“रोशनी या प्रकाश-पुंज”
पुस्तक-“रोशनी के अंकुर”
रचनाकार- सविता मिश्रा ‘अक्षजा’
प्रकाशक: निखिल पब्लिशर एंड डिस्ट्रीब्यूटर, आगरा
प्रकाशन वर्ष: २०१९
आलोचकों को अब लघुकथाकारों ने अपनी ओर आकर्षित करना शुरू किया है, लघुकथाओं पर आलोचना लिखी जा रही है, जो इस विधा को एक सही स्थान देने के लिए आवश्यक भी है। आलोचक अब नए रचनाकारों को तवज्जो देने लगे हैं, यह भी एक सुसंकेत है, कुछ लघुकथाकारों ने आलोचकों की ओर अपना ध्यान आकृष्ट किया है, सविता मिश्रा ऐसा ही एक नाम है जिनकी लेखन क्षमता हमें चौंकाना नहीं छोड़ती, यह उनके और लघुकथा विधा दोनों के लिए ही एक शुभ संकेत है। इस रचनाकार की मौजूदगी लघुकथा लेखिकाओं को भी बहुत आश्वस्त करती है, एक बानगी देखिए—“चुप कर मुई! कोई सुन लेगा, समाज में इज्जत बाकी रहे इसके लिए बहुत कुछ करना होता है, और फिर मैं तो उसे मर्द के नाम की छाँव दे रही हूँ। अब भले ही वह नामर्द है। उसकी भी इज्जत ढकी रहेगी और अपनी भी।“
“रोशनी के अंकुर” असल में न ही कहानी संग्रह है, न ही ये लघुकथा संग्रह ही, इसमें समाहित १०१ रचनाएँ हैं, जो कहानी की रवानगी से शुरू होकर लघुकथा के कलेवर में प्रस्तुत होती हैं। कथानक के चयन से लेकर वाक्य-विन्यास की दृष्टि से अगर देखा जाए तो मालूम होता है कि कहीं लघुकथा के कथानक को कहानी के अंदाज में लिखा गया है तो कहीं कहानी के कथानक को लघुकथा के रूप में लिखा गया है। लेकिन एक बात महत्वपूर्ण है कि रचनाकार सामान्य पारिवारिक विषयों/ समस्याओं का भी अति-विशिष्टीकरण करने में सक्षम है। इन समस्याओं को नए दृष्टिकोण से प्रस्तुत करना ही रचनाकार की बड़ी विशेषता है। समाज में हो रहे परिवर्तन- आधुनिकीकरण, विकास, पाश्चात्य संस्कृति का प्रभाव, इत्यादि का पारिवारिक जीवन पर क्या प्रभाव पड़ा है, सविता इन सबका सूक्ष्म विश्लेषण करती हैं, पीढ़ियों के न खत्म होने वाले अन्तर को “अनपढ़ माँ” में बखूबी दिखाया गया है, दाम्पत्य सम्बन्धों में संदेह हमेशा बना रहता है जिसको “कागज का टुकड़ा” में देखा जा सकता है। सविता हर पारिवारिक घटना पर मानो नजर गड़ाए बैठी हैं, कहीं आन्तरिक द्वंद्व को गहरे से निकाल पन्नों पर उकेर देती हैं, तो कहीं पारिवारिक रिश्तों में “प्यार की महक” को खोजने लगती हैं । बनते बिगड़ते रिश्तों में “तुरपाई” के महत्व को भी वे रेखांकित करना नहीं भूलतीं। जिसमें धागे के उलझने और रिश्तों के उलझने का अंतर-सम्बन्ध लेखिका ने दर्शाया है।
“रोशनी के अंकुर” पुस्तक सविता की संवेदनाओं का विस्तार है जो विभिन्न पात्रों के माध्यम से उभरता है। उनके पास संवेदनाओं के विभिन्न रंग है। ”तोहफा” कथा सकारात्मक सोच की एक बढ़िया पारिवारिक रचना है। “नियत” मनोवैज्ञानिक स्तर पर लिखी गयी सुन्दर रचना है। सविता की एक विशेषता ये है वे मात्र कथानक को विस्तार देने के लिए नहीं लिखती हैं। उनके लेखन में कथा के यथार्थ के साथ समाधान भी उपलब्ध है जिसे वे पात्र के माध्यम से समाज के सामने बड़े ही सहज ढंग से पेश करती हैं। ”माँ की सीख” में माँ कहती है-“जिन्दगी की कुछ तस्वीरें सबक सीखने-सिखाने के लिए भी ली जाती हैं।...” ये तस्वीरें है- लाल किले के कोने में पान के पीक, बदबूदार गन्दा कोना, पत्थरों पर लिखे आलतू-फालतू नाम, जगह-जगह लुढ़की हुई पानी की खाली बोतलें। लेखक का काम लिखना मात्र नहीं है- वह समाज को चेताने का काम भी करता है, समाज को जागरूक भी करता है, बहुत साधारण तरीके से लिखी गयी यह रचना समाज को बहुत बड़ा सन्देश दे जाती है।
कथा ‘निर्णय” में कबड्डी-खिलाड़ी का सब्जी बेचना पूरी शिक्षा-व्यवस्था को कटघरे में खड़ा करता है। गोल्ड मेडलिस्ट खिलाड़ी का बेटे द्वारा परिचय कराने पर नीलम के चहरे से ख़ुशी का काफूर होना, बेटे के भविष्य की चिंता की लकीरें उसके चेहरे पर उभर आना, देश में खेलो के महत्व पर सोचने की ओर इशारा करता है। ”अभिलाषा” एक मानवेत्तर रचना है जिसमें चूड़ियों के माध्यम से एक सकारात्मक संदेश देने का प्रयास किया गया है। “सच्ची सुहागन” में नायक जेब में महज दो सौ रूपये देख सामान खरीदने की योजना बनाता है, लेखिका यहाँ गरीबी का एक चित्र खींचती हैं, नायक सामान ले घर पहुँचता है। पत्नी के साथ संवाद- “बड़े खुश लग रहे हो, लगता है कल ले लिए, बच्चों को भरपेट खाने को कुछ लाये हो, आज तो भूखे पेट ही सो गए दोनों।“- यहाँ लेखिका ने कहने का प्रयास किया है- माँ के लिए बच्चों से बढ़कर कुछ नहीं।
“राक्षस”लघुकथा के माध्यम से लेखिका परिवार में बच्चियों की सुरक्षा पर प्रश्न-चिह्न खड़ा करती हैं, रचना का कथानक एक वीभत्स घटना है-जहाँ पिता ही बेटी की अस्मिता को तार-तार कर देता है, यह समाज का घिनोना सच है जिससे लेखिका रूबरू कराती हैं। “बेबसी” द्वारा बच्चों के विवाह के बाद रिटायर माँ-बाप से अपने व्यस्त जीवन से समय न निकाल पाने की लेखिका की वेदना सभी बुजुर्ग माँ-बाप की वेदना बनकर उभरती है।
“ठंडा लहू” व्यंग्यात्मक शैली की रचना है। जिसे पढ़कर हिंदी भवन दिल्ली के पास चाय बेचते साहित्यकार “लक्ष्मण राव” की याद आती है, कितने ही साहित्यकार हैं जो बहुत अच्छा लिखने के बावजूद प्रसिद्ध नहीं हो पाते हैं, जिसका एक बड़ा कारण प्रकाशकों का बदलता स्वरुप है, इस रचना का पात्र परशुराम ऐसा ही एक पात्र है।
“मन का बोझ” की शुरुआत लेखिका व्यंग्यात्मक संवाद से करती हैं, जिसमें खुद के पुत्र के दुर्घटना में मारे जाने पर पात्र में संवेदना जागृत होती है, यह आत्मग्लानि से आत्मचेतना की रचना है। “बदलते भाव” में लेखिका मार्के की बात कहती हैं-“छीन-झपटकर कोई कब तक जिन्दा रह सकता है भला, पाप का घड़ा एक न एक दिन फूटता ही है।“ संग्रह की एक रचना है –“आस” जिससे एक सन्देश प्रदर्शित होता है-“इंसानियत की पहचान इन्सान की नजदीकी से पता चलती है, सुनी-सुनाई बातों से नहीं।“ यहाँ एक बात और ध्यान देने की है- अभाव वस्तु की कीमत का अंदाजा लगा देता है। एक संवाद देखिये-“अन्न का अपमान नहीं करना चाहिए.... ये अमीर लोग क्या जाने इन दानों की कीमत, यह तो कोई मुझसे पूछे, जिसके घर में हांड़ी में अन्न नहीं, पानी पकता है।“ ये एक पंक्ति समस्त साहित्य पर भारी पड़ती है।
“खुलती गिरहें” पढ़कर अंदाजा होता है कि लेखिका इस सब्जेक्ट में विशेष दक्षता रखती हैं, इस रचना और लेखिका दोनों पर सामाजिक प्रभाव का असर है। यह असल में पलायन की रचना है, जिससे सन्देश जाता है कि विचार परिवर्तन ही रिश्तों को सहज करते हैं। एक संवाद इसी रचना से-“मैंने ही सासु माँ नाम से अपने दिमाग में कँटीली झाड़ियाँ उगा रखी थी। सब सखियों के कड़ूवे अनुभवों ने उन झाड़ियों में खाद-पानी का काम किया।“ असल में सास शब्द को लेकर समाज में एक अजीब सी रिश्तों की दूरी है, जिससे बाहर आने का सन्देश ये रचना देती है। “वर्दी” पीढ़ियों की सोच का अंतर दर्शाती रचना है जो ज्यादा प्रभाव तो नहीं छोडती, लेकिन पहले लिए गए निर्णयों का प्रभाव आगामी जीवन पर क्या पड़ता है, इस बात की पड़ताल अवश्य करती है। “टीस” से स्त्री-पुरुष के बीच चारित्रिक भेद का अंतर लेखिका पुन: उजागर करती हैं, किसी एक महिला के घर छोड़कर जाने की सज़ा समाज कई पीढ़ियों को देता है, जबकि कोई पुरुष घर छोड़ जाए तो उसे सहानुभूति मिलती है, लेखिका ने यहाँ समाज के दोहरे चरित्र पर सवाल खड़ा किया है। “ढाढ़स” में दो वर्गों के अंतर को दो संस्कृति के अंतर के तौर पर रखा गया है, लेखिका पढ़ाई की अहमियत को इंगित करते हुए सन्देश देती हैं कि शिक्षा इन संस्कृतियों के अंतर को कम कर सकती है।
लेखिका को अभी साहित्य के क्षेत्र में बहुत कुछ करना है तो बहुत कुछ सीखना भी है, जो बात पूरे संग्रह में अखरती है वह है, विषयों में विविधता का न होना, कथानक चयन में एक बने बनाये दायरे के इर्द-गिर्द घूमना। व्याकरण पर भी लेखिका को ध्यान देना होगा। “दर्द” रचना की पहली पंक्ति- शिखा अपने पड़ोसन अमिता और बच्चों के साथ पार्क में घूमने गयी.... शिखा अपने बच्चों को आवाज दी... श्रेया, मुदित जल्दी आओ घर चलना है.... कोई पार्क का पहरेदार देखकर गुस्सा न करने लगे.... । एक ही रचना में इस तरह की व्याकरणिक गलतियों को टंकण की अशुद्धि कहकर नहीं बचा जा सकता। इस रचना का विषय पेड़-पौधों का दर्द है जिन्हें बोध कथाओं में खूब लिखा गया है, फिर इसमें नया क्या है? ”भूख” रचना में आँसुओं की नन्हीं-नन्हीं बूँदें तकिये की गोद में सोने चली थी,... ये किस तरह का प्रयोग है, मेरी पाठकीय नजर से बाहर की बात है। “आस” में अतः आधी टिफिन भीखू को दे डाली...., यहाँ भी व्याकरण पर ध्यान देने की जरूरत है। “तीसरा” रचना को आखिर लेखिका ने क्यों लिखा उस पर सवाल हो सकता है लेकिन आत्मकथ्यात्मक शैली में लिखी रचना में –“अक्सर सोचती हूँ कि आखिर ऐसा क्यों करते हैं लोग” जैसे वाक्यों से बचना चाहिए। “निर्णय” रचना को अगर संवाद के साथ विवरणात्मक शैली को भी सम्मिलित किया जाता तो अधिक प्रभावी रचना होती। “समय का फेर” रचना स्वयं में समय की मांग करती है, लेखिका अगर इसे समय दें तो इस रचना कोई भी बेहतर ढंग से लिखा जा सकता है।
अबोर्शन को केंद्र में रखकर लिखी "भूख" रचना पर लेखिका को सुझाव देना चाहूँगा- लेखिका को भाग्य या गलत काम के प्रभाव पड़ने जैसे अवैज्ञानिक विचार से बाहर आना चाहिए। बच्चे न होना एक वैज्ञानिक कारण है, जिसकी वजह किसी डॉ का गर्भपात में लिप्त होना नहीं हो सकता। यह मानसिकता बिल्कुल वैसी है जैसे शाप से सर्वनाश जैसी कल्पना करना। “नजर” और “मीठा जहर” औचित्यहीन रचनाएँ हैं, लेखिका को इस तरह की रचना लिखने से भी बचना चाहिए। “हाथी का दांत” में लेखिका ने “मोदी जी” शब्द का इस्तेमाल किया है। साहित्य वह होता है जो भविष्य में भी अपने समय का प्रतिनिधित्व करता है। “नेहरु” टायटल से ब्रांड बनने में सदी लगती है, “मोदी” टायटल को ब्रांड बनने में समय का इंतजार करना होगा। “टायटल के शब्द रचना को हल्का बनाते हैं और साहित्य को कालजयी होने से रोकते हैं, रचना मात्र सामायिक होकर रह जाती है, पद “प्रधानमन्त्री” इत्यादि लिखना जोखिम से बचना भी होता है और रचना को समय से आगे ले जाना भी। रचनाकार को शब्द-संचयन के मामले में बहुत सचेत रहने की आवश्यकता है, इसे कथ्य और कथा विन्यास के हिसाब से भी एक कमजोर रचना ही कहा जायेगा।
लेखिका की अधिकांश रचनाएँ नारी-वेदना, नारी-विमर्श, नारी-सशक्तिकरण के इर्द-गिर्द घूमती हैं, लेकिन वे स्त्रीवाद की हिमायती न होकर स्त्री की अस्मिता की हिमायत करती हैं, जो लेखिका को स्त्रीवादी रचनाकारों से अलग करता है। उनके अन्दर की स्त्री-चेतना स्वाभाविक है। अधिकांश रचनाओं में लेखिका स्त्री के प्रति समाज के संकुचित दृष्टिकोण पर ध्यान आकृष्ट करती दिखाई देती हैं। इस लिहाज से देखा जाए तो सविता के लेखन को सफल कहा जा सकता है।
भाषा-शैली की बात करें तो सविता की भाषा काफी लचीली है, जिसमें वे बातचीत के अंदाज में अपनी बातें कहती जाती हैं। उन्हें किसी भी तरह से किसी विशेष शैली की जरुरत महसूस नहीं होती। कहीं-कहीं मुहावरों का प्रयोग भी किया गया है. हालांकि अभी यह सविता की पहली एकल किताब है तो इसमें शब्दों के प्रयोग में बहुत अधिक सावधानी दिखती नहीं देती है। कहीं-कहीं वे असावधानी से भी कुछ प्रयोग करती हैं। सामान्य शब्दों के साथ कहीं कहीं भारी-भरकम शब्दों जिनका पर्याय आम बोलचाल के शब्दों में भी उपलब्ध है, का इस्तेमाल भी लेखिका कर गई हैं जिनसे अर्थ पर तो नहीं लेकिन, वाक्य के प्रवाह और सौन्दर्य पर प्रभाव पड़ता है। “मन का चोर” सुनते ही चेहरा फक्क पड़ गया, बोली- इस बंटी ने लगा गिरा दिया होगा... तू कुछ खाई की नहीं... “कथा है”- कितना अच्छा तो लिखी हो रूबी..... “मीठा जहर” ...”अरे दी आप भी न. ।“ ”भाई । फिर वह रोहित को सम्बोधित हुआ.... । ”बदलाव” लघुकथा में कुछ संवाद बहुत अच्छे हैं लेकिन अंत तक आते-आते लेखिका कथा-वाचिका की भूमिका में आ जाती है, यह रचना अंत तक आते-आते अपना अभीष्ट खो धरासाई हो जाती है, रचनाकार से अपेक्षा की जाती है कि वह रचनाकर्म करते समय तठस्थ रहे।
पाठशाला में मुहावरा का प्रयोग भी वे करती हैं –......आग से रुई हुई जा रही थी। बहरहाल, कुल मिलाकर ये कह सकते हैं कि सविता के इन रोशनी के अंकुरों की सबसे बड़ी खासियत यह है कि ये रोशनी सीधी पाठकों की आँखों को खोए रखती हैं, और हमें यह मानना होगा कि ये अंकुर अपने आप में हिंदी साहित्य को विधागत स्तर पर और समृद्ध कर स्वयं एक वट वृक्ष बनेंगे। रोशनी के अंकुर में काफी कुछ मौजूद है।
कुल मिलाकर पूरी पुस्तक पठनीय होने के साथ-साथ विचारणीय भी है। प्रकाशकीय स्तर पर कुछ वर्तनी संबंधी अशुध्दियाँ हैं, जिनसे कहीं-कहीं अवरोध भी उत्पन्न होता है। उन्हें नज़रंदाज़ भी नहीं किया जा सकता। साज-सज्जा की दृष्टि से पुस्तक आकर्षक है और आवरण-पृष्ठ उतना ही विशेष है जितनी सविता मिश्रा की रचनाएँ. रचनाकार को इस पुस्तक के लिए शुभकामनाएँ।
समीक्षक
संदीप तोमर
-----0------
अमेजॉन पर उपलब्ध है👇
https://www.amazon.in/dp/B0826N58ZV/ref=cm_sw_r_wa_apa_i_fu57Eb3X6SQKZ
पुस्तक-“रोशनी के अंकुर”
रचनाकार- सविता मिश्रा ‘अक्षजा’
प्रकाशक: निखिल पब्लिशर एंड डिस्ट्रीब्यूटर, आगरा
प्रकाशन वर्ष: २०१९
आलोचकों को अब लघुकथाकारों ने अपनी ओर आकर्षित करना शुरू किया है, लघुकथाओं पर आलोचना लिखी जा रही है, जो इस विधा को एक सही स्थान देने के लिए आवश्यक भी है। आलोचक अब नए रचनाकारों को तवज्जो देने लगे हैं, यह भी एक सुसंकेत है, कुछ लघुकथाकारों ने आलोचकों की ओर अपना ध्यान आकृष्ट किया है, सविता मिश्रा ऐसा ही एक नाम है जिनकी लेखन क्षमता हमें चौंकाना नहीं छोड़ती, यह उनके और लघुकथा विधा दोनों के लिए ही एक शुभ संकेत है। इस रचनाकार की मौजूदगी लघुकथा लेखिकाओं को भी बहुत आश्वस्त करती है, एक बानगी देखिए—“चुप कर मुई! कोई सुन लेगा, समाज में इज्जत बाकी रहे इसके लिए बहुत कुछ करना होता है, और फिर मैं तो उसे मर्द के नाम की छाँव दे रही हूँ। अब भले ही वह नामर्द है। उसकी भी इज्जत ढकी रहेगी और अपनी भी।“
“रोशनी के अंकुर” असल में न ही कहानी संग्रह है, न ही ये लघुकथा संग्रह ही, इसमें समाहित १०१ रचनाएँ हैं, जो कहानी की रवानगी से शुरू होकर लघुकथा के कलेवर में प्रस्तुत होती हैं। कथानक के चयन से लेकर वाक्य-विन्यास की दृष्टि से अगर देखा जाए तो मालूम होता है कि कहीं लघुकथा के कथानक को कहानी के अंदाज में लिखा गया है तो कहीं कहानी के कथानक को लघुकथा के रूप में लिखा गया है। लेकिन एक बात महत्वपूर्ण है कि रचनाकार सामान्य पारिवारिक विषयों/ समस्याओं का भी अति-विशिष्टीकरण करने में सक्षम है। इन समस्याओं को नए दृष्टिकोण से प्रस्तुत करना ही रचनाकार की बड़ी विशेषता है। समाज में हो रहे परिवर्तन- आधुनिकीकरण, विकास, पाश्चात्य संस्कृति का प्रभाव, इत्यादि का पारिवारिक जीवन पर क्या प्रभाव पड़ा है, सविता इन सबका सूक्ष्म विश्लेषण करती हैं, पीढ़ियों के न खत्म होने वाले अन्तर को “अनपढ़ माँ” में बखूबी दिखाया गया है, दाम्पत्य सम्बन्धों में संदेह हमेशा बना रहता है जिसको “कागज का टुकड़ा” में देखा जा सकता है। सविता हर पारिवारिक घटना पर मानो नजर गड़ाए बैठी हैं, कहीं आन्तरिक द्वंद्व को गहरे से निकाल पन्नों पर उकेर देती हैं, तो कहीं पारिवारिक रिश्तों में “प्यार की महक” को खोजने लगती हैं । बनते बिगड़ते रिश्तों में “तुरपाई” के महत्व को भी वे रेखांकित करना नहीं भूलतीं। जिसमें धागे के उलझने और रिश्तों के उलझने का अंतर-सम्बन्ध लेखिका ने दर्शाया है।
“रोशनी के अंकुर” पुस्तक सविता की संवेदनाओं का विस्तार है जो विभिन्न पात्रों के माध्यम से उभरता है। उनके पास संवेदनाओं के विभिन्न रंग है। ”तोहफा” कथा सकारात्मक सोच की एक बढ़िया पारिवारिक रचना है। “नियत” मनोवैज्ञानिक स्तर पर लिखी गयी सुन्दर रचना है। सविता की एक विशेषता ये है वे मात्र कथानक को विस्तार देने के लिए नहीं लिखती हैं। उनके लेखन में कथा के यथार्थ के साथ समाधान भी उपलब्ध है जिसे वे पात्र के माध्यम से समाज के सामने बड़े ही सहज ढंग से पेश करती हैं। ”माँ की सीख” में माँ कहती है-“जिन्दगी की कुछ तस्वीरें सबक सीखने-सिखाने के लिए भी ली जाती हैं।...” ये तस्वीरें है- लाल किले के कोने में पान के पीक, बदबूदार गन्दा कोना, पत्थरों पर लिखे आलतू-फालतू नाम, जगह-जगह लुढ़की हुई पानी की खाली बोतलें। लेखक का काम लिखना मात्र नहीं है- वह समाज को चेताने का काम भी करता है, समाज को जागरूक भी करता है, बहुत साधारण तरीके से लिखी गयी यह रचना समाज को बहुत बड़ा सन्देश दे जाती है।
कथा ‘निर्णय” में कबड्डी-खिलाड़ी का सब्जी बेचना पूरी शिक्षा-व्यवस्था को कटघरे में खड़ा करता है। गोल्ड मेडलिस्ट खिलाड़ी का बेटे द्वारा परिचय कराने पर नीलम के चहरे से ख़ुशी का काफूर होना, बेटे के भविष्य की चिंता की लकीरें उसके चेहरे पर उभर आना, देश में खेलो के महत्व पर सोचने की ओर इशारा करता है। ”अभिलाषा” एक मानवेत्तर रचना है जिसमें चूड़ियों के माध्यम से एक सकारात्मक संदेश देने का प्रयास किया गया है। “सच्ची सुहागन” में नायक जेब में महज दो सौ रूपये देख सामान खरीदने की योजना बनाता है, लेखिका यहाँ गरीबी का एक चित्र खींचती हैं, नायक सामान ले घर पहुँचता है। पत्नी के साथ संवाद- “बड़े खुश लग रहे हो, लगता है कल ले लिए, बच्चों को भरपेट खाने को कुछ लाये हो, आज तो भूखे पेट ही सो गए दोनों।“- यहाँ लेखिका ने कहने का प्रयास किया है- माँ के लिए बच्चों से बढ़कर कुछ नहीं।
“राक्षस”लघुकथा के माध्यम से लेखिका परिवार में बच्चियों की सुरक्षा पर प्रश्न-चिह्न खड़ा करती हैं, रचना का कथानक एक वीभत्स घटना है-जहाँ पिता ही बेटी की अस्मिता को तार-तार कर देता है, यह समाज का घिनोना सच है जिससे लेखिका रूबरू कराती हैं। “बेबसी” द्वारा बच्चों के विवाह के बाद रिटायर माँ-बाप से अपने व्यस्त जीवन से समय न निकाल पाने की लेखिका की वेदना सभी बुजुर्ग माँ-बाप की वेदना बनकर उभरती है।
“ठंडा लहू” व्यंग्यात्मक शैली की रचना है। जिसे पढ़कर हिंदी भवन दिल्ली के पास चाय बेचते साहित्यकार “लक्ष्मण राव” की याद आती है, कितने ही साहित्यकार हैं जो बहुत अच्छा लिखने के बावजूद प्रसिद्ध नहीं हो पाते हैं, जिसका एक बड़ा कारण प्रकाशकों का बदलता स्वरुप है, इस रचना का पात्र परशुराम ऐसा ही एक पात्र है।
“मन का बोझ” की शुरुआत लेखिका व्यंग्यात्मक संवाद से करती हैं, जिसमें खुद के पुत्र के दुर्घटना में मारे जाने पर पात्र में संवेदना जागृत होती है, यह आत्मग्लानि से आत्मचेतना की रचना है। “बदलते भाव” में लेखिका मार्के की बात कहती हैं-“छीन-झपटकर कोई कब तक जिन्दा रह सकता है भला, पाप का घड़ा एक न एक दिन फूटता ही है।“ संग्रह की एक रचना है –“आस” जिससे एक सन्देश प्रदर्शित होता है-“इंसानियत की पहचान इन्सान की नजदीकी से पता चलती है, सुनी-सुनाई बातों से नहीं।“ यहाँ एक बात और ध्यान देने की है- अभाव वस्तु की कीमत का अंदाजा लगा देता है। एक संवाद देखिये-“अन्न का अपमान नहीं करना चाहिए.... ये अमीर लोग क्या जाने इन दानों की कीमत, यह तो कोई मुझसे पूछे, जिसके घर में हांड़ी में अन्न नहीं, पानी पकता है।“ ये एक पंक्ति समस्त साहित्य पर भारी पड़ती है।
“खुलती गिरहें” पढ़कर अंदाजा होता है कि लेखिका इस सब्जेक्ट में विशेष दक्षता रखती हैं, इस रचना और लेखिका दोनों पर सामाजिक प्रभाव का असर है। यह असल में पलायन की रचना है, जिससे सन्देश जाता है कि विचार परिवर्तन ही रिश्तों को सहज करते हैं। एक संवाद इसी रचना से-“मैंने ही सासु माँ नाम से अपने दिमाग में कँटीली झाड़ियाँ उगा रखी थी। सब सखियों के कड़ूवे अनुभवों ने उन झाड़ियों में खाद-पानी का काम किया।“ असल में सास शब्द को लेकर समाज में एक अजीब सी रिश्तों की दूरी है, जिससे बाहर आने का सन्देश ये रचना देती है। “वर्दी” पीढ़ियों की सोच का अंतर दर्शाती रचना है जो ज्यादा प्रभाव तो नहीं छोडती, लेकिन पहले लिए गए निर्णयों का प्रभाव आगामी जीवन पर क्या पड़ता है, इस बात की पड़ताल अवश्य करती है। “टीस” से स्त्री-पुरुष के बीच चारित्रिक भेद का अंतर लेखिका पुन: उजागर करती हैं, किसी एक महिला के घर छोड़कर जाने की सज़ा समाज कई पीढ़ियों को देता है, जबकि कोई पुरुष घर छोड़ जाए तो उसे सहानुभूति मिलती है, लेखिका ने यहाँ समाज के दोहरे चरित्र पर सवाल खड़ा किया है। “ढाढ़स” में दो वर्गों के अंतर को दो संस्कृति के अंतर के तौर पर रखा गया है, लेखिका पढ़ाई की अहमियत को इंगित करते हुए सन्देश देती हैं कि शिक्षा इन संस्कृतियों के अंतर को कम कर सकती है।
लेखिका को अभी साहित्य के क्षेत्र में बहुत कुछ करना है तो बहुत कुछ सीखना भी है, जो बात पूरे संग्रह में अखरती है वह है, विषयों में विविधता का न होना, कथानक चयन में एक बने बनाये दायरे के इर्द-गिर्द घूमना। व्याकरण पर भी लेखिका को ध्यान देना होगा। “दर्द” रचना की पहली पंक्ति- शिखा अपने पड़ोसन अमिता और बच्चों के साथ पार्क में घूमने गयी.... शिखा अपने बच्चों को आवाज दी... श्रेया, मुदित जल्दी आओ घर चलना है.... कोई पार्क का पहरेदार देखकर गुस्सा न करने लगे.... । एक ही रचना में इस तरह की व्याकरणिक गलतियों को टंकण की अशुद्धि कहकर नहीं बचा जा सकता। इस रचना का विषय पेड़-पौधों का दर्द है जिन्हें बोध कथाओं में खूब लिखा गया है, फिर इसमें नया क्या है? ”भूख” रचना में आँसुओं की नन्हीं-नन्हीं बूँदें तकिये की गोद में सोने चली थी,... ये किस तरह का प्रयोग है, मेरी पाठकीय नजर से बाहर की बात है। “आस” में अतः आधी टिफिन भीखू को दे डाली...., यहाँ भी व्याकरण पर ध्यान देने की जरूरत है। “तीसरा” रचना को आखिर लेखिका ने क्यों लिखा उस पर सवाल हो सकता है लेकिन आत्मकथ्यात्मक शैली में लिखी रचना में –“अक्सर सोचती हूँ कि आखिर ऐसा क्यों करते हैं लोग” जैसे वाक्यों से बचना चाहिए। “निर्णय” रचना को अगर संवाद के साथ विवरणात्मक शैली को भी सम्मिलित किया जाता तो अधिक प्रभावी रचना होती। “समय का फेर” रचना स्वयं में समय की मांग करती है, लेखिका अगर इसे समय दें तो इस रचना कोई भी बेहतर ढंग से लिखा जा सकता है।
अबोर्शन को केंद्र में रखकर लिखी "भूख" रचना पर लेखिका को सुझाव देना चाहूँगा- लेखिका को भाग्य या गलत काम के प्रभाव पड़ने जैसे अवैज्ञानिक विचार से बाहर आना चाहिए। बच्चे न होना एक वैज्ञानिक कारण है, जिसकी वजह किसी डॉ का गर्भपात में लिप्त होना नहीं हो सकता। यह मानसिकता बिल्कुल वैसी है जैसे शाप से सर्वनाश जैसी कल्पना करना। “नजर” और “मीठा जहर” औचित्यहीन रचनाएँ हैं, लेखिका को इस तरह की रचना लिखने से भी बचना चाहिए। “हाथी का दांत” में लेखिका ने “मोदी जी” शब्द का इस्तेमाल किया है। साहित्य वह होता है जो भविष्य में भी अपने समय का प्रतिनिधित्व करता है। “नेहरु” टायटल से ब्रांड बनने में सदी लगती है, “मोदी” टायटल को ब्रांड बनने में समय का इंतजार करना होगा। “टायटल के शब्द रचना को हल्का बनाते हैं और साहित्य को कालजयी होने से रोकते हैं, रचना मात्र सामायिक होकर रह जाती है, पद “प्रधानमन्त्री” इत्यादि लिखना जोखिम से बचना भी होता है और रचना को समय से आगे ले जाना भी। रचनाकार को शब्द-संचयन के मामले में बहुत सचेत रहने की आवश्यकता है, इसे कथ्य और कथा विन्यास के हिसाब से भी एक कमजोर रचना ही कहा जायेगा।
लेखिका की अधिकांश रचनाएँ नारी-वेदना, नारी-विमर्श, नारी-सशक्तिकरण के इर्द-गिर्द घूमती हैं, लेकिन वे स्त्रीवाद की हिमायती न होकर स्त्री की अस्मिता की हिमायत करती हैं, जो लेखिका को स्त्रीवादी रचनाकारों से अलग करता है। उनके अन्दर की स्त्री-चेतना स्वाभाविक है। अधिकांश रचनाओं में लेखिका स्त्री के प्रति समाज के संकुचित दृष्टिकोण पर ध्यान आकृष्ट करती दिखाई देती हैं। इस लिहाज से देखा जाए तो सविता के लेखन को सफल कहा जा सकता है।
भाषा-शैली की बात करें तो सविता की भाषा काफी लचीली है, जिसमें वे बातचीत के अंदाज में अपनी बातें कहती जाती हैं। उन्हें किसी भी तरह से किसी विशेष शैली की जरुरत महसूस नहीं होती। कहीं-कहीं मुहावरों का प्रयोग भी किया गया है. हालांकि अभी यह सविता की पहली एकल किताब है तो इसमें शब्दों के प्रयोग में बहुत अधिक सावधानी दिखती नहीं देती है। कहीं-कहीं वे असावधानी से भी कुछ प्रयोग करती हैं। सामान्य शब्दों के साथ कहीं कहीं भारी-भरकम शब्दों जिनका पर्याय आम बोलचाल के शब्दों में भी उपलब्ध है, का इस्तेमाल भी लेखिका कर गई हैं जिनसे अर्थ पर तो नहीं लेकिन, वाक्य के प्रवाह और सौन्दर्य पर प्रभाव पड़ता है। “मन का चोर” सुनते ही चेहरा फक्क पड़ गया, बोली- इस बंटी ने लगा गिरा दिया होगा... तू कुछ खाई की नहीं... “कथा है”- कितना अच्छा तो लिखी हो रूबी..... “मीठा जहर” ...”अरे दी आप भी न. ।“ ”भाई । फिर वह रोहित को सम्बोधित हुआ.... । ”बदलाव” लघुकथा में कुछ संवाद बहुत अच्छे हैं लेकिन अंत तक आते-आते लेखिका कथा-वाचिका की भूमिका में आ जाती है, यह रचना अंत तक आते-आते अपना अभीष्ट खो धरासाई हो जाती है, रचनाकार से अपेक्षा की जाती है कि वह रचनाकर्म करते समय तठस्थ रहे।
पाठशाला में मुहावरा का प्रयोग भी वे करती हैं –......आग से रुई हुई जा रही थी। बहरहाल, कुल मिलाकर ये कह सकते हैं कि सविता के इन रोशनी के अंकुरों की सबसे बड़ी खासियत यह है कि ये रोशनी सीधी पाठकों की आँखों को खोए रखती हैं, और हमें यह मानना होगा कि ये अंकुर अपने आप में हिंदी साहित्य को विधागत स्तर पर और समृद्ध कर स्वयं एक वट वृक्ष बनेंगे। रोशनी के अंकुर में काफी कुछ मौजूद है।
कुल मिलाकर पूरी पुस्तक पठनीय होने के साथ-साथ विचारणीय भी है। प्रकाशकीय स्तर पर कुछ वर्तनी संबंधी अशुध्दियाँ हैं, जिनसे कहीं-कहीं अवरोध भी उत्पन्न होता है। उन्हें नज़रंदाज़ भी नहीं किया जा सकता। साज-सज्जा की दृष्टि से पुस्तक आकर्षक है और आवरण-पृष्ठ उतना ही विशेष है जितनी सविता मिश्रा की रचनाएँ. रचनाकार को इस पुस्तक के लिए शुभकामनाएँ।
समीक्षक
संदीप तोमर
-----0------
अमेजॉन पर उपलब्ध है👇
https://www.amazon.in/dp/B0826N58ZV/ref=cm_sw_r_wa_apa_i_fu57Eb3X6SQKZ
2 comments:
समीक्षक भी मूलतः एक पाठक ही होता है। बस पढ़ते हुए सामान्य पाठक से थोड़ा अधिक सूक्ष्म नज़र / दृष्टि रखता है। वह अपनी रुचि, अपने अनुभव, अपने ज्ञान के आधार पर लिखता है।
बस यही मेरा मत है।
जी आपका मत निसंदेह ठीक है ..हम पूरी तरह सहमत हैं | आभार |
Post a Comment