युवकों
को आशीर्वाद देने के बाद कौशल अपने काँपते हुए हाथ जोड़कर सिर आकाश की ओर उठाकर
बोला -"ये सब आपकी शिक्षा का ही प्रताप है पिता जी, जो मैं कांटो
भरी राह में
फूल उगा पाया |" उसकी आँखों में झिलमिलाते पर्दे ने अतीत को उघार दिया था |
जहाँ तक नजर जा रही थी टिहरी के कोठियाड़ा गाँव में खंडहर ही खंडहर
दिख रहा था | बादल फटा और देखते ही देखते खुशहाल
गाँव में बदहाली फ़ैल गयी | कौशल का मनोबल फिर भी नहीं टूटा था|
रह-रहकर पिता की बात उसके दिमाग में गूंजती थी कि ‘विद्यादान सबसे बड़ा दान है! इस दान को प्राप्त करके ही सब आगे बढ़ सकेंगे | दान देने वाले को भी अभूतपूर्व संतोष का धन प्राप्त होता है| इस दान में वह सुख है जो कभी, कहीं भी नहीं मिल सकता है |’
‘माने हर्रे लगे न फिटकरी, और रंग चोखा का चोखा | अपने पिता की बात को समझा लल्ला | अपने पिता की तरह तुम भी अपना ज्ञान बाँटना |’ माँ दुलारती हुई पिता की बात पर मोहर लगा देती थी |
जलजले से आए अचानक गरीबी के कारण शिक्षा से वंचित बच्चों को देखकर पिता का दिया मूल-मन्त्र उसे याद आने लगा था | बस फिर क्या था उसने शहर की नौकरी से इस्तीफा दे दिया था उसी दिन| और अपने गाँव के सारे बच्चों को इकठ्ठा करके एक टूटे-फूटे खंडहर में ही लग गया था विद्या का दान देने |
खंडहर भले ही खंडहर रह गया था | परन्तु बच्चों के मस्तिष्क खण्डहर होने से मुक्त हो रहे थे | कौशल अपनी मेहनत को अँकुरित, पल्लवित, पुष्पित देखकर फूला नहीं समाता था | धीरे-धीरे बच्चें बड़े होकर ऊँचे-ऊँचे ओहदो को सुशोभित करते जा रहे थे |
इतने वर्षो बाद आज वहीं महकते-चहकते बच्चे गाँव में इकट्ठा हुए थे | उन सबने कौशल की बूढी आँखों पर पट्टी बांधकर एक ज्ञान के मन्दिर के सामने लाकर उसे खड़ा कर दिया था |
पट्टी खुलते ही खँडहर को अपनी माँ के नाम से ज्ञान के मंदिर रूप में स्थापित देखकर कौशल के आँखों से अश्रुधारा बहने लगी | और उसके हाथ रौबीले गबरू जवान हो चुके उन चहुँ-दिशा में सुगंध बिखेरते फूलों को आशीर्वाद देने के लिए उठ गए थे |
--००--
सविता मिश्रा ‘अक्षजा'
आगरा
2012.savita.mishra@gmail.com
रह-रहकर पिता की बात उसके दिमाग में गूंजती थी कि ‘विद्यादान सबसे बड़ा दान है! इस दान को प्राप्त करके ही सब आगे बढ़ सकेंगे | दान देने वाले को भी अभूतपूर्व संतोष का धन प्राप्त होता है| इस दान में वह सुख है जो कभी, कहीं भी नहीं मिल सकता है |’
‘माने हर्रे लगे न फिटकरी, और रंग चोखा का चोखा | अपने पिता की बात को समझा लल्ला | अपने पिता की तरह तुम भी अपना ज्ञान बाँटना |’ माँ दुलारती हुई पिता की बात पर मोहर लगा देती थी |
जलजले से आए अचानक गरीबी के कारण शिक्षा से वंचित बच्चों को देखकर पिता का दिया मूल-मन्त्र उसे याद आने लगा था | बस फिर क्या था उसने शहर की नौकरी से इस्तीफा दे दिया था उसी दिन| और अपने गाँव के सारे बच्चों को इकठ्ठा करके एक टूटे-फूटे खंडहर में ही लग गया था विद्या का दान देने |
खंडहर भले ही खंडहर रह गया था | परन्तु बच्चों के मस्तिष्क खण्डहर होने से मुक्त हो रहे थे | कौशल अपनी मेहनत को अँकुरित, पल्लवित, पुष्पित देखकर फूला नहीं समाता था | धीरे-धीरे बच्चें बड़े होकर ऊँचे-ऊँचे ओहदो को सुशोभित करते जा रहे थे |
इतने वर्षो बाद आज वहीं महकते-चहकते बच्चे गाँव में इकट्ठा हुए थे | उन सबने कौशल की बूढी आँखों पर पट्टी बांधकर एक ज्ञान के मन्दिर के सामने लाकर उसे खड़ा कर दिया था |
पट्टी खुलते ही खँडहर को अपनी माँ के नाम से ज्ञान के मंदिर रूप में स्थापित देखकर कौशल के आँखों से अश्रुधारा बहने लगी | और उसके हाथ रौबीले गबरू जवान हो चुके उन चहुँ-दिशा में सुगंध बिखेरते फूलों को आशीर्वाद देने के लिए उठ गए थे |
--००--
सविता मिश्रा ‘अक्षजा'
आगरा
2012.savita.mishra@gmail.com
5 September 2016
at 08:41
Savita Mishra
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