बजे के आसपास हमने कविता वर्मा दीदी को मेसेज कर दिया | फिर दूसरे दिन सतीश राठी भैया से बात करके अपने आने की सूचना प्रेषित कर दी | इस तरह दिल पर कब्ज़ा करके हमने दूसरा दरवाज़ा फतह कर लिया |
अब तीसरा दरवाज़ा मजबूती से अड़ा हमें मुँह चिढ़ा रहा था |
चार दिन बिटिया से विमर्श करके तय हो गया कि बिटिया आगरा आकर मेरे कन्धों का भार अपने कन्धों पर ले लेगी | इस तरह तीसरा दरवाज़ा भी फतह हुआ | 
अब चौथे दरवाजे पर जोर आजमाइश चालु हो गयी | बड़े बेटे ने टिकट करा दी | और नामिनेशन के दो-हजार रूपये भी जमा कर दिए | पन्द्रह मई तक जाने की सीट में तीन वेटिंग (rac) ही जा रही थी | तो लगा कि शायद ईश्वर को हमारा इंदौर जाना नहीं मंजूर है | अंतिम डेट के हफ्ते भर पहले सतीश राठी भैया ने पता कन्फर्म करने के लिए फोन किया तो हमने कहा कि सीट कन्फर्म ही नहीं हुई है तो शायद न आना हो हमारा | लेकिन उन्होंने आश्वत किया कि हो जाएगी चिंता न करें | आपका नाम हमने अपने एक परिचित को दे दिया है आप उन्हें लघुकथा सम्मेलन में जा रहे हैं बता दीजिएगा | लेकिन समय बीतता जा रहा था और सीट थी कि तीन वेटिंग पर ही अटकी पड़ी थी | हमें इंदौर दौरा स्थगित होता ही दिख रहा था कि पतिदेव ने दो दिन पहले अपने एक जानने वाले से बात करके हमारी टिकट की सारी डिटेल देते हुए रिजर्ब कोटा लगवा दिया | दूसरे दिन पता चल गया कि कोटा लगा दिया गया है फिर हमने रात में आश्वत होकर तैयारी फटाफट कर ली | दो बजे रात तक हर सामान यादकर के रख लिया | प्रोग्राम और मंदिर दर्शन करने में साड़ी ही पहनना इस कारण साड़ी की संख्या सलवार-सूट से जयादा रख ली हमने |
सुबह साढ़े दस बजे खुशखबरी मिली कि B-१ में सीट नम्बर ५२ हमें प्राप्त हो गयी है इस तरह मजबूत चौथा दरवाज़ा भी बड़ी जदोजहद के बाद हमारे कब्जे में आ गया था |
पतिदेव हिदायतें देते हुए हर जरुरी चीज रखने की याद दिलाते रहें और फोन-पर-फोन करके ट्रेन की लोकेशन पता करते रहे तो बिटिया चुहल करती हुई बोली ऐसा लग रहा है जैसे पापा मम्मी को विदेश भेज रहे हैं | 
इतना ध्यान हमारे आने-जाने पर नहीं देते हैं | ऐसी ही होती हँसी-ठिठोली में एक पिता अपने बच्चों को कितना प्यार करता याद दिलाते रहे और यह कहकर बचते रहें कि मम्मी पहली बार अकेले जा रही है न ! 
हमारे अंदर भी सोया बैठा डर रह-रहकर जाग रहा था | ऐसा लग रहा था मानो कि कोई बच्चा अपनी माँ की गोदी से निकलकर चाची की गोदी में जा रहा हो | क्या जा लेंगे ! भूलेंगे तो न ! क्या अच्छे से पहुँच जाएंगे फिर वापस आ लेंगे | क्योंकि हमारे आने का तो प्रोग्राम खत्म होने के बाद था | अतः कैसा होटल होगा, आने में कैसे स्टेशन तक आयेंगे, ट्रेन पर चढ़ लेंगे इसका ज्यादा डर था | आगे क्रमशः ...
savita मिश्रा 'अक्षजा'