Sunday 2 September 2018

'अभिव्यक्ति के स्वर' लघुकथा-संकलन


'अभिव्यक्ति के स्वर' लघुकथा-संकलन - 'हिन्द युग्म' से प्रकाशित
सम्पादक- विभा रानी श्रीवास्तव
प्रकाशन समय - जुलाई २०१८
लघुकथा के १२वें संकलन में मेरी 'पाँच' लघुकथाओं को स्थान दिया गया है | सम्पादक विभा रानी श्रीवास्तव दीदी का आभार।
१--मूल्य (बेटी)
२--वर्दी
३--ग्लानि 
४--गिरह
५--टीस 
--०००--
१--मूल्य इस लिंक पर ---
https://kavitabhawana.blogspot.com/2016/12/blog-post.html
२--वर्दी इस लिंक पर ---अविराम साहित्यिकी के जुलाई-सितम्बर २०१७ में छपी है यह लघुकथा --

३--
ग्लानि

" बेटा! अच्छा हुआ जो तू आ गया तेरे बाबा, जब से तेरे पास से लौटे हैं, गुमसुम से रहने लगे हैंक्या हुआ ऐसा वहाँ?"
"कुछ नहीं अम्मा!"
"कुछ तो हुआ ही होगा! रोज जितनी हिम्मत होती है, खेत में जाकर पेड़-पौधे लगाते रहते हैं गाँव वालों से भी उस सूख गए गड्ढे को खोदकर फिर से तालाब बनाने की गुजारिस करते फिर रहे हैं"
"तेरा पोता सुशील, अब बड़ा हो गया है अम्मा! और तू जानती है, वो बचपन से ही स्पष्ट-वक्ता रहा है"
"तो क्या उसने इन्हें कोई चुभती हुई बात कह दी! वरना जो आदमी एक तुलसी का पौधा न रोपा कभी, वह दिन में दो-चार पेड़ लगा दे रहा! तूने उसे कुछ बोला नहीं?"
"उसने कुछ गलत न बोला अम्मा, तो उससे क्या कहता मैं बल्कि मैं खुद बदलते वातावरण से परेशान हूँ, रिटायर होते ही इस ओर ध्यान दूँगा"
"बात तो बता बेटा, पहेलियाँ काहे बुझा रहा है? उसने ऐसा क्या कहा तेरे बाबा को?"
"उसने बाबा को फालतू पानी बहाते देख कह दिया कि दादाजी! एक दिन में बस पांच सौ लिटर पानी मिलता है इस तरह पानी की बर्बादी करेंगे, तो कैसे काम चलेगा' और..!"
"और ...कुछ और भी बोला! इतना बड़ा हो गया है क्या?" विस्मित-सी होकर अम्मा बोली
"और उसने बाबा से कह दिया कि आपके दादा-परदादा पेड़-पौधे लगाकर वातावरण को हरा-भरा रखे आप की पीढ़ी ने बैठे-बैठे उसके खूब मजे लूटे अब आपकी पीढ़ी की निष्क्रियता के दंड हम लोग भुगतेंगे ही' उसकी इन्हीं बातों से, बाबा क्रोधित होकर वहाँ से अकेले ही चले आए"
"हाय राम! उसने इतना कुछ कह कैसे दिया !"
"अम्मा! दादा-परदादा के लगाये पेड़-पौधे आंधी से उजड़ते रहे, हम उन्हें बेचते गए तालाब भी पाटकर बस्ती बसा डाली अब तक मन माफ़िक पानी की बर्बादी भी होती रही | कुएँ का भी जलस्तर गिरता जा रहा है अब इन सब का खामियाजा नई पीढ़ी को तो भुगतना ही पड़ेगा और वो इसी तरह झल्लाते हुए अपने पूर्वजों को कोसते रहेंगे.!” कहकर चिंतामग्न हो गया
थोड़ी देर बाद फिर बोला- "अम्मा! कल बाबा के साथ मैं भी पेड़ लगवा आऊँगा बस उनकी देखरेख तुम करती रहना"
"कई बार मैंने कही कि पुराने पेड़ धीरे-धीरे गिरते जा रहे हैं, लगा दीजिए कुछ फलों के पेड़ मेरे कहने से तो सुने नहीं कभी! अच्छा हुआ जो पोते ने चोट दी! अब उसकी दी हुई चोट की ओट में, जमीन की खोट दूर हो जाएगी कितने बीघे जमीन बंजर होने को थी"
---००---
Jul 31, 2016 obo
सविता मिश्रा 'अक्षजा'
 
४--गिरह इस लिंक पर --

टीस

"अँजुली में गंगाजल भरकर यह कैसा संकल्प ले रहे हो रघुवीर बेटा? इस तरह संकल्प लेने का मतलब भी पता है तुम्हें!" गंगा नदी में घुटनों तक पानी में खड़े अपने बेटे को संकल्प लेते देख पूछ बैठा पिता।
"पिताजी! आप अन्दर-ही-अंदर घुलते जा रहे हैं। कितनी व्याधियों ने आपको घेर लिया है। नाती-पोतों की किलकारियों से भरा घर, फिर भी आपके चेहरे पर मैंने आज तक मुस्कराहट..।"
आहत पिता ने कहा- "बेटा! अपने नन्हें-मुन्हें बच्चों को बिलखता हुआ छोड़कर कोई माँ कैसे जा सकती है! इस कैसे-क्यों का प्रश्न मेरे जख्मों को भरने ही नहीं देता।"
"पिताजी तभी तो..!"
पिता बेटे की बात को बीच में काटते हुए बोले- "बेटा! पैंतीस सालों में परिजनों के कटाक्ष को दिल में दफ़न करना सीख गया हूँ मैं। उसके जाने के बाद समय के साथ समझौता भी कर लिया था मैंने। हो सकता है उसके लिए उस व्यक्ति का प्यार मेरे प्यार से ज्यादा हो! इसलिए वो मेरा साथ छोड़कर, उसके साथ चली गयी हो।" 
"मैं उन्हें ...!" 
बेटा क्रोध में बोल ही रहा था कि पिता ने दुखी मन से कहा -"फिर भी बेटा! मैं सब कुछ भूलना चाहता हूँ! परन्तु यह समाज मेरे जख्म को जब-तब कुरेदता रहता है।"
"समाज के द्वारा आप पर होते कटाक्ष की इसी ज्वाला में जलकर तो मैं आज संकल्प ले रहा हूँ। मैं माँ का मस्तक आपके चरणों में ले आकर रख दूँगा पिता जी, बिलकुल परशुराम की तरह।"
"बेटा! गिरा दो अँजुली का जल तुम परशुराम भले बन जाओ, पर मैं जमदग्नि नहीं बन सकता हूँ।"
--००---
सविता मिश्रा 'अक्षजा'
आगरा
November 30, 2015 obo में ..
*****************

No comments: