Sunday 22 May 2022

*रिश्तों की सच्चाई को संवेदना के स्तर पर उधेड़ती सशक्त लघुकथाएं* समीक्षा

 2 वर्ष के बाद पुनः #लघुकथा संग्रह- '#रोशनी_के_अंकुर' की समीक्षा के साथ

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पुस्तक समीक्षा
*रिश्तों की सच्चाई को संवेदना के स्तर पर उधेड़ती सशक्त लघुकथाएं*
समीक्षक: डाॅ. अखिलेश पालरिया
आगरा निवासी सविता मिश्रा 'अक्षजा' का लघुकथा संग्रह- 'रोशनी के अंकुर' समाज में व्याप्त उन तमाम विद्रूपताओं, विषमताओं व असमानताओं का यथार्थ चित्रण है जिन्हें पढ़कर मस्तिष्क उद्वेलित होता है, मन में संवेदनाओं का ज्वार उमड़ता है तो खलनायकों के प्रति आक्रोश भी फूट पड़ता है।
इसमें कोई शक नहीं कि संग्रह का फलक विस्तृत है, जहाँ रोशनी के अंकुर मनमाने तरीके से अवांछित बादलों को चीर कर प्रस्फुटित हो जाते हैं।
इन 101 लघुकथाओं में कुछ का विषय काॅमन जरूर है लेकिन स्वर अलग-अलग हैं जो कभी बाँसुरी की तरह रिश्तों को सहेजते हैं और कभी ढोल-नगाड़ों की भाँति कानों में गूँजते हैं तथा लघुकथाओं की साफगोई व उद्देश्य से पाठकों को परिचित कराते हैं।
लघुकथाओं के केन्द्र में मुख्यतः विवश स्त्रियों की दास्तानें हैं जो कई बार पुरुषों की आक्रामकता पर हथौड़े की तरह वार करती हैं। लगता है, लेखिका समाज की एक जागरूक महिला की तरह अपनी पैनी व सूक्ष्म दृष्टि से घटनाओं के परिप्रेक्ष्य में दुष्टजनों के नंगे बदन पर चाबुक की चोट करती प्रतीत होती हैं। एक पुलिस निरीक्षक की पत्नी सविता जी जिस दबंगता से यह काम शब्दों से बखूबी करती हैं उसे देखते हुए पति-पत्नी दोनों के लिए ताली बनती है।
यह भी सच है कि लेखिका अपनी लघुकथाओं द्वारा रिश्तों को सींचने का काम कर रही हैं- कभी प्रेम से, कभी व्यंग्य तो कभी हास्य से।
संग्रह की 101 लघुकथाओं में 'वैटिकन सिटी' सर्वाधिक मार्मिक बन पड़ी है जिसमें कन्या भ्रूण हत्या को अंजाम देते समय गर्भस्थ शिशु व माँ के बीच संवाद पाठक को झकझोर कर रख देते हैं। प्रस्तुत है लघुकथा के कुछ अंश-
*"माँ-माँ..."*
*"क्या हुआ मेरी बच्ची?"*
*"माँआआअ, सुनो न! तुझे सुलाकर डाॅक्टर अंकल मेरे पैर काटने की कोशिश में लग गए हैं..!"*
*ओ मुए डाॅक्टर! मेरी बच्ची, मेरी लाडली को दर्द मत दे। कुछ ऐसा कर ताकि उसे दर्द न हो! भले मुझे कितनी भी तकलीफ दे दे तू।"*
*माँ मेरा पेट...!"*
*"ओह मेरी लाडली! इतना सा कष्ट सह ले गुड़िया, क्योंकि इस दुनिया में आने के बाद इससे भी भयानक प्रताड़ना झेलनी पड़ेगी तुझे! मुझे देख रही है न! मैं कितना कुछ झेलकर आज उम्र के इस पड़ाव पर पहुँची हूँ। इस जंगल में स्त्रीलिंग होकर जीना आसान नहीं है, नन्ही गुड़िया।"*
*"माँ-माँआआआ, इन्होंने मेरा हाथ..!"*
*"आह! चिंता न कर बच्ची। बस थोड़ा सा कष्ट और झेल ले! जिनके कारण तुझे इतना कष्ट झेलना पड़ रहा है, वो एक दिन 'वैटिकन सिटी' बने इस शहर में रहने के लिए मजबूर होंगे, तब उन्हें समझ आएगी लड़कियों की अहमियत।" तड़प कर माँ बोली।*
*माँ, अब तो मेरी खोपड़ी! आह! माँ! प्रहार पर प्रहार कर रहे हैं अंकल!"*
*"तेरा दर्द सहा नहीं जा रहा नन्हीं! मेरे दिल के कोई टुकड़े करें और मैं जिन्दा रहूँ! न-न! मैं भी आ रही हूँ तेरे साथ!"*
*माँ!"*
*"मैं तेरे साथ हूँ गुड़िया...! वैसे भी लाश की तरह ही तो जी रही थी। स्त्रियों को सिर उठाने की आजादी कहाँ मिलती है इस देश में। तुझे जिंदा तो रख न सकी किन्तु तेरे साथ मर तो सकती ही हूँ! यही सजा है इस पुरुष प्रधान समाज को मेरे अस्तित्व को नकारने की।"*
(पृष्ठ 93-94)
संग्रह में रिश्तों पर आधारित उल्लेखनीय लघुकथाएं हैं- *'आहट', 'प्यार की महक', 'तुरपाई', 'सौदा', रीढ़ की हड्डी', 'ठूंठ', 'पारखी नज़र' , 'एक बार फिर'* आदि।
इसी प्रकार संवेदना के स्तर पर उत्कृष्ट लघुकथाओं में *' वैटिकन सिटी', 'सम्पन्न दुनिया', 'सही दिशा', 'हिम्मत', 'ब्रेकिंग न्यूज', 'पछतावा', 'इंसान ऐसा क्यों नहीं', 'अपनी नज़रों में', 'परिवर्तन', 'परिपाटी'* आदि हैं।
कहना होगा कि लेखिका सविता मिश्रा 'अक्षजा' व्यंग्य ही नहीं, लघुकथा विधा की भी एक सशक्त हस्ताक्षर हैं।
पुस्तक की प्रिंटिंग व बाइंडिंग ठीक है लेकिन बिन्दियों की कई जगह त्रुटियाँ अखरती हैं। कवर पृष्ठ भी अधिक आकर्षित नहीं करता।
लघुकथा संग्रह: *रोशनी के अंकुर*
लघुकथाकार: *सविता मिश्रा 'अक्षजा'*
प्रकाशक: *निखिल पब्लिशर्स एण्ड डिस्ट्रीब्यूटर्स, आगरा*
प्रकाशन वर्ष: *2019*
पृष्ठ: *152*
मूल्य: *₹300*
150/ में इधर अमेजॉन पे उपलब्ध

1 comment:

muhammad solehuddin said...

अच्छी जानकारी !! आपकी अगली पोस्ट का इंतजार नहीं कर सकता!
greetings from malaysia=
let's be friend