Saturday, 16 May 2020

क्रेडिट कार्ड (लघुकथा)

“माँ..,”  फोन पर रुंधे इस एक शब्द को सुनते ही  शैली अपने बेटे की घबराहट को भांप ली। अब  शैली उस आवाज के माध्यम से अपने बेटे की रोती आंखे साफ साफ देख पा रही थी। अपने को संयमित करके बोली-
“रोओ नहीं बेटा, क्या हुआ बताओ तो?”
न जाने कितने दुर्विचार शैली के सामने से चलचित्र की भांति चलने लगे । वह साहस जुटाकर बोली, “मैं हूँ न! बताओ तो..!"
माँ आज क्रेडिट कार्ड से किसी ने सारे रुपए बैंक खाते से उड़ा लिए। मैं नींद में था तभी फोन आया था और..और...सेकेंड भर में सारे रुपये..!”
मन किया कि कहे इतनी लापरवाही, सोने के चक्कर में होश खो बैठा था क्या? कल ही फीस को दिए पूरे दो लाख रुपए लुटा बैठा..! लेकिन फिर आंखों के सामने वो घटनाएं घूमने लगी जिसमें बच्चों के साथ घटी ऐसी घटनाएं दृष्टिगोचर हुई जिसमें बच्चे क्रेडिट कार्ड से रुपए लूटने के बाद माता-पिता की डांट के डर से आत्महत्या कर लिए थे। उसने अपने को सायास वर्तमान में धकेला और बोली- “बेटा, कोई बात नहीं, गलतियां हर किसी से हो जाती हैं। बस अब से जाग जाग जाओ और क्रेडिट कार्ड का इस्तेमाल सावधानी पूर्वक करो, वरना येन केन प्रकारेण सारी मेहनत की कमाई ये क्रेडिट कार्ड  चूस लेगा, क्योंकि इसकी तो आँखें हैं नहीं, बस मुँह ही मुँह है।”
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सविता मिश्रा ‘अक्षजा’
आगरा

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