Tuesday 25 October 2016

खुलती गिरहें (गिरह )


पत्नी और माँ के बीच होते झगड़े से तंग आकर बेटा माँ को ही नसीहतें देने लगा | सुनी-सुनाई बातों के अनुसार माँ से बोला - "बहू को बेटी बना लो मम्मा, तब खुश रहोगी |"
"बहू बेटी बन सकती है?" पूछ अपनी दुल्हन से |" माँ ने भौंह को चढ़ाते हुए कहा |
"हाँ, क्यों नहीं?" आश्वस्त हो बेटा बोला |
"बहू तो बन नहीं पा रही, बेटी क्या खाक बन पाएगी वह |" माँ ने गुस्से से जवाब दिया |
"कहना क्या चाहती हैं आप माँजी, मैं अच्छी बहू नहीं हूँ?" सुनते ही तमतमाई बहू कमरे से निकलकर बोली |
"बहू तो अच्छी है, पर बेटी नहीं बन सकती |"
"माँजी, मैं बेटी भी अच्छी ही हूँ | आप ही सास से माँ नहीं बन पा रही हैं |"
"मेरे सास रूप से जब तुम्हारा यह हाल है, माँ बन गयी तो तुम मेरा जीना ही हराम कर देगी।" सास ने नहले पर दहला दे मारा |
"कहना क्या चाह रही हैं आप?" अब भौंह तिरछी करने की बारी बहू की थी |
"अच्छा ! फिर तुम ही बताओ, मैंने तुम्हें कभी सुमी की तरह मारा, कभी डाँटा, या कभी कहीं जाने से रोका !" सास ने सवाल छोड़ा |
"नहीं तो !" छोटा-सा ठंडा जवाब मिला |
बेटा उन दोनों की स्वरांजली से आहत हो बालकनी में पहुँच गया |
"यहाँ तक कि मैंने तुम्हें कभी अकेले खाना बनाने के लिए भी नहीं कहा | न ही तुम्हें अच्छा-खराब बनाने पर टोका, जैसे सुमी को टोकती रहती हूँ |" उसे घूरती हुई सास बोली|
"नहीं माँजी, नमक ज्यादा होने पर भी आप सब्जी खा लेती हैं !" आँखे नीची करके बहू बोली |
"फिर भी तुम मुझसे झगड़ती हो ! मेरे सास रूप में तो तुम्हारा ये हाल है| माँ बन, सुमी जैसा व्यवहार तुमसे किया, तो तुम तो मुझे शशिकला ही साबित कर दोगी।" बहू पर टिकी सवालिया निगाहें जवाब सुनने को उत्सुक थीं।
कमरे से आती आवाजों के आरोह-अवरोह पर बेटे के कान सजग थे | चहलकदमी करता हुआ वह सूरज की लालिमा को निहार रहा था |
"बस करिए माँ ! मैं समझ गयी | मैं एक अच्छी बहू ही बनके रहूँगी |" सास के जरा करीब आकर बहू बोली|
"अच्छा !"
"मैंने ही सासू माँ नाम से अपने दिमाग में कँटीली झाड़ियाँ उगा रखी थीं | सब सखियों के कड़वे अनुभवों ने उन झाड़ियों में खाद-पानी का काम किया था |"
"सुनी क्यों ! यदि सुनी भी तो गुनी क्यों ?"
बेटे ने बालकनी में पड़े गमले के पौधे में कली देखी तो उसे सूरज की किरणों की ओर सरका दिया |
"गलती हो गई माँ ! आज से उन पूर्वाग्रह रूपी झाड़ियों को समूल नष्ट करके, अपने दिमाग में प्यार का उपवन सजाऊँगी | आज से क्यों, अभी से| अच्छा बताइए, आज क्या बनाऊँ मैं, आपकी पसंद का ?" बहू ने मुस्कराकर कहा |
"दाल भरी पूरी ..! बहुत दिन हो गए खाए हुए।" कहते हुए सास की जीभ, मुँह से बाहर निकल होंठों पर फैल गई |
धूप देख कली मुस्कराई तो, बेटे की उम्मीद जाग गयी | कमरे में आया तो दोनों के मध्य की वार्ता, अब मीठी नोंकझोंक में बदल चुकी थी |
सास फिर थोड़ी आँखें तिरछी करके बोली- "बना लेगी..?"
"हाँ माँ, आप रसोई में खड़ी होकर सिखाएँगी न !" मुस्कराकर चल दी रसोई की ओर |
बेटा मुस्कराता हुआ बोला, "माँ, मैं भी खाऊँगा पूरी |"
माँ रसोई से निकल हँसती हुई बोली, "हाँ बेटा, जरुर खाना ! आखिर मेरी बिटिया बना रही है न |"
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25 October 2016 नया लेखन में

5 comments:

Ashok Sharma said...

बहुत सुन्दर, बधाई आपको।
मेरे ब्लॉग पर भी आइये कृपया
http://ashoksharma69.blogspot.com
http://railwaysafety.blogspot.com

Sudha Devrani said...

बहुत सुन्दर। बहु बेटी बने औऱ सास माँ।
बेहतरीन।

RAKESH KUMAR SRIVASTAVA 'RAHI' said...

सविता जी काश आपका अफसाना सच हो जाए तो यकीं मानिए सभी घर में खुशहाली हो। सुंदर संदेश देती आपकी लघु-कथा।
http://rakeshkirachanay.blogspot.in/

सविता मिश्रा 'अक्षजा' said...

दिल से शुक्रिया आप सब का |

कमल नयन दुबे said...

वाह ,बहुत सुंदर