Sunday 22 May 2022

चर्चाकार : अनिल शूर आज़ाद

 सरल-सहज तथा अनावश्यक बौद्धिकता से मुक्त लघुकथाएं

चर्चाकार : अनिल शूर आज़ाद
साहित्य-क्षेत्र में इन दिनों लघुकथा विधा की खासी बहार है। बड़ी संख्या में नित नई एकल लघुकथा-पुस्तकें, संपादित संकलन, पत्र-पत्रिकाओं के विशेषांक आदि सामने आ रहे हैं। कोरोना के बावजूद यह सिलसिला थमा नहीं है। बल्कि ऑनलाइन लघुकथा-संगोष्ठियां, वार्ताएं, ई-पत्रिकाएं, ब्लॉग आदि सामने आने से व्यस्तता और बढ़ गई प्रतीत होती है। हर रोज कितने ही नए पुराने साथी ऑनलाइन रूबरू होते देखे जा रहे हैं।
ऐसे अतिव्यस्त दौर में सविता मिश्रा 'अक्षजा' (दूरभाष : 9444418621) का प्रथम लघुकथा-संग्रह 'रोशनी के अंकुर' सामने आया है। पुस्तक में इनकी एक सौ एक लघुकथाएं शामिल हुई हैं। अधिकांश रचनाएं घर-परिवार, रोजमर्रा के सुख-दुख, सफलताओं-विफलताओं, चुनोतियों तथा स्त्री-जीवन आदि के गिर्द बुनी गई हैं - इस विषय-वैविध्य के चलते ये, बतौर लेखिका अक्षजा के उज्ज्वल भविष्य के प्रति आश्वस्त करती हैं। इसका एक कारण यह भी कि लेखिका ने विधा की तकनीक को समझ लिया है।
हां.. 'आत्मकथ्य' में लेखिका ने घोषित किया है कि चार वर्ष के अल्पकाल में "साढ़े तीन सौ से अधिक लघुकथाएं लिख चुके हैं हम या शायद इससे अधिक ही। कई वरिष्ठ-जनों का मार्गदर्शन मिलता रहा जिनके आभारी हैं हम। बड़ों के आशीर्वाद और छोटों के स्नेह से मेरी मंजिल एक न एक दिन मिलेगी ही।" अच्छी बात है। इस संदर्भ में हमेशा की तरह अपनी बात दोहराना चाहता हूं कि साहित्य में मात्रा/संख्या नहीं, स्तर पर सतत जोर रहना जरूरी है। जैसे 'उसने कहा था' जैसी कुछ कालजयी कहानियां उन हज़ार कहानियों पर भारी हैं जो समय के साथ काल-कलवित हो गई। यही लघुकथा पर भी लागू होता है।
पुस्तक की दो भूमिकाएं क्रमशः सर्वश्री अशोक भाटिया तथा श्रवण कुमार उर्मलिया द्वारा लिखी गई हैं। श्रवणजी ने जहां लेखिका में निहित उभरती संभावना को चिन्हित किया है वहीं प्रो. भाटिया ने अपने वक्तव्य की शुरुआत "लघुकथा एक वाक्य से लेकर लगभग एक हजार शब्दों तक की, स्वयं में पूर्ण कथा-रचना है।" पंक्ति से की है। यही कुछ वे गत दो-तीन वर्ष से कहते रहे हैं। संभवतः इसीसे प्रेरित-प्रभावित होकर सविता मिश्रा ने भी "ठंड" जैसी कमजोर रचना को लघुकथाओं में शामिल कर लिया है जिसका आकार चौथे पृष्ठ तक पहुंचता है। लेखिका सहित नई पीढ़ी के तमाम लेखकों को ऐसी रचनाओं को 'लघुकथा' कहे जाने पर भी, पुनर्विचार अवश्य करना चाहिए।
लघुकथाओं की भाषा प्रायः सरल-सहज तथा अनावश्यक बौद्धिकता से मुक्त है एवं इसीलिए ये बेहतर बन पड़ी हैं। वहीं अनेक लघुकथाएं ऐसी भी हैं जिन्हें थोड़ी कसावट के साथ अधिक प्रभावी बनाया जा सकता है। पुनर्प्रकाशन के समय यह अवश्य किया जाना चाहिए। बहरहाल इस प्रथम लघुकथा-संग्रह के लिए बहुत
बधाई
एवं हार्दिक शुभकामनाएं

1 comment:

कविता रावत said...

बहुत अच्छी उत्सुकता जगाती पुस्तक समीक्षा हेतु धन्यवाद, शुभकामनाएं!