"चप्पल घिस गयी बेटा, एक जोड़ी लेते आना | मैं थक गया हूँ, अब सोऊँगा |"
"पापा! आपका प्रमोशन दो साल से रुका पड़ा है, दे दीजिये न बाबू को हज़ार रूपये | आपकी फ़ाइल वह आगे बढ़ा देगा | आप हैं कि आज के ज़माने में भी उसूलों से बंधे हैं !"
"बेटा, गाढ़े की कमाई है, ऐसे कैसे दे दूँ उसे ? और कोई गलत काम भी तो नहीं करा रहा हूँ !"
"अच्छा पापा, इन बातों में एक बात बताना भूल ही गया |" बैग से कुछ कागज़ निकालता हुआ बोला |
"क्या बेटा ?"
"सरकारी कॉलेज में मेरा एडमिशन हो गया है | लेकिन वहां का बाबू तीस हजार रूपये मांग रहा था |" कहकर कागज़ पिता के हाथ में पकड़ा दिया |
"काहे के तीस हजार...? " कागज़ पकड़ते हुए पिता ने आश्चर्य से पूछा |
"वह कह रहा था कि मैने तुम्हारे एडमिशन के लिए बड़ी मेहनत की है, थोड़ा तो मेहनताना देना ही पड़ेगा | मैंने मना किया, कहा - 'पापा बड़े सिद्धांत वादी हैं' |"
"फिर ..!" गर्व से सीना तानकर बोले |
”हँसने लगा, और फिर कहा कि 'बबुआ, पिता 'सिद्धांत वादी' हैं तब पढ़ना-लिखना भूल ही जाओ | बिना दिए-लिए सरकारी कॉलेज में एडमिशन आसान नहीं है | जाओ ! मूंगफली बेचो|" सिर झुकाकर बेटे ने एक साँस में ही सब कुछ कह डाला |
"तुम्हारा दाखिला तो हो गया है न !" आँखे तरेरकर पिता बोले |
"हाँ, मैंने यही कहा उससे | उसने कई लोगों के नाम गिना दिए | कहा पिछले साल इन सब लड़कों का भी हो गया था | लेकिन मिठाई का डिब्बा दिए बगैर सबका अधर में लटक गया |"कहते हुए नाउम्मीदी चेहरे पर दस्तक दे चुकी थी उसके |
"अच्छा..!" लम्बी सांस छोड़ते हुए बोले |
"......" पांच मिनट की ख़ामोशी के बीच बेटा सिर झुकाए मुलजिम की तरह खड़ा रहा |
“ठीक है, माँ से रूपये लेकर कल दे आना उसे |" कहकर ठंडी साँस छोड़ते हुए नजरें झुका लीं उन्होंने |
"पर पापा ! आपके उसूल !" पिता का झुर्रियों से भरा चेहरा आश्चर्य से देखते हुए बेटे ने कहा |
"मैं तो अपना वर्तमान और भविष्य ! दोनों ही उसूलों में उलझाये रहा, अब तुम्हारा भविष्य बर्बाद होते नहीं देख सकता हूँ |" सिर झुकाए उनके मुख से मरी-सी आवाज़ निकली |
बेटा अब भी असमंजसपूर्ण स्थिति में वहीं खड़ा रहा |
"आजकल सिद्धांतो की रस्सी पर बिना डगमगाए चलना बहुत मुश्किल है |"
--००---
"बेटा, गाढ़े की कमाई है, ऐसे कैसे दे दूँ उसे ? और कोई गलत काम भी तो नहीं करा रहा हूँ !"
"अच्छा पापा, इन बातों में एक बात बताना भूल ही गया |" बैग से कुछ कागज़ निकालता हुआ बोला |
"क्या बेटा ?"
"सरकारी कॉलेज में मेरा एडमिशन हो गया है | लेकिन वहां का बाबू तीस हजार रूपये मांग रहा था |" कहकर कागज़ पिता के हाथ में पकड़ा दिया |
"काहे के तीस हजार...? " कागज़ पकड़ते हुए पिता ने आश्चर्य से पूछा |
"वह कह रहा था कि मैने तुम्हारे एडमिशन के लिए बड़ी मेहनत की है, थोड़ा तो मेहनताना देना ही पड़ेगा | मैंने मना किया, कहा - 'पापा बड़े सिद्धांत वादी हैं' |"
"फिर ..!" गर्व से सीना तानकर बोले |
”हँसने लगा, और फिर कहा कि 'बबुआ, पिता 'सिद्धांत वादी' हैं तब पढ़ना-लिखना भूल ही जाओ | बिना दिए-लिए सरकारी कॉलेज में एडमिशन आसान नहीं है | जाओ ! मूंगफली बेचो|" सिर झुकाकर बेटे ने एक साँस में ही सब कुछ कह डाला |
"तुम्हारा दाखिला तो हो गया है न !" आँखे तरेरकर पिता बोले |
"हाँ, मैंने यही कहा उससे | उसने कई लोगों के नाम गिना दिए | कहा पिछले साल इन सब लड़कों का भी हो गया था | लेकिन मिठाई का डिब्बा दिए बगैर सबका अधर में लटक गया |"कहते हुए नाउम्मीदी चेहरे पर दस्तक दे चुकी थी उसके |
"अच्छा..!" लम्बी सांस छोड़ते हुए बोले |
"......" पांच मिनट की ख़ामोशी के बीच बेटा सिर झुकाए मुलजिम की तरह खड़ा रहा |
“ठीक है, माँ से रूपये लेकर कल दे आना उसे |" कहकर ठंडी साँस छोड़ते हुए नजरें झुका लीं उन्होंने |
"पर पापा ! आपके उसूल !" पिता का झुर्रियों से भरा चेहरा आश्चर्य से देखते हुए बेटे ने कहा |
"मैं तो अपना वर्तमान और भविष्य ! दोनों ही उसूलों में उलझाये रहा, अब तुम्हारा भविष्य बर्बाद होते नहीं देख सकता हूँ |" सिर झुकाए उनके मुख से मरी-सी आवाज़ निकली |
बेटा अब भी असमंजसपूर्ण स्थिति में वहीं खड़ा रहा |
"आजकल सिद्धांतो की रस्सी पर बिना डगमगाए चलना बहुत मुश्किल है |"
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बुदबुदाते हुए वह पलंग पर लेटे ही थे कि चिरनिद्रा ने उन्हें आलिंगनबद्ध कर लिया | सविता मिश्रा 'अक्षजा'
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नया लेखन - नए दस्तखत
9 February 2015
3 comments:
आज की व्यवस्था का एक कटु चित्र...
aisa bhi karna padta hai ....
Vyakti swayam to kuchh bhi sahan kar sakta hai. Kintu Bachcho ke har samjhoto manjoor hai.
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