Tuesday 14 July 2015

अन्तर्मन (kahani)

पेड़ के बगल ही खड़ी हो पेड़ से प्रगट हुई स्त्री ने पूछा , “अब बताओ इस रूप में ज्यादा काम की चीज और खूबसूरत हूँ या पेड़ रूप में |
पेड़ बोला , “खूबसूरत तो मैं तुम्हारे रूप में ही हूँ , पर मेरी खूबसूरती भी कम नहीं | काम का तो मैं तुमसे ज्यादा ही हूँ |”
” न ‘मैं’ हूँ |”
पेड़ ने कहा, ” न न ‘मैं’ ”
पेड़ ने धोंस देते हुए कहा , “मुझे देखते ही लोग सुस्ताने आ जाते हैं |जब कभी गर्मी से बेकल होते हैं |”
“मुझे भी तो |” रहस्यमयी हंसी हंसकर बोली स्त्री
“मुझसे तो छाया और सुख मिलता हैं आदमी को |”
“अरे मूर्ख मैं भी छाया और सुख प्रदान करती हूँ| आंचल से ज्यादा छाया और सुख कोई नही दे सकता |” अहंकार से भर इठला गयी स्त्री
“मुझ पर लगे फल लोग खा के तृप्त होते हैं |”
“हा हा हा हा” ठहाका जोर का मारकर बोली , “मुझसे भी तृप्त ही होते हैं |” कह शरमा सी गयी
“मेरी पतली पतली शाखायें लोग काट आग के काम में लाते हैं |”
“मैं स्वयं एक आग हूँ, बड़े बुजुर्ग यही कहते हैं |” रहस्यमयी मुस्कान बढ़ गयी थी
“मैं आक्सीजन प्रदान करता हूँ |”
“मैं खुद आक्सीजन हूँ ! जिन्दगी देती हूँ ! मेरे से प्यार करने वाला मेरे बगैर मर जाता हैं | तुमसे भी प्यार करने वाले करते तो हैं पर तुम्हारे न होने पर मरते नहीं हैं |” गर्वान्वित हो बोली स्त्री
“मैं उपवन को हरा-भरा रखता हूँ |”
“अरे महामूर्ख , मैं खुद उपवन ही हूँ ! मेरे बगैर इस धरती का सारा वैभव तुच्छ हैं |”
“मुझे लोग काट निर्जीव कर अपने घरों में सजाने के उपयोग में लें आते हैं |” थोड़ा दुखी हो वृक्ष बोला ” इससे अच्छा हैं मैं तुम्हारे इस स्त्री रूप में ही रहूँ | सच में तुम ज्यादा खूबसूरत और काम की हो | मैंने हार मान ली तुमसे |”
अहंकार खो सा गया यह सुनते ही | स्त्री बोली, “नहीं , नहीं वृक्ष मैं इस रूप में नहीं रह सकती | तुम्हारा निर्जीव रूप में ही सही शान से उपयोग तो लोग कर रहें पर मुझे तो ना जीने देते हैं न मरने | तुम्हे निर्जीव कर तुम्हारे ऊपर आरी चलाते हैं पर मुझ पर तो जीते जी |” दुखित हो स्त्री बोली
"ठहरों , मैं तुम में समा जाती हूँ फिर से | जादूगर ने कहा था न सूरज डूबने से पहले नहीं समाई तो मैं स्त्री ही बन रह जाऊँगी | हे वृक्षराज , मैं स्त्री नहीं वृक्ष रूप में ही ज्यादा सुरक्षित हूँ | और हर रूप में मानव को सुख देने में सक्षम रहूंगी इस वृक्ष रूप में | मानव स्त्री को तो नरक का द्वार कहकर घृणा भी करता हैं | तुम्हें यानि पीपल को पिता का रूप मान आदर देता हैं | मैं तुम्हारे रूप में ही रहकर सुकून पाऊँगी | मुझे अपने में समेट लो वृक्षराज |” विनती करती हुई सी बोली स्त्री |
दोनों ने जादूगर द्वारा दिए मन्त्र बोले और एक रूप हो गये | अँधेरा अपने यौवन रूप में प्रवेश कर चुका था |
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Sunday 12 July 2015

~~ऐतवार ~~

"मेरे शरीर का हर अंग मैं दान करती हूँ , बस आँख न लेना डाक्टर |" मरते समय शीला कंपकपाती आवाज में बोली
"आँख !आँख क्यों नहीं , यही अंग हैं जिसकी जरूरत ज्यादा हैं लोगों को |"
"डाक्टर साहब,  ये मेरे पति की आँखे हैं |  मोतियाबिंद के कारण मेरी दोनों आँखें नहीं रही थीं  | हर समय दिलासा दिलाते रहते | हर वक्त मेरी आँख बन मेरे साथ रहतें |शरीर से तो वो मुक्त हो गये मुझसे, पर आँख दे गये |बोले इन आँखों में तुम बसी हो अतः अब ये तुममें ही बस कर तुमकों देखेंगी | इन आँखों को दान कर मैं उनके प्रेम से मुक्त नहीं होना चाहती | तभी मोबाइल बज उठा, ये प्यार का बंधन हैं ....रिंग टोन सुन डाक्टर मुस्करा उठे |
बस इतना ही रहें तो कैसी बनी कथा |
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या ये नीचे लिखा हुआ जोड़ दें तो अच्छा ...कृपया राय भी दे दीजियेगा पढने पर

उठाते ही विदेश में रहने वाले बेटे की आवाज आई- "माँ,मैं आ रहा हूँ ! अच्छे से अच्छे डाक्टर को दिखाऊंगा तुम चिंता न करो | "
"बेटा, आ जा जल्दी , पर अब डाक्टर की जरूरत नहीं |अब ये शरीर इस मोह के बंधन को तोड़ दैविक बंधन में बंधना चाहता हैं |" फोन कटते ही निश्चेत हो गयीं |

Saturday 11 July 2015

ज़िद नहीं (चोट)

"पापा, आइसक्रीम चाहिए |"
"सुबह-सुबह आइसक्रीम नुकसान करेगी |" समझाने पर भी विमल को आखिरकार दिलानी ही पड़ी।
कुछ देर में, "पापा, गुब्बारा चाहिए, गुब्बारा चाहिए ।"
"बेटा, घर चल के दिला दूँगा, यहॉ लेगी तो घर चलते-चलते फ़ुस्स हो जायेगा।" पर पंखुड़ी तो ज़िद पर अड़ी रही।
विमल के दिमाग में कुछ और ही कौंध गया उसकी ज़िद देख। उसे तो समझा रहा हूँ और खुद ज़िद पर अड़ा हूँ कि मुझे भीखू की भी जमीन चाहिए। वो नहीं देना चाहता फिर भी | आखिर तीन सौ एकड़ ज़मीन क्या कम है। इतना लालच आखिर किस लिए? अन्ततः रह सब यहीं जाना है |गुब्बारे की तरह ज़िन्दगी एक दिन फ़ुस्स हो जायेगी।'
"पापा, पापा बांसुरी चाहिए |"
"बांसुरी! हाँ, बांसुरी ठीक है | गुब्बारा घर जाते-जाते फूट जायेगा | बांसुरी तो रहेगी न, और इसकी आवाज़ की मिठास भी |"
विमल सोचने लगा | उसके कानों में पंखुरी की आवाज़ नहीं आ रही थी- "पापा, आप सिखाओगे न मुझे बजाना |"
--००--नया लेखन - नए दस्तखत
10 July 2015 ·

Wednesday 1 July 2015

दर्द

शिखा अपने पड़ोसन अमिता और बच्चो के साथ पार्क में घूमने गयी चारों बच्चे दौड़-भाग करने में मशगूल हो गये, शिखा भी अमिता के साथ गपशप करने लगी, गपशप करते हुए समय का पता ही नहीं चला पता तब चला, जब घर पर पहुँच शिखा के पति उमेश का फोन आया
शिखा अपने बच्चों को आवाज़ दी, "श्रेया, मुदित जल्दी आओ घर चलना है
"
दोनों दौड़े-दौड़े माँ के पास पहुँचे ही थे कि शिखा उनके दोनों हाथो में पार्क के सुंदर-सुंदर फूल देख, ठगी सी इधर-उधर देखने लगी
कोई पार्क का पहरेदार देखकर गुस्सा ना करने लगे तभी अचानक श्रेया से अमिता का बेटा दौड़ते हुए भिड़ गया श्रेया ज़मीन पर गिर गयी, जिसके कारण उसके घुटने छिल गये वह ज़ोर-ज़ोर से रोने लगी
शिखा और अमिता दोनों उसे चुप कराने लगे और चोट पर फूंक मारने लगे

अमिता उसे चुप कराते हुए बोली, "बेटा देखो तुम्हें चोट लगी तो हम सब को दुःख हुआ, इसी तरह तुम्हारे फूल तोड़ लेने से पौधों को भी दुःख हुआ होगा न
फूल और पौधा दोनों ही रोये होंगे"
श्रेया भिनक गयी, "हमें चोट लगी और आप दोनों को पौधों-फूलों की पड़ी है
आप दोनों ही गंदे हो, पापा से बोलूँगी मैं"
शिखा मुस्कराते हुए बोली, "अच्छा बाबा! चलो, घर बता देना पापा की लाडली...
" शिखा बच्चों के साथ घर आ गयी, घर में श्रेया पापा से रो-रो बताने लगी
पापा ने मरहम पट्टी की और उसे संतुष्ट करने के लिए माँ को भी डांट लगाई
फिर बात करते-करते श्रेया को घर के बाहर ले गये
बाहर खड़े कैक्टस में से एक पत्ती तोड़ बोले, "देखो! बेटा इसको भी चोट पहुँची न
पत्ती और पेड़ दोनों आँसू बहा रहे हैं न!"
--००--

22 June 2014
*एक उलझन और एक सुलझा हुआ जवाब *
Event for बाल उपवन [ साहित्यिक मधुशाला ]
(संकल्प) (पिता लाडली) पिछले शीर्षक