Friday 30 October 2020

प्यार की महक/लघुकथा

 कथादेश पुरस्कृत लघुकथाएँ (पुस्तक)

सम्पादक - श्री हरिनारायण एवं श्री सुकेश साहनी
लघुकथा - प्यार की महक

हर दिन कभी फोन पर कभी आमने-सामने सावन की फुहार-सा पति का प्यार पत्नी पर बरसता रहता था। पत्नी रेखा प्रेम के घने बादलों को ओढ़े हुए अपने घर के कोने-कोने में भाद्रपद के मेघ-सी बरसती रहती थी । गलती होने पर भी मम्मा डांटती नहीं है यह देखकर बच्चें भी खुश रहते थे। घर का हर कोना खिलखिलाता रहता था। रसोई भी तरह-तरह के पकवानों से महकती रहती थी।

लेकिन आज सुबह से सब कुछ उलट चल रहा था । बड़ा बेटा अपनी बहन के कान में फुसफुसाया- “आज कोई गलती नहीं करना ! मम्मी का पारा चढ़ा हुआ है ।”
“क्या हुआ ?”
“सुबह ऑफिस जाते समय पापा से मम्मी की लड़ाई हो गई है।” वह डरते हुए बोला |
“ओह! तब चलो ! पढ़ने चलते हैं । टीवी बंद कर दो।”
रेखा के काम तो सभी हो रहे थे लेकिन गुस्से के साथ । आज रसोई से बर्तनों की आवाजें उछलती हुई बच्चों के रूम तक पहुँच रही थीं। बच्चे समझ रहे थे कि आज कुछ पसंद का खाना खाने को कहना, मतलब आग में घी डालना। जो बनकर आया, शांति से थोड़ा-सा खा लिया । स्वाद जीभ को खराब लगा लेकिन माँ के आगे उन दोनों का चेहरा मुस्कुरा रहा था ।

तभी पति का आगमन हुआ- “क्या हुआ ! रोज की तरह मेरा स्वागत नहीं करोगी?”
पति  रेखा के चेहरे पर झुका लेकिन रेखा चमककर रसोई में चली गई । पति भी उधर चला और उसने एक लाल गुलाब रेखा को पकड़ा दिया । फिर भी प्यार की महक से घर नहीं महका। अकेले गुलाब की सुगंध ही रसोई में विचरण करने लगी।
पति ने जेब से मीठा पान निकाल रेखा के मुँह में डालते हुए बोला- “महीनों से लड़ाई नहीं हुई थी। मीठा ज्यादा होने से उसमें कीड़े पड़ जाते हैं । जिंदगी में कुछ नमकीन भी होना चाहिए न! नमकीन के बाद जो मीठा खाने का स्वाद आता है न! उसकी तो पूछो ही नहीं।”
पान की शौक़ीन रेखा के मुँह में प्यार से खिलाए पान के घुलते ही सुबह से गमगीन पड़ी रसोई फिर से चहक उठी। यह चहचहाहट एक बार फिर बन्द दरवाजों को भेदती हुई पूरे घर में फैल गई । पूरा घर फिर से महक उठा | बेटे की खनकती आवाज गूंजी – “मम्मी ! आलू के पराठे बनाइएगा । बहुत तेज भूख लगी है।”

सविता मिश्रा 'अक्षजा'
आगरा, (प्रयागराज)
2012.savita.mishra@gmail.com
ब्लाग - मन का गुबार एवं दिल की गहराइयों से |   

Thursday 1 October 2020

समीक्षा- रोशनी के अंकुर (लघुकथा संग्रह) /डॉ लता अग्रवाल

 जीवन के केनवास पर बुनी लघुकथाएँ


पुस्तक – रोशनी के अंकुर 

विधा- लघुकथा

लघुकथाकार  - सविता मिश्र ‘अक्षजा’

प्रकाशक -  निखिल पब्लिकेशन आगरा

पृष्ठ – 152 

कीमत – १५0/-


आज विश्व का परिदृश्य बदला हुआ है | व्यक्ति से लेकर प्रकृति भी विकास की दौड़ में है फिर भला साहित्य कैसे पीछे रह सकता है | आखिर मानवीय चेतना का प्रतिबिम्ब ही तो है साहित्य | आज साहित्य भी मानवीय चित्त की गति से प्रेरित है, अत: साहित्य की विधा लघुकथा कैसे इस दौड़ से पीछे रह सकती है | अपने साहित्य को समृध्द करती लघुकथा आज विकास के सोपान छू रही है | लघुकथा साहित्य को समृध्द करने में महिला लेखिकाओं की एक लम्बी श्रंखला  रही है | इसी श्रंखला में आगरा की लेखिका सविता मिश्रा ‘अक्षजा’ भी एक सम्मानित नाम है |

सविता जी का प्रथम लघुकथा संग्रह ‘रोशनी के अंकुर’ मुझे प्राप्त हुआ | यदपि प्रतिक्रिया देने में बिलम्ब हुआ | एक सौ एक लघुकथाओं का यह संग्रह लेखिका की अवलोकन दृष्टि से अवगत कराता है | वे कितनी बारीकी से परिस्थितियों का मूल्यांकन करती हैं | यूं भी कहन में वक्रोक्ति उनका गुण है उनका यह गुण मुझे बेहद पसंद है | अब संग्रह की बात करूं तो अमूमन जो होता है अधिकांश लघुकथाएँ स्त्री विमर्श पर लिखी गई हैं | आरम्भ वे तीन पीढ़ियों को लेकर लघुकथा से करती हैं | ‘माँ अनपढ़’ यही जिंदगी है ज्ञान सतत गतिमान रहता है यही कारण है कि हर पिछली पीढ़ी को अगली पीढ़ी का अनुगामी होना  होता है | इसी तरह ‘मात से शह’, श्याम वर्ण लड़की की पीड़ा के साथ दहेज के संकट को रेखांकित करती है साथ ही नायिका द्वारा उठाये कदम के माध्यम से  स्त्री सशक्तिकरण का रास्ता भी दिखाती हैं,

“आपकी गलती सुधरने के लिए मैं कोई गलती क्यों करूँ ?” ‘वर्दी’ ‘अधूरा कोटा’, वर्दीधारियों की पत्नी का दर्द बयाँ करती है | वाकई इन पत्नियों को सलाम जिनकी भावनाएं वर्दी की भेंट चढ़ जाती है | सविता जी के जीवन साथी भी इसी महकमे से हैं अत: वे इस वर्ग की महिलाओं के दर्द को बेहतर समझ पाई हैं | ‘इज्जत’ स्त्री का स्त्री से सवाल, “मम्मी अगर भाभी की जगह मैं होती तब भी क्या आप ऐसा ही करतीं ?” स्त्री विमर्श पर बड़ा सवाल है | ‘सबक’ ‘आहट’ लघुकथा संग्रह की श्रेष्ठ कथाओं में से हैं | एक गरीब की बेटी के जीवन का मर्म उजागर करती है  | मुझे लगता है इसका शीर्षक ‘दरवाजा’ अधिक उपयुक्त होता |

“बाबा तुम्हारे जवाई के दिल का दरवाजा मेरे लिए खुला है या बंद, ब्याहने से पहले तुमने यह देखा ...?” यह सवाल समाज की कई बेटियों का प्रतिनिधिव करता है | इसी प्रकार सुरक्षा घेरा , दंश, दूसरा कंधा  सबक , नशा , हस्ताक्षर ,इन्सान ऐसा क्यों नहीं ...स्त्री सम्बन्धी गम्भीर मुद्दे उठाती हैं | ‘एक बार फिर’ नारी सशक्तीकरण की लघुकथा है | ‘सीमा’ स्त्री सजगता की लघुकथा है | ‘वेटिकन सिटी’, “इस जंगल में स्त्रीलिंग होकर जीना आसान नहीं |” सम्पूर्ण समाज को कटघरे में खड़ा करती है|

‘संपन्न दुनिया’ कटाक्ष है इंसान पर, कैसे आज मानवता कैद हुई है अपने खोल में। ‘पेट दर्द’ जैसा मैंने कहा वक्रोक्ति में सविता जी का कोई जवाब नहीं, यह लघुकथा इसका बेहतर उदाहरण है | अक्सर महिलाएं इस रोग की शिकार बताई जाती हैं मगर लेखिका ने लीक से हटकर शर्माजी को इस रोग का शिकार बनाया व्यंग्य का पुट लिए सार्थक लघुकथा है | ‘कागज का टुकड़ा’ प्रेम पत्र के माध्यम से इंसानी सोच का आवरण हटाती बहुत बढ़िया लघुकथा |आज डॉक्टरी महत्व प्रोफेशन बनकर रह गई है जिसका मुंहतोड़ जवाब देती है युवती,

“गृहिणी बनकर तो मैं सेवा करुँगी ही , लेकिन डाक्टरी की डिग्री लेकर भी मैं सेवा ही करुँगी| मुझे प्रोफेशन के तौर पर कोई लाइन नहीं चुननी है |” 


संग्रह की कुछ लघुकथाएं समर्पित है रिश्तों को, ‘प्यार की महक’ पति-पत्नी के मधुर रिश्तों को दर्शाती है, दोनों का गतिमान होना बहुत आवश्यक है उनकी नोकझोंक प्यार को और भी चटपटा बनाते हैं | बेटी की गृहस्थी की ‘तुरपाई’ करती एक ‘माँ की सीख, “ बेटी प्यार और थोड़ी सहनशीलता से बड़ी -बड़ी उलझनें सुलझ जाती हैं |‘आस’ सामान्य कथा लगी, ‘खुलती गिरह’ सास बहू के बीच उगती कटीली झाड़ियां में परिवार कैसे उलझ जाता है | अक्सर यह पूर्वाग्रह भी हो जाता है, इसलिए लेखिका कहती हैं,यह उक्ति अपनाई जाए कि, 

“सुने क्यों यदि सुने तो गुने क्यों ?” अमूमन स्त्री विमर्श पर ही प्रताड़ना के विषय लिए जाते हैं | इस दृष्टि से ‘टीस’ विषय नया है | पुरुष की प्रताड़ना भी साहित्य का विषय है जो सामने आना चाहिए ,

“ बेटा ! गिरा दो अंजलि का जल तुम परशुराम भले बन जाओ पर मैं जमदग्नि नहीं बन सकता हूँ |” ‘बेबसी’ व्यस्त जिंदगी में बच्चों द्वारा माता-पिता की उपेक्षा है | ‘नजर’ मूर्तिकार का मूर्तियों से प्रेम भरा रिश्ता, वाकई में जिस प्रकार मां के लिए बच्चे उसकी कृति हैं जिनसे उसे अनन्य प्रेम है उसी तरह एक मूर्तिकार के लिए उसकी कृति बच्चों के समान ही प्रिय होती है | खुशबू और फांस रिश्तों के दो रूपों को दर्शाती है |‘तीसरा’ ‘ठंडा लहू’ लघुकथा को अगर कहूँ साहित्य में दंगल की पीड़ा को मुखर किया है| इसे अगर महज लघुकथा तक न रखकर सम्पूर्ण साहित्य को दृष्टि में रखकर लेतीं तो कहानी का कद और बड़ा हो जाता |


‘अभिलाषा’ कथा मानवेत्तर (चूड़ियों के माध्यम से ) नारी जीवन की विसंगति को कुशलता से प्रस्तुत किया है | यह भी संग्रह की श्रेष्ठ लघुकथाओं में स्थान पाती है | ‘निर्णय’ देश में योग्यता की उपेक्षा पर कटाक्ष है |‘मन का बोझ’ सुप्त होती संवेदना पर एक चिन्तन दृष्टि है |एक ऐसी घटना की गवाह मैं भी हूँ अत: कह सकती हूँ कथा यथार्थ के करीब है |

‘हाथी के दांत’ कहावत को, ‘मन का चोर’ चरित्र को उजागर करती है|

‘ढाढस’ समाज के दो वर्ग का चित्र सामने रखती है, एक वर्ग के लिए महज दिखावा है जिसका अंत नहीं और दूसरे वर्ग के लिए जीवन भूख पर जिन्दगी अटक जाती है |‘रिश्ता’ कहते हैं हृदय परिवर्तन के लिए एक पल काफी होता है | यह लघुकथा दिल को छू जाती है | जिस सौन्दर्य पर कुछ समय पहले स्वयं मोहित था उम्र का एहसास होते ही उसे बिटिया के रूप में स्वीकार करना ...लेखिका ने अच्छा मोड़ दिया कथा को ,

“तू मेरे भतीजे का ब्याह इस बिटिया से करा दे |”

‘कथा है’ सहमत हूं लेखिका के विचारों से ,

“मत सुन किसी की तू ,आपस में ही सब एकमत नहीं हैं | तू दिल से लिख, दूसरों के दिल तक जरूर पहुंचेगी |” हमने अगर सच्ची संवेदना के साथ लेखन किया है तो वह पाठकों तक पहुंचता है और यही हमारा सबसे बड़ा सम्मान है |

‘बिन मुखोटे के’ श्रद्धा और आस्था के महत्व को दर्शाती है |

आज का यथार्थ दर्शाती , ‘नीयत’ बेहतरीन लघुकथा है | स्मृतियां उतनी मायने नहीं रखती जितनी मां की विरासत | एक पिता की अनुभवी आंखें उस भाव को पहचान जाती है ,

“बिटिया बंद कर दे मां की अमानत वरना बिखर जाएगी |” ‘आत्मग्लानि’ विडंबना है,

“आजकल सिद्धांतों की रस्सी पर बिना डगमगाए चलना वाकई बहुत मुश्किल है|” ‘बदलाव’ ‘रावण मन के भीतर बैठा है’ स्त्री विमर्श के मुद्दे को अलग अंदाज में उठाती है लेखिका | राजनीति - कूटनीति परिवारों में भी घर कर गई है | ‘मीठा जहर’,  बताती है | कंस मामा जिंदा हैं| ‘पेट की मजबूरी’ जैसी लघुकथा देश का  दुर्भाग्य है | ‘भूख’ एक जीवन रक्षक (डॉक्टर) की अपने पेशे से बेईमानी और लिंग भेद की कथा है|  ‘दर्द’, यक्ष प्रश्न बाल सुलभ मन की लघुकथा है| ‘परछाई’ से प्रेमचंद की कथा ईदगाह स्मरण हो आई | उसी तरह ‘अस्त्र’ जमीन पर लोटना बच्चे अपना जन्मसिद्ध अधिकार और सर्वव्यापी अस्त्र मानते हैं| ‘आशंका’ समय की मांग है ‘मुझे भी गुड टच बैड टच के बारे में पता है। अंकल ने तो बस प्यार से चॉकलेट दी थी|”

‘ब्रेकिंग न्यूज़’ में थोड़ा अटक गई | कारण इस तरह के शब्द प्रयोग नहीं होते वह भी तब जब लाइव प्रोग्राम चल रहा हो ,

“अबे बुड्ढा जाके खोज, होगी कहीं मुंह काला कर रही होगी ...देख नहीं रहा हम ब्रेकिंग न्यूज़ चला रहे हैं |” ‘पाठशाला’ लघुकथा बताती है वही ज्ञान बड़ा होता है जो जीवन की पाठशाला में पढ़ा हो | ‘सच्ची सुहागन’ मार्मिक रचना है | ‘सर्वधाम’ बहुत बढ़िया लघुकथा है। चारों धाम माता-पिता की सेवा, इससे बढ़कर कोई धर्म नहीं| एक संदेश परक रचना है इनकी दरकार है आज | 

‘बेटी’ बाप बेटी के प्रेम के साथ स्त्री के आत्मविश्वास की कथा है ,

“आपकी तरह अपनी बिटिया के शक्तिशाली हाथों को पकड़ मैं भी चौथा पड़ाव पार कर लूंगी |” सीख देती लघुकथाएं हैं, ‘अफवाहों के बीच’, संगत का फल भुगतना पड़ता है | प्रणव की संगति ने उसकी दुर्गति की | ‘ग्लानि’ पर्यावरण पर पोते द्वारा दादा को दी सीख है | ‘ठंड’ लघुकथा में अपेक्षाकृत कुछ अधिक विस्तार हो गया, ‘राक्षस’ आज तार-तार  होते रिश्ते समाज की चिंता का विषय है | ‘दुनियादारी’ में प्रयुक्त आंचलिक भाषा अपना प्रभाव छोड़ती है| सविता जी की कथाओं में अवधी, प्रयागराज क्षेत्र की भाषा का प्रयोग दिखाई देता है | आंचलिक भाषा सदैव साहित्य को रसविभोर करती है | भाषा की आंचलिकता को बरकरार रखते हुए इनके प्रयोग को प्रोत्साहित किया जाना चाहिए | ‘मुक्ति’, ‘परिपाटी’ अंधविश्वास के विरोध में बहुत प्यारी लघुकथा है। यह लेखकीय दायित्व है कि वह समाज को जकड़ी हुई  रुढियों से आजाद कराएं | सकारात्मक सोच की अच्छी कथा ‘उपयोगिता’ तकनीकी आज लघुकथा का प्रिय विषय है | यहां मोबाइल को लेकर अच्छा प्रयोग किया है |

‘सच्चा दीपोत्सव’ , ‘कपूर’ संवेदनशील लघुकथाएं हैं |आज जहां सर्वत्र बेटों द्वारा वृद्ध आश्रम की घटनाएं पढ़ने को मिल रही है ऐसे में अलग हटकर प्यारी सी कथा है ‘तोहफा’ ,

“बाबा ! आप अपने वृद्ध आश्रम में अपने बेटे -बहू को भी आश्रय देंगे ना।”

‘पारखी नजर’ आज के भौतिक चकाचौंध के युग में नसीहत देती है | कि पारखी नजर भीतर का सौन्दर्य देखने की क्षमता रखती हैं | ‘कलुषता’,’कसक’ बाप बेटे के बीच पिघलती शिला का काम करती है | 

इस तरह सविता जी की लेखनी से निकले कुल एक सौ एक ‘रोशनी के अंकुर’ लघुकथा विधा को समृध्द करते हैं | संग्रह की 3-4 लघुकथाओं को छोड़कर सभी लघुकथाएं रोचक एवं पठनीय हैं | यह उनका प्रथम प्रयास था इसलिए यह गुंजाईश तो बहुत सामान्य बात है | बड़ी बात है लेखिका ने विधा को समझते हुए अपने अनुभव साझा किये | साहित्य और क्या है , जीवन और जगत के अनुभवों का दस्तावेज ही तो है | इस दृष्टि से ‘रोशनी के अंकुर’ संग्रह का लघुकथा के पाठकों द्वारा स्वागत किया जाना चाहिए | मैं अनुजा सविता जी को बहुत बहुत शुभकामनायें देती हूँ | माँ सरस्वती की कृपा आप पर यूँ ही बनी रहे |


डॉ. लता अग्रवाल 

भोपाल

Sunday 28 June 2020

समीक्षा- रोशनी के अंकुर (लघुकथा संग्रह)

“रोशनी या प्रकाश-पुंज”
पुस्तक-“रोशनी के अंकुर”
रचनाकार- सविता मिश्रा ‘अक्षजा’
प्रकाशक: निखिल पब्लिशर एंड डिस्ट्रीब्यूटर, आगरा
प्रकाशन वर्ष: २०१९
आलोचकों को अब लघुकथाकारों ने अपनी ओर आकर्षित करना शुरू किया है, लघुकथाओं पर आलोचना लिखी जा रही है, जो इस विधा को एक सही स्थान देने के लिए आवश्यक भी है। आलोचक अब नए रचनाकारों को तवज्जो देने लगे हैं, यह भी एक सुसंकेत है, कुछ लघुकथाकारों ने आलोचकों की ओर अपना ध्यान आकृष्ट किया है, सविता मिश्रा ऐसा ही एक नाम है जिनकी लेखन क्षमता हमें चौंकाना नहीं छोड़ती, यह उनके और लघुकथा विधा दोनों के लिए ही एक शुभ संकेत है। इस रचनाकार की मौजूदगी लघुकथा लेखिकाओं को भी बहुत आश्वस्त करती है, एक बानगी देखिए—“चुप कर मुई! कोई सुन लेगा, समाज में इज्जत बाकी रहे इसके लिए बहुत कुछ करना होता है, और फिर मैं तो उसे मर्द के नाम की छाँव दे रही हूँ। अब भले ही वह नामर्द है। उसकी भी इज्जत ढकी रहेगी और अपनी भी।“
“रोशनी के अंकुर” असल में न ही कहानी संग्रह है, न ही ये लघुकथा संग्रह ही, इसमें समाहित १०१ रचनाएँ हैं, जो कहानी की रवानगी से शुरू होकर लघुकथा के कलेवर में प्रस्तुत होती हैं। कथानक के चयन से लेकर वाक्य-विन्यास की दृष्टि से अगर देखा जाए तो मालूम होता है कि कहीं लघुकथा के कथानक को कहानी के अंदाज में लिखा गया है तो कहीं कहानी के कथानक को लघुकथा के रूप में लिखा गया है। लेकिन एक बात महत्वपूर्ण है कि रचनाकार सामान्य पारिवारिक विषयों/ समस्याओं का भी अति-विशिष्टीकरण करने में सक्षम है। इन समस्याओं को नए दृष्टिकोण से प्रस्तुत करना ही रचनाकार की बड़ी विशेषता है। समाज में हो रहे परिवर्तन- आधुनिकीकरण, विकास, पाश्चात्य संस्कृति का प्रभाव, इत्यादि का पारिवारिक जीवन पर क्या प्रभाव पड़ा है, सविता इन सबका सूक्ष्म विश्लेषण करती हैं, पीढ़ियों के न खत्म होने वाले अन्तर को “अनपढ़ माँ” में बखूबी दिखाया गया है, दाम्पत्य सम्बन्धों में संदेह हमेशा बना रहता है जिसको “कागज का टुकड़ा” में देखा जा सकता है। सविता हर पारिवारिक घटना पर मानो नजर गड़ाए बैठी हैं, कहीं आन्तरिक द्वंद्व को गहरे से निकाल पन्नों पर उकेर देती हैं, तो कहीं पारिवारिक रिश्तों में “प्यार की महक” को खोजने लगती हैं । बनते बिगड़ते रिश्तों में “तुरपाई” के महत्व को भी वे रेखांकित करना नहीं भूलतीं। जिसमें धागे के उलझने और रिश्तों के उलझने का अंतर-सम्बन्ध लेखिका ने दर्शाया है।
“रोशनी के अंकुर” पुस्तक सविता की संवेदनाओं का विस्तार है जो विभिन्न पात्रों के माध्यम से उभरता है। उनके पास संवेदनाओं के विभिन्न रंग है। ”तोहफा” कथा सकारात्मक सोच की एक बढ़िया पारिवारिक रचना है। “नियत” मनोवैज्ञानिक स्तर पर लिखी गयी सुन्दर रचना है। सविता की एक विशेषता ये है वे मात्र कथानक को विस्तार देने के लिए नहीं लिखती हैं। उनके लेखन में कथा के यथार्थ के साथ समाधान भी उपलब्ध है जिसे वे पात्र के माध्यम से समाज के सामने बड़े ही सहज ढंग से पेश करती हैं। ”माँ की सीख” में माँ कहती है-“जिन्दगी की कुछ तस्वीरें सबक सीखने-सिखाने के लिए भी ली जाती हैं।...” ये तस्वीरें है- लाल किले के कोने में पान के पीक, बदबूदार गन्दा कोना, पत्थरों पर लिखे आलतू-फालतू नाम, जगह-जगह लुढ़की हुई पानी की खाली बोतलें। लेखक का काम लिखना मात्र नहीं है- वह समाज को चेताने का काम भी करता है, समाज को जागरूक भी करता है, बहुत साधारण तरीके से लिखी गयी यह रचना समाज को बहुत बड़ा सन्देश दे जाती है।
कथा ‘निर्णय” में कबड्डी-खिलाड़ी का सब्जी बेचना पूरी शिक्षा-व्यवस्था को कटघरे में खड़ा करता है। गोल्ड मेडलिस्ट खिलाड़ी का बेटे द्वारा परिचय कराने पर नीलम के चहरे से ख़ुशी का काफूर होना, बेटे के भविष्य की चिंता की लकीरें उसके चेहरे पर उभर आना, देश में खेलो के महत्व पर सोचने की ओर इशारा करता है। ”अभिलाषा” एक मानवेत्तर रचना है जिसमें चूड़ियों के माध्यम से एक सकारात्मक संदेश देने का प्रयास किया गया है। “सच्ची सुहागन” में नायक जेब में महज दो सौ रूपये देख सामान खरीदने की योजना बनाता है, लेखिका यहाँ गरीबी का एक चित्र खींचती हैं, नायक सामान ले घर पहुँचता है। पत्नी के साथ संवाद- “बड़े खुश लग रहे हो, लगता है कल ले लिए, बच्चों को भरपेट खाने को कुछ लाये हो, आज तो भूखे पेट ही सो गए दोनों।“- यहाँ लेखिका ने कहने का प्रयास किया है- माँ के लिए बच्चों से बढ़कर कुछ नहीं।
“राक्षस”लघुकथा के माध्यम से लेखिका परिवार में बच्चियों की सुरक्षा पर प्रश्न-चिह्न खड़ा करती हैं, रचना का कथानक एक वीभत्स घटना है-जहाँ पिता ही बेटी की अस्मिता को तार-तार कर देता है, यह समाज का घिनोना सच है जिससे लेखिका रूबरू कराती हैं। “बेबसी” द्वारा बच्चों के विवाह के बाद रिटायर माँ-बाप से अपने व्यस्त जीवन से समय न निकाल पाने की लेखिका की वेदना सभी बुजुर्ग माँ-बाप की वेदना बनकर उभरती है।
“ठंडा लहू” व्यंग्यात्मक शैली की रचना है। जिसे पढ़कर हिंदी भवन दिल्ली के पास चाय बेचते साहित्यकार “लक्ष्मण राव” की याद आती है, कितने ही साहित्यकार हैं जो बहुत अच्छा लिखने के बावजूद प्रसिद्ध नहीं हो पाते हैं, जिसका एक बड़ा कारण प्रकाशकों का बदलता स्वरुप है, इस रचना का पात्र परशुराम ऐसा ही एक पात्र है।
“मन का बोझ” की शुरुआत लेखिका व्यंग्यात्मक संवाद से करती हैं, जिसमें खुद के पुत्र के दुर्घटना में मारे जाने पर पात्र में संवेदना जागृत होती है, यह आत्मग्लानि से आत्मचेतना की रचना है। “बदलते भाव” में लेखिका मार्के की बात कहती हैं-“छीन-झपटकर कोई कब तक जिन्दा रह सकता है भला, पाप का घड़ा एक न एक दिन फूटता ही है।“ संग्रह की एक रचना है –“आस” जिससे एक सन्देश प्रदर्शित होता है-“इंसानियत की पहचान इन्सान की नजदीकी से पता चलती है, सुनी-सुनाई बातों से नहीं।“ यहाँ एक बात और ध्यान देने की है- अभाव वस्तु की कीमत का अंदाजा लगा देता है। एक संवाद देखिये-“अन्न का अपमान नहीं करना चाहिए.... ये अमीर लोग क्या जाने इन दानों की कीमत, यह तो कोई मुझसे पूछे, जिसके घर में हांड़ी में अन्न नहीं, पानी पकता है।“ ये एक पंक्ति समस्त साहित्य पर भारी पड़ती है।
“खुलती गिरहें” पढ़कर अंदाजा होता है कि लेखिका इस सब्जेक्ट में विशेष दक्षता रखती हैं, इस रचना और लेखिका दोनों पर सामाजिक प्रभाव का असर है। यह असल में पलायन की रचना है, जिससे सन्देश जाता है कि विचार परिवर्तन ही रिश्तों को सहज करते हैं। एक संवाद इसी रचना से-“मैंने ही सासु माँ नाम से अपने दिमाग में कँटीली झाड़ियाँ उगा रखी थी। सब सखियों के कड़ूवे अनुभवों ने उन झाड़ियों में खाद-पानी का काम किया।“ असल में सास शब्द को लेकर समाज में एक अजीब सी रिश्तों की दूरी है, जिससे बाहर आने का सन्देश ये रचना देती है। “वर्दी” पीढ़ियों की सोच का अंतर दर्शाती रचना है जो ज्यादा प्रभाव तो नहीं छोडती, लेकिन पहले लिए गए निर्णयों का प्रभाव आगामी जीवन पर क्या पड़ता है, इस बात की पड़ताल अवश्य करती है। “टीस” से स्त्री-पुरुष के बीच चारित्रिक भेद का अंतर लेखिका पुन: उजागर करती हैं, किसी एक महिला के घर छोड़कर जाने की सज़ा समाज कई पीढ़ियों को देता है, जबकि कोई पुरुष घर छोड़ जाए तो उसे सहानुभूति मिलती है, लेखिका ने यहाँ समाज के दोहरे चरित्र पर सवाल खड़ा किया है। “ढाढ़स” में दो वर्गों के अंतर को दो संस्कृति के अंतर के तौर पर रखा गया है, लेखिका पढ़ाई की अहमियत को इंगित करते हुए सन्देश देती हैं कि शिक्षा इन संस्कृतियों के अंतर को कम कर सकती है।
लेखिका को अभी साहित्य के क्षेत्र में बहुत कुछ करना है तो बहुत कुछ सीखना भी है, जो बात पूरे संग्रह में अखरती है वह है, विषयों में विविधता का न होना, कथानक चयन में एक बने बनाये दायरे के इर्द-गिर्द घूमना। व्याकरण पर भी लेखिका को ध्यान देना होगा। “दर्द” रचना की पहली पंक्ति- शिखा अपने पड़ोसन अमिता और बच्चों के साथ पार्क में घूमने गयी.... शिखा अपने बच्चों को आवाज दी... श्रेया, मुदित जल्दी आओ घर चलना है.... कोई पार्क का पहरेदार देखकर गुस्सा न करने लगे.... । एक ही रचना में इस तरह की व्याकरणिक गलतियों को टंकण की अशुद्धि कहकर नहीं बचा जा सकता। इस रचना का विषय पेड़-पौधों का दर्द है जिन्हें बोध कथाओं में खूब लिखा गया है, फिर इसमें नया क्या है? ”भूख” रचना में आँसुओं की नन्हीं-नन्हीं बूँदें तकिये की गोद में सोने चली थी,... ये किस तरह का प्रयोग है, मेरी पाठकीय नजर से बाहर की बात है। “आस” में अतः आधी टिफिन भीखू को दे डाली...., यहाँ भी व्याकरण पर ध्यान देने की जरूरत है। “तीसरा” रचना को आखिर लेखिका ने क्यों लिखा उस पर सवाल हो सकता है लेकिन आत्मकथ्यात्मक शैली में लिखी रचना में –“अक्सर सोचती हूँ कि आखिर ऐसा क्यों करते हैं लोग” जैसे वाक्यों से बचना चाहिए। “निर्णय” रचना को अगर संवाद के साथ विवरणात्मक शैली को भी सम्मिलित किया जाता तो अधिक प्रभावी रचना होती। “समय का फेर” रचना स्वयं में समय की मांग करती है, लेखिका अगर इसे समय दें तो इस रचना कोई भी बेहतर ढंग से लिखा जा सकता है।
अबोर्शन को केंद्र में रखकर लिखी "भूख" रचना पर लेखिका को सुझाव देना चाहूँगा- लेखिका को भाग्य या गलत काम के प्रभाव पड़ने जैसे अवैज्ञानिक विचार से बाहर आना चाहिए। बच्चे न होना एक वैज्ञानिक कारण है, जिसकी वजह किसी डॉ का गर्भपात में लिप्त होना नहीं हो सकता। यह मानसिकता बिल्कुल वैसी है जैसे शाप से सर्वनाश जैसी कल्पना करना। “नजर” और “मीठा जहर” औचित्यहीन रचनाएँ हैं, लेखिका को इस तरह की रचना लिखने से भी बचना चाहिए। “हाथी का दांत” में लेखिका ने “मोदी जी” शब्द का इस्तेमाल किया है। साहित्य वह होता है जो भविष्य में भी अपने समय का प्रतिनिधित्व करता है। “नेहरु” टायटल से ब्रांड बनने में सदी लगती है, “मोदी” टायटल को ब्रांड बनने में समय का इंतजार करना होगा। “टायटल के शब्द रचना को हल्का बनाते हैं और साहित्य को कालजयी होने से रोकते हैं, रचना मात्र सामायिक होकर रह जाती है, पद “प्रधानमन्त्री” इत्यादि लिखना जोखिम से बचना भी होता है और रचना को समय से आगे ले जाना भी। रचनाकार को शब्द-संचयन के मामले में बहुत सचेत रहने की आवश्यकता है, इसे कथ्य और कथा विन्यास के हिसाब से भी एक कमजोर रचना ही कहा जायेगा।
लेखिका की अधिकांश रचनाएँ नारी-वेदना, नारी-विमर्श, नारी-सशक्तिकरण के इर्द-गिर्द घूमती हैं, लेकिन वे स्त्रीवाद की हिमायती न होकर स्त्री की अस्मिता की हिमायत करती हैं, जो लेखिका को स्त्रीवादी रचनाकारों से अलग करता है। उनके अन्दर की स्त्री-चेतना स्वाभाविक है। अधिकांश रचनाओं में लेखिका स्त्री के प्रति समाज के संकुचित दृष्टिकोण पर ध्यान आकृष्ट करती दिखाई देती हैं। इस लिहाज से देखा जाए तो सविता के लेखन को सफल कहा जा सकता है।
भाषा-शैली की बात करें तो सविता की भाषा काफी लचीली है, जिसमें वे बातचीत के अंदाज में अपनी बातें कहती जाती हैं। उन्हें किसी भी तरह से किसी विशेष शैली की जरुरत महसूस नहीं होती। कहीं-कहीं मुहावरों का प्रयोग भी किया गया है. हालांकि अभी यह सविता की पहली एकल किताब है तो इसमें शब्दों के प्रयोग में बहुत अधिक सावधानी दिखती नहीं देती है। कहीं-कहीं वे असावधानी से भी कुछ प्रयोग करती हैं। सामान्य शब्दों के साथ कहीं कहीं भारी-भरकम शब्दों जिनका पर्याय आम बोलचाल के शब्दों में भी उपलब्ध है, का इस्तेमाल भी लेखिका कर गई हैं जिनसे अर्थ पर तो नहीं लेकिन, वाक्य के प्रवाह और सौन्दर्य पर प्रभाव पड़ता है। “मन का चोर” सुनते ही चेहरा फक्क पड़ गया, बोली- इस बंटी ने लगा गिरा दिया होगा...  तू कुछ खाई की नहीं... “कथा है”- कितना अच्छा तो लिखी हो रूबी..... “मीठा जहर” ...”अरे दी आप भी न. ।“ ”भाई । फिर वह रोहित को सम्बोधित हुआ.... । ”बदलाव” लघुकथा में कुछ संवाद बहुत अच्छे हैं लेकिन अंत तक आते-आते लेखिका कथा-वाचिका की भूमिका में आ जाती है, यह रचना अंत तक आते-आते अपना अभीष्ट खो धरासाई हो जाती है, रचनाकार से अपेक्षा की जाती है कि वह रचनाकर्म करते समय तठस्थ रहे।
पाठशाला में मुहावरा का प्रयोग भी वे करती हैं –......आग से रुई हुई जा रही थी। बहरहाल, कुल मिलाकर ये कह सकते हैं कि सविता के इन रोशनी के अंकुरों की सबसे बड़ी खासियत यह है कि ये रोशनी सीधी पाठकों की आँखों को खोए रखती हैं, और हमें यह मानना होगा कि ये अंकुर अपने आप में हिंदी साहित्य को विधागत स्तर पर और समृद्ध कर स्वयं एक वट वृक्ष बनेंगे। रोशनी के अंकुर में काफी कुछ मौजूद है।
कुल मिलाकर पूरी पुस्तक पठनीय होने के साथ-साथ विचारणीय भी है। प्रकाशकीय स्तर पर कुछ वर्तनी संबंधी अशुध्दियाँ हैं, जिनसे कहीं-कहीं अवरोध भी उत्पन्न होता है। उन्हें नज़रंदाज़ भी नहीं किया जा सकता। साज-सज्जा की दृष्टि से पुस्तक आकर्षक है और आवरण-पृष्ठ उतना ही विशेष है जितनी सविता मिश्रा की रचनाएँ. रचनाकार को इस पुस्तक के लिए शुभकामनाएँ।

समीक्षक
संदीप तोमर
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Saturday 16 May 2020

क्रेडिट कार्ड (लघुकथा)

“माँ..,”  फोन पर रुंधे इस एक शब्द को सुनते ही  शैली अपने बेटे की घबराहट को भांप ली। अब  शैली उस आवाज के माध्यम से अपने बेटे की रोती आंखे साफ साफ देख पा रही थी। अपने को संयमित करके बोली-
“रोओ नहीं बेटा, क्या हुआ बताओ तो?”
न जाने कितने दुर्विचार शैली के सामने से चलचित्र की भांति चलने लगे । वह साहस जुटाकर बोली, “मैं हूँ न! बताओ तो..!"
माँ आज क्रेडिट कार्ड से किसी ने सारे रुपए बैंक खाते से उड़ा लिए। मैं नींद में था तभी फोन आया था और..और...सेकेंड भर में सारे रुपये..!”
मन किया कि कहे इतनी लापरवाही, सोने के चक्कर में होश खो बैठा था क्या? कल ही फीस को दिए पूरे दो लाख रुपए लुटा बैठा..! लेकिन फिर आंखों के सामने वो घटनाएं घूमने लगी जिसमें बच्चों के साथ घटी ऐसी घटनाएं दृष्टिगोचर हुई जिसमें बच्चे क्रेडिट कार्ड से रुपए लूटने के बाद माता-पिता की डांट के डर से आत्महत्या कर लिए थे। उसने अपने को सायास वर्तमान में धकेला और बोली- “बेटा, कोई बात नहीं, गलतियां हर किसी से हो जाती हैं। बस अब से जाग जाग जाओ और क्रेडिट कार्ड का इस्तेमाल सावधानी पूर्वक करो, वरना येन केन प्रकारेण सारी मेहनत की कमाई ये क्रेडिट कार्ड  चूस लेगा, क्योंकि इसकी तो आँखें हैं नहीं, बस मुँह ही मुँह है।”
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सविता मिश्रा ‘अक्षजा’
आगरा