Thursday 26 July 2018

कुछ तो है- ('परिंदों के दरमियां')

कुछ तो है, नहीं ! नहीं! बहुत कुछ है नवोदित लघुकथाकारों के लिए 'परिंदों के दरमियां' किताब में 😊
कभी-कभी कुछ किताबें पढ़कर आदमी मौन रह मनन करता रहता है, और करना भी चाहिए। बोलने के बजाय उस पुस्तक की बातों को मनन करना या फिर उसमें कहीं बातों के विषय में खुद से वाद करना लेखक से विस्तृत रूप में कहने से ज्यादा अच्छा है।
फिलहाल 'परिंदे पूछते हैं' हाईस्कूल की बोर्ड की तैयारी करने जैसा है तो 'परिंदों के दरमियां' को पढ़ना इंटर की बोर्ड परीक्षा पास करने के लिए बहुत जरूरी है। दोनों किताबें आपको उतना लाभ पहुँचाने में सक्षम है जितना आप मन से पढ़ेंगे। बस परीक्षा पास होने के लिए यानी सिर्फ और सिर्फ सतही लघुकथा लिखना है तो किताब के पन्नों पर सिर्फ सरसरी निगाह डालने भर से आपका काम हो जाएगा। लेकिन कुछ गूढ़ कथाएँ लिखनी है तो ऐसी पुस्तकें आपको लिखने में बहुत मदद करती हैं |

 यदि बढ़िया शिल्प-शैली की कथाएँ लिखनी है तो मन लगाकर लघुकथा को समझने वाली पुस्तक  'परिंदों के दरमियां' पढ़ें और पढ़ें और पढ़ते रहें ! फिर मनन करें।
 एक अच्छा शिक्षक यह जरूर कहेगा कि रट्टू तोता होकर परीक्षा में न बैठें । पढ़े फिर खुद से समझे, फिर चिंतन करके आगे बढ़े।
बस बलराम भैया के सम्पादन में छपी हुई 'परिंदों के दरमियां' किताब को पढ़ते-पढ़ते यही विचार आया। यदि वह विस्तृत रूप से हमें कहेंगे तो वह भी हम लिख सकते हैं लेकिन हम चाहेंगे कि पत्ता गोभी को परत-दर-परत खोलकर , अरे हमारा मतलब है इस किताब के हर पन्ने को लघुकथा के सहपाठी खुद ही पढ़कर महसूस करें तो बेहतर है। उनके आगे गोभी की पूरी परतें खोलकर हम क्यों रखें भला।
दोनों ही पुस्तक बार-बार पढ़कर मनन करना ही चाहिए, ऐसा हमें लगता है। फिर पढ़िए और बढिए सब |

सविता मिश्रा 'अक्षजा'

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