Thursday 14 February 2013

+++अभिलाषा +++

उफ़ धरती का सीना क्यों ना फट गया
माँ के लाल जब माँ की गोद में सोने को गया|
दिल हो गया जख्मी कोई अपना ही कर गयी
लकड़ियाँ सुखी जली तो चीख यही कह गयी|
चिता कई जली सब सुलग सुलग सी रही
गंगा के जल से पवित्र हो सुकून जो पा गयी|
माँ ने ही जन्म दिया पालपोष किया था बड़ा
माँ ने ही हमें अपने गोद में छुपा उपकार किया बड़ा|
याद कर करके भले रोयें हमे हमारे परिजन
पर हम तो मुक्त हो गए इस संसार से माँ के करके दर्शन|
बहुत थी अभिलाषा कि गंगा स्नान कर स्वर्ग सीधे सिधारेगें
वह तमन्ना भी माँ ने बहुत ही जल्दी कर दी पूरी अब ना कराहेगें |
..सविता मिश्रा

Monday 11 February 2013

~~लड़कियां जन्म के पहले से ही हारी हैं~~

क्या कहें!
कैसी भारत में आई त्रासदी हैं
 लडकियों को
नहीं कोई आजादी है
लड़कियां जन्म के पहले से ही हारी हैं
गर्भ में ही मार दी जाती क्या बेचारी हैं |

जैसे-जैसे बड़ी होती जाती हैं
बोझ कह धरती का सताई जाती हैं
चाहे कितनी भी खुशियाँ बिखेरे
रहती खुद सदा गम के ही अँधेरे
किसी भी चेहरे पर लाती ओज हैं
ईश्वर की अप्रितम सुंदर खोज हैं |

बिना कुछ सोचे समझे लड़कियां ही
हमेशा से ही घर-बाहर सताई जाती हैं
अपने घर में तो होता अपमान ही बस
दूजे घर की बेटियां तो जलाई जाती हैं|

कुछ बड़ी हुई तो घातक नजरें
लफंगो की सरेआम टिकने लगती है|
सुनसान देख नोंचने-खसोंटने-लपकने
ताक में सदैव ही नजरें गड़ी रहती है|
बड़ी पीड़ा है दारुण क्या-क्या सुनायें हम
बहरी गूंगी सरकार को क्या-क्या बतायें हम|

उठ खड़ा हो कोई नवजवान
गलती से भी मदद को कभी यदि
जाता है मारा वह इन आतंकियों से ही
फिर उठ खड़ा ना होता कोई कभी भी|

ना जाने कब वह दिन आएगा
जब लड़कियां भी चैन से जीने लगेंगी
मस्त उन्मुक्त आंगन में फुदकती
आजादी की सांस आसमान में लेती फिरेंगी|

लड़कियों की भी किलकारी  गुजेंगी कब हर घर
बेफिक्र चारदीवारी के बीच में वह भी डोलेंगी |
गला घोटने वाले हाथ ना जाने कब
खुश हो प्यार से गले
उसे लगायेंगे
लड़कियों  को भी अपनी प्यारी बिटिया
स्नेह से ना जानें कब वह कह बुलायेंगे|

थोड़े से तो लोग सुधर गए है
देखते हुए बदलते समय को
जो थोड़े और बचे है अकडू
ना जाने कब वह सुधर पायेंगे|
दिखावे में पूजनीय है नारी न कह
सच में सम्मान से कब बुलाएगें
पूजा छोड़ कन्या को कह देवी
उसका सम्मान वह उसे कब दिलायेंगे|

फिर भी आशा यही है हमारी
वह दिन भी बहुत जल्दी आएगा
जब लड़कियों के जन्म पर भी हर घर ही
बन्दूक-पटाखे खूब जोर-शोर से चलवायेगा|
यूँ हर चौराहें पर हमें नहीं कभी यातनायें दी जायेंगी
लफंगों द्वारा कभी भी नहीं फब्बित्तियाँ कसी जायेंगीं|

.विश्वास हैं घना
त्रासदी भारत की ये जल्द दूर हो जायेंगी
लड़कियां भी आँगन में खिलखिलायेंगी।।
....सविता मिश्रा

Sunday 10 February 2013

प्रकृति सौन्दर्य-



१-
सजी हुई है जैसे नवयौवना
मौसम बनता है इसका गहना
पुराने वस्त्र उतार गिराया
नव-नवीन वस्त्र धारण किया
नवीन ताम्र-पत्र की सुन्दरता
नवयौवना को और भी निखारता
नवीन वस्त्र एवं गहनों से सजी यौवना
हमें लुभाती है चीरकर पृथ्वी का सीना
वसंत ऋतु की यह मन मोहना
कोई और नहीं
वृक्ष है, यह किसी से न कहना||

२-
ओह कैसी ऋतु यह आई
बुढ़िया भी जैसे शरमाई
मौसमी हवा के तेज झोंको से
झड़ गए पत्ते हर नोंको से
बादलों की ओर निहारती
अपनी हालत पर लजाती
सौन्दर्य की थी जो बाला
लगती है अब मेरे अब्बू की खाला
हुई कैसी यह दुर्दशा तेरी
वृक्ष है वह
हालत हुई है जिसकी ऐसी |

३-
निचाट हो गया था जो उपवन
लो फिर आ गया झूम के सावन
कोमल पत्तियाँ किलकारने लगीं
गहनों से फिर स्वयं को संवारने लगीं
पूर्ण यौवन को फिर वह पाने लगीं
घुमड़ घुमड़कर फिर बदली छाने लगीं |
आश्चर्य में तुम न रहना
सदाबहार मौसम है उपवन का गहना
इस ऋतु में वृक्षों का
क्या कहना, क्या कहना |

४-
जैसे-जैसे बरसता जाता है सावन
निखरता जाता सौन्दर्य मनभावन
दिल में रखकर धैर्य
देखते ही बनता है प्रकृति सौन्दर्य
अग्नि में तपकर चमकता है जैसे सोना
वैसे ही सुन्दर लगता है उपवन का हर कोना
हर मौसम के झंझावतो को सहता
धरा के सौन्दर्य को है बढ़ाता
वृक्षों का अहसान न भूलना
सहेज अगली पीढ़ी को तुम देना |

प्रकृति सौन्दर्य को तुम भी प्रेम से अपने गले लगाते
जीवन में जो एक वृक्ष अपने कर कमलो से उगाते ||...सविता मिश्रा

Sunday 3 February 2013

~~जब माँ बनेगीं ~~

माँ आज तेरी बहुत याद आ रही है
समझाती
तू हमको  हर वक्त
नहीं समझती थी  मैं
तुझ पर ही चिल्ला पड़ती थी
याद है हमको तू कहती थी कि
जब माँ बनेगीं तब समझेगी
देखो ना माँ आज मैं भी
एक सयानी बेटी की
माँ बन गयी हूँ
अब मैं भी तुझ सा ही चिल्लाती हूँ
यह ना कर वह ना कर
ऐसे उठ वैसे बैठ,
इधर उधर ताका -झांकी मत कर
धीमी आवाज में बोला कर
नजरें झुका कर चला कर
चार लड़को के बीच में मत बैठा कर
यूँ
हर वक्त ही ही ही मत किया कर 
स्कर्ट -मिडी
मत पहना कर 
सलवार-
सूट पहना कर
बिना दुप्पट्टे के मत रहा कर
देख रही हैं ना माँ
सब तुझ सा ही व्योहार
मैं करने लग  गयी हूँ
मेरी भी बिटिया मुझ सा ही कर रही है
मैंने तो तुझको कभी नहीं कहा  था कि
माँ जमाना बदल गया है
मेरी बिटिया तो कहने लग गयी है कि
माँ वह
पूराना जमाना नहीं है अब
यह नया जमाना है
अब सब फैशन में है
देख रही है ना माँ
मैं तो तुझ सा ही हुबहूँ बन गयी
पर मेरी बिटिया मुझ सा
नहीं बन पायी
वह नए जमाने की हो गयी है

नहीं कहा
कभी
मैंने तुझे पूराने जमाने की
वह मुझे पूराने जमाने की भी कह रही है||...सविता मिश्रा